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अधिगम अनुभव एवं उद्देश्यों को व्यवस्थित करना

अनुभव एवं उद्देश्यों को व्यवस्थित करना
अनुभव एवं उद्देश्यों को व्यवस्थित करना

अधिगम अनुभव एवं उद्देश्यों को व्यवस्थित करना (Learning Experiences and Setting of Objectives)

शिक्षा के निर्धारित किये गए उद्देश्यों (Objectives) जिन्हें व्यावहारिक परिवर्तनों के रूप में स्पष्ट किया जाता है, की उपलब्धि उपयुक्त तथा सुसंगठित अधिगम अनुभवों पर निर्भर करती है, जो विद्यार्थियों के प्रभावी अधिगम के लिए प्रदान किये जाते हैं। अधिगम अनुभवों का उचित संगठन विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है जो इस प्रकार हैं-

(1) अधिगमकर्त्ता की आयु, आवश्यकताएँ तथा पूर्ण अनुभव।

(2) एक विशिष्ट समुदाय की आवश्यकताएँ ।

(3) बालकों की योग्यताएँ ।

(4) स्कूल में प्राप्त सुविधाएँ ।

(5) बालक की तत्परता, परिपक्वता तथा क्षमताएँ।

(6) अधिगमकर्त्ता की रुचि तथा ध्यान ।

(7) अधिगमकर्ता की प्रवृत्तियाँ ।

अधिगम अनुभव इस प्रकार के चुने जाने तथा संगठित किये जाने चाहिए कि विद्यार्थी उद्देश्यों, विषयों सामग्री तथा क्रियाओं को अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप समायोजित कर सके। किसी भी पाठ्यक्रम में चुने गए अधिगम अनुभवों की वैधता का निर्णय विभिन्न मानदण्डों के आधार पर तथा उन परिवर्तनों के आधार पर जो अध्यापक को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जाने चाहिए, किया जाना चाहिए।

ह्वीलर ने अधिगम अनुभवों के चयन के लिए निम्नलिखित बिन्दुओं पर बल दिया गया है-

(1) विविधता (Variety)- अनुभव की विविधता का व्यापकता से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। बालकों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ होती हैं। इसीलिए सभी बालक भिन्न-भिन्न विधियों से सीखते हैं। इसके फलस्वरूप अधिगम अनुभवों में विभिन्नता होनी चाहिए जिससे बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं की समस्या का समाधान हो सके। इसके साथ-साथ न केवल विद्यार्थियों की अधिगम आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं, अपितु वे पृथक्-पृथक् गतियों एवं विधियों से सीखते है।

इसी कारण अधिगम अनुभवों में जितनी अधिक विविधता होगी, उतनी अधिक बालकों को सन्तुष्टि होगी।

(2) वैधता (Validity)– अधिगम अनुभव वैध होने चाहिए। ये वैध तब होते हैं जब ये अपेक्षित उद्देश्यों से सम्बन्धित हों। ये ऐसे भी होने चाहिए जिन्हें आसानी से क्रियान्वित किया जा सके। ऐसे अनेक व्यवहार होते हैं जो शैक्षिक रूप से तो महत्त्वपूर्ण होते हैं, परन्तु उन्हें परम्परागत विद्यालयी विषयों के अध्ययन से प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः हमें इन्हें परिणामों से सम्बन्धित करने के लिए प्रयत्न व्यवस्था की आवश्यकता होती है। यदि हम विद्यार्थियों में तथ्य एवं अभिवृत्ति में भेद करने की दक्षता विकसित करना चाहते हैं तो हमें पाठ्यक्रम में इसका अभ्यास देना होगा। भावात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत अभिवृत्ति, विश्वासों एवं मूल्यों का चयन किया जाता है। मनोवैज्ञानिक क्षेत्र के अन्तर्गत समूह कौशलों तथा अन्तर वैयक्तित्व सम्बन्ध आते हैं। ज्ञानात्मक क्षेत्र के अन्तर्गत अध्यापक को ज्ञान, व्यापकता, अनुप्रयोग, संश्लेषण विश्लेषण एवं मूल्यांकन को विकसित करने के लिए अलग-अलग अधिगम अनुभवों का चयन करना चाहिए।

(3) व्यापकता (Comprehensiveness)- अधिगम अनुभवों की व्यापकता से तात्पर्य यह है कि उनका चयन इस प्रकार से किया जाए जिससे पाठ्यक्रम में प्रस्तावित उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव हो सके। प्रायः यह देखा जाता है कि शैक्षिक उद्देश्यों की सूची तो तैयार हो जाती है, परन्तु उनको कार्य रूप देने में उपयुक्त व व्यापक अधिगम अनुभवों का चयन करना अत्यन्त कठिन कार्य माना जाता है। यह बात भी अनुभव में आती है कि उच्च स्तर की प्रक्रियाओं जैसे विश्लेषण, संश्लेषण, मूल्यांकन के लिए अधिगम अनुभवों का कोई प्रावधान नहीं होता

(4) प्रतिरूप (Pattern)- विभिन्न अधिगम अनुभवों के पारस्परिक सम्बन्ध एवं तारतम्यता को प्रतिरूप कहा जाता है। अधिगम अनुभवों का चयन करते समय प्रतिरूप के दो पहलुओं (i) दिये गए समय में बालक की मानी गई विशेषताएँ एवं (ii) समय के साथ होने वाले परिवर्तन के अन्तः सम्बन्धों को ध्यान में रखना चाहिए। प्रतिरूप के प्रमुख पक्ष निम्नलिखित होते हैं

(क) सन्तुलन, (ख) सतत्ता, (ग) प्रायोगिक सतत्ता, (घ) संचय, (च) अधिगम अनुभवों की पुनरावृत्ति और (छ) बहु अधिगम।

आइए अब हम इन पर विस्तार से चर्चा करें-

(क) सन्तुलन (Balance)- मानव अभिवृद्धि प्रक्रिया एवं पर्यावरण के बीच की अन्तःक्रिया के द्वारा परिपक्वता की ओर बढ़ती है और इसके लिए निश्चित अनुभवों की आवश्यकता होती है। इनमें से कुछ विद्यालय के बाहर पाए जाते हैं तथा कुछ विद्यालय के अन्दर पाए जाते हैं। विकास के सभी पहलुओं में न्यूनतम अनुभवों की आवश्यकता होती है जिन्हें विद्यालय को प्रदान करना चाहिए। इस प्रकार गतिविधियों में सन्तुलन बनाए रखना आवश्यक है।

(ख) सतत्ता (Continuity)- अधिगम एक सतत् प्रक्रिया है। प्रत्येक नवीन अनुभव पर कुछ-न-कुछ पूर्व के अनुभव का प्रभाव अवश्य पड़ता है। यह सततूता न केवल विद्यालयीन अनुभवों में होनी चाहिए अपितु विद्यालय के बाहर के अनुभवों में भी होनी चाहिए। अनुभवों की सतत् अन्तिम (Eventual) परिणामों के परिप्रेक्ष्य में विषय सामग्री की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण है। अनुभवों की सतत्ता व्यवहार परिवर्तन की एक स्थिति है।

(ग) प्रायोगिक सतत्ता (Practical Continuity)- कक्षा में प्रायोगिक सतत्ता भी होनी चाहिए। सतत्ता का सिद्धान्त यह माँग करता है कि कालांश पर्याप्त लम्बा होना चाहिए जिससे वह अनुभवों में सम्बन्ध स्थापित कर सके और उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर प्रगति की जा सके।

(घ) संचय (Cumulation)- अधिगम अनुभव परस्पर एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं। कोई भी विशेष अनुभव विशुद्ध रूप से किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति नहीं करता अपितु विभिन्न अधिगम अनुभव संयुक्त रूप से किसी एक दूरगामी उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होते हैं।

(च) अनुभवों की पुनरावृत्ति (Repeatition of Experience)- शिक्षा का उद्देश्य केवल किन्हीं निश्चित व्यवहार प्रतिरूपों का निर्माण करना ही नहीं है, अपितु इसका अभ्यास कराना व इसकी आदत डालना भी । अतः अधिगम अनुभवों की पुनरावृत्ति करना उपयोगी है। विद्यार्थियों को इस योग्य बनाया जाना चाहिए कि वे एक क्षेत्र में अर्जित ज्ञान का उपयोग अन्य क्षेत्रों में कर सकें।

(छ) बहु-अधिगम (Multiple Learning) – ब्लूम का यह मानना है कि संज्ञानात्मक क्षेत्र के उद्देश्यों की पूर्ति के साथ-साथ भावात्मक क्षेत्र में भी अधिगम होता है, इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है क्योंकि अधिगमकर्त्ता एक पूर्ण प्राणी है, अनेक अधिगम साथ-साथ घटित होते हैं। उदाहरण के लिए यदि विद्यार्थी को अशोक के बारे में पढ़ाया जा रहा है, तब वह उस समय की भौगोलिक स्थिति, परम्पराओं, शासन प्रणाली, युद्ध कौशल आदि सभी का साथ-साथ अध्ययन करते हैं

(5) उपयुक्तता (Suitability)- अधिगम अनुभवों का उपयुक्त होना भी आवश्यक है। ये बालक एवं कक्षा दोनों की दृष्टियों से उपयुक्त होनी चाहिए। विद्यार्थियों के समूहों के अनुदैर्ध्य से (Longitudinal) एवं आयु समूहों के निरीक्षण से तथा व्यक्तिगत अध्ययनों से मानव के सामान्य विकास क्रम के सम्बन्ध में काफी अंश तक ठीक-ठीक अनुमान लगाना सम्भव हो सकता है। अतः वे अधिगम अनुभव ही उपयुक्त होंगे जो बालक की उम्र के अनुसार हो ।

(6) पाठ्यक्रम का मूल्यांकन (Evaluation of the Curriculum)- किसी भी प्रणाली की प्रभावशीलता उसकी उपलब्धियों के आधार पर ही निश्चित की जा सकती है, क्योंकि उपलब्धि के द्वारा समाज की आवश्यकता की पूर्ति अवश्य होनी चाहिए। मूल्यांकन प्रक्रिया का निर्धारण भी योजना स्तर पर किया जाता है जब उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है। पाठ्यक्रम के मूल्यांकन के लिए उपयुक्त सामग्री का चुनाव करते समय बालक की आवश्यकताओं, रुचियों, अभिवृत्तियों तथा योग्यताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(7) जीवन से सम्बन्ध (Relevance with Life)- अधिगम अनुभव वास्तविक जीवन से सम्बन्धित होने चाहिए। यह सम्बन्ध न केवल भावी जीवन के लिए अपितु वर्तमान जीवन से भी होना चाहिए। अतः ऐसे परिप्रेक्ष्यों का चयन कर लिया जाना चाहिए जिससे अधिगमकर्त्ता अपने जीवन में उनका उपयोग कर सकें।

इस प्रकार अधिगम अनुभवों का चयन करने से पहले निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर प्राप्त किये जाने चाहिए-

(i) क्या अधिगम अनुभव उस ढंग से कार्य कर रहे हैं जिस प्रकार से हम चाहते हैं अर्थात् क्या वे पाठ्यक्रम के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हैं ?

(ii) क्या विद्यार्थी प्राप्त किए गए ज्ञान को व्यावहारिक रूप में अपनाने योग बन जाएँगे ?

(iii) क्या अधिगम अनुभव विद्यार्थियों के चिन्तन कौशलों तथा तर्क शक्ति का विकास कर पाएँगे ?

(iv) क्या अधिगम अनुभव विद्यार्थियों के नवीन अनुभवों के लिए खुला वातावरण प्रदान कर पाएँगे ?

(v) क्या अधिगम अनुभव विद्यार्थियों को उनकी आवश्यकताओं एवं रुचियों की पूर्ति के अवसर प्रदान करते हैं ?

(vi) क्या अधिगम अनुभव विद्यार्थियों की संज्ञात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों का सम्पूर्ण रूप से विकास कर रहे हैं ?

ये प्रश्न आपकी उचित अनुभवों के चयन में सहायता करेंगे। पाठ्य सामग्री के अनुभवों को उस वातावरण से पृथक् नहीं किया जा सकता जिसमें वे घटित होते हैं। विद्यार्थी जो सृजनात्मक वातावरण में कार्य करते हैं और वे अपने अधिगम के बारे में अधिक प्रेरित तथा उत्सुक रहते हैं।

एक बार अनुभवों का चयन होने के पश्चात् उनके संगठन का प्रश्न उत्पन्न होता है। शायद अधिगम अनुभवों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता उनके द्वारा एक क्रम का पालन करना है, जिससे सतत् एवं संचयी अधिगम सम्भव हो सके। मनोवैज्ञानिक रूप से उपयुक्त क्रम अभिक्रिया अधिगम अनुभव होता है। है

सामान्यतः अधिगम अनुभवों के भ्रमण के लिए तीन प्रमुख आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक होती है। एक अवस्था पर प्रारम्भ की गई अधिगम गतिविधियाँ प्रारम्भिक प्रारम्भ करने के लिए, उन्मुखीकरण के लिए होती हैं। इसमें निम्न गतिविधियाँ शामिल होती हैं-

(1) अध्यापक के लिए नैदानिक साक्ष्य प्रदान करना ।

(2) विद्यार्थियों को उनके अनुभवों के साथ संयोजनों में सहायता करना ।

(3) रुचि जाग्रत करना ।

(4) मूर्त वर्णात्मक प्रदत्त प्रदान करना, जिनके द्वारा समान की जाने वाली समस्या का प्रारम्भिक अनुभव हो।

(5) सहभागिता एवं अभिप्रेरणा का निर्माण करना ।

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