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अधिगम की विषय-सामग्री का चयन एवं संगठन

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अधिगम की विषय-सामग्री का चयन एवं संगठन

अधिगम की विषय-सामग्री का चयन एवं संगठन (Selection and Organisation of Content)

शायद कभी-कभी ऐसा लगता है कि एक व्यक्ति बैठ जाए तथा यह निश्चित कर ले कि पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने के लिए कौन-सी विषय सामग्री महत्त्वपूर्ण है, परन्तु यह अनुमान वास्तविकता से बहुत दूर है। एक सुव्यवस्थिति शिक्षा परिस्थिति में पाठ्यक्रम विकासकर्त्ता विभिन्न कारकों के बारे में सोचते हैं जो यह निश्चित करने के कार्य को प्रभावित कर सकते हैं कि वास्तव में क्या पढ़ाया जाना चाहिए। इन कारकों का विषय सामग्री रूपरेखा की स्थापना करने में अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। आदर्शात्मक रूप से, विकासकर्त्ता के पास असीमित संसाधन हो सकते हैं तथा उसमें लोचशीलता होती है जब वह विषय-सामग्री को कोई आकार देना चाहता है, परन्तु प्रायः वास्तविक संसार ही पाठ्य सामग्री निश्चितता प्रक्रिया के क्षेत्र को निश्चित करता है। अतीत तथा वर्तमान के सभी अनुभवों को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता। केवल उन्हीं तत्त्वों को जो वांछनीय शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति में अत्यधिक प्रभावी हो सकते हैं, पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए चुना जा सकता है। इस प्रकार उपयुक्त सामग्री का चयन कुछ सीमा तक उद्देश्यों के निर्धारण पर निर्भर करता है। अधिगम के मुख्य चार पक्षों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

(1) सम्प्रत्यय या अर्थ (Concept or meaning)।

(2) सूझ-बूझ कौशल (Understanding skill)।

(3) लोकतान्त्रिक नागरिकता (Democratic Citizenship)।

(4) समस्या समाधान (Problem solving)।

पाठ्यक्रम का विषय सामग्री का चयन व विकास करते समय इस बात को ध्यान में रखा जाना चाहिए कि पाठ्यक्रम निर्माण किसी एक व्यक्ति का कार्य नहीं है और निश्चित रूप से किसी विषय विशेषज्ञ का एकाधिकार भी नहीं है, जैसा कि अतीत के समय में माना जाता था। बहुत से स्थानों पर विषय सामग्री का चयन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों की आवश्यकतानुसार होती है। विशिष्ट क्षेत्रों से जिनकी आवश्यकता हो सकती है, निम्नलिखित हैं-

अधिगम की विषय-सामग्री का चयन एवं संगठन

अधिगम की विषय-सामग्री का चयन एवं संगठन

उपरोक्त चित्र में प्रदर्शित प्रत्येक को अपनी विशिष्ट भूमिका अदा करनी पड़ती है। संक्षिप्त रूप से कहा जाए तो पाठ्यक्रम विशेषज्ञ सम्पूर्ण प्रक्रिया की सामान्य रूपरेखा की देखभाल करेगा। वह विभिन्न विशेषज्ञों के बीच समन्वय की स्थापना व निश्चितता में सहायता करेगा। विषय: सामग्री विशेषज्ञ जो उच्च शिक्षा से सम्बन्धित एक व्यक्ति हो सकता है, वह यह निश्चित करेगा कि सम्मिलित की गई विषय सामग्री उचित तथा नवीन हैं, वह यह भी देखेगा कि इसका संगठन तथ्यों के साथ छेड़छाड़ नहीं करेगा। शैक्षिक तकनीशियन यह देखेंगे कि अनुदेशन विधियाँ एवं आधुनिक सहायक सामग्री, जो शिक्षक के लिए प्रस्तावित की गई थी, वे उन परिस्थितियों के लिए जिनके लिए उनका सुझाव दिया गया था, अत्यधिक उपयुक्त हैं। वह प्रशिक्षण महाविद्यालय का एक शिक्षाशास्त्री हो सकता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिक विभिन्न स्तरों पर विद्यार्थियों के मनोविज्ञान का ध्यान रखेगा। शिक्षा अभ्यासकर्त्ता निःसन्देह एक अध्यापक होगा जो यह देखेगा कि विषय सामग्री स्तर के अनुरूप है तथा विद्यार्थियों की क्षमताओं तथा पूर्व ज्ञान की पृष्ठभूमि पर आधारित है और यह भी निश्चित करेगा कि प्रस्तावित अनुदेशन विधियाँ विद्यमान संसाधनों के अनुरूप प्रायोगिक हो सकती हैं। वह यह भी निर्णय करेगा कि क्या विषय-सामग्री समय सीमाओं के अन्तर्गत है। वह इस बात को भी ध्यान में रखेगा कि क्या वर्तमान अध्यापक प्रस्तावित विषय-सामग्री के अनुरूप शिक्षण विधियों का प्रबन्धन कर पाएगा।

विषय-सामग्री का चयन (Selection of the Contents)

पाठ्यक्रम विकास प्रक्रिया में विषय-सामग्री का चयन एक चुनौतीपूर्ण कार्य है, जो अधिगमकर्त्ताओं के जीवन में और अन्तिम रूप से सम्पूर्ण समाज में विभिन्नता लाएगा। इससे सम्बन्धित प्रमुख प्रश्न निम्नलिखित हैं-

(1) क्या ज्ञान, कौशल, अभिवृत्ति तथा व्यवहार को प्राप्त किया जाना तथा अभ्यास करना आवश्यक होगा ?

(2) यदि प्रस्तावित उपलब्धि को प्राप्त करना है, तो अधिगमकर्त्ता को क्या जानने की आवश्यकता होगी ?

विषय- वस्तु के चयन के अन्तर्गत निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए-

(i) प्रकरणों का चयन (Selection of Topics)- प्रकरण को विषय-वस्तु का उचित प्रतिनिधित्व करना चाहिए। इनका चयन औचित्यपूर्ण तथा इसके चयन में पूर्ण सावधानी रखी में जानी चाहिए। प्रकरणों की विषय वस्तु वैध होनी चाहिए।

(ii) बुनियादी विचारों का चयन (Selection of Fundamental Ideas)- दिए गए प्रकरण में किन बुनियादी विचारों को पढ़ाया जाना चाहिए, यह एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। किस विषय-वस्तु के मूलभूत का प्रतिनिधित्व बुनियादी / विचार करते हैं, यह ज्ञान है। के

(iii) विशिष्ट विषय-वस्तु का चयन (Selection of specific subject matter)- जब एक बार प्रमुख विचारों का चयन कर लिया जाता है तब उनके विकास के लिए विशिष्ट विषय-वस्तु के चयन का प्रारम्भ होता है। विशिष्ट विषय-वस्तु सामान्य विचार का वैध उदाहरण होनी चाहिए, जिसके विचार के साथ तार्किक संयोजन होना चाहिए।

समष्टि (Macro) स्तर पर विषय सामग्री के चयन की कसौटी राष्ट्र के एवं समाज के शिक्षा दर्शन तथा सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक परिस्थितियों पर आधारित होनी चाहिए। व्यष्टि (Micro) स्तर पर कसौटी विद्यार्थियों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विशिष्ट उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिए।

विषय-सामग्री के चयन के लिए उत्तरदायी कारक (Factors Responsible for the Selection of Subject Matter)

विषय-सामग्री का चयन करने के लिए ह्वीलर (Wheeler) व अन्य ने निम्नलिखित कारक उत्तरदायी बताए हैं-

(1) वैधता (Validity)- विषय सामग्री उस वैध होगी जब वह वांछित परिणामों की प्राप्ति में सहायक होगी। वैधता के दृष्टिकोण से विषयों के साथ-साथ उनके अंश भी किये जा सकते हैं। विषय-सामग्री की वैधता के दूसरे पक्ष का सम्बन्ध उसकी प्रामाणिकता (Authenticity) से है। विषय-सामग्री उस सीमा तक वैध होगी जिस सीमा तक वह सत्य है। आज ज्ञान में तीव्र गति से परिवर्तन हो रहा है। इस परिवर्तन के कारण तथ्यों एवं मूल संकल्पनाओं में भी परिवर्तन हो रहे हैं। इसके फलस्वरूप प्रत्येक ज्ञान का महत्त्व शाश्वत न होकर अस्थायी होता है। अतः विषय-सामग्री की वैधता के लिए उसमें परीक्षण बार-बार किया जाना चाहिए।

वैधता से सम्बन्धित तीसरा बिन्दु विषय-सामग्री की त्रुटि है। कभी-कभी वैध एवं उपयोगी विषय-सामग्री को भी पाठ्यक्रम में स्थान नहीं दिया जाता है ऐसा प्रायः व्यावहारिक विज्ञानों में किया जाता है। उदाहरण के लिए मानवशास्त्र (Anthropology), संस्कृति, संस्कृति परिवर्तन, मानव प्रकृति तथा मानव-मूल्यों के बारे में उपयोगी विषय-सामग्री प्रदान करता है, परन्तु इसका उपयोग सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में नहीं किया जाता । टाबा के द्वारा बताया गया है। कि समूहों, समाज तथा समुदाय साथ-ही-साथ सामाजिक प्रक्रियाएँ मानव परिस्थिति, व्यक्तित्व, सामाजीकरण की प्रक्रिया आदि संकल्पनाओं को पहली कक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए तथा इन विचारों का विकास एवं एकीकरण आगे की कक्षाओं में किया जा सकता है।

(2) महत्त्व (Significance) – विषय-सामग्री का चयन उनके महत्त्व से सम्बन्धित होता है। वह महत्त्वपूर्ण तभी होगी जब वह तार्किक रूप से अनेक समस्याओं के समाधान के लिए प्रयोग की जा सके। जैसे परिस्थितियों का उपयोग शिक्षा, समाजशास्त्र एवं जीव विज्ञान में किया जाता है। इस प्रकार किसी विषय का महत्त्व उसकी आधारभूत संकल्पनाओं एवं उस विषय से सम्बन्धित उन सिद्धान्तों से होता है जो उसे अन्य क्षेत्रों तक भी ले जाते हैं।

(3) उपयोगिता (Utility)- विषय-सामग्री के बारे में निर्णय लेने के लिए अन्य उत्तरदायी कारक उसकी उपयोगिता होती है। कुछ व्यवसायों एवं प्रशिक्षण संस्थानों में विषय-सामग्री से सम्बन्धित सूझबूझ एवं कौशलों की आवश्यकता होती है।

(4) रुचि (Interests)- पाठ्य-वस्तु का चयन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह विद्यार्थियों के व्यक्तित्व एवं बौद्धिक योग्यताओं के अनुरूप हों। अलग-अलग आयु समूह के बालकों की रुचियाँ भी भिन्न होती हैं। इसलिए प्रत्येक कक्षा स्तर पर विषय-सामग्री का चयन अधिगमकर्ताओं की रुचियाँ या तो सम्पूर्ण समूह के आधार पर या उनकी व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर किया जाना चाहिए।

(5) सीखने के योग्य होना (Learnability)- इस कारक का सम्बन्ध है कि विषय-सामग्री विद्यार्थियों के अनुभवों, बौद्धिक योग्यताओं आदि की सीमा से बाहर नहीं होना चाहिए। अन्य शब्दों में इसका अभिप्राय यह है कि यह विद्यार्थियों को समझ में आनी चाहिए ताकि वे उसे – सरलता से ग्रहण कर सकें क्योंकि इसका निर्माण उन्हीं के लिए किया जाता है। सीखने के योग्य होना एवं कठिनाई एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, परन्तु सामान्य अर्थों में इनमें अन्तर पाया जाता है। कठिनाई को प्रायः सांख्यिकी शब्दावली में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है कि विषय-सामग्री 9 वर्ष के बालक के लिए उपयुक्त है अथवा छठी कक्षा के लिए। अध्यापक के दृष्टिकोण में सीखने के योग्य होना विद्यार्थी की योग्यता पर निर्भर करता है।

(6) सामाजिक वास्तविकताओं से संगति (Consistency with Social Realities)- टाबा ने बताया कि ऐसी विषय-सामग्री का चयन किया जाना चाहिए जो हमारे आसपास के वातावरण या समाज की सर्वाधिक उपयोगी उन्मुखीकरण प्रदान करे।

(7) सम्भाव्यता (Feasibility)- इस कारक का सम्बन्ध पाठ्य सामग्री के विश्लेषण तथा जाँच पड़ताल से है जिसे विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध समय व संसाधन, सम्मिलित लागत, सामाजिक, राजनैतिक वातावरण आदि के आधार पर किया जाना चाहिए।

इस प्रकार पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय सबसे पहले विभिन्न प्रत्ययों की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक होता है, क्योंकि इसी के आधार पर विद्यार्थियों में सूझ-बूझ, कौशल, लोकतान्त्रिक नागरिकता आदि का विकास किया जा सकता है। शामिल होना चाहिए जिनका मनुष्य अपने दैनिक जीवन में प्रयोग करते हैं और जो विभिन्न कौशलों के विकास में उनकी सहायता करते हैं तथा जो उनके भविष्य के लिए अत्यावश्यक है। पाठ्यक्रम का चयन करते समय निम्नलिखित सामग्री को ध्यान में रखना चाहिए, जिसमें विद्यार्थियों की योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार निम्न उपयोगी प्रकार चुने जा सकते हैं-

(1) पारिवारिक वातावरण से सम्बन्धित सामग्री।

(2) बुनियादी आवश्यकताओं से सम्बन्धित सामग्री।

(3) भौतिक वातावरण सम्बन्धी सामग्री।

(4) सामाजिक वातावरण सम्बन्धी सामग्री।

(5) आर्थिक वातावरण सम्बन्धी सामग्री।

(6) नागरिक एवं राजनैतिक वातावरण सम्बन्धी सामग्री ।

(7) सांस्कृतिक वातावरण सम्बन्धी सामग्री ।

(8) इतिहास सम्बन्धी सामग्री ।

(9) विज्ञान तथा तकनीक

(10) सामाजिक समस्याएँ ।

(11) सामाजिक विषय ।

(12) विविध क्रियाएँ ।

पाठ्यवस्तु का संगठन (Organisation of the Subject Matter)

चयन करना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु उसे उचित रूप से संगठित भी किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम को प्रभावी एवं उद्देश्य आधारित बनाने के लिए उसकी विषय सामग्री का केवल इसके संगठन के समय कई प्रश्न उठते हैं ? बालक की अभिवृद्धि एवं विकास के बारे में क्या जानते हैं ? तथा अधिगम की प्रक्रिया के बारे में क्या जानते हैं ? यदि विषय-वस्तु उचित रूप से संगठित नहीं होगी तो इसमें दिशा की कमी होगी तथा यह उन उद्देश्यों जिन पर यह आधारित है, की प्राप्ति में सहायक नहीं होगी।

एक अच्छे संगठन की सामान्य आवश्यकताएँ (General requirements of good Organisation)

(1) संगठन में प्रशिक्षण का हस्तान्तरण सम्मिलित होना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि एक बालक उपविषय x पढ़ता है तो वह प्राकृतिक रूप सेx की विषय-सामग्री को सीखने की उम्मीद करता है, परन्तु वह यह भी आशा करता है कि यदि वह उपविषय y का अध्ययन करे, है तो वह x का अध्ययन करने के कारण y को समझने में सफल हो। यही प्रशिक्षण का हस्तांतरण

(2) यह लचीला होना चाहिए, यह इतना कठोर नहीं होना चाहिए कि इसमें सामयिक तथा स्थानीय विकास को सम्मिलित ही न किया जा सके।

(3) यह सन्तुलित होना चाहिए। इसमें औपचारिक या अनौपचारिक दोनों प्रकार की क्रियाओं का समावेश होना चाहिए।

(4) सामग्री का संगठन इस ढंग से होना चाहिए कि यह विभिन्न विषयों में सहसम्बन्ध

स्थापित करें जिसे अनुप्रस्थीय समन्वय कहा जाता है।

(5) इसके अन्तर्गत एक स्तर से दूसरे स्तर तक निरन्तर प्रगति प्रदान की जानी चाहिए। शीर्षात्मक एकीकरण में विद्यार्थियों के लिए सामग्री का संगठन क्रमबद्ध रूप से किया जाता है। और यह विषय में क्रमबद्ध तथा प्रगतिशील विकास निश्चित करता है।

(6) संगठन अधिगमयुक्त होना चाहिए।

(7) पाठ्य वस्तु का संगठन सामान्य रूप से शिक्षण सूत्रों के अनुसार होना चाहिए जैसे सरल से जटिल, मूर्त से अमूर्त, सामान्य से विशिष्ट आदि क्योंकि इसमें अध्यापक को भी अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने में सहायता मिलेगी।

(8) यह व्यक्तिगत परिवर्तनशीलता की विशेषताओं से युक्त होना चाहिए। यह आशा की जाती है कि अर्थशास्त्र पाठ्यक्रम के द्वारा विभिन्न प्रकार की अध्ययन सामग्री योजनाएँ तथा क्रियाएँ प्रदान की जानी चाहिए जो प्रत्येक विद्यार्थी को अपनी क्षमता के अनुरूप सामग्री तथा क्रियाओं के चुनाव में सहायक होगी।

(9) इसके अन्तर्गत वह विषय-सामग्री प्रदान की जानी चाहिए जो विद्यार्थियों की विभिन्न रुचियों, योग्यताओं, अभिवृत्तियों, अभिरुचियों तथा परिपक्वता के अनुरूप हो। पाठ्यक्रम को इस प्रकार से संगठित किया जा सकता है कि वह व्यक्तिगत विभिन्नता की समस्या का समाधान प्रदान करने में योगदान दें।

विषय-सामग्री एक कठिन कार्य है। इसके लिए अध्यापन अधिगम प्रक्रिया से सम्बन्धित सूझ-बूझ की आवश्यकता होती है। विषय सामग्री से सम्बन्धित प्रमुख समस्याएँ होती हैं। जैसे क्रमबद्धता, निरन्तरता तथा विषय-वस्तु के एकीकरण की कमी। अब हम इन तत्त्वों का विस्तृत रूप से अध्ययन करेंगे

(i) क्रमबद्धता (Sequency)- क्रम के द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि कौन-सी विषय-सामग्री पहले पढ़ाई जाएगी, तत्पश्चात् कौन-सी एवं अन्त में कौन-सी ? स्मिथ एवं साथियों ने चार प्रकार के क्रम बताए हैं- प्रथम है- सरल से जटिल। सरल विषय-सामग्री वह होती है, जिसमें कुछ तत्त्व होते हैं। जैसे- ऑक्सीजन एवं हाइड्रोजन रासायनिक यौगिकों से सरल है। संगठन का द्वितीय क्रम है- पूर्व आवश्यक अधिगम के आधार पर इस प्रकार का संगठन उन विषयों के लिए उपयोग में लाया जाता है जहाँ नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। भौतिकी, व्याकरण एवं रेखागणित में इस प्रकार के संगठन का उपयोग किया जाता है। तृतीय में प्रकार के अन्तर्गत विषय-सामग्री को पूर्ण से अंश की ओर संगठति किया जाता है। भूगोल का प्रारम्भ ग्लोब से होता है। यह अनेक भौगोलिक स्थितियों की व्याख्या करने में सहायक होता है। चौथे प्रकार का संगठन है- समय क्रम संगठन तथ्यों एवं विचारों को समय-क्रम के आधार पर संगठित किया जाता है जिससे बाद की घटनाओं को पूर्व की घटनाओं की विवेचना के आधार पर समझा जा सके। इस प्रकार क्रमबद्धता कोई औपचारिक प्रकार वं संगठन नहीं है, अपितु यह एक तत्त्व है जिसे विषय सामग्री को संगठित करते समय प्रयोग में लाया जाना चाहिए।

(ii) एकीकरण (Integration)- ऐसी मान्यता है कि जब एक क्षेत्र के तथ्य एवं सिद्धान्त दूसरे क्षेत्र से सम्बन्धित होते हैं, तब अधिगम अधिक प्रभावी होता है। विषयों में कोई विभागीयकरण नहीं होता। ज्ञान को एक इकाई के रूप में माना जाता है। विषय-सामग्री एक क्रिया का भाग होता है। संगठन में एकीकरण की संकल्पना अनेक ढंगों से देखी जा सकती है। कुछ परिभाषाएँ क्षैतिज सम्बन्धों पर बल देती है, जैसे गणित में जो पढ़ा है वह सामाजिक विज्ञान से कैसे सम्बन्धित है ? दूसरी परिभाषा के अन्तर्गत एकीकरण व्यक्ति के जीवन में जो घटित होता है, उसके आधार पर संगठित करना। सामान्यतः इसके अन्तर्गत विषय-सामग्री के संगठन के लिए पारम्परिक विधि की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक संगठन पर बल दिया जाना चाहिए।

(iii) संचयी अधिगम (Cumulative learning)- संचयी अधिगम के लिए विषय-वस्तु का संगठन कठिन कार्य है, जिसके लिए जटिल सामग्री, अधिक उचित विश्लेषण, विचारों अधिक गहनता एवं विस्तार की आवश्यकता होती। संचयी अधिगम विचारों की परिपक्वता, अमूर्तन के स्तर, अनुभूति की संवेदनशीलता पर आश्रित रहता है।

(iv) तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को शामिल करना (Inclusion of reasoning and psychological needs)- पाठ्यक्रम संगठन में तर्क एवं मनोवैज्ञानिक क्रम दोनों को शामिल करने की आवश्यकता होती है। विषय-वस्तु के क्रम के साथ-साथ उनमें सम्बन्ध भी महत्त्वपूर्ण होता है। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के क्रम के लिए आठ प्रकार बताए है-

(1) संकेत अधिगम ।

(2) उद्दीपक अनुक्रिया अधिगम

(3) शृंखलन अधिगम ।

(4) शाब्दिक साहचर्य अधिगम।

(5) बहुभेद अधिगम।

(6) संकल्पना अधिगम

(7) नियम अधिगम।

(8) समस्या समाधान अधिगम।

इस प्रकार विभिन्न व्यक्तियों को उनके आरम्भिक विकास के लिए विभिन्न प्रकार की अधिगम गतिविधेयों की आवश्यकता होती है।

(v) निरन्तरता (Continuity)- पाठ्यक्रम के अन्तर्गत संगठन इस प्रकार से किया जाना चाहिए कि अधिक जटिल सामग्री को अधिक गहनता से वह विस्तृत रूप से समझा जा सके, विचारों की सूझ-बूझ प्राप्त हो सके, विचारों को सम्बन्धित किया जा सके, उन्हें प्रायोगिक बनाया जा सके आदि। पाठ्यक्रम की विषय सामग्री के द्वारा अधिगम में निरन्तरता प्रदान की जानी चाहिए तथा भूलने के द्वारा हानि को रोका जाए। हम सभी जानते हैं कि असंगठित विषय-सामग्री विद्यार्थियों को लक्ष्य तक नहीं पहुँचाती अर्थात् उद्देश्यों की प्राप्ति करने में सहायक नहीं होती।

अतः पाठ्यक्रम में विषय सामग्री के संगठन के लिए विभिन्न विधियों का प्रयोग किया जा सकता है-

(1) प्रकरण विधि (Topic method)।

(2) संकेन्द्रित विधि (Concentric method)

(3) कुण्डलीय विधि (Spiral method)।

(4) इकाई विधि (Unit method)।

(5) कालक्रम विधि (Chronological method)।

(6) प्रगतिशील व प्रतिगमन विधि (Progressive Vs. Regressive method)।

स्तरीकरण (Grading)- पाठ्यक्रम के संगठन के पश्चात् प्रश्न यह उठता है कि इसे स्तर विशेष या कक्षा विशेष (प्राथमिक, माध्यमिक या उच्च माध्यमिक) के अनुरूप कैसे स्तरीकरण किया जाए

प्रारम्भिक स्तर (Elementary level)- साधारणतः प्रारम्भिक स्तर पर 6 से 14 वर्ष की आयु वर्ग के छात्र तथा छात्राओं को शिक्षा दी जाती है। इस आयु वर्ग के आरम्भ में अपनी क्रियाओं को शीघ्रता से बदलने की, कहानी सुनने पर उत्सुकता होती है तथा बालक में नई-नई बातें जानने की जिज्ञासा बनी रहती है। इस स्तर पर पहचान तथा प्रत्यास्मरण सम्बन्धी मानसिक शक्तियों का विकास होता है। इसी कारण पाठ्यक्रम का स्तरीकरण विद्यार्थियों की मानसिक योग्यताओं के अनुरूप किया जाना चाहिए।

माध्यमिक स्तर (Secondary level)- इस स्तर पर साधारणतः 15 से 18 आयु वर्ग के विद्यार्थी होते हैं। यह पूरी तरह से किशोरावस्था होती है और विद्यार्थियों का सामाजिक जीवन जटिलताओं से पूर्ण होता है। इस स्तर पर सामाजिक वृत्ति का विकास होना आरम्भ हो जाता है, उन्हें अपनी रुचि, अभिवृत्ति, विचार, चरित्र सम्बन्धी अनुभूति होने लगती है। उनमें तर्कशक्ति, विचारशक्ति, निर्णय शक्ति व सृजनात्मक शक्तियों का विकास होता है। इसलिए इस स्तर पर सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक दोनों प्रकार की विषय-सामग्री का संगठन इस प्रकार किया जाना चाहिए कि उनमें विभिन्न कौशलों का कुशलतापूर्वक विकास किया जा सके।

इस प्रकार इस प्रक्रिया में पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों और प्रयोगों का एकीकरण महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। विषय-सामग्री का चयन करते समय नये विचारों तथा समाज में प्रचलित प्रविधियों तथा विचारधाराओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। विषय-सामग्री ऐसा हो जिसमें अनुभव की पूर्णता हो, विविधता तथा लचीलापन हो, जो समुदाय की आवश्यकता के अनुकूल हो, तथा अवकाश के समय के लिए उपयोगी हो। इसकी विषय-सामग्री एक क्रमबद्ध तथा मनोवैज्ञानिक रूप से प्रत्येक स्तर की आवश्यकता के अनुरूप संगठित तथा स्तरित होनी चाहिए।

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