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सेवारत् अध्यापक शिक्षा | सेवारत् अध्यापक शिक्षा का अर्थ, परिभाषा, महत्व

सेवारत् अध्यापक शिक्षा
सेवारत् अध्यापक शिक्षा

सेवारत् अध्यापक शिक्षा

(A) ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

(i) प्राचीन काल- भारत में विभिन्न समुदायों के मध्य विभिन्न माध्यमों से काफी समय पहले शिक्षा के विस्तार का विचार था। मेला, त्यौहार, अर्ध, औपचारिक, सामाजिक, धार्मिक माध्यम से पूरे समुदाय एवं शिक्षकों को धार्मिक एंव नैतिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। इसके अलावा धार्मिक यात्रा, सामुदायिक वार्तालाप आदि भी शिक्षा प्रदान करने के साधन थे।

(ii) अंग्रेजों का काल- अंग्रेजों के समय में अध्यापक शिक्षा के प्रति कम प्रयास किये गए। वुड डिस्पैच ने शिक्षकों में उनके व्यवसाय में सुधार एवं विकास की घोषणा की। भारतीय शिक्षा आयोग 1882 ने निम्नलिखित प्रस्तावों को पारित किया-

(a) शिक्षण सिद्धान्तों एवं अभ्यास की परीक्षा के लिए व्यवस्था की जाये। इस परीक्षा में सफल होने पर ही माध्यमिक शिक्षा में स्थाई अध्यापक की नियुक्ति की जायेगी।

(b) स्तानक स्तर के छात्रों को इस परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए कुछ समय के लिए प्रशिक्षण के लिए जाना आवश्यक होता है।

( B ) सेवारत् अध्यापक

शिक्षा के प्रत्यय और प्रशिक्षण संस्थाओं की भूमिका संकेत सर्वप्रथम लार्ड कर्जन 1904 की शिक्षा नीति में मिलता है। इसके बाद सेवारत् अध्यापक शिक्षा के इतिहास का उल्लेख भारत सरकार के फरवरी 1913 के शिक्षा नीति के प्रस्ताव में किया गया था। सन् 1929 में हटांग समिति ने अपने प्रस्ताव में स्पष्ट रूप से सेवारत् अध्यापक-शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया था। हटांग समिति के प्रस्ताव के मंजूर होने पर संघीय शासन की राज्य सरकारो ने अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था का आरम्भ किया था। सन् 1973 में भारत में ए.बूट एंव एस.एच.छल ने व्यावसायिक शिक्षा की रिपोर्ट प्रकाशित की। इसमें यह विचार स्पष्ट किया गया कि शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था दो रूपों में की जाये-

(i) सेवारत अध्यापक-शिक्षा (ii) पूर्व सेवारत् अध्यापक शिक्षा सन् 1973 के बाद में भारत में सेवारत अध्यापक शिक्षा का विकास आरम्भ हुआ।

(C) स्वतन्त्रता के बाद का काल

सन् 1944 में युद्धोपरान्त शिक्षा के विकास के लिए रिपोर्ट प्रकाशित हुई, जिसमें शिक्षक प्रशिक्षण संस्थाओं के विकास की बात कही गयी। सन् 1944 से 1948 के मध्य तक यह पाया गया कि विभिन्न राज्य देश में इस व्यवस्था को नया रूप दे रहे है। मद्रास, बिहार एंव उत्तरप्रदेश में फिर रिफ्रैशर कोर्स एवं ग्रीष्मकालीन संस्थाएँ स्थापित की गयी। सन् 1949 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने एक अति आवश्यक प्रस्ताव पारित करके हाई स्कूल एंव इण्टरमीडिएट के शिक्षकों के लिए संस्थाओं में रिफ्रैशर पाठ्यक्रम का आरम्भ किया था समिति ने यह प्रस्ताव पारित किया कि इस योजना की सार्थकता अध्यापकों की पदोन्नति से सम्बन्धित करके प्रमाणित की जा सकती है। प्रत्येक चार या पाँच वर्ष के बाद शिक्षकों को उनकी उपस्थिति के आधार पर पदोन्नति देकर इस योजना को प्रभावी बनाया जा सकता है। सन् 1950 में प्रशिक्षण संस्थाओं के प्राचार्यों की गोष्ठ बड़ौदा में हुई। इस समिति ने पूर्व शिक्षकों के प्रशिक्षण एवं सेवारत् अध्यापको के लिए रिफ्रैशर पाठयक्रम तथा ऐसे शिक्षकों के लिये उच्च प्रशिक्षण की व्यवस्था पर बल दिया जो कि किसी-किसी विशेष क्षेत्र में विशेष योग्यता चाहते हैं।

सन् 1951 में प्रशिक्षण महाविद्यालयों के संघ के संयुक्त सचिव ने व्यावसायिक संस्थाओं के द्वारा पत्राचार पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षा की व्यवस्था के प्रति ध्यान दिलाया और व्यावसायिक प्रशिक्षण के विकास पर बल दिया। सन् 1958 में माध्यमिक शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित क्रियाओं की सिफारिश की जो कि प्रशिक्षण संस्थाओं में दी जानी चाहिये (i) रिफ्रेशर पाठ्यक्रम । (ii) विशिष्ठ विषयों मे अल्प- तीव्र पाठ्यक्रम । (iii) कार्यशाला में व्यावहारिक प्रशिक्षण। (iv) गोष्ठी एवं व्यावहारिक वाद-विवाद सन् 1954 में तीसरी गोष्ठि आयोजित की गई जिसमें भारत की प्रशिक्षण संस्थाओं के प्राचार्यों ने इस व्यवस्था के विषय में फिर से विचार-विमर्श किया। इसमें सेवारत् अध्यापक शिक्षा के विषय में विशेषवार्ता हुई।

सन् 1955 में भारतीय माध्यमिक परिषद् ने सेवारत् अध्यापकों की शिक्षा के लिये एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित योजना के शुभारम्भ के लिये दृढ़ संकल्प किया जिसके अन्तर्गत देश की चुनी गई प्रशिक्षण संस्थाओं में विस्तार सेवा के माध्यम से सेवारत् अध्यापक शिक्षा का आरम्भ किया जाना था। परिषद् ने विस्तार सेवा केन्द्र के माध्यम । 24 प्रशिक्षण माहविद्यालयों
[9:54 pm, 09/04/2022] Shubham Yadav: में सेवारत् अध्यापको में व्यावसायिक गुणों के विकास एवं संस्थाओं के सुधार के लिये एक कार्यक्रम का आरम्भ किया। सन् 1957-1958 के मध्य विभिन्न अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाओं ने विस्तार सेवा केन्द्र खोले। इस प्रकार प्रशिक्षण संस्थाओं की संख्या 54 तक पहुँच गई। सन् 1959 में इस परिषद् को परामर्श समिति का रूप दे दिया गया और इसकी देख-रेख शिक्षा मंत्रालय द्वारा दी जाने लगी। भारत सरकार ने इसे नये विभाग के अन्तर्गत काम करने के लिये रखा। इस विभाग का नाम ‘माध्यमिक शिक्षा प्रसार नियोजन निदेशालय’ रखा गया। सितम्बर 1961 में एक नयी स्वायत्त संस्था ‘राष्ट्रीय प्रशिक्षण एवं अनुसंधान परिषद्’ की स्थापना की गयी। डैपसे को इस संस्था के एक विभाग के रूप में मान्यता प्रदान की गयी। सन् 1962 मे और अधिक विस्तार सेवा विभागों की स्थापना की गयी जिससे कि अधिक से अधिक लोग प्रसार सेवा का उपयोग कर सकें। इसी वर्ष में 23 प्रशिक्षण विद्यालयों में प्रसार इकाइयाँ खोली गयी। सेवारत् अध्यापक शिक्षा एवं विस्तार सेवा इकाइयों की संख्या सन् 1965 तक 1996 तक पहुँच गयी थी।

सन् 1962-63 के मध्य रा.प्र.अनु.प. अपने बेसिक शिक्षा विभाग के माध्यम से प्रशिक्षण विद्यालयों में 23 प्रसार सेवा केन्द्रों की स्थापना की।

सन् 1964 में शिक्षा आयोग ने चार-पाँच वर्ष में एक बार सभी सेवारत् अध्यापकों के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता पर विशेष बल दिया। इस प्रकार सेवारत् अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता पर लगातार बल दिया जाता रहा है। देश के विभिन्न भागों में सेवारत् शिक्षकों के प्रशिक्षण के विभिन्न प्रकार के केन्द्रो पत्राचार संस्था, अवकाश कालीन संस्था की स्थापना की गयी है। समय-समय पर विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों, वाद-विवादों और सेम्पोजियमों का आयोजन किया जाता रहा है, परन्तु देश में सेवारत् अध्यापकों के पर्याप्त प्रशिक्षण की आवश्यकता आज भी बनी हुई है, जिससे कि इसकी कमियों को दूर किया जा सकें, तथा शिक्षकों के व्यावसायिक गुणों में विकास हो सकें।

सेवारत् अध्यापक शिक्षा का अर्थ

सेवारत् अध्यापक शिक्षा में व्यावसायिक अध्यापकों एवं अन्य अध्यापको को उनके व्यवसाय से सम्बन्धित निरन्तर जानकारी प्रदान करना, एवं व्यावसायिक गुणों तथा कौशलों में सुधार एंव विकास करना सम्मिलित है। सेवारत् अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था, अध्यापक को शिक्षण व्यवसाय में प्रवेश करने पश्चात् उनके लगातार विकास के लिए उचित अनुदेशन को सुनिश्चित करने के लिए दी जाती है। सेवारत् अध्यापक शिक्षा द्वारा अध्यापको के अन्दर व्यावसायिक गुणों का विकास किया जाता है।

सेवारत् अध्यापक शिक्षा की परिभाषा

एम.बी.बुच- “सेवारत् अध्यापक शिक्षा एक क्रियाबद्ध योजना है, जिसका उद्देश्य शिक्षक और शैक्षिक सेवा कर्मचारियों का निरन्तर विकास है।”

(“In service education is thus, a programme of activities aiming at the continuing growth of teachers and educational personnel in service.”) केन (1969) “वे समस्त क्रियायें एवं पाठ्यक्रम जिनका उद्देश्य सेवारत् अध्यापक के व्यावसायिक गुणों को स्थाई करना तथा उनमें इच्छा शक्ति एवं कौशलों का विकास करना होता है, सेवारत् अध्यापक शिक्षा के प्रत्यय में आता है।”

(“All those activities and coures which aim at enhencing and strengthening the professional knowledge, interest and skills of serving teachers.”)

सेवारत् अध्यापक शिक्षा की क्रियायें 

(i) व्यावसायिक ज्ञान प्राप्त करना। (ii) कौशल का विकास करना। (iii) व्यवसाय के प्रति अभिवृत्ति उत्पन्न करना। (iv) व्यवसाय से सम्बन्ध रखना। (v) व्यावसायिक कौशल, प्रशासकीय कौशल, प्रबन्धकीय कौशल, व्यवस्थापकीय कौशल, नेतृत्व कौशल आदि का विकास करना। (vi) शिक्षण व्यवसाय के प्रति अभिरूचि उत्पन्न करना। (vii) शिक्षण विधियों और शोध कार्यों पर आधारित पाठ्यक्रम तथा (viii) सेमीनार, सेम्पोजियम, गोष्ठी, वार्तालाप आदि क्रियाकलापों की व्यवस्था करना।

सेवारत् अध्यापक शिक्षा का महत्व

(1) विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ( University Education Commission, 1949 )– विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता इन शब्दों में व्यक्त की है, “यदि असाधारण बात है कि विद्यालय का अध्यापक जो शिक्षा 25 वर्ष की आयु तक सीखता है उसी के आधार पर अध्ययन करता रहता है और अपने अनुभवों के अतिरिक्त किसी नवीन ज्ञान को नहीं प्राप्त कर पाता है। इसके लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक को नवीन ज्ञान से समय-समय पर अवगत कराते रहना चाहिए तभी वह अपने व्यवसाय के प्रति पूर्णतः कर्त्तव्य निर्वाह कर सकता है।”

(“It is extra-ordinary that our school teachers learn all of whatever subject they teach before reaching the age of 24 or 25 and then all their further education is left to an experience which is another name for stagnation. We must realize that experiment before reaching its fullness and the teacher to keep and alive fresh become necessary from time to time.”)

इस प्रकार विश्वविद्यालय आयोग 1949 ने भी सेवारत् अध्यापको की शिक्षा तथा प्रशिक्षण की आवश्यकता का उल्लेख किया है।

माध्यमिक शिक्षा आयोग (Secondary Education Commission)- माध्यमिक शिक्षा आयोग ने शिक्षा के प्रत्यय को विशेष महत्व दिया और इसकी आवश्यकता के सुझाव निम्न शब्दों में व्यक्त किये है

अध्यापक प्रशिक्षण संस्थाये कितने ही श्रेष्ठतम नियोजन करें लेकिन वे श्रेष्ठतम अध्यापक पैदा करने में असमर्थ होती है। वे केवल अध्यापको के अन्दर उन गुणों, कौशलों एंव अभिवृत्तियों का समावेश कर सकती है जिनसे कि वे अपने कार्य का संचालन अच्छे ढंग एवं विश्वास कर सके, और उनके अन्तर्गत अधिकतम अनुभव समाहित हो सकें।”

(“However excellent the programme of teacher training may be, it does not by itself produce an excellent teacher. It can only include the knowl edge skills and attitudes which will enable the teacher to begin his task with reasonable degree of confidence and with the amount of experience.

सेवारत् अध्यापक शिक्षा के आधार

जे.पी.लियोनार्ड के कथन, “सीखना जीवन “

पर्यन्त होता है” के अनुसार सेवारत् अध्यापक शिक्षा के अग्रलिखित आधार बताये है

(i) शिक्षा एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। केवल औपचारिक प्रशिक्षण संस्थाये ही व्यावसायिक सेवा के लिए अध्यापको को तैयार नही कर सकती। (ii) शिक्षण के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन नये-नये अनुसंधानो की सहायता से नये-नये विचारों का प्रादुभाव हो रहा है, कि शिक्षार्थी को क्या और कैसे पढ़ाया जायें। (iii) प्रत्येक व्यक्ति अपने पूर्व व्यवहारो को दोहराता है। उसी तरह शिक्षक भी अपने उसी ढंग से पढ़ाना चाहता है, जैसा कि वह पहले पढ़ाता रहा है। (iv) भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष रूप से गाँवो में या छोटे कस्बो में पुस्तकों, शोध-निर्देशों एवं सफल अनुभवों या अनुदेशों का सदा अभाव रहता है, जिसकी सहायता से शिक्षक अपने व्यवसाय में दक्ष हो सकते हैं।

जे.ई. ग्रीन ने अपनी पुस्तक (School personnel Adminstration) में निम्नलिखित विभिन्न कारणो का उल्लेख किया है, जिनके कारण सेवारत् अध्यापक शिक्षा की आवश्यकता का पता लगता है

(1) ज्ञान के क्षेत्र में पुन: अर्थापन की प्रवृति का विकास तीव्र गति से हो रहा है जिससे कि अध्यापक प्रशिक्षण के समय दी गयी शिक्षा की निरपेक्षता का मूल्यांकन किया जा सकें। (2) देश में अयोग्य शिक्षकों की एक बड़ी संख्या है जिनका लाभ देश एवं समाज को नही हो पा रहा है। (3) बहुत सी ऐसी शिक्षण प्रविधियों का विकास हो रहा है, जिसका उपयोग पुराने शिक्षक नही कर पा रहे है। (4) विद्यालयी शिक्षण में नये एवं उपयोगी अनुदेशन माध्यमों की खोज की जा रही है। भाषा, प्रयोगशाला, शिक्षण मशीन, कम्प्यूटर और दूरदर्शन का उपयोग नये ढंग से शिक्षण एवं अधिगम के लिए हो रहा है। (5) शोध द्वारा शिक्षण की प्रकृति में नयी चेतना का विकास किया जा रहा है, जिससे कक्षागत शिक्षण की व्यवस्था में सुधार हो रहा है। (6) शिक्षक को दिन-प्रतिदिन शिक्षार्थी की अनेक समस्याओं का हल करना पड़ता है। (7) सामाजिक वातावरण, मूल्यों, मानकों आदि में परिवर्तन के कारण शिक्षक को नवीन विधियों एवं युक्तियों का प्रयोग करना होता है, जिससे मूल्यांकन की प्रविधि में भी परिवर्तन होता है। (8) शिक्षक को विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है, जिसके लिए विभिन्न प्रकार के ज्ञान, अभिवृत्ति एवं कौशल की आवश्यकता होती है। (9) कुछ समय पश्चात् शिक्षक यह भूल जाता है कि उसको व्यवसाय आरम्भ करने से पहले क्या ज्ञान दिया गया था। (10) शिक्षक के नैतिक मूल्यों एवं व्यवहारो में भी गिरावट होती जाती है।

सेवारत् शिक्षा की संस्थाएँ और साधन

(1) शिक्षा की राज्य संस्थायें:- इन संस्थाओं की स्थापना विभिन्न राज्यों में सेवारत् अध्यापकों की शिक्षा एवं शिक्षक प्रशिक्षकों के लिये की गयी। इन संस्थाओं के माध्यम से विभिन्न प्रकाशनों की सहायता से सूचनायें प्रदान करती है। प्राथमिक शिक्षा के विभिन्न पक्षों जैसे- पाठ्यक्रम, विधियों, प्रविधियों पर शोध कार्यों का आयोजन किया जाता है। विभिन्न प्रकार की कार्यशालाओं, गोष्ठियों, पाठ्यक्रमों एंव वाद-विवादों का आयोजन किया जाता है।

(2) विज्ञान की राज्य संस्थायें :- इन संस्थाओं में प्राथमिक एंव माध्यमिक दोनों स्तरों पर विज्ञान शिक्षा के गुणात्मक विकास पर विशेष बल दिया जाता है।

( 3 ) अंग्रेजी की राज्य संस्थायें :- देश के विभिन्न राज्यों में अंग्रेजी शिक्षा की बारह संस्थायें है। केन्द्रीय अंग्रेजी शिक्षा संस्थान हैदराबाद में है। चण्डीगढ़ का क्षेत्रीय अंग्रेजी शिक्षा संस्थान पंजाब, हरियाणा एंव हिमालच प्रदेश में सेवा प्रदान करता है। अंग्रेजी शिक्षण की प्रविधियों को सीखने के लिये सेवारत् अध्यापकों के लिए चार माह का प्रशिक्षण दिया जाता है।

(4) विस्तार सेवा विभाग :- देश के 104 महाविद्यालयों में प्रसार सेवा केन्द्र खोले गये है। इन विभागों का उद्देश्य अध्यापक शिक्षा का नवीनीकरण करना है। गोष्ठियों, वाद-विवादों आदि के द्वारा नये विषयों की शिक्षण विधियों एवं प्रविधियों में सुधार किया जाता है।

(5) अध्यापकों के लिए पत्राचार पाठ्यक्रम:- सर्वप्रथम केन्द्रीय शिक्षा संस्थान दिल्ली अप्रशिक्षित अध्यापको को पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा प्रशिक्षण की व्यवस्था की गयी। इस प्रकार के कार्यक्रम के आयोजन क्षेत्रीय शिक्षा विद्यालयों में भी शुरू किये। इसमें नवीनतम विश्वविद्यालय हिमाचल प्रदेश का है, जिसमें बी.एड. एवं एम.एड. स्तर पर पत्राचार पाठ्यक्रम शुरू किया गया। सन् 1972 में विश्वविद्यालय ने एम.एड. के पाठ्यक्रम पर रोक लगा दी तथा बी.एड. के पाठ्यक्रम को यथावत जारी रखा।

(6) एम.एड. का संध्याकालीन पाठ्यक्रम:- कुछ स्थानों पर सेवारत् अध्यापकों के ” लाभ के लिये एम.एड. के संध्याकालीन पाठ्यक्रमों का आयोजन किया गया। केन्द्रीय शिक्षा संस्थान दिल्ली ने एम.एड. का दो वर्षीय पाठ्यक्रम आरम्भ किया। पंजाब विश्वविद्यालय ने इस प्रकार की सेवा क्रमश: पटियाला और चण्डीगढ़ में शुरू की जिसमें इस प्रकार के पाठ्यक्रम का समय एक वर्ष रखा गया।

(7) अध्यापकों के लिए ग्रीष्मकालीन संस्थायें :- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के सहयोग से सेवारत् अध्यापको के लिए विशेष रूप से विज्ञान विषय में देश के विभिन्न भागों में गर्मी के अवकाश में प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। ऐसी संस्थाओं के समय सीमा छः सप्ताह होती है। इसमें वे उस कार्यक्रम में अधिक समय लेते है, जिससे कि उनको नये विषय का ज्ञान दिया जायें।

( 8 ) गोष्ठियाँ:- गोष्ठियों का कार्यक्रम एक सप्ताह से छः सप्ताह तक होता है। इस प्रकार की गोष्ठियों की सेवारत् अध्यापको के प्रशिक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

( 9 ) रिफ्रेशर पाठ्यक्रम:- नये पाठ्यक्रम की सहायता से अध्यापकों के मध्य नये विचारों का प्रसार किया जाता है। शिक्षा आयोग ने यह सुझाव दिया है कि प्रत्येक शिक्षक को पाँच वर्ष बाद तीन माह के लिए आवश्यक रूप से इस प्रकार की व्यवस्था की जानी चाहिये। क्षेत्रीय शिक्षा विद्यालय ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। सन् 1957 में भारतीय संघ के शिक्षक संगठन ने एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम का आयोजन किया।

(10) व्यावसायिक साहित्य:- सेवारत् अध्यापक शिक्षा का विकास छोटी-छोटी पुस्तिकाओं एवं पत्रिकाओं की सहायता से किया जा रहा है। इस प्रकार का प्रकाशन राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान, भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय, राज्य शिक्षा के विभाग एवं अन्य संस्थाओं के द्वारा किया जा रहा है।

(11) अल्पकालीन पाठ्यक्रम:- सेवारत् अध्यापकों को अल्पकालीन पाठ्यक्रमों की सहायता से शिक्षा दी जाती है।

( 12 ) दरगामी शिक्षा:- दूरगामी शिक्षा की सहायता से भी सेवारत अध्यापकों को शिक्षा दी जाती है।

( 13 ) अन्तराल पाठ्यक्रम:- इस प्रसार के पाठ्यक्रमों का उपयोग सेवारत् अध्यापक की शिक्षा के लिये बड़े पैमाने पर किया जाता है।

(14) कार्यशालाओं का आयोजन:- सेवारत् अध्यापकों की शिक्षा का आयोजन विभिन्न कार्यशालाओं के माध्यम से किया जाता है।

सेवारत् अध्यापक शिक्षा के विकास के लिए सुझाव

(i) विश्वविद्यालयों द्वारा प्रत्येक स्तर पर सतत् अध्यापक शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिये। विश्वविद्यालय के सहयोग से संस्था से पूर्व की शिक्षा एवं संघ से पूर्व की शिक्षा लम्बे पैमाने पर नियोजित की जानी चाहिए।

(ii) साधनों की कमियों को ध्यान में रखते हुए शिक्षकों के लिए प्रारम्भिक अवस्था से ही प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए जिसकी अवधि प्रत्येक पांच वर्ष बाद निरन्तर तीन माह के लिए होनी चाहिए। यह कार्य उनके सेवाकाल मे ही होनी चाहिये।

(iii) राष्ट्रीय स्तर पर एक मूलभूत नीति का प्रयोग सेवारत् अध्यापक के व्यावसायिक गुणों में वृद्धि की जानी चाहिए। भारत में प्राथमिक स्तर के शिक्षकों को उनके व्यावसायिक गुणों के विकास के लिये इस प्रकार की सुविधा नही है।

(iv) राष्ट्रीय प्रशिक्षण एंव शिक्षा अनुसन्धान परिषद् ने प्रत्येक राज्य को कुछ वैधानिक सुझाव दिये है जिनके अनुसार सतत् शिक्षा के लिए तीन श्रेणियों में व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रथम श्रेणी में अध्यापकों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। द्वितीय श्रेणी में माध्यमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए। तृतीय एंव अन्तिम श्रेणी में कुछ विशेषज्ञों के द्वारा प्रधानाध्यापकों की शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रथम श्रेणी में रखे गए प्राथमिक अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था द्वितीय एवं तृतीय श्रेणी में रखे गए शिक्षणार्थियों द्वारा होनी चाहिए।

(v) विभिन्न वर्गों से सम्बन्धित अध्यापकों के प्रशिक्षण की व्यवस्था का स्वरूप भिन्न होना चाहिए। इन सबके लिए सतत् शिक्षा का कार्यक्रम परिवर्तित होना चाहिए।

(vi) सतत् शिक्षा का नियोजन एक व्यापक रूप में होना चाहिए, जिसका आधार विद्यालय की आवश्यकता, शिक्षकों की आवश्यकता, निकटतम भविष्य में सम्भावित विकास होना चाहिए। व्यवस्थापक को सतत् शिक्षा में भाग ले रहे शिक्षकों में धीरे-धीरे सुधार एवं विकास की प्रक्रिया को संचालित करना चाहिए।

(vii) सतत् शिक्षा में गहराई से चिन्तन करने एवं विचारों को अभिव्यक्त करने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया जाना चाहिए। वर्तमान समय में सतत् शिक्षा का एक आत्म-निर्भर केन्द्र खोलने का प्रयास हो रहा है।

(viii) पूर्व सेवारत् अध्यापक शिक्षक एवं सेवारत् अध्यापक के मध्य सम्बन्ध होना चाहिए। उनके मध्य किसी भी प्रकार का भेदभाव नही रखना चाहिए।

(ix) सतत् अध्यापक शिक्षा सेवा की सफलता विशेषज्ञों की योग्यता एवं गुणवत्ता पर निर्भर होती है। अध्यापकों में व्यावसायिक ज्ञान की वृद्धि के लिए उनको अनेकों प्रकार उद्दीपकों एवं अवसरों को प्रदान करना चाहिए।

(x) शिक्षकों को इस कार्यक्रम में भाग लेने के लिये एक नीति तैयार की जा सकती है, जिसमें कि उनके अन्दर बुनियादी प्रेरणा एवं उद्दीपक के द्वारा उनको प्रेरित किया जा सकता है। आन्तरिक उद्दीपकों में पुरस्कार, स्तर में विकास, लिखित प्रोत्साहन आदि आते है।

(xi) इस प्रकार के आयोजनों का मूल्यांकन दो स्तर पर किया जा सकता है। प्रथम अवस्था यह है जबकि सतत् शिक्षा का नियोजन किया गया हो और दूसरी अवस्था वह है जबकि सेवारत् अध्यापक अपनी शिक्षण अवधि समाप्त करके वापस जा रहे हो। इन दोनो स्तरों पर शिक्षा का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।

(xii) इस प्रकार के कार्यक्रम में सहायक वातावरण को तैयार करने की आवश्यकता है। कार्यक्रम में सम्मिलित होने वाले शिक्षकों में इस प्रकार की भावना नही होनी चाहिए कि यह एक व्यर्थ क्रिया है। उनके अन्दर इस प्रत्यय के लिए सृजनात्मक एंव संवेदनात्मक चिन्तन करने की भावना का विकास किया जाना चाहिए।

(xiii) सतत् शिक्षा के लिए धन, मान शक्ति एवं समय की आवश्यकता होती है। इसलिये सतत् शिक्षा हेतु प्राथमिकता का निर्माण राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर करना चाहिए। इससे सतत्- शिक्षा का प्रभावी रूप से क्रियान्वयन सम्भव हो सकेगा।

(xiv) विस्तार सेवा विभाग को प्रशिक्षण महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों एवं अन्य शैक्षिक संस्थाओं से सम्बन्धित कर दिया जाना चाहिए। विस्तार सेवा प्रशिक्षण महाविद्यालयों के मध्य अपना निजी अस्तित्व बनाये रखना चाहिए।

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