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ज्ञान के विषय में विश्वास | Beliefs About Knowledge in Hindi

ज्ञान के विषय में विश्वास
ज्ञान के विषय में विश्वास

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ज्ञान के विषय में विश्वास (Beliefs About Knowledge)

ज्ञान की प्रकृति अधिगम हेतु बहुत प्रभावी कारक है। अगर ज्ञान को एक तैयार उत्पाद एवं बच्चे की स्थानान्तरित की जाने वाली सूचनाओं के भण्डार के रूप में देखा जाय तो वह तुरन्त ही महत्त्वपूर्ण शिक्षाशास्त्रीय मान्यताओं की माँग करती है। एक वह मानवीय ज्ञान के एक वृहत कोष की माँग करती है (सभी विषय-क्षेत्र और विश्व कोष) । विषयों की सीमा को शक्ति एवं परम्परा पर आधारित प्रामाणिकता मिल जाती है।

ज्ञान की संकल्पना को अनुभव की तरह ले सकते हैं जिसका संगठन मुख्यतया भाषा के माध्यम से हुआ है, मुख्य विचारों के प्रतिरूप में जिससे अर्थ उत्पन्न होता है और जो हमें हमारे संसार को समझने में मदद करता है। समय के साथ, मनुष्य ने इस अर्थ में ज्ञान के भण्डार की बदौलत, सोचने के तरीकों और ज्ञान सृजन के खजाने को विकसित किया है। मानवीय विचार के क्षेत्र में हर नए प्रवेश पाने वाले को इस सौगात का एक महत्त्वपूर्ण भाव अपने दिमाग में सृजित करना होगा। यह महत्त्वपूर्ण है क्योंकि एक तो आगे विचार के आधार के लिए और इस संसार में उपयुक्त रूप से कार्य करने के लिए, दूसरा ज्ञान सृजन, अर्थ निकालने एवं मानव कर्म की प्रक्रिया में भागीदारी के तरीके सीखने के लिए। ज्ञान की यह संकल्पना हमें इस बात की आज्ञा देती है कि हम उस ज्ञान के भण्डार की इज्जत करें जिसका सृजन उसके संगठन एवं सृजन के सिद्धान्तों के साथ हुआ है और साथ ही वह अन्य विकल्पों और बेहतर सिद्धान्तों की खोज के लिए महत्त्वपूर्ण तरीके से लचीला है।

ज्ञान ग्रहण करने की प्रक्रिया विद्यार्थी के सक्रिय ज्ञान सृजन की प्रक्रिया बन जाती है इसके साथ ही प्रत्येक व्यक्ति की जिसमें बच्चे भी शामिल होते हैं, सृजन क्षमता होती है और वह अपने ज्ञान का सृजन स्वयं करता है, किन्तु अपने ज्ञान का सृजन करने के लिए बच्चों का सक्रिय जुड़ाव होना चाहिए। सक्रिय जुड़ाव का अर्थ शरीर एवं दिमाग की गतिविधियों के साथ जुड़ाव है। कई सारी शारीरिक गतिविधियों में दिमाग की सम्बद्धता भी शामिल होती है लेकिन कुछ शारीरिक गतिविधियों अगर दिमागी अनुप्रयोग की माँग नहीं करते हैं तो वे बहुत असंबद्ध और यान्त्रिक हो सकती हैं जैसे खाली बैठना और कुछ न करना, अपनी कॉपी श्यामपट्ट से नकल उतारना या रट्टा लगाने की प्रक्रिया बार-बार नकल या रट्टा मारने के कार्य किसी भी प्रत्ययात्मक समझ या विश्लेषणात्मक क्षमताओं का विकास नहीं करते हैं। खेल खेलना मानसिक एवं शारीरिक सम्बद्धता का एक अच्छा उदाहरण है जिसमें चिन्तन प्रक्रिया, सहयोग एवं प्रत्याशा की जरूरत होती है।

हम जानते हैं कि ज्ञान के निर्माण व उपयोग की क्षमता को किसी भी व्यक्ति हेतु बहुत लाभप्रद माना जाता है, ज्ञान का निर्माण एक द्वन्द्वात्मक (Dialectical) प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति व उसके वातावरण के बीच विभिन्न तथ्यों को गतिशील क्रियाओं द्वारा व्यवस्थित किया जाता है। ज्ञान का निर्माण एक चक्रीय क्रम (Spiral) है जो विरोधी सम्प्रत्ययों, जैसे- व्यवस्था व अव्यवस्था, सूक्ष्मता व व्यापकता, अंश व पूर्ण, मन व शरीर, मौन व स्पष्ट, स्व व अन्य, निगमन व आगमन तथा सर्जनात्मकता तथा सामर्थ्य आदि का साथ लेकर होता है। यह समझने की जरूरत है कि ज्ञान का निर्माण एक पारलौकिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा विभिन्न संस्थाएँ (व्यक्ति, समूह व संस्थान) प्राचीन मत से नये मत की ओर ज्ञान प्राप्ति द्वारा प्रविष्ट होती है। इस प्रक्रिया में नये प्रत्यात्मक निरूपण साक्ष्य व अन्तर्क्रिया की संरचनाओं का निर्माण किया जाता है जो नवीन सम्भावनाओं पर बल देते हैं तथा साथ ही साथ इन संस्थाओं को निरन्तर ज्ञान निर्माण हेतु प्रेरित भी करते हैं। इस प्रकार ज्ञान का निर्माण एक चक्रीय प्रक्रिया (cyclic process) है।

यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि ज्ञान वास्तविकता का अंश नहीं है। यह एक विशेष दृष्टि या सन्दर्भ से देखी गई वास्तविकता है। वही वास्तविकता किसी दूसरे दृष्टिकोण से एक अलग ही सन्दर्भ में देखी जा सकती है। ज्ञान के बारे में भारतीय सन्दर्भ, देश (पारिस्थितिकी), काल (समय) व पात्र (व्यक्ति) की भूमिका पर बल देता है। एक समान वास्तविकता को विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय पर अलग-अलग सन्दर्भों में देखा जा सकता है। व्यक्ति के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक वे ऐतिहासिक सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि ये सन्दर्भ व्यक्ति के जीवन में अर्थ प्रदान करने का आधार होते हैं। इसीलिए अस्तित्वीकरण (externalisation) विभिन्न नियमों व दोषों की उत्पत्ति का कारण बनता है क्योंकि इसके लिए दी गई प्रक्रिया की जटिलता अबूझ (undiscovered) ही रहती है। अतः ज्ञान निर्माण से, एक व्यक्ति वास्तविकता की सम्पूर्ण तस्वीर को उन व्यक्तियों से अन्तर क्रिया करके समझने का प्रयास करता है जिन्होंने उसे विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा है। यहाँ यह भी समझना महत्त्वपूर्ण है कि कैसे समूहों (व्यक्ति, कार्यकारी समूह आदि) के बीच की अन्तरक्रियाएँ गतिशील रूप से पूर्णता की ओर निरन्तर अग्रसर रहती हैं तथा जो प्रतिक्रिया स्वरूप उस वातावरण को भी प्रभावित करती हैं जहाँ शिक्षण क्रिया होती है।

ज्ञान का निर्माण मानवीय संस्था व सामाजिक संरचनाओं के बीच अन्तक्रियाओं के द्वारा होता है। वातावरण के साथ हमारी क्रियाएँ व प्रतिक्रियाएँ, मौन व स्पष्ट ज्ञान की विरोधी (Conversion) प्रक्रिया द्वारा ज्ञान की उत्पत्ति व वृद्धि करती हैं। हम अपने शैक्षिक कार्यों को एकाग्रता के मुख्य दो स्तरों के साथ करते हैं- व्यावहारिक एकाग्रता (Practical consciousness) व असम्बद्ध एकाग्रता (Discursive consciousness)। असम्बद्ध एकाग्रता हमें हमारे कार्यों के लिए तार्किकता (Rationalisations) प्रदान करती है और इसलिए इसके द्वारा स्पष्टतः सैद्धान्तिक ज्ञान प्राप्त होती है। व्यावहारिक एकाग्रता का सम्बन्ध हमारे जीवन के स्तर से है जिसे हम वास्तव में सिद्धान्त के रूप में नहीं सोचते हैं। इस सन्दर्भ में, हम कह सकते हैं कि मौन ज्ञान (facit knowledge) की उत्पत्ति हमारी व्यावहारिक जागरूकता से होती है तथा स्पष्ट ज्ञान की उत्पत्ति हमारी असम्बद्ध एकाग्रता (Discursive consciousness) से होती है।

साधारणतः सुनकर, पढ़कर, इन्द्रियों के द्वारा या चिन्तन कर हमें बहुत सी बातें मालूम होती हैं इसे ही हम ज्ञान कहते हैं। यह साधारण ज्ञान है। यह ज्ञान सत्य या असत्य दोनों हो सकता है। इसलिए बुद्धिवादियों (rationalists) के अनुसार ऐसा ज्ञान वास्तविक ज्ञान नहीं है। वास्तविक ज्ञान सदा सत्य होता है। वास्तविक ज्ञान सार्वभौम (Universal) तथा अनिवार्य (Necessary) होता है। सार्वभौमता का अर्थ है सभी काल (time) और देश (space) में सत्य होना, जैसे “अंश सम्पूर्ण से कम है” यह सभी देश और काल के लिए सत्य है। इसलिए वैसी बातें ही जो सभी देश और काल में सत्य हैं, वास्तविक ज्ञान है। वैसी बातें जो किसी काल विशेष या देश विशेष में सत्य हों, यथार्थ ज्ञान नहीं है। जैसे, ‘फूल लाल है।’ यह सभी देश और काल में सत्य नहीं है। उनमें यथार्थता का ज्ञान नहीं होता। अनिवार्यता का अर्थ है जिसका विपरीत सत्य न हो; जैसे- एक पदार्थ श्वेत और अश्वेत नहीं हो सकता या 2 + 2 = 4 इनका एक भी अपवाद नहीं है। इनका विपरीत कभी सत्य नहीं होता, न इनके विपरीत सोचा जा सकता है। अतः यह अनिवार्य सत्य है

ज्ञान हमारे मस्तिष्क के प्रत्ययों (ideas) के रूप में रहता है। ज्ञान की उत्पत्ति बुद्धि करती है। बुद्धि जन्मजात है। यह कोई अर्जित शक्ति नहीं है इसलिए ज्ञान भी जन्मजात प्रत्ययों (innate ideas) के रूप में रहता है। जन्मजात प्रत्ययों को सहज प्रत्यय भी कहा जाता है। वे जन्म से ही विद्यमान रहते हैं। वे स्वयंसिद्ध (Axiomatic) होते हैं। उन्हें सिद्ध करने के लिए किसी बाहरी तर्क की जरूरत नहीं है। वे ही ज्ञान के आधार हैं। बुद्धिवाद के अनुसार सहज प्रत्ययों को ही ज्ञान माना गया है, इसलिए इस मत को सहज ज्ञानववाद कहा जाता है।

सहज प्रत्यय सार्वभौम तथा अनिवार्य होते हैं। इसलिए वे अनुभव से प्राप्त नहीं होते। वे अनुभव निरपेक्ष (Apriori) हैं। इसलिए इस मत का अनुभव निरपेक्षवाद (Apriorism) भी कहा जाता है।

सहज प्रत्यय मूल रूप में विकसित रहते हैं या अविकसित इस विषय पर दो विचार हैं। एक के अनुसार सहज प्रत्यय मूल रूप में भी विकसित ही होता है। दूसरे मत के अनुसार सहज प्रत्यय मूल रूप से विकसित रहते हैं पर धीरे-धीरे उनका विकास होता है। इसलिए बचपन में उन्हें हम नहीं समझते, पर कुछ समय बीतने पर उन्हें समझने लगते हैं। अब प्रश्न उठता है कि ज्ञान कैसे होता है ? वास्तविक ज्ञान की विधि क्या है ?

सहज प्रत्यय ही ज्ञान के मूल स्रोत हैं। उनसे ही उन्हें आधार मानकर बुद्धि निष्कर्ष निकालती है। बुद्धि सक्रिय है निष्क्रिय नहीं। सहज प्रत्यय जो सार्वभौम तथा अनिवार्य हैं, उनसे ही निगमन विधि के द्वारा बुद्धि निष्कर्ष निकालती है। इस प्रकार एक से दो, दो से चार अनेक प्रत्ययों का समूह बन जाता है, इसे ही ज्ञान कहा जाता है तथा इसीलिए ज्ञान की पद्धति निगमनात्मक (Deductive) है। वास्तविक ज्ञान स्वयंसिद्ध सिद्धान्तों से निष्कर्ष रूप में मिलता है।

इसी प्रकार अनुभववाद (Empricism) के अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति अनुभव से होती है। इस मत के अनुसार अनुभव (Experience) ही ज्ञान को मुख्य साधन माना गया है। इसलिए इसे अनुभववाद भी कहा गया है। ज्ञान को केवल एक मार्ग है और वह है अनुभव, बुद्धि नहीं। हमारे ज्ञान भण्डार में जो कुछ भी प्राप्त है वह सब अनुभव से प्राप्त है। (There is nothing से in the intellect which was not previously in the case)। ज्ञान का कोई भी अंश अनुभव निरपेक्ष (Apriori) नहीं है। इस मत के अनुसार जन्म से कोई भी ज्ञान नहीं रहता, सभी ज्ञान जीवन काल में अर्जित किया जाता है। लॉक ने भी स्पष्ट किया है कि जन्म के समय मस्तिष्क में कोई प्रत्यय या ज्ञान नहीं रहता। जन्म के समय मस्तिष्क कोरा कागज या सादा स्लेट (Tubula Rasa) की भाँति रहता है। अनुभव इसी पर छाप डालता जाता है। इसे हम ज्ञान कहते हैं।

इस ज्ञान का आधार प्रत्यय (ideas) है जो अनुभव से प्राप्त होते हैं। इन्हीं प्रत्ययों को जोड़ने-घटाने से ज्ञान रूपी महल खड़ा होता है। बुद्धि ज्ञान को अपने आप उत्पन्न नहीं करती बल्कि अनुभव द्वारा प्राप्त प्रत्ययों को संजोती है। इसलिए बुद्धि ज्ञान प्रक्रिया में निष्क्रिय रहती है। इसका कार्य है ग्रहण करना। यह सक्रिय भी है पर उतनी ही दूर तक कि अनुभव द्वारा संगृहीत प्रत्ययों को वह जोड़ती और घटाती है। इसकी इतनी भी शक्ति नहीं है कि बिना अनुभव किये हुए एक नये प्रत्यय को यह उत्पन्न कर दे या किसी संग्रह किए हुए एक प्रत्यय को हटा दे। इसी कारण बुद्धि को अनुभववादियों ने निष्क्रिय कहा है।

ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया व ज्ञेय का सम्बन्ध स्पष्ट है। ज्ञात की जागरूकता का स्तर प्राप्ति की प्रक्रिया का निर्धारण करता है तथा साथ ही प्राप्त किये गये ज्ञान के स्वरूप का भी निर्धारण करता है। शिक्षा पारम्परिक रूप से ज्ञाता को अधिक लाभकारी व परिपूर्ण ज्ञान की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क के गहन स्तरों का प्रयोग करने का प्रशिक्षण देती है। ज्ञाता व ज्ञेय पारलौकिक एकाग्रता की पृष्ठभूमि पर अभिन्न हो जाते हैं जिसका परिणाम प्राकृतिक नियम का पूर्ण ज्ञान होता है और इस आधार पर विचार और कर्म स्वमेव ही अधिक प्रभावी हो जाते हैं।

ज्ञान प्राप्ति की यह प्रक्रिया व्यक्तिगत कार्य से सम्बन्धित है जो कि अनुभव तथा अनजाने में ही प्राप्त किये सन्दर्भों से प्रभावित होती है। ज्ञान के ये तीन पहलू हैं- ज्ञाता (व्यक्ति की जागरूकता), ज्ञेय (अध्ययन क्षेत्र) और ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया (Process of knowing) जो ज्ञाता को ज्ञेय से जोड़ती है। वर्तमान शिक्षा में केवल ज्ञेय व अध्ययन क्षेत्र पर जोर दिया जाता है व अन्य तथ्य जैसे ज्ञाता व ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को छोड़ दिया जाता है।

ज्ञान का विश्लेशण करने पर भी उसमें दो तथ्य मिलते हैं ज्ञाता और ज्ञेय अर्थात ज्ञान का विषय कोई पदार्थ होता है। ये पदार्थ द्रव्य और गुणों के बने होते हैं। किसी भी पदार्थ में कोई द्रव्य होता है, जिसमें कुछ गुण होते हैं। कुर्सी एक पदार्थ है जिसका द्रव्य लकड़ी है और उसके अनेक गुण हैं- रंग, लम्बाई, चौड़ाई आदि। ऐसे पदार्थ भौतिक होते हैं। ज्ञान इन्हीं विषयों या पदार्थों का होता है।

जिन पदार्थों का ज्ञान होता है उनका अस्तित्व बाह्य (external) होता है। उनका इन्द्रियों (senseorgans) के द्वारा ज्ञान होता है। इन्द्रियों से संयोग (Contact) होने पर ही उनका ज्ञान होता है। बाह्य का अर्थ है कि उनका अस्तित्व हमारे ज्ञान पर निर्भर नहीं है। हमें उनका ज्ञान हो या न हो, वे जैसे हैं वैसे ही रहते हैं, हमारी चेतना (consciousness) उनमें कोई अन्तर नहीं उत्पन्न करती।

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