जॉन डीवी के विचार- शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षक के सन्दर्भ में
डीवी के अनुसार, “व्यापक अर्थ में शिक्षा जीवन के सामाजिक रूप की अविरलता है।” “Education in its broadest sense, in the means of its social continuity of life.” दूसरे स्थान पर डीवी ने “शिक्षा को पूर्णरूपेण सामाजिक प्रक्रिया बताया है, जिसके प्रमुख दो आधार है, व्यक्तिगत और सामाजिक। व्यक्ति की शक्तियों, रुचियों, योग्यताओं आदि को भी ध्यान में रखकर उसके अनुकूल उसे शिक्षा देनी चाहिये, परन्तु साथ ही साथ उसकी समस्त शक्तियों, रुचियों आदि को सामाजिक मूल्य देना है। बालक की शक्तियों एवं रुचियों का वास्तविक मूल्य वही है, जो समाज उन्हें देता है। सामाजिक वातावरण में ही उनका विकास होता है और उसे अक्षुण्य बनाये रखने में उनकी सार्थकता है।” एक अन्य स्थान पर जॉन डीवी ने शिक्षा को इस प्रकार परिभाषित किया है, “शिक्षा की प्रक्रिया अनुभवों की वृद्धि एवं संशोधन है। शिक्षा व्यक्ति को अपनी कुशलता बढ़ाने के साथ-साथ उन अनुभवों के सामाजिक मूल्यों को बढ़ाने में उत्तरोत्तर सहायता करती है।” “Education is the process of reconstruction or reconstitution of experience, giving it a more socialised value through the medium of increased individual efficiency.”
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि डीवी ने व्यावहारिक ज्ञान पर अधिक बल दिया है, केवल सैद्धान्तिक शिक्षा को अस्वाभाविक तथा बेकार माना है। उसने शिक्षा के अर्थ को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया है-(1) शिक्षा मानव जीवन के लिये आवश्यक है अन्यथा उसके बिना बालक की मूल प्रवृत्तियों पर नियन्त्रण नहीं रखा जा सकता। (2) शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है। समस्त शिक्षा व्यक्ति के द्वारा सामाजिक चेतना में भाग लेने से आगे बढ़ती है। (3) शिक्षा छात्र के विकास से सम्बन्ध रखती है। (4) शिक्षा पुनर्निर्माण की प्रक्रिया है । (5) साध्य से साधन अधिक महत्त्वपूर्ण है।
डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य (Aims of education according to Dewey)
जॉन डीवी ने शिक्षा के अग्रलिखित उद्देश्य बताये हैं-
(i) अनुभवों के पुनर्निर्माण का उद्देश्य (Aims of reconstruction of experience)- डीवी के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य पूर्व में निश्चित होने चाहिये अर्थात् बालक की प्रत्येक क्रिया का कोई न कोई उद्देश्य होता है अर्थात् शिक्षा द्वारा बालक के अनुभवों का पुनर्निर्माण होता है।
(ii) वातावरण के साथ अनुकूलन के उद्देश्य (Aims of adaptation with envi ronment) – शिक्षा को बालक का इस प्रकार से विकास करना चाहिये ताकि वह वातावरण के साथ समायोजन कर सके। “शिक्षा की प्रक्रिया अनुकूल की निरन्तर प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य विकास की बढ़ती हुई क्षमता प्रदान करना है।”
(iii) सामाजिक कुशलता की प्राप्ति का उद्देश्य (Aims of to obtain social skill)- बालक समाज का एक अंग है, अत: यह आवश्यक है कि शिक्षा बालक को समाज के अनुरूप ही तैयार करे तथा उसको समाज के प्रति कर्त्तव्यों तथा उत्तरदायित्वों को निभाने का तरीका बताये तभी बालक अपने को समाज में समायोजित कर सकता है।
(iv) उद्देश्य परिवर्तनशील हों (Aims should be dynamic) – सभ्य समाज के साथ-साथ शिक्षा के उद्देश्य को भी बदलते रहना चाहिये ताकि समयानुकूल शिक्षा दी जा सके।
(v) स्वीकारात्मक नैतिकता- स्वीकारात्मक नैतिकता का विकास भी बालक के विकास में सहायक है, जिसको शिक्षा के द्वारा ही पूर्ण किया जा सकता है, इससे बालक की सामाजिक कुशलता में वृद्धि होती है।
डीवी के अनुसार पाठ्यक्रम (Curriculum according to Dewey)
डीवी ने पाठ्यक्रम को भी कुछ सिद्धान्तों के आधार पर निश्चित किया है, जिसके लिए आवश्यक है कि बालक के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखा जाय। अतः उसने निम्नलिखित सिद्धान्त प्रतिपादित किये-
(i) रुचि का सिद्धान्त (Principle of interest) – पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की रुचियों के आधार पर किया जाना चाहिये, जिससे उसकी विशिष्टताओं को विकसित किया जा सके। इसके लिये जितने सम्भव हो सकें विविध विषयों को सम्मिलित किया जाना चाहिये। इसीलिये डीवी ने पाठ्यक्रम के निर्माण के समय भूगोल, इतिहास, कला, विज्ञान, गणित, भाषा, संगीत, कला आदि को सम्मिलित किया।
(ii) उपयोगिता का सिद्धान्त (Principle of utility)- रुचि की प्रधानता के साथ-साथ पाठ्यक्रम साधारण जीवन में भी उपयोगी होना चाहिये, जिससे बालक अपने जीवन में आने वाली समस्याओं का समाधान कर सके तथा वातावरण में अपने को समायोजित कर सके। इस प्रकार पाठ्यक्रम व्यावहारिक ज्ञान देने वाला होना चाहिये।
(iii) क्रियाशीलता का सिद्धान्त (Principle of activity)- पाठ्यक्रम बालक के अनुभवों, क्रियाओं तथा भावी जीवन की तैयारियों से सम्बद्ध होना चाहिये। डीवी का विचार है, “विद्यालय समुदाय का अंग है, इसलिये यदि ये क्रियाएँ समुदाय की क्रियाओं का रूप ग्रहण कर लेंगी तो ये क्रियाएँ बालक में नैतिक गुणों तथा स्वतन्त्रता के दृष्टिकोण का विकास करेंगी। साथ ही ये उसे नागरिकता का प्रशिक्षण भी देंगी और उसके आत्मानुशासन को ऊँचा उठायेंगी।”
(iv) एकीकरण का सिद्धान्त (Principle of integration)-प्रयोजनवादी डीवी के अनुसार शिक्षा में ज्ञान का एकीकरण होना चाहिये। ज्ञान पूर्णरूप से देना चाहिये, खण्ड-खण्ड करके ज्ञान नहीं देना चाहिये।
इस प्रकार संक्षिप्त रूप में पाठ्यक्रम लचीला, बाल केन्द्रित (Child Centred) होना चाहिये।
डीवी के अनुसार विद्यालय और शिक्षक (School and teacher according to Dewey)
डीवी ऐसे विद्यालयों की निन्दा करता है जिनमें बालक के प्रति कठोरता का व्यवहार किया जाता है और परम्परागत पाठ्यक्रम का सहारा लेकर केवल किताबी ज्ञान दिया जाता है। वह अव्यावहारिक देने वाले विद्यालयों को बेकार समझता है।
इसके स्थान पर डीवी स्वतन्त्र तथा सामाजिक वातावरण वाले विद्यालय को प्राथमिकता प्रदान करता है। विद्यालय का प्रयोगात्मक होना अति आवश्यक है। उनके अनुसार, “विद्यालय को सामाजिक अनुभवों की प्रयोगशाला होना चाहिये, जहाँ बालक परस्पर सम्पर्क द्वारा जीवन-यापन की सर्वोत्तम प्रणालियाँ सीख सकें।”
डीवी शिक्षक को महत्त्वपूर्ण स्थान देता है। उसके अनुसार शिक्षक एक सम्मिलित व्यक्ति है, जो उपयोगी शिक्षण-विधि द्वारा बालक के सर्वांगीण विकास में सहायक होता है तथा एक पथ-प्रदर्शक के रूप में कार्य करता है। वह एक चतुर बढ़ई के समान है, जो अपनी बुद्धि के आधार पर लकड़ी का सर्वोत्तम उपयोग करता है।
जॉन डीवी की रचनायें
डीवी की आधुनिक शैक्षिक विचारों पर आधारित श्रेष्ठ कृतियाँ निम्नलिखित हैं (1) डेमोक्रेसी एण्ड एजूकेशन, (2) स्कूल एण्ड सोसाइटी, (3) हाउ वी थिंक, (4) एजूकेशन टुडे, (5) माई पेडागोजिक क्रीड, (6) रिकन्स्ट्रक्शन इन फिलोसोफी, (7) क्वेस्ट फोर सरटेनरी, (8) इन्ट्रेस्ट एण्ड एफर्ट इन एजूकेशन, (9) दी चाइल्ड एण्ड दी करीक्युलम आदि।
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