पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान अथवा थ्योरी (Models or Theories of Curriculum Development)
प्राचीन समय में पाठ्यक्रम निर्माण का कोई निश्चित ढंग नहीं होता था। पाठ्यक्रम निर्माण का विधिवत् कार्य बीसवीं शताब्दी के आरम्भ से शुरू हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् पाठ्यक्रम विकास की संकल्पना विकसित होने के साथ इसके अनेक प्रतिमान प्रकाश में आए है।
प्रतिमान का अर्थ (Meaning of Models) – प्रतिमान को प्रायः मॉडल के नाम से ही पुकारते हैं। प्रतिमान किसी वस्तु, व्यक्ति अथवा क्रिया का ऐसा परिकल्पनात्मक या कार्यात्मक रूप होता है जिससे उसके वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। प्रतिमान अंग्रेजी के ‘Model’ शब्द का पर्यायवाची है। सामान्य जीवन में हमें विभिन्न वस्तुओं के मॉडल देखने को मिलते हैं। हेनरी सीसिल बील्ड ने मॉडल को ‘Universal Dictionary of English Language’ में इस प्रकार परिभाषित किया है
“किसी आदर्श के अनुरूप व्यवहार क्रिया को ढालने तथा क्रिया की ओर निर्देशित करने की प्रक्रिया मॉडल या प्रतिमान होती है।”
पाठ्यक्रम प्रतिमान ( Model of Curriculum)- पाठ्यक्रम की रूपरेखा अर्थात् स्वरूप ही प्रतिमान के रूप में जाना जाता है। पाठ्यक्रम प्रतिमान का अर्थ पाठ्यक्रम के स्वरूप से है। वील्ड की ‘मॉडल’ की परिभाषा के आधार पर किसी आदर्श लक्ष्य की प्राप्ति हेतु पाठ्यक्रम के स्वरूप का निर्धारण या इस कार्य के लिए दिशा निर्देशन की प्रक्रिया के स्वरूप के निर्धारण को ‘पाठ्यक्रम प्रतिमान’ कहा जा सकता है। पाठ्यक्रम प्रतिमान का स्वरूप शैक्षिक लक्ष्यों पर आधारित होता है समय परिवर्तन एवं सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षा के लक्ष्यों में भी परिवर्तन होता रहता है इसीलिए पाठ्यक्रम विकास के प्रतिमान भी बदलते रहते हैं। पाठ्यक्रम के तीन तथ्यों उद्देश्य, प्रक्रिया एवं परिस्थिति को अधिक महत्त्व दिया जाता है इसलिए पाठ्यक्रम प्रतिमानों को प्रमुख रूप से तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है
1. पाठ्यक्रम का उद्देश्य प्रतिमान या मूल्यांकन प्रतिमान (The Objectives Model of Curriculum)- पाठ्यक्रम के उद्देश्य प्रतिमान का आधार व्यावहारिक मनोविज्ञान है। इसमें शैक्षिक उद्देश्यों पर अधिक बल देते हुए पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित किया जाता है। उद्देश्यों की प्राप्ति छात्रों को अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के रूप में की जाती है। व्यवहार परिवर्तन का ज्ञान मूल्यांकन से होता है। अतः इसे मूल्यांकन प्रतिमान भी कहा जाता है। इसमें निम्न बातें सम्मिलित होती हैं
(i) शिक्षण उद्देश्यों का प्रतिपादन
(ii) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सीखने के अनुभवों का सृजन (iii) बालकों में होने वाले व्यवहार परिवर्तनों का मूल्यांकन।
2. पाठ्यक्रम का प्रक्रिया प्रतिमान (The Process Model of Curriculum)- यह द्वितीय चरण प्रतिमान हैं। पाठ्यक्रम के प्रक्रिया प्रतिमान में प्रक्रिया को प्राथमिकता दी जाती है। इसमें उद्देश्यों को परिभाषित नहीं करने जाता है बल्कि पाठ्यक्रम के प्रारूप को विकसित करने में पाठ्य-वस्तु का ज्ञान को ही ध्यान में रखा जाता है। इसके अन्तर्गत पाठ्य-वस्तु की सहायता से मानवीय गुणों को विकसित करने का प्रयास किया जाता है इसीलिए इस प्रकार के पाठ्यक्रम को ‘मानवतावादी पाठ्यक्रम’ भी कहा जाता है। चूँकि इसमें प्रक्रिया को महत्त्व दिया जाता है तथा शिक्षा प्रक्रिया शिक्षक द्वारा ही सम्पादित की जाती है अतः इस प्रतिमान में शिक्षक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। पाठ्यक्रम का उद्देश्य प्रतिमान व्यवहार मनोविज्ञान पर आधारित होता है जबकि ‘प्रक्रिया प्रतिमान’ का प्रारूप मानव व्यवस्था सिद्धान्त पर आधारित होता है। मानव व्यवस्था’ में परिवर्तन के साथ-साथ शिक्षा का पाठ्यक्रम भी बदलता रहता है, मानव व्यवस्था का परम्परागत सिद्धान्त कार्य केन्द्रित है तथा सम्बन्ध सिद्धान्त सम्बन्ध केन्द्रित है। मानव व्यवस्था का आधुनिक सिद्धान्त कार्य एवं सम्बन्ध केन्द्रित है। इस प्रक्रिया हेतु कार्य को अधिक महत्त्व दिया गया है।
इसमें परम्परागत सिद्धान्त पर बल दिया गया है। मानव व्यवस्था के परम्परागत सिद्धान्त (Classical Theory of Human Organisation) की धारणा यह है कि व्यवस्था के सदस्यों में केवल कार्य करने की क्षमता होती है तथा निर्देशों का अनुसरण कर सकते हैं कार्य को प्रारम्भ करने अर्थात् स्वोपक्रम (Imitation) की क्षमता नहीं होती है तथा वे किसी परन्तु उनमें प्रकार का निर्णय नहीं ले सकते हैं। इस व्यवस्था में शिक्षण कार्य केन्द्रित तथा शिक्षा नियन्त्रित होता है पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण पर बल दिया जाता है छात्रों की रुचियों, क्षमताओं एवं अभिवृत्तियों को कोई स्थान नहीं दिया जाता। छात्र केवल मशीन के समान कार्य करता है शिक्षण स्मृति स्तर का होता है तथा केवल ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति हो पाती है। मानवीय सम्बन्ध सिद्धान्त (Human Relation Theory) परम्परागत सिद्धान्त के विरोधस्वरूप प्रतिपादित किया गया है। इस सिद्धान्त की धारणा यह है कि व्यवस्था के सदस्य अपनी अभिरुचियों, अभिवृत्तियों, मूल्यों एवं लक्ष्यों को लेकर आते हैं अतः इसमें कार्य के साथ-साथ मानवीय सम्बन्धों पर भी ध्यान दिया जाता है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस सिद्धान्त का बहुत महत्त्व है इसमें शिक्षण व्यवस्था इस प्रकार की जाती है जो शिक्षार्थियों की आयु, प्रवीणता, अभिरुचियों एवं अभिवृत्तियों के अनुरूप होती है। इसमें शिक्षक एक निर्देशक अथवा परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है। इसमें कार्य और सम्बन्धों के साथ-साथ सदस्यों की निर्णय क्षमता को भी महत्त्व दिया जाता है इस प्रकार इसके अन्तर्गत शिक्षण व्यवस्था छात्र केन्द्रित होती है तथा इसमें कार्य के साथ-साथ छात्रों की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखा जाता है। इस विचारधारा का सम्बन्ध स्वतन्त्र अध्ययन, अनुदेशन प्रणाली, अनुदेशन प्रारूप तथा अनुदेशन तकनीकी है। आई. के. डेवीज के अनुसार, इसे शैक्षिक तकनीकी का एक पक्ष माना जाता है जिसे प्रणाली उपागम (System Approach) कहा जाता है। इसमें डेवीज ने शिक्षक को एक प्रबन्धक की संज्ञा प्रदान की है तथा उसके चार प्रमुख कार्य नियोजन, व्यवस्था, अग्रसरण (Leading) तथा नियन्त्रण (Controlling) बताए हैं। शिक्षण के इन चारों सोपानों के अन्तर्गत शिक्षक द्वारा शिक्षण-अधिगम प्रणाली की रूपरेखा तैयार की जाती है।
3. पाठ्यक्रम का परिस्थिति प्रतिमान (The Situational Model of Curriculum)- यह तृतीय स्तर का प्रतिमान है। पाठ्यक्रम के परिस्थिति प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षा एवं पाठ्यक्रम को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों को महत्त्व प्रदान किया जाता है। इसमें ‘प्रणाली विश्लेषण’ (System Analysis) उपागम का प्रयोग करके परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाता है। विश्लेषण के द्वारा शैक्षिक परिस्थितियों के बाह्य तथा आन्तरिक घटकों की पहचान की जाती है। शैक्षिक परिस्थितियों के आन्तरिक घटक कक्षा-शिक्षण तथा विद्यालय की व्यवस्था सम्बन्धी क्रियाओं को प्रभावित करते हैं। इस प्रतिमान में छात्रों की रुचियों एवं अभिवृत्तियाँ, शिक्षक का कौशल, नैतिकता एवं अभिवृत्तियाँ, उपलब्ध साधन एवं उपकरण तथा विद्यालय का वातावरण आदि आन्तरिक घटक में सम्मिलित किए जा सकते हैं। बाह्य घटक भी शैक्षिक परिस्थितियों को बहुत अधिक प्रभावित करते हैं। सामाजिक परिवर्तन, राजनैतिक परिवर्तन, आर्थिक स्थिति में परिवर्तन, समाज एवं अभिभावकों की आकांक्षाओं एवं अभिवृत्तियों में परिवर्तन, नये विषयों का आविर्भाव आदि बाह्य घटक के रूप में कार्य करते हैं। अतः इन घटकों को ध्यान में रखकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण करना होता है। कुछ अन्य घटक जैसे- परीक्षा प्रणाली, पाठ्य-पुस्तकें तथा व्यवस्था भी पाठ्यक्रम प्रतिमान को प्रभावित करते हैं।
पाठ्यक्रम के विकास हेतु शिक्षा नीति द्वारा कार्य किये गये। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अन्तर्गत माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा, नवोदय विद्यालय, उच्च शिक्षा स्तर पर सेवारत अध्यापक प्रशिक्षण, दूरवर्ती शिक्षा आदि अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए गए हैं। इन सुझावों को लागू भी किया गया है जिससे नवीन परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हुई हैं अतः पाठ्यक्रम विकास में इन परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना होगा।
पाठ्यक्रम विकास हेतु पाठ्यक्रम के परिस्थिति प्रतिमान के आधार पर ही विषय-केन्द्रित पाठ्यक्रम, बाल-केन्द्रित पाठ्यक्रम, शिल्प-कला- केन्द्रित पाठ्यक्रम, सुसम्बद्ध पाठ्यक्रम, कोर पाठ्यक्रम आदि का विकास किया गया है।
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