शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लिये भारतीय संविधान में प्रावधान
लोकतान्त्रिक समाजवादी राष्ट्र भारतवर्ष में शिक्षा का संवैधानिक प्रावधान, सन् 1950 करते समय संविधान की धारा-29 में सभी के शैक्षिक अधिकारों को सुनिश्चित किया गया। संविधान में यह स्पष्ट लिखा गया कि, लोकतान्त्रिक भारत में जाति, धर्म तथा स्तर की परवाह किये बिना सभी को अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने के लिये समान अवसर प्रदान करने चाहिये। संविधान की धारा-46 में यह लिखा गया कि राज्य के कमजोर वर्गों, विशेषकर अनुसूचित जाति एवं जनजाति की शैक्षिक तथा आर्थिक उन्नति करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। इसी सन्दर्भ में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1949) ने अपने सुझाव प्रस्तुत करते हुए कहा, “शिक्षा सामाजिक स्वतन्त्रता का एक महान यन्त्र है, जिसके द्वारा प्रजातन्त्र स्थापित होता है और अपने नागरिकों में समानता का प्रस्फुटन करता है।”
भारतीय संविधान में संस्कृति तथा शिक्षा सम्बन्धी अधिकारों के विषय में निम्नलिखित कहा गया है- संविधान की धारा 45 में छात्रों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है। राज्य इस संविधान के प्रारम्भ से 10 वर्ष की कालावधि के भीतर सभी छात्रों को 14 वर्ष की अवस्था समाप्ति तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिये उपबन्ध कराने का प्रयास करेगा। इस धारा में सार्वभौम निःशुल्क शिक्षा व्यवस्था करने का संकल्प लिया गया है। यह धारा संविधान का उल्लंघन नहीं करती एवं विद्यालयों को सरकार से अनुदान प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करती है। अनुच्छेद 30 (1) के अधीन सरकार अपना लक्ष्य सरकारी तथा सहायता प्राप्त विद्यालयों के सहयोग से प्राप्त कर सकती है-
(1) शिक्षा जनसाधारण को सुलभ कराना। (2) उनके जीवन को समुन्नत करना।
पहले उद्देश्य के अनुसार औपचारिकेत्तर शिक्षा को छात्रों की आवश्यकताओं से इस प्रकार जोड़ें कि वे अपनी सुविधा एवं समय के अनुसार ज्ञान अर्जन कर सकें, जैसे-
(1) ऐसे छात्र/छात्राओं को समझा-बुझाकर औपचारिकेत्तर शिक्षा केन्द्र तक लाना जो परिस्थितिवश या तो पढ़लिख न सके हों या बीच में शिक्षा छोड़कर घर पर बैठ गये हों।
(2) समय एवं स्थान का निर्धारण उनकी सुविधा के अनुसार हो।
(3) उनके मन की इस ग्रन्थि को समाप्त किया जाय कि उनसे छोटे छात्र पढ़ने में कैसे आगे हैं तथा हम पीछे कैसे हैं?
(4) उन्हें स्नेह एवं सहानुभूति की आवश्यकता है ताकि उनकी मानसिक स्थिति नकारात्मक दृष्टि की न बन जाय।
(5) दिनभर के थके व्यक्तियों को केन्द्र पर पढ़ाने के लिये रुचिकर वातावरण सृजित किया जाये।
(6) रोजी-रोटी अर्थात् व्यवसाय हेतु भी मार्ग प्रशस्त किया जाय, जिससे कमाकर खाने की क्षमता उनमें उत्पन्न हो जाये।
(7) समाज में व्याप्त अन्धविश्वासों तथा रूढ़ियों को समाप्त करने के उद्देश्य से छात्राओं के माता-पिता को समझायें तथा छात्राओं को केन्द्र पर लायें। उनके लिये सिलाई-बुनाई या अन्य व्यावसायिक शिक्षा प्रदान की जाय।
(8) साक्षरता द्वारा ग्राम्य जीवन की संस्कृति तथा सामाजिक वातावरण में परिवर्तन करें और उसे अनुकूल बनायें।
(9) अपना घर, जमीन, पड़ोस तथा गाँव नहीं छूटे तथा आत्म-निर्भर बने रहें, इसके लिये शिक्षा विकसित की जानी चाहिये।
(10) छात्र/छात्राएँ अपने पर्यावरण को समझ सकें। स्वास्थ्य तथा स्वच्छता के प्रति सम्वेदनशील बने रहें, इसके लिये शिक्षा आवश्यक है।
इन सबके लिये खोजपूर्ण दृष्टि एवं तौर-तरीके अपनाये जाने चाहिये तथा अनुसन्धान और विकास के कार्यों को एक ही सिक्के के दो पहलू मानकर कार्य करना चाहिये। अनुसन्धान हेतु गाँवों के शिक्षा केन्द्रों पर ऐसी एजेन्सियाँ कार्य करें, जो शिक्षकों एवं छात्रों के मध्य रहें तथा उनकी दैनिक शिक्षागत आवश्यकताओं को समझें और उन पर खोजपूर्ण कार्य करें एवं उनका व्यावहारिक हल ढूँढ़ें। इसके लिये निश्चय तथा समर्पण की भावना को विकसित किया जाना चाहिये। व्यावहारिक हल को सुलझाने में बड़े उद्योगति एवं समाजसेवी संस्थाओं को भी आर्थिक सहयोग हेतु प्रेरित किया जा सकता है।
शिक्षा संस्थाओं को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से इस दिशा में सही कदम उठाना चाहिये। शिक्षा महाविद्यालय, विश्वविद्यालय के शिक्षा संकाय तथा ये विद्यालय औपचारिक शिक्षा के शैक्षिक पक्षों पर कार्य करें, अनुसन्धान एवं खोजपूर्ण व्यवहार से सामग्री बनायें। प्रशिक्षण को वास्तविकताओं से जोड़ें तथा औपचारिकेत्तर शिक्षा को परीक्षा के जाल से निकाल कर स्वायत्तशासी बनायें, जिसकी मान्यता प्रत्येक क्षेत्र में हो। औपचारिकेत्तर शिक्षा की पाठ्य सामग्री पुस्तकें, बाल साहित्य तथा शिक्षण सामग्री आदि ग्रामीण अंचलों से सम्बन्धित होनी चाहिये। शासन तथा समाज दोनों को सोचकर इसे व्यावहारिक रूप प्रदान करना चाहिये। हमें समर्पण की भावना से इन शैक्षिक कार्यों में जुट जाना चाहिये।
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