मानवीय मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता
भारत अपनी कला, संस्कृति तथा दर्शन आदि की गौरवशाली परम्पराओं पर सदैव गर्व करता रहा है परन्तु आज अनास्था तथा पारस्परिक अविश्वास के वातावरण में हमारी प्राचीन परम्पराग एवं मूल्य धूमिल हो गये हैं। आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा, अस्तित्ववादी जीवन, अनात्मपरक नास्तिकता, पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण तथा कुतर्क प्रधान चिन्तन आदि के कारण अतीत में अविश्वास एवं स्व में अनास्था आदि कारणों से हमारे पुराने मूल्य प्रदूषित हो गये हैं। स्वयं पर अनास्था का परिणाम है- आत्मनाश अर्थात् अपने आदर्शों एवं मूल्यों, अपनी सांस्कृतिक विरासत, अपनी चिन्तन प्रणाली का परित्याग कर उसके स्थान पर बाहरी या विदेशी चिन्तन प्रणाली को सम्मिलित करना। इसके फलस्वरूप हमारे मूल्य दब से गये हैं। वस्तुत: वे पूर्णत: नष्ट नहीं हुए हैं वरन् विघटित हो गये हैं। मानव नारी का सम्मान करना चाहता है परन्तु कर नहीं पाता। वह झूठ, चोरी, डकैती आदि को गलत मानता है परन्तु मन में उतार नहीं पाता। वह समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति आक्रोश प्रकट करता है परन्तु भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं कर पाता। इस प्रकार आज का प्रत्येक भारतीय संक्रान्ति काल से होकर गुजर रहा है। दूसरे शब्दों में, कभी वह पुरातन मूल्यों की ओर झुकता है तो कभी आधुनिकता की भ्रामक अवधारणा की ओर जाता है फिर रुककर आत्म चिन्तन करता है।
उक्त वातावरण ने मानवीय मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता की ओर सभी का ध्यान आकृष्ट कर लिया है। हमने संक्रमण काल में कर्त्तव्य या कार्य संस्कृति के स्थान पर उपभोक्ता संस्कृति को अपना लिया है। इस उपभोक्ता संस्कृति (Consumer culture) ने मानवीय मूल्यों की शिक्षा की आवश्यकता को और भी प्रबल बना दिया है।
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