रूसो के शिक्षा सम्बन्धी विचार (The views of Rouseau related to education)
रूसो बालक के प्राकृतिक विकास में विश्वास रखता है। वह नहीं चाहता है कि बालक को अध्यापकों के निर्देशों पर चलाया जाय तथा किताबी ज्ञान को उसने अनुचित बताया है। रूसो ( Rousseau) के अनुसार – “प्रत्येक वस्तु जो प्राकृतिक है, अच्छी है, परन्तु मनुष्य के हाथों खराब हो जाती है।” “Every thing is good as it comes from the hands of another of Nature (The creator ) but every thing degenerates in the bands of man.” उसका विचार है कि “प्रत्येक बालक को सभ्य की अपेक्षा प्राकृतिक मानव होना आवश्यक है क्योंकि उसका प्राकृतिक वातावरण में अच्छा विकास हो सकेगा। कृत्रिम वातावरण उसकी प्राकृतिक उन्नति में बाधा डालता है।”
1. शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)- रूसो द्वारा वर्णन किये गये शिक्षा के अर्थ को पाल मुनरो ने अपने शब्दों में इस प्रकार वर्णित किया है-“शिक्षा एक कृत्रिम प्रक्रिया न होकर प्राकृतिक प्रक्रिया है। यह एक आन्तरिक विकास है न कि बाहर से होने वाली वृद्धि। यह विकास आन्तरिक प्रकृति दत्त शक्तियों तथा रुचियों के क्रियाशील होने से होता है न कि किसी बाहरी शक्ति की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप । यह प्राकृतिक शक्तियों का प्रसार है, न कि ज्ञान की प्राप्ति। ये सभी विचार रूसो की आधारभूत शिक्षा का निर्माण करते हैं।” इस प्रकार हम देखते हैं कि रूसो कृत्रिमता में बिल्कुल विश्वास नहीं रखता है। वह चाहता है कि बालक को प्रकृति में स्वतन्त्र रूप से छोड़ दिया जाये तथा उसके प्राकृतिक विकास में किसी प्रकार की बाधा न डाली जाये।
2. शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education)- रूसो शिक्षा द्वारा निम्नलिखित उद्देश्यों की पूर्ति आवश्यक समझता है- (1) शिक्षा बालक को प्राकृतिक वातावरण प्रदान करने में सहायक हो। (2) बालक के शारीरिक विकास में स्वाभाविकता लाये। (3) बाल्यावस्था की शिक्षा अनुभवों पर आधारित हो। (4) किशोरावस्था में बालक के बौद्धिक विकास पर ध्यान दिया जाये। (5) पुस्तकीय ज्ञान की अपेक्षा’ करके सीखने’ तथा ‘ निरीक्षण’ पर बल देना चाहिये। (6) युवावस्था में आध्यात्मिक विचारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिये। (7) शिक्षा द्वारा पूर्ण वैयक्तिकता का विकास होना चाहिये।
3. पाठ्यक्रम (Curriculum)- रूसो निश्चित पाठ्यक्रम का विरोधी था, वह चाहता था कि पाठ्यक्रम लचीला (flexible) बालक की रुचियों, योग्यताओं के आधार पर (Child Centred) होना चाहिये तथा बालक की शिक्षा तथा आयु के स्तर के साथ-साथ बदलता रहना चाहिये।
4. शिक्षण की विधियाँ (Methods of teaching)- प्रमुख शिक्षाशास्त्री रूसो ने विद्यालयी शिक्षण हेतु निम्नलिखित विधियाँ बतलार्थी हैं- (1) शिक्षण में करके सीखने की विधि उत्तम है। (2) क्रिया पद्धति को भी अपनाया जाना चाहिये। (3) पदार्थों का ज्ञान स्थूल रूप में देना चाहिये। (4) खेल पद्धति भी शिक्षण की सुगम विधि है। (5) अनुभव तथा निरीक्षण विधि भी शिक्षा में सहायक हो सकती है। शिक्षण विधियाँ ऐसी हों जो बालक के विकास में बाधा न छालें अर्थात् ये सुगम तथा लाभदायक होनी चाहिये।
5. अनुशासन (Discipline)- रूसो प्राचीन अनुशासन के ढंग का विरोध करता है। उसके अनुसार-“बच्चों को दण्ड नहीं दिया जाना चाहिये। स्वतन्त्रता अच्छी चीज है।” अतः आन्तरिक अनुशासन की व्यवस्था होनी चाहिये, यदि बच्चा गलती करता है, तो प्रकृति उसको स्वयं दण्ड देगी या फिर वह गलती नहीं करेगा; जैसे- बच्चा यदि आग को छूता है तो वह जल जायेगा और भविष्य में कभी आगे को नहीं छूयेगा। परन्तु कभी-कभी उसे अपराध से अधिक दण्ड प्राप्त होता है जैसे-यदि वह छत से गिर जाता है तो उसका दण्ड मृत्यु दण्ड हुआ और जब बालक ही नहीं रहेगा तो शिक्षा किसको दी जायेगी ? उसके अनुसार प्रकृति उसे स्वयं ही दण्ड दे देगी।
6. विद्यालय (School)- वह नहीं चाहता है कि विद्यालय एक कृत्रिम तथा कठोर बन्धनों वाली संस्था हो, बल्कि विद्यालय ऐसा हो जिसमें बालक के विकास के लिए उचित वातावरण होना चाहिये। बालक को स्वतन्त्र वातावरण दिया जाना चाहिये। वह न तो निश्चित पाठ्यक्रम चाहता है, न ही समय सारणी। इसी के प्रभाव के कारण इंग्लैण्ड के सभी पब्लिक स्कूलों में स्वशासन प्रणाली प्रचलित है।
7. शिक्षक (Teacher)- रूसो के अनुसार शिक्षक बालक की पृष्ठभूमि होनी चाहिये अर्थात् उसने बालक को प्रमुख तथा शिक्षक को गौण माना है। उसने प्रकृति को ही बालक का सच्चा शिक्षक माना है। शिक्षक को केवल यह चाहिये कि बालक के स्वाभाविक विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण करे।
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