आदर्शात्मक दृष्टिकोण से शिक्षा के उद्देश्य
किसी भी सार्थक कार्य को करने से पहले उसकी योजना बनाई जाती है और योजना में प्रथम होता है और सर्वमान्य अर्थ में शिक्षा एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रक्रिया का अर्थ क्रिया प्रधान अर्थात् कार्य है। कार्य का अर्थ है करने योग्य, तो कोई भी क्रिया करने योग्य तभी होती है जब उसकी वांछनीयता स्पष्ट हो। इसके लिए आवश्यक है कि क्रिया के पूर्व उसके उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं। शिक्षा के उद्देश्यों का निर्धारण करने में किसी भी देश के सामाजिक, राजनीतिक दर्शन व राजनीतिक शिक्षा-प्रणाली की महती भूमिका होती है। चूँकि भारत एक जनतांत्रिक धर्म निरपेक्ष समाजवादी देश है।
मनुष्य शिक्षा क्यों प्राप्त करता है तथा इसे प्राप्त करके वह कहाँ पहुँचना चाहता है ? जब किसी परिस्थिति में शिक्षा का अर्थ किसी प्रशिक्षण से लिया जाता है तो स्पष्ट है कि जीवन में स्थापित होने के लिए उस व्यवसाय में लगना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है जिसके लिए वह प्रशिक्षण लिया जा रहा है। व्यक्ति जीविकोपार्जन के योग्य बन सके जिससे वह भविष्य में अपना व अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके, जिससे वह सुखी व सम्पन्न जीवन बिता सके, इसी उद्देश्य से वह शैक्षिक योग्यता प्राप्त करता है। शिक्षा एक प्रक्रिया के रूप में भी व्यक्ति को जीवन में सामंजस्य स्थापित करने में सहायक होती है और व्यक्ति सामंजस्य तभी स्थापित कर सकता है जब उसकी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके ।।
उद्देश्य शब्द संस्कृति के दो शब्द उत् तथा दिशू से मिलकर बना है। उत् का अर्थ है ऊपर की ओर, दिश् का अर्थ है दिशा दिखाना । अतः उद्देश्य का शाब्दिक अर्थ हुआ उच्च दिशा का संकेत अर्थात् कहा जा सकता है कि वांछित दिशा की ओर संकेत करना ही उद्देश्य है। शिक्षा के उद्देश्य से तात्पर्य उस वांछित परिणाम की ओर इंगित करना है जिस तरह पहुँचने का प्रयास शैक्षिक प्रक्रिया द्वारा किया जाता है। प्राचीन काल से अब तक देश, काल और परिस्थिति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन होता रहा है। अब तक इसके निश्चित या अंतिम उद्देश्य निर्धारित नहीं हो सके न ही यह कहा जा सकता है कि शिक्षा के उद्देश्य परिवर्तनशील नहीं हैं। अरस्तु ने इस ओर संकेत करते हुए लिखा है कि, “इस विषय पर एक मत नहीं है कि बालक को क्या सीखना चाहिए ।” “There is no agreement as what the child should learn.”
प्रो. हॉर्नी ने कहा है कि, “शिक्षा का कोई अंतिम उद्देश्य नहीं है जो कि छोटे उद्देश्यों को शामिल करें।” (“There is no final aim of education subordinating the lesser aims.”
रॉस का विचार है कि, “दुर्भाग्यवश यह कहना सत्य है कि इन मौलिक प्रश्नों का कोई सर्वमान्य उत्तर नहीं है ?” “It is unfortunate true that there is no universally agreed answer to these fundamental questions.”
सामाजिक परिवर्तन में अध्यापक की भूमिका (Role of Teacher in Social Change)
समाज में शिक्षा चाहे औपचारिक साधन द्वारा प्रदान की जाये या अनौपचारिक साधन द्वारा शिक्षा देने का उत्तरदायित्व अध्यापक के ऊपर होता है। उसके सहयोग के बिना शिक्षा का कोई कार्य सफल नहीं हो सकता। सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में भी अध्यापक की भूमिका निम्नलिखित है-
1. अध्यापक को सामाजिक परिवर्तन को सुनियोजित गति व दिशा प्रदान करनी चाहिए।
2. बालक के व्यक्तित्व का विकास करना जिससे वह नवीन समाज की संरचना में अपना सहयोग दे सके।
3. अध्यापक का निष्पक्ष व समान व्यवहार होना चाहिए जिससे वह सभी को समान अवसर व सुविधाएँ प्रदान कर सकें। इससे समाज आधुनिकीकरण की ओर अग्रसारित होगा।
4. समाज में विद्यमान संकीर्णता व पिछड़ेपन को दूर करके नवीन आदर्शों व मूल्यों को प्रतिष्ठित करना।
5. बालकों को सामाजिक परिस्थितियों के कारण उच्चता की भावना व निम्नता की भावना को पनपने नहीं देना चाहिए।
6. समाज की प्रौद्योगिक प्रगति व वैज्ञानिक विकास में सक्रिय योगदान देना चाहिए।
7. पाठ्यक्रम में विज्ञान व तकनीकी के विषयों को महत्वपूर्ण स्थान देना चाहिए।
8. शिक्षक को समाज के क्रिया-कलापों से अवगत होना चाहिए व समाज की गतिविधियों का नेतृत्व करना चाहिए।
9. सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शिक्षकों को कक्षा के बाहर भी शिक्षण करना चाहिए और समाज को विचार एवं क्रिया में नेतृत्व प्रदान करना चाहिए।
10. समाज में परिवर्तन लाने की दृष्टि से समाज की माँग के अनुसार शिक्षकों को नागरिकों में भावात्मक एवं राष्ट्रीय एकता तथा अंतर सांस्कृतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय भावना का विकास करना चाहिए। इससे समाज तथा देश के आधुनिकीकरण को बल मिलेगा। अतः सामाजिक परिवर्तन में शिक्षक का कार्य महत्त्वपूर्ण है।
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