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बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास | बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास
बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional Development During Childhood)

कोल और ब्रिज ने लिखा है, “बाल्यावस्था, संवेगात्मक विकास की अनोखी नकल है।” इस अवस्था में बालक-बालिकाओं में संवेगों की अभिव्यक्ति विशिष्ट प्रकार से होने लगती है। क्रो एवं क्रो का विचार है, “बाल्यावस्था के सम्पूर्ण वर्षों में संवेगों की अभिव्यक्ति में निरन्तर परिवर्तन होते हैं।” चूँकि शैशवकाल की भाँति उनके संवेगों में तीव्रता व उग्रता नहीं होती, इस कारण वे संवेगों की अभिव्यक्ति पर नियन्त्रण करना सीख जाते हैं। बाहर उनका व्यवहार उतना उग्र नहीं होता जितना कि घर पर। इस अवस्था में उनकी संवेगात्मक अभिव्यक्ति सुखद होती है। बालक प्रसन्नता से लोट-पोट हो जाता है और खुलकर हँसता है, परन्तु उसकी यह अभिव्यक्ति परिपक्व नहीं होती। वह उनके उग्र भाव भी व्यक्त करता है, जो चिन्ता और निराशा के द्योतक होते हैं। हरलॉक के अनुसार, “बाल्यावस्था में सामान्य संवेगात्मक प्रतिरूप हैं- भय, चिन्तन, व्यग्रता, कुण्ठा, ईर्ष्या, जिज्ञासा, स्नेह व प्रफुल्लता।”

संवेगों की अभिव्यक्ति की मात्रा में कमी होने के अनेक कारण होते हैं। इनमें से प्रमुख का उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है भली-भाँति हो जाता है।

(अ) अतएव वह पहले इस समय तक बालक को भाषा-ज्ञान की भाँति प्रचण्ड प्रक्रिया दिखाने की अपेक्षा भाषा के माध्यम से ही अपने भावों को व्यक्त करता है।

(ब) बालक को अपने अनुभव द्वारा यह ज्ञान हो जाता है कि अपने व्यवहार में उग्रता और प्रचण्डता दिखाने से कोई लाभ नहीं होगा और न उससे समस्या सुलझ ही सकती है।

(स) अभिभावक बच्चों से निरन्तर यह कहते हैं कि “अब तुम बड़े हो गये हो, बच्चों जैसा व्यवहार मत करो।”

इस तरह की बातों का प्रभाव बालक पर पड़ता है और वह अपने संवेगों पर नियंत्रण रखने तथा छिपाने का प्रयास करता है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख कर देना भी आवश्यक है कि सदैव अपने मनोभावों को छिपाने का परिणाम अच्छा नहीं होता।

बाल्यावस्था में संवेगात्मक विकास की विशेषताएँ (Characteristics of Emotional Development)

बाल्यावस्था में संवेग किस प्रकार विकसित होते हैं, इसका उल्लेख यहाँ संक्षेप में किया जा रहा है-

1. संवेग का कम शक्तिशाली होना- हमने पहले ही इस बात का उल्लेख किया है। कि बाल्यावस्था में संवेग कम शक्तिशाली होते हैं। वह शैशवकाल की भाँति बालक को उत्तेजित नहीं कर पाते। बाल्यावस्था में बालक में संवेगों का दमन करने की क्षमता आ जाती है, फलस्वरूप वे कम शक्तिशाली हो जाते हैं।

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2. भय का संवेग- बाल्यावस्था में भय संवेग शैशवकाल की भाँति नहीं रहता। इस समय छोटी-छोटी बातों का भय नहीं होता। अधिकतर भय भावी कार्यों से सम्बन्धित होता है। साथ ही बीमारी, कोई घटना, सामाजिक अस्वीकृति भी भय का कारण होती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कारमाइकेल (Charmichael) ने लिखा है, “कोई भी बात जो बालक के आत्म-विश्वास को कम करती है या उसके आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाती है, या उसके कार्य में बाधा उपस्थित करती है, या उसके महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में अवरोध उत्पन्न करती है, उसके चिन्तन और भयभीत रहने की प्रवृत्ति में वृद्धि कर सकती है।”

3. निराश और असहायपन की भावना- बाल्यावस्था में निराशा और असहायपन की भावना अधिक होती है। उसका कारण पारिवारिक वातावरण, अभिभावकों का कड़ा नियन्त्रण, शिक्षकों द्वारा लगाये कड़े अनुशासन सम्बन्धी नियम होते हैं। ये बालक की इच्छापूर्ति में बाधा डालते हैं। उसे मनचाही स्वतन्त्रता नहीं प्राप्त होती और इस स्थिति में वह उग्र होकर क्रोध को प्रकट करता है, परन्तु अपनी इच्छा पूरी न हो सकने के फलस्वरूप निराश और असहाय हो जाता है।

4. ईर्ष्या-द्वेष- बाल्यावस्था में बालक किसी न किसी समूह का सदस्य होता है और समूह के क्रियाकलापों में भाग लेता है। फलस्वरूप, किसी कारण से उसमें ईर्ष्या, द्वेष और घृणा उत्पन्न हो जाती है। कक्षा में पढ़ने वाला सामान्य छात्र तेज छात्र से ईर्ष्या-द्वेष रखने लगता है। खेल-कूद में हार-जीत के फलस्वरूप भी ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न हो जाता है। ईर्ष्या-द्वेष की भावना पहले घर में भाई-बहिनों के प्रति होती है और शनैः शनैः वह अपने साथियों के प्रति हस्तान्तरित हो जाती है। ईर्ष्या-द्वेष की भावना बालक में अधिकतर प्रत्यक्ष रूप से व्यक्त होते हुए देखी जा सकती है; जैसे व्यंग्य करना, तिरस्कार करना, निन्दा करना तथा झूठे आरोप लगाना आदि ।

5. क्रोध- बाल्यावस्था में क्रोध का कारण हताशायें (Frustrations) होती हैं। स्वतन्त्रता और इच्छापूर्ति में बाधा पड़ने पर बालक में क्रोध आता है। क्रोध का अन्य कारण वयस्कों द्वारा बालक के कार्यों की आलोचना है। बहुधा यह देखा जाता है कि माता-पिता अपने बच्चों की बुराई करते हैं। इस प्रकार की आलोचना से बच्चे क्रोधित हो जाते हैं। वे अपने क्रोध को मौन रहकर, उदास मुद्रा में रहकर या भाई-बहिनों से बेकार झगड़ा या मार-पीट करके प्रकट करते हैं। फलस्वरूप, माता-पिता और शिक्षकों को बालकों से अमनोवैज्ञानिक व्यवहार नहीं करना चाहिए। इससे बालकों में मानसिक ग्रन्थि का निर्माण होता है और उनके संवेगात्मक विकास में बाधा उत्पन्न होती है ।

6. जिज्ञासा- बालक की जिज्ञासा की प्रवृत्ति 6-7 वर्ष की आयु से ही होने लगती है। वह प्रत्येक नयी वस्तु के सम्बन्ध में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त करना चाहता है। आरम्भ में वह कल-पुर्जों वाले खिलौनों को खोलकर उनकी कार्य प्रणाली को जानने की उत्सुकता प्रकट करता है। बाद में वह घड़ी, रेडियो, टेलीफोन, टेलीविजन आदि के सम्बन्ध में प्रश्न करके जिज्ञासा के साथ आश्चर्य संवेग को प्रकट करता है।

7. स्नेह -भाव- प्रारम्भिक बाल्यकाल की अपेक्षा उत्तर बाल्यकाल में स्नेह-भाव की अभिव्यक्ति कम होती है। प्रारम्भिक बाल्यकाल में बालक सभी के प्रति स्नेह रखता है, किन्तु उत्तर- बाल्यकाल में स्नेह की अभिव्यक्ति वह उन लोगों पर करता है जो उसके मित्र होते हैं या जिनके साथ वह रहना चाहता है।

8. प्रफुल्लता- प्रफुल्लता की अभिव्यक्ति प्रारम्भिक बाल्यकाल और उत्तर- बाल्यकाल दोनों में समान ही होती है। बाल्यकाल में बालक विनोदप्रिय होता है और उसे व्यंग्य-विनोद में आनन्द मिलता है। कोई असाधारण घटना जैसे किसी को गिरते हुए देखकर या किसी को मारपीट करते हुए देखकर वह प्रसन्न होता है।

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