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संतकाव्य धारा की विशेषताएँ | संत काव्य धारा की प्रमुख प्रवृत्तियां

संतकाव्य धारा की विशेषताएँ
संतकाव्य धारा की विशेषताएँ

संतकाव्य धारा की विशेषताएँ

संतकाव्य धारा की विशेषताएँ – संतकाव्य धारा के अंतर्गत भक्ति भावना का प्रवाह आद्योपान्त दिखाई देता है। काव्यत्व की दृष्टि से यह काव्यधारा भले ही उच्च स्तरीय न रही हो, किन्तु वैचारिक दृष्टि से इसका महत्त्व बहुत अधिक है । वास्तव में संत काव्य एक विद्रोही कवि की मनोभूमि से उद्भूत सहज सरल अभिव्यक्तियों का काव्य है। जैसे संत कवि आडम्बरों का विरोध करते थे, वैसे ही इन्होंने अपने काव्य को भी कृत्रिमता और प्रदर्शन की मनोवृत्ति से दूर रखा है। इनकी अभिव्यक्ति सहज और निश्छल है। न इनके यहाँ अलंकार प्रयोग के प्रति आकर्षण है और न परिष्कृत शब्दावली का मोह ही है। संत काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को अग्रांकित रूप में समझा जा सकता है-

निर्गुण ब्रह्म की उपासना-

संत काव्य की पहली प्रवृत्ति निर्गुण ब्रह्म की उपासना रही है। इनका निर्गुण ब्रह्म बौद्ध साधकों के शून्य से पृथक है। वह सृष्टि के कण-कण में व्यास है और वही प्रत्येक जीवधारी की साँस में समाया हुआ है। वह वर्णन से परे है, उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। इसी कारण कबीर ने स्पष्ट कहा था कि-

“पारब्रह्म के तेज का, कैसा है उन्माद,
कहिबे कूँ सोभा नहीं, देख्या ही परखान॥”

मिथ्या आडम्बरों और रूढ़ियों का विरोध-

संत कवियों ने मिथ्या आडम्बरों और रूढ़ियों का विरोध किया है। इसका प्रमुख कारण यह रहा है कि संत मत वज्रयानी सिद्धों और हठयोगियों के सिद्धान्तों से पर्याप्त प्रभावित रहा है। इन सिद्धों और योगियों ने सामाजिक बंधनों और आडम्बरों की कटु आलोचना की है। यही प्रवृत्ति संत काव्य के अंतर्गत मिलती है। कबीर ने तिलक, छापा, माला, रोज़ा, नमाज़ और योग की क्रियाओं को व्यर्थ बतलाया था और जो इन्हें मानते थे, उन्हें कड़ी फटकार देकर उन्हें सही मार्ग पर लाने का प्रयास किया था।

गुरु की महत्ता-

संत काव्य में सभी संतों ने गुरु को विशेष महत्त्व दिया है। अधिकांश संतों ने गुरु को ईश्वर के समान माना है। समूचे संत काव्य में गुरु के महत्त्व का प्रतिपादन बहुत सरल किन्तु आकर्षक ढंग से हुआ है।

जाति-पाँति का विरोध-

संत काव्य में जाति-पाँति के नियों का खुला विरोध देखने को  मिलता है। सभी संत यह मानकर चले हैं कि सृष्टि के सभी मनुष्य बराबर हैं और सभी को समान रूप से ईश्वर भक्ति का अधिकार है। “जाति-पाँति पूछै नहिं कोई, हरिको भजैसोहरि का होई” सिद्धान्त के आधार पर संत काव्य का विकास हुआ आचार्य शुक्ल के कथनानुसार जाति-पाँति के खंडन के पक्ष में सभी संत थे क्योंकि ये छोटी जाति के थे। कबीर स्वयं जुलाहा थे, रैदास चमार थे। इसके अतिरिक्त संतों ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए एक ही सामान्य भक्तिमार्ग की उद्भावना की थी ।

प्रेम की महत्ता-

संत काव्य में प्रेम के महत्त्व को मुक्तकंठ से स्वीकार किया गया है। यह विवाद का विषय भले ही है कि प्रेमतत्त्व कहाँ से आया है, किन्तु संत कवि इसी तथ्य को सत्य बतलाते थे कि भक्ति के मार्ग में और प्रेम के मार्ग में कोई अंतर नहीं है। प्रेम का मार्ग स्वार्थ के त्याग, अहंकार के त्याग और समर्पण का मार्ग है। जो जितना समर्पण कर सकता है वह उतना ही बड़ा भक्त बन सकता है।

रहस्यवाद-

प्रेमतत्त्व को महत्त्व देने के कारन ही संत काव्य में रहस्यवादी चेतना का विकास हुआहै। वैसे तो संत काव्य में खंडन-मण्डन की प्रवृत्ति के पर्याप्त दर्शन होते हैं, किन्तु प्रेम के एकान्त साम्राज्य में पहुँचकर ये और सब कुछ भूलकर “जल में कुम्भ कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी” देखने लगते है। सभी संतों की आत्मा प्रेमानुभूतियों से व्याकुल होकर ईश्वर प्राप्ति के लिए तड़पती रहती हैं। कबीर आदि संतों कीवाणी में सुकता और मिलन आदिरहस्यवाद की सभी अवस्थाओं के दर्शन सरलता से हो जाते हैं।

नामस्मरण एवं भजन पर जोर-

गुरु द्वारा प्राप्त ईश्वर के नाम का स्मरण करने से, लगातार उसका भजन करने से ही मुक्ति सम्भव है। यह धारणा सभी संतों की रही है। वे मानते रहे हैं कि धार्मिक या आध्यात्मिक पोथियाँ पढ़ने से व्यक्ति माया-मोह के बंधनों से मुक्त नहीं हो सकता है। इसी भावना के कारण कबीरने प्रेम का ढाई अक्षर पढ़ने की सलाह दी थी। नाम-स्मरण महत्त्व बतलाते हुए कबीर ने तो स्पष्ट कहा था-

“दशरथ सुत तिहुँ लोक बखाना,
राम नाम का मरम है आना।”

मार्मिक उक्तियाँ-

संत काव्य में प्रेमको महत्त्व देने के कारण शृंगार के विरह पक्ष से जुड़ी हुई अनेक मार्मिक उक्तियाँ देखने को मिलती हैं। सभीसंतों ने वियोग शृंगार की अभिव्यंजना पूरीमार्मिकता के साथ किया है। जहाँ मार्मिक अनुभूतियों की अभिव्यंजना है, वहाँ पर संत काव्य कलात्मक सौन्दर्य लेकर सामने आया है। कबीर की साखियों में विरहिणी आत्मा की व्याकुलता को भलीभांति देखा जा सकता है। उदाहरणार्थ-

बहुत दिनन की जोवती बाट तुम्हारी राम।
जिव तरसे पिव मिलन को, मन नाहीं बिसराम॥

आय न सकौं तुज्झ पै, सकौं न तुज्झ बुलाय।
जियरा यों ही लेहुगे, विरह तपाय तपाय॥

ये वे पंक्तियाँ हैं जिनमें न तो कृत्रिमता है और न प्रदर्शन की प्रवृत्ति है । यहाँ तो भावुकता का निर्झर सहज ही प्रवाहित होता हुआ दिखाई दे रहा है। ऐसी सरस और मार्मिक उक्तियों के कारण ही संत काव्य काव्यत्व से युक्त होकर सामने आया है।

माया का विरोध-

माया का विरोध सभी संतों ने खुलकर किया है। समूचे भक्तिकाल में माया की निन्दाकी गयी है। माया को महाठगिनी बतलाते हुए उससे सावधान रहने की बात कही है। कबीर की ये पंक्तियाँ देखिए जिनमें माया का विरोध स्पष्टत: मुखरित हुआ है-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै बोलै मधुरी बानी॥
केशव के कमला होई बैठी, तीरथ हू में पानी।
जोगी के जोगिन होई बैती, राजा के घर रानी॥
काहू के हीरा होई बैठी, काहू के कौडी कानी।
भक्तन के भक्तिन होइ बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मानी॥
कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अथक कहानी॥

लोक-संग्रह की भावना-

संत काव्यमें लोक-संग्रह की भावना आद्योपान्त दिखाई देती है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सभी संत साधक बहुश्रुत थे। इन्होंने समस्त संप्रदायों का सारतत्त्व लेकर अपनी मान्यताएँ निश्चित की थी। इतना ही नहीं, सभी संत गृहस्थ धर्म और जीवन के पोषक थे। जीवन से पलायन करना ये उचित नहीं मानते थे। इनका विश्वास था कि संसार में रहकर सभी उचित मानवीय कर्म करते हुए भी मुक्ति को प्राप्त किया जा सकता है। इसी मान्यता के कारण सभी संतों के काव्य में सामाजिकता और लोक-संग्रह की भावना प्रचुरता से व्यक्त हुई है। गुरुनानक का यह कथन “किरन करौं अतेवण्ड के छकों” अर्थात् कर्म करो और बाँट कर खाओ । संतों की लोक-संग्रह की भावना का ही द्योतक है। समाज सुधार का जो संकल्प इन कवियों ने लिया था, वह भी लोक-संग्रह की भावना से निकट जान पड़ता है।

लोकभाषा का प्रयोग-

संतों ने पारण धर्म को स्वीकार करते हुए लोकभाषा का प्रयोग किया है। इनकी भाषा में न तो कहीं आडम्बर है और न कहीं परिष्करण की प्रवृत्ति ही दिखाई देती है। घुमक्कड़ी वृत्ति के कारण इनकी भाषा में विभिन्न प्रान्तीय बोलियों के शब्द भले ही आगये हों, किन्तु इनकी अभिव्यक्ति सीधी, सरल और सपाट रही है। इसी कारण इनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा कहा गया है। संतों की वाणियों में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिन्दी, फारसी, अरबी, संस्कृत, राजस्थानी और पंजाबी आदि भाषाओं के शब्द मिलते हैं।

पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग-

सभी संतों ने पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग किया है। इनके पारिभाषिक प्रयोगों में शून्य, अवधूत, निरंजन आकाश, अनहद जैसे शब्दों को लिया जा सकता है । इस प्रकार के शब्दों के प्रयोग के मूल में विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है की ऐसे प्रयोगों से काव्यत्व कम हो गया है और कविता दुरुह हो गयी है। कल्पनात्मकता के अभाव के कारण पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से वाक्यों में क्लिष्टता आ गयी हैं।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि संत काव्य एक विचित्र और आकर्षक काव्य रहा है। इसमें तत्कालीन अनेक काव्यधाराओं के सिद्धान्त देखने को मिलते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि संत काव्यने भेद को अभेद में बदल दिया और द्वैत को अद्वैत की भूमिका पर लाकर भेदभाव रहित एक मानवीय संस्कृति की स्थापना की।

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