प्रजातंत्र या जनतंत्र का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Democracy)
प्रजातंत्र या जनतंत्र का अर्थ एवं परिभाषाएँ- ‘जनतन्त्र’ शब्द का प्रयोग प्राय: हम राजनीतिक अर्थ में ही करते हैं। राजनीतिक दृष्टि से जनतन्त्रीय सरकार जनता की इच्छा पर आधारित होती है। अब्राहम लिंकन (Abraham Lincoln) का प्रसिद्ध कथन “जनतंत्र जनता की, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए सरकार है।” (Democracy is the government of the people, by the people and for the people.) जनतन्त्र जनता के राजनीतिक पक्ष की व्याख्या करता है। कानून की निगाह में सभी व्यक्ति बराबर हैं और सरकार में उनका समान रूप से हाथ होना चाहिए। देश के शासन की बागडोर किसी एक व्यक्ति अथवा कुछ व्यक्तियों के हाथों में न होकर सम्पूर्ण जनता के हाथों में होनी चाहिए।
राजनीतिक जनतन्त्र वस्तुतः जनतन्त्र का केवल एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है-आर्थिक जनतंत्र। आर्थिक जनतन्त्र में सम्पत्ति पर सभी व्यक्तियों का अधिकार होता है। देश की पूंजी सम्पूर्ण जनता के हाथों में रहती है, कुछ गिने-चुने व्यक्तियों के हाथों में नहीं। आर्थिक जन्तन्त्र में सभी व्यक्तियों को अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने एवं तदनुसार अर्थोपार्जन करने की स्वतंत्रता रहती है। आर्थिक शक्ति पूंजीपतियों के हाथों में न होकर जनता के हाथों में रहती है। आर्थिक विकास के लिए जो कार्यक्रम बनाये जाएंगे वे आर्थिक जनतन्त्र में सभी व्यक्तियों के हितों के लिए होंगे। सम्पूर्ण देश के लाभ का ध्यान रखा जाएगा, न कि व्यक्तियों के निजी लाभ का। इस प्रकार सभी व्यक्तियों के सहयोग से देश का आर्थिक विकास होगा।
सामाजिक जनतंत्र भी जनतन्त्र का आवश्यक रूप है। सामाजिक क्षेत्र से जनतन्त्र का अर्थ होगा भेदभावों का अभाव। समाज के विभिन्न वर्ग, जातियां तथा उपजातियां समाज में भेदभाव उत्पन्न करती हैं। समाज के सभी सदस्य समान हैं। उसमें जाति, सम्प्रदाय या वर्ग के आधार पर ऊंच-नीच का भाव रखना जनतन्त्र के प्रतिकूल है। गरीब-अमीर, पूंजीपति-मजदूर आदि के रूप में समाज को विभक्त करना लोकतंत्रीय है।
इस प्रकार, हम देख रहे हैं कि जनतन्त्र केवल एक शासन पद्धति ही नहीं है वरन् यह एक प्रकार की सामाजिक व्यवस्था है। जनतंत्र में प्रत्येक व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण होता है तथा प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित अवसर प्राप्त होते हैं। व्यक्ति को अपनी योग्यता के अनुसार अपने व्यक्तित्व का चरम विकास करने का पूर्ण अधिकार है। जनतन्त्र में सभी व्यक्तियों को अपने विचार प्रकट करने की स्वतंत्रता होती है।
(1) ब्राइस के अनुसार — प्रजातंत्र शब्द का प्रयोग हेरोडोटस के समय से ही ऐसे शासन यंत्र के लिए होता है, जिसमें सत्ता किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष में सीमित न होकर सम्पूर्ण जनता में निहित रहती है।
(2) डायसी के अनुसार प्रजातंत्र वह शासन है जिसमें जनता का अपेक्षाकृत बड़ा भाग शासक होता है।
(3) सीले के अनुसार प्रजातंत्र वह शासन जिसमें प्रत्येक व्यक्ति का एक भाग होता है।
(4) हॉल के अनुसार प्रजातंत्र राजनीतिक संगठन का वह रूप है जिसमें जनमत का नियंत्रण होता है।
जनतन्त्र तथा पाठ्यक्रम (Democracy and Curriculum)
जनतन्त्र राज्य में पाठ्यक्रम की रचना जनतन्त्रीय आदर्शों एवं मूल्यों को प्राप्त करने के लिए की जाती है । अत: जनतन्त्रीय पाठ्यक्रम के अन्तर्गत उन विषयों को मुख्य स्थान दिया। जाता है जिनके अध्ययन से बालकों में उत्तम मनोवृत्तियाँ, उत्तम अभ्यास तथा योग्यता एवं सूझ-बूझ विकसित हो और वे सच्चे नागरिक बनकर सफल जीवन व्यतीत करें। इस दृष्टि से जनतन्त्रीय पाठ्यक्रम निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित होना चाहिए—
1. बहुमुखी (Diversified) – जनतंत्रीय पाठ्यक्रम बहुमुखी होता है। इसके अन्तर्गत स्कूल का सम्पूर्ण कार्यक्रम कक्षा के कार्यकलाप, सहगामी क्रियाएँ, खेल-कूद एवं परीक्षा आदि सभी आ जाते हैं। इस प्रकार जनतंत्रीय पाठ्यक्रम अत्यन्त विस्तृत होता है।
2. स्थानीय आवश्यकताओं पर बल (Emphasis on Local Needs)— जनतंत्रीय पाठ्यक्रम का निर्माण स्थानीय आवश्यकताओं एवं साधनों के आधार पर किया जाता है। इन पाठ्यक्रमों में समय-समय पर स्थान, समय तथा प्रगति एवं आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी किए जा सकते हैं।
3. व्यावसायिक आवश्यकताओं की व्यवस्था (Provision for Vocational Needs)— जनतंत्रीय पाठ्यक्रम जहाँ एक ओर स्थानीय आवश्यकताओं एवं साधनों के आधार पर तैयार किया जाता है वहीं दूसरी ओर यह पाठ्यक्रम व्यावसायिक आवश्यकताओं की भी पूर्ति करता है।
4. क्रिया पर बल (Emphasis on Activity) – जनतंत्रीय पाठ्यक्रम बालकों की बुद्धि को विकसित करने के लिए क्रिया के सिद्धान्त पर बल देता है। इस दृष्टि से इस पाठ्यक्रम में शिक्षक द्वारा बालकों के मस्तिष्क में बने बनाये पूर्ण विचारों, अभिवृत्तियों तथा निष्कर्षों को बलपूर्वक थोपने की अपेक्षा ऐसी क्रियाओं पर बल दिया जाता है जिनमें भाग लेने से सभी बालक अपने निजी अनुभवों द्वारा किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकें ।
5. लचीलापन (Flexibility) — जनतंत्रीय पाठ्यक्रम लचीला होता है। इसमें कुछ आवश्यक विषय तो बुनियादी पाठ्यक्रम के रूप में प्रत्येक बालक को अनिवार्य रूप अध्ययन करने होते हैं। शेष विषयों को व्यक्तिगत विभिन्नता के आधार पर प्रत्येक बालक को अपनी-अपनी रुचियों, योग्यताओं तथा मान्यताओं के अनुसार ऐच्छिक रूप से अध्ययन करने की स्वतंत्रता होती हैं।
6. सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति (Achievement of Social Aims)- जनतंत्रीय पाठ्यक्रम की रचना करते समय सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखा जाता जिससे बालकों में सामाजिक भावना विकसित हो जाए। इस दृष्टि से जनतंत्रीय पाठ्यक्रम सामाजिक संगठन तथा सभाओं आदि को मुख्य स्थान दिया जाता है।
जनतन्त्र तथा शिक्षण पद्धतियाँ (Democracy and Methods of Teaching)
चौक जनतन्त्र में बालक को सृष्टि की अमूल्य निधि समझते हुए उसके व्यक्तित्व का आदर किया जाता है इसलिए जनतंत्रीय समाज में समस्त शिक्षण-पद्धतियाँ बाल केन्द्रित होती हैं। जनतंत्र के आदर्शों, मूल्यों तथा भावनाओं का शिक्षण पद्धतियों पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। निम्नलिखित पंक्तियों में जनतंत्रीय शिक्षण पद्धतियों पर प्रकाश डाला जा रहा है-
1. जनतंत्र का मूल सिद्धान्त क्रियाशीलता तथा प्रगतिशीलता है अतः जनतन्त्रीय समाज में पुराने ढंग से पढ़ाने वाली निष्क्रिय शिक्षण-पद्धतियों की अपेक्षा सक्रिय शिक्षण-पद्धतियों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है।
2. स्वतन्त्रता जनतन्त्र की आत्मा है अतः जनतन्त्रीय शिक्षण-पद्धतियाँ बालकों को स्वयं अपने अनुभवों द्वारा सीखने की स्वतन्त्रता प्रदान करती हैं। मॉन्टेरसी पद्धति, योजना-पद्धति, डॉल्टन पद्धति, ह्यूरिस्टिक-पद्धति तथा प्रयोगशाला पद्धति एवं प्रयोगात्मक पद्धति आदि प्रमुख जतन्त्रीय शिक्षण-पद्धतियाँ हैं। इन सभी शिक्षण-पद्धतियों में बालकों को स्वयं क्रिया के द्वारा ज्ञान को खोजने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है। प्रत्येक बालक को ज्ञान प्राप्त करने के समय शिक्षक से प्रश्न पूछने तथा तर्क एवं आलोचना करने की स्वतंत्रता होती है। उक्त सभी शिक्षण-पद्धतियों का प्रयोग करते समय शिक्षक बालकों को ज्ञान के विस्तृत क्षेत्र में अन्वेषण करने के लिए स्वतन्त्र छोड़ देता है तथा आवश्यकता पड़ने पर मित्र एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में उचित सहायता देते हुए मार्ग दर्शन भी करता रहता है। इस प्रकार जनतंत्रीय शिक्षण-पद्धतियाँ वास्तविक जीवन के अनुभवों द्वारा बालकों में विभिन्न समस्याओं को सुलझाने की योग्यता विकसित करती हैं जिससे वे आगे चलकर सच्चे नागरिक बन सकें।
3. जनतन्त्रीय शिक्षण-पद्धतियों के द्वारा बालकों की बुद्धि को पूर्ण रूप से विकसित किया जाता है। बालकों को जो भी कार्य दिए जाते हैं वे न अधिक सरल होते हैं और न अधिक कठिन ही होते हैं अर्थात् ये कार्य न तो इतने सरल ही होते हैं कि बालकों को सोचना-विचारना ही न पड़े और न ही इतने कठिन होते हैं कि बालक हतोत्साहित हो जाये। इस प्रकार इस तरह बालकों में सोचने-विचारने तथा निर्णय लेने की शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं जो आगे चलकर उन्हें नागरिक के रूप में विभिन्न प्रकार की राजनीतिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक एवं सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सहायता प्रदान करती है।
जनतन्त्र तथा अनुशासन (Democracy and Dicipline)
अनुशासन जनतन्त्र की कुंजी है परन्तु अनुशासन कैसा ? जनतन्त्र तानाशाही अथवा दमनात्मक अनुशासन का खण्डन करते हुए स्वानुशासन पर बल देता है। अतः जनतन्त्रीय स्कूल के बालकों में स्वानुशासन की भावनाओं को विकसित करने के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाता है-
1. जनतन्त्रीय स्कूल में बालक को अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की जाती है इससे अनुशासन हीनता का प्रश्न ही नहीं उठता।
2. जनतन्त्रीय स्कूल में शिक्षा एक तानाशाह अथवा पुलिस का सिपाही नहीं अपित बालकों का मित्र तथा सहानुभूति व्यवहार के द्वारा ऐसे सुन्दर सरल तथा प्रभावपूर्ण वातावरण का निर्माण करना है जिसमें रहते हुए बालकों में अनुशासन की भावना स्वतः विकसित हो जाए।
3. जनतंत्रीय स्कूलों में बालकों को उनके कर्त्तव्यों तथा अधिकारों के प्रति जागरुक किया जाता है तथा उनको सामाजिक क्रियाओं द्वारा सामाजिक नियंत्रण का महत्त्व बताया जाता । इस प्रकार जनतंत्रीय देश में अनुशासन की समस्या का समाधान बल प्रयोग द्वारा नहीं किया जाता अपितु बालकों में ऐसी भावनाओं का विकास किया जाता है जिनसे उनमें स्वानुशासन में रहने की भावना स्वयं ही उत्पन्न हो जाए और वे इसके महत्त्व का अनुभव करने लगें।
4. चूँकि जनतन्त्र की सफलता सुयोग्य एवं सच्चरित्र नागरिकों पर निर्भर करती है इसलिए ऐसी व्यवस्था में प्रत्येक शिक्षक बालक को जनतांत्रिक नागरिक बनाने के लिए समाज तथा अभिभावकों को अधिकाधिक सहयोग प्रदान करता है।
5. जनतन्त्रीय व्यवस्था में प्रत्येक शिक्षक को अपने विषय की पूर्ण योग्यता होती है अतः प्रत्येक बालक को उचित पथ-प्रदर्शन द्वारा इस योग्य बनाने का प्रयास करता है कि वह अपने भावी जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या को आसानी से हल कर सके।
6. जनतन्त्रीय व्यवस्था में शिक्षक प्रत्येक बालक को सृष्टि की पवित्र निधि समझता है अतः वह व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त में विश्वास रखते हुए प्रतयेक बालक के व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए पूर्ण स्वतंत्रता एवं अवसर प्रदान करता है ।
जनतन्त्र तथा स्कूल प्रशासन (Democracy and School-Administration)
जनतन्त्रीय व्यवस्था में स्कूल का प्रशासन जनतन्त्र के आदर्शों एवं मूल्यों पर आधारित होता है इनसे जहाँ एक ओर देश के लिए सुयोग्य तथा चरित्रिक नागरिकों का निर्माण होता है वहीं दूसरी ओर विभिन्न क्षेत्रों के लिए उचित नेतृत्व का प्रशिक्षण भी होता है। परिणामस्वरूप देश उत्तरोत्तर उन्नति के शिखर पर चढ़ता रहता है। जनतन्त्रीय व्यवस्था में स्कूल का प्रशासन परस्पर प्रेम, सहयोग, सहानुभूति एवं सहकारिता के आधार पर चलता रहता है। जनतन्त्रीय व्यवस्था में स्कूल के प्रशासन में निम्न विशेषताएँ पाई जाती हैं-
(i) जनतन्त्रीय व्यवस्था में स्कूल का प्रशासन जनतन्त्रीय भावना पर आधारित होता है। वैसे तो स्कूल का प्रशासन पूर्णतया शिक्षक- मण्डल, प्रधानाचार्य तथा बालकों के सहयोग से चलता है परन्तु इसका अधिकांश भाग शिक्षकों के ऊपर ही होता है। सभी शिक्षक मिल-जुलकर स्कूल की नीति का निर्माण करते हैं, पाठ्यक्रम के निर्माण में सहयोग देते हैं. कला के कार्यों की योजनाएँ बनाते हैं, पुस्तकों का चयन करते हैं तथा रचनात्मक कार्यों का संगठन करते हैं।
(ii) ऐसी व्यवस्था में स्कूल के प्रधानाचार्य तथा प्रबन्धक एवं व्यवस्थापक द्वारा शिक्षकों की उत्क्रमणशीलता (Initiative) को प्रोत्साहित किया जाता है।
(iii) जनतन्त्रीय व्यवस्था में प्रधानाचार्य अपनी योजनाओं को शिक्षकों तथा बालकों पर बलपूर्वक नहीं थोपता अपितु स्कूल का समस्त कार्य सब लोगों की सहयोग की भावना पर आधारित होता है।
(iv) जनतन्त्रीय व्यवस्था में अभिभावकों, शिक्षकों तथा प्रधानाचार्य एवं स्कूल के निरीक्षकों के आपसी सम्बन्ध जनतन्त्रीय भावना पर आधारित होते हैं।
(v) जनतन्त्रीय व्यवस्था में शिक्षा अधिकारियों को शिक्षकों के कार्य की आलोचना करने का अधिकार तो अवश्य होता है परन्तु यह आलोचना व्यंग्य के रूप में न होकर रचनात्मक ढंग से की जाती है।
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