अम्बेडकर के राजनीतिक विचार
डॉ० अम्बेडकर के राजनैतिक विचार- डॉ० अम्बेडकर के प्रमुख राजनैतिक विचारों का विवेचन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया गया है-
1. भाषायी राज्यों के सम्बन्ध में डॉ० अम्बेडकर के विचार
डॉ० अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक (‘Thoughts on Linguistic State’ (1955) में भाषायी राज्यों के सम्बन्ध में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहा है– “भाषायी प्रान्तों के निर्माण से लोकतन्त्र अधिक अच्छी प्रकार से क्रियान्वित होता है। एक भाषायी प्रान्त में मिश्रित प्रान्त की तुलना में सामाजिक एकजुटता अधिक अच्छी प्रकार बनी रहती है। भाषायी प्रान्तों के निर्माण से तो खतरा नहीं है किन्तु खतरा इस बात से अवश्य है कि प्रत्येक प्रान्त की एक ही भाषा को सरकारी काम-काज की भाषा बना दिया जाये।”
उनके अनुसार यदि क्षेत्रीय भाषाओं को राज्य भाषा बना दिया गया तो प्रत्येक प्रान्त में ऐसी संकुचित संस्कृति का विकास होगा जिसकी परिणति अन्ततोगत्वा भारत की एकता को खण्डित करने में होगी।
उन्होंने भाषायी राज्य के समर्थन में दो तर्क दिए। पहला, इससे लोकतन्त्र का क्रियान्वयन आसान होगा और दूसरा, इससे जातीय और सांस्कृतिक तनावों को दूर किया जा सकेगा। उनके अनुसार प्रादेशिक भाषा के स्थान पर हिन्दी को सरकारी काम-काज की भाषा बनाया जाना चाहिए और जब तक हिन्दी का समुचित विकास नहीं होता तब तक अंग्रेजी में कार्य करने दिया जाय।
2. जनतन्त्र सम्बन्धी विचार
अम्बेडकर के अनुसार, “लोकतन्त्र शासन का ऐसा रूप तथा पद्धति है जिसमें बिना रक्त बहाए क्रांतिकारी, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त होता है।” वे लोकतन्त्र की संसदीय पद्धति के समर्थक व प्रशंसक थे। लेकिन उनका कहना था कि बिना सामाजिक तथा आर्थिक लोकतन्त्र के राजनीतिक लोकतन्त्र सफल नहीं हो सकता। संसदीय लोकतन्त्र की सहायता के लिये वे सामाजिक तथा आर्थिक समानता, सुदृढ़ विपक्षी दल, स्थायी सिविल सेवा तथा संवैधानिक नैतिकता को आवश्यक शर्त मानते थे।
3. राज्य सम्बन्धी विचार
अम्बेडकर राज्य को समाज सेवा का एक साधन मानते थे। यद्यपि वे जानते थे कि राज्य सभी महत्त्वपूर्ण कार्यों का संपादन करता है यहाँ तक कि सामाजिक आर्थिक परिवर्तन कर नूतन व्यवस्था की स्थापना का कार्य भी राज्य ही करता है तथापि वह सर्वशक्तिमान और निरंकुश नहीं है, बल्कि समाज सेवा का एक साधन है।
4. अधिकार सम्बन्धी विचार
अम्बेडकर व्यक्ति के कुछ अधिकारों के पीछे संवैधानिक उपचारों का प्रावधान आवश्यक मानते थे। इसके साथ ही साथ वे अधिकारों के पीछे सामाजिक और नैतिक स्वीकृति भी आवश्यक मानते थे। उनके शब्दों में- “यदि मौलिक अधिकारों का समुदाय द्वारा विरोध होता है तो कोई भी कानून, न्यायालय और संसद उनकी रक्षा नहीं कर सकते, क्योंकि कानून व्यक्तियों की भावनाओं की प्रतिच्छाया होता है।”
5. राजनीतिक स्वतन्त्रता और राष्ट्रीय एकीकरण सम्बन्धी विचार
डॉ० अम्बेडकर प्रारम्भ से ही देश और राजनीतिक स्वतन्त्रता के समर्थक थे। अपने शोध प्रबन्ध “The Evolution of Provincial Finance in the British India” में उन्होंने दो सिद्धान्त प्रतिपादित किए थे-
(i) प्रत्येक देश में सामाजिक शोषण तथा अन्याय व्याप्त है, तथा
(ii) इसका अर्थ यह नहीं है कि उस देश को राजनीतिक शक्ति प्राप्त न हो।
यद्यपि उनका कांग्रेस व गाँधीजी की पद्धतियों से विरोध था, लेकिन वे स्वतन्त्रता के विरोधी नहीं थे। कुछ विद्वानों ने उनके 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ के विरुद्ध प्रचार करने पर उनके राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के प्रति दृष्टिकोण पर आपत्ति की थी, लेकिन उनका यह विरोध, वास्तव में— देश की स्वतन्त्रता के लिए अपनायी जाने वाली रणनीति और व्यूह रचना के मतभेद से सम्बन्धित था।
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