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दर्शन का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, विषय-क्षेत्र एवं विशेषताएँ

दर्शन का अर्थ
दर्शन का अर्थ

दर्शन का अर्थ

(A) भारतीय दृष्टिकोण –‘दर्शन’ शब्द की उत्पत्ति ‘दृश्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘देखना’ है। ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्’ अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए। किस तत्त्व को देखा जाए ? वस्तु का सत्यमुक्त तात्विक स्वरूप, हम कौन हैं ? जगत् का सच्चा रूप क्या है ? प्रश्नों का सुसंगत तथा समुचित उत्तर देना दर्शन का मुख्य कार्य है।

दर्शन को शास्त्र भी कहा जाता है। ‘शास्त्र’ शब्द का उद्गम दो धातुओं से माना जाता है-‘शास्’ अर्थात् आज्ञा करना तथा ‘शंस’ अर्थात् प्रकट करना या वर्णन करना।

(B) पाश्चात्य दृष्टिकोण – दर्शन अंग्रेजी भाषा के ‘फिलोसफी’ (Philosophy) शब्द का रूपान्तर है । इस शब्द की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों ‘फिलोस’ (Philos) तथा ‘सोफिया’ (Sophia) से हुई है। ‘फिलोस’ का अर्थ है, ‘अनुराग’ और ‘सोफिया’ का अर्थ है, ‘ज्ञान’। इस प्रकार दर्शन का अर्थ है ज्ञान के प्रति अनुराग।

दर्शन के अर्थ को जानने के लिए आवश्यक है कि विद्वानों द्वारा दी गई उनकी परिभाषाओं पर संक्षेप में चर्चा की जाए। इसी हेतु दर्शन की कुछ प्रमुख परिभाषाएँ यहाँ दी जा रही हैं-

दर्शनशास्त्री प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘Republic’ में लिखा है, “वह व्यक्ति जिसे हर प्रकार के ज्ञान के प्रति रुचि है, ज्ञान प्राप्ति की उत्सुकता है और इस दिशा में अपनी उपलब्धियों पर कभी सन्तुष्ट नहीं होता, वास्तविक अर्थ में दार्शनिक कहा जा सकता है।” दूसरे शब्दों में दर्शन का सम्बन्ध ज्ञान से है।

दर्शन की परिभाषा 

दार्शनिक सुकरात के मतानुसार, “जिन्हें सत्य के स्वरूप के ज्ञान की निरन्तर पिपासा रहती है, वे सही अर्थ में दार्शनिक कहलाते हैं।” इसलिए दर्शन सभी प्रकार के विभिन्न ज्ञान राशि की जननी है प्राकृतिक दर्शन, मानसिक दर्शन और समाज दर्शन आदि कुछ प्रसिद्ध ज्ञान की शाखाएँ हैं। इन्हीं में एक शाखा शिक्षा दर्शन भी है, जो वृहत् दर्शन का एक अंग है।

वेबर ने दर्शन के बारे में कहा है, “दर्शन प्रकृति के समग्र रूप की खोज है, वस्तुओं की प्रकृति की एक सर्वव्यापी व्याख्या है। इसी खोज के प्रकाश में मानव स्वयं को समझ सकता है और शेष सृष्टि के साथ अपने सम्बन्धों पर विचार कर सकता है। “

हैण्डरसन के विचार में, “दर्शन ऐसी सबसे जटिल समस्याओं का कठिन, अनुशासित तथा सावधानी के साथ किया हुआ विश्लेषण है जिसका मानव ने कभी अनुभव किया हो।”

फिक्टे का कथन है कि “दर्शन ज्ञान का विज्ञान है।”

काण्ट के अनुसार, “दर्शन ज्ञान का विज्ञान तथा आलोचना है।”

रेमॉण्ट के शब्दों में, “दर्शन सतत् प्रयास है जो कि विशेष तथ्यों के पीछे छिपे सत्य पर विचार करता है तथा सत्य की खोज करता है।”

डॉ. एस. राधाकृष्णन् के कथनानुसार, “दर्शन वास्तविकता के स्वरूप की तर्कसंगत खोज है।”

सिसरो के विचार में, “दर्शन सभी कलाओं की जननी है और मन की सच्ची औषधि है ।”

अशिस्टाप्स ने लिखा है, “किसी भी समाज में सहजता का अनुभव करने की योग्यता दर्शन है। “

हेरॉल्ड टाइट्स के मतानुसार, “व्यक्ति का दर्शन उसके आधारभूत विश्वासों एवं धारणाओं का समूह है।”

दर्शन का अर्थ है ज्ञान की पिपासा, सत्य के स्वरूप की खोज, आत्मा, शरीर, ईश्वर तथा दृश्य जगत् आदि तत्त्वों के बारे में जानकारी प्राप्त करना। मैं कौन हूँ? इस ब्रह्माण्ड में मेरी स्थिति क्या है ? मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? जीवन क्या है ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर जानना ही दर्शन है।

दार्शनिक दृष्टिकोण की प्रकृति अथवा विशेषताएँ

(1) विस्मय की भावना का होना- घटनाओं के प्रति आश्चर्य प्रकट करना

(2) सन्देह- व्यक्ति का प्रत्येक बात को सन्देह की दृष्टि से देखना

(3) मीमांसा- किसी की बात करके ही उसे मान्यता प्रदान करना

(4) चिन्तन- किसी की बात का चिन्तन करना

(5) तटस्थतता- किसी भी विषय स्वतन्त्रता से विचार करना, अन्धविश्वासी  न होना

दर्शन का विषय-क्षेत्र (Scope of Philosophy)

दर्शन के विषय क्षेत्र बहुत विस्तृत हैं। मोटे तौर पर इसका विषय-क्षेत्र निम्नलिखित है-

1. तत्त्व मीमांसा (Metaphysics or Problems of Being) – यह सत्य के स्वरूप की खोज है। आत्मा, शरीर, काल और दृश्य जगत् तत्त्व क्या है ? इसका उत्तर ढूँढ़ने का चिन्तन इसमें किया जाता है ।

2. ज्ञान मीमांसा (Epistemology or Knowledge)- इसके अन्तर्गत ज्ञान के स्वरूप पर विचार किया जाता है और इसकी वैधता का विवेचन करता है।

3. कर्म मीमांसा (Axiology or Values)- इसके अन्तर्गत तात्कालिक एवं अन्तिम मूल्यों के प्रश्नों पर विचार किया जाता है। श्रेष्ठ क्या है ? सुन्दर क्या है ? आदि। सामाजिक, नैतिक तथा धार्मिक विषय इसके कार्य-क्षेत्र में आते हैं।

दर्शन का विषय-क्षेत्र

(1) तत्त्व मीमांसा

(i) आत्मा सम्बन्धी ज्ञान

(ii) ईश्वर सम्बन्धी ज्ञान

(iii) सत्ता सम्बन्धी ज्ञान

(iv) सृष्टि- उत्पत्ति सम्बन्धी ज्ञान

(2) ज्ञान मीमांसा

सत्य-ज्ञान की प्रामाणिकता

(3) कर्म मीमांसा अथवा मूल्य

(i) नीतिशास्त्र

(ii) तर्कशास्त्र

(iii) सौन्दर्यशास्त्र

तत्त्व मीमांसा की शाखाएँ

(1) सत्ता मीमांसा

इसका सम्बन्ध इस प्रकार के प्रश्नों से है-

(i) ब्रह्माण्ड के शाश्वत तत्त्व कौन-से हैं?

(ii) ब्रह्माण्ड के तत्त्वों का परस्पर सम्बन्ध क्या है?

(2)ब्रह्माण्ड विज्ञान

इसमें निम्न प्रकार के प्रकरण हैं-

(i) क्या ब्रह्माण्ड एक है?

(ii) क्या ब्रह्माण्ड आध्यात्मिक तत्त्वों से निर्मित है ?

(3)सृष्टि विज्ञान

इसमें इस प्रकार के विषय हैं-

(i) ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति कैसे हुई है ?

(ii) क्या ब्रह्माण्ड का निर्माण किया गया है ?

कर्म मीमांसा अथवा मूल्य

(1) नीतिशास्त्र

1. अच्छा क्या है?

2. बुरा क्या है?

3. अच्छा व्यवहार क्या है?

(2) तर्कशास्त्र

1. तार्किक विचार अथवा चिन्तन की क्या प्रकृति है?

2. आगमन विधि तथा निगमन विधि का सम्बन्ध

(3) सौन्दर्यशास्त्र

1. सुन्दरता का मानदण्ड क्या है ?

2. कुरूपता क्या है?

दर्शन के विचाराधीन अथवा विषय-क्षेत्र में मुख्य प्रश्न

(1) ज्ञान क्या है?

(2) सत्य क्या है?

(3) वास्तविकता क्या है?

(4) ब्रह्माण्ड क्या है?

(5) ब्रह्माण्ड एक या अनेक है?

(6) क्या सृष्टि की रचना हुई है?

(7) क्या सृष्टि शाश्वत है?

(8) सृष्टि की रचना का उद्देश्य क्या है?

(9) मैं कौन हूँ?

(10) आत्मा का शरीर के साथ क्या सम्बन्ध है?

(11) अच्छा अथवा बुरा क्या है?

(12) स्वीकार्य तथा अस्वीकार्य का मानदण्ड क्या है?

(13) सौन्दर्य क्या है ? उसकी प्रकृति क्या है?

दर्शन की मुख्य सामाजिक विज्ञान शाखाएँ (Main Types of Social Sciences of Philosophy)

विभिन्न सामाजिक विज्ञानों की दार्शनिक समस्याओं ने दर्शन की निम्नलिखित मुख्य शाखाओं को जन्म दिया है—

(i) सामाजिक दर्शन (Social Philosophy), .

(ii) राजनीतिक दर्शन (Political Philosophy),

(iii) अर्थशास्त्र का दर्शन ( Philosophy of Economics),

(iv) इतिहास का दर्शन ( Philosophy of History);

(v) शिक्षा का दर्शन ( Philosophy of Education)।

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