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सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम तैयार करने के सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम तैयार करने के सिद्धान्त
सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम तैयार करने के सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम तैयार करने में किन-किन सिद्धान्तों को ध्यान में रखा जाता है राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड द्वारा माध्यमिक कक्षाओं के लिये निर्धारित सामाजिक अध्ययन विषय के पाठ्यक्रम का आलोचनात्मक विवरण लिखिए।

सामाजिक अध्ययन का पाठ्यक्रम तैयार करने के सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम का निर्माण करना एक जटिल कार्य है, क्योंकि इसमें विभिन्न विषयों जैसे- नागरिक शास्त्र, इतिहास, समाजशास्त्र आदि को किस प्रकार समन्वित करना होता है कि समाजिक अध्ययन शिक्षण उद्देश्य की पूर्ति हो सके। इन सभी विषयों के उचित उपकरणों का चयन एंव गठन एक कठिन कार्य है ज्ञान के विस्फोट तथा निश्चित अवधि में पढ़ाने की सीमा ने सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम के निर्माण को और अधिक जटिल बना दिया है।

इस कार्य को पूर्ण करने में निम्नलिखित सिद्धान्तों का ध्यान रखा जाना चाहिए-

(1) बालक को केन्द्र मानने का सिद्धान्त

पाठ्यक्रम बाल केन्द्रित होना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि सामाजिक अध्ययन में किसी भी स्तर के पाठ्यक्रम के निर्माण के लिये उस स्तर से सम्बन्धित बालको की आयु, उनकी योग्यताओं, क्षमताओं, रूचियों तथा ज्ञान आदि का ध्यान अवश्य रखा जाना चाहिए।

(2) क्रियाशीलता का सिद्धांत

बालक स्वभाव से ही क्रियाशील होते है, अतः पाठ्यक्रम के लिये उनकी इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के पोषण की ओर ध्यान रखना आवश्यक है इस दृष्टि से पाठ्यक्रम में ऐसी ही पाठ्य सामग्री, प्रकरण और अधिगम अनुभवो को स्थान दिया जाना चाहिए।

(3) पर्यावरण को केन्द्र मानने का सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम का निर्माण बालको के भौतिक और सामाजिक पर्यावरण को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से बालको के पारिवारिक, भौतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक और परिवार के बाहर फैले हुए सामाजिक वातावरण को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(4) मानव सम्बन्धों को समझने सम्बन्धी सिद्धांत

सामाजिक अध्ययन के शिक्षण का एक प्रमुख उद्देश्य मानव सम्बन्धों को जानने, समझने तथा अपेक्षित सम्बन्ध बनाने के लिये आवश्यक कौशलों तथा अभिवृत्तियों को विकसति करना है।

(5) समुदाय को केन्द्र मानने का सिद्धान्त

समुदाय बालको के भविष्य को संभालने में तो योगदान देता ही है, बालकों से भी ये अपेक्षा की जाती है कि वे अपने समुदाय विशेष को समझने, उसमें व्यवस्थित होने तथा उसके कल्याण के लिये अपना रचनात्मक सहयोग प्रदान कर सके।

(6) समवाय का सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन में समवाय से तात्पर्य जो भी पढ़ाया जाए उसका सम्बन्ध बालको के वातावरण, उनके दैनिक जीवन की क्रियाओं तथा विद्यालय में सम्पन्न सभी प्रकार के कार्यक्रमों तथा अनुभवों के साथ स्थापित किया जा सके। इस तरह बालक सामाजिक अध्ययन के साथ स्थापित किया जा सकें। इस तरह बालक सामाजिक अध्ययन से सम्बन्धित ज्ञान एंव अनुभवों की अलग-अलग करके नहीं बल्कि एकीकृत एवं संगठित रूप से ग्रहण कर सके, इस बात की भी पूरी चेष्टा पाठ्यक्रम निर्माण के समय की जानी चाहिए।

(7) रूचि का सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम का निर्माण करते समय यह बात नही भूलनी चाहिए कि पाठ्यक्रम में ऐसी सामग्री और अनुभवो का समावेश हो जिससे विद्यार्थियों की रूचि, विषय के अध्ययन में बनी रहे और वे उत्साह एंव लगन के साथ आवश्यक अधिगम अनुभवों को ग्रहण करते रहे। ( 8 ) व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धांत:- पाठ्यक्रम की रचना में विभिन्न प्रकार के बालकों की रूचियों और आवश्यक कलाओं को ऐसे संतुलित ढंग से ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनके अध्ययन और विकास के कार्यक्रमों में कोई रूकावट न आए और वे अपनी स्वाभाविक गति से प्रगति करते जाए।

( 9 ) उपयोगिता का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में उन प्रकरणों विषय सामग्री एंव अनुभवो को सम्मिलित किया जाना चाहिए जो व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी हो।

(10) उच्च कक्षाओं की आवश्यकता पूर्ति का सिद्धान्त

सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में उन सभी बातों का समावेश किया जाना आवश्यक हो जाता है जो आगे की कक्षाओं या स्तर के पाठ्यक्रम का आधार बन सके।

(11) दूरदर्शिता का सिद्धान्त

पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो न केवल बालकों के वर्तमान आवश्यकताओं की मांग को पूरा करता हो बल्कि उन्हें अपने भावी जीवन को ठीक प्रकार से जीने के लिये तैयार भी कर सके

( 12 ) लचीलेपन का सिद्धांत

पाठ्यक्रम में जड़ता तथा अपरिवर्तनशीलता के स्थान पर लचीलेपन का गुण होना चाहिए जिससे इसमे समय की मांग के अनुसार आवश्यक परिवर्तन व संशोधन लाया जा सके। पाठ्यक्रम में अधिगम अनुभव प्रदान करने की पूर्ण स्वतन्त्र भी होनी चाहिए ताकि पाठ्यक्रम को अधिक रचानात्मक ढंग से उपयोग किया जा सके।

( 13 ) अध्यापक के परामर्श का सिद्धान्त

किसी भी स्तर के पाठ्यक्रम निर्माण में अध्यापक से परामर्श लेना बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। पाठ्यक्रम निर्माण के लिये अनुभवी अध्यापको के सुझावो, निर्देशन एंव परामर्श आदि का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाना चाहिए और इस दृष्टि से उनकी पाठ्यक्रम निर्माण कमेटी आदि में प्रतिनिधित्व भी दिया जाना चाहिए। हमारे देश के माध्यमिक विद्यालयों में सामाजिक अध्ययन का जो पाठ्यक्रम प्रचलित है उसमें विषय वस्तु, क्षेत्र, उद्देश्य की पूर्ति हेतु मार्ग निर्देशन इत्यादि की दृष्टि से काफी कमियाँ नजर आती है।

उदाहरण के तौर पर अगर हम राजस्थान के विद्यालयों में माध्यमिक स्तर पर प्रचलित पाठ्यक्रम जिसका निर्माण राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तत्वाधान में किया गया है, के विश्लेषण करने का प्रयास करे, तो हमे उसमें निम्नलिखित दोष नजर आते है।

(i) पाठ्यक्रम में विस्तृत अनुभवो की कमी है:- पाठ्यक्रम हमारा मार्गदर्शन करता है परन्तु वर्तमान समय में अगर पाठ्यक्रम को देखा जाए तो इसमें विस्तृत अनुभवों की कमी है इस कारण जिस मानस को लेकर हम पाठ्यक्रम का निर्माण करते है वह पूर्ण नही हो पा रहा है।

(ii) पाठ्यक्रम में पर्यावरण केन्द्रिता का अभाव है:- बालकों को भैगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा प्राकृतिक पर्यावरण से पर्याप्त तालमेल रखने के प्रयत्नों में भी प्रचलित पाठ्यक्रम ठीक प्रकार सफल नही हो पाया है। इसके अध्ययन से बालकों को अपने चारो ओर के पर्यायवरण तथा अपनी सांस्कृतिक विरासत को भली भांति जानने और समझने के समुचित अवसर प्राप्त नहीं होते।

(iii) पाठ्यक्रम दैनिक जीवन की आवश्यकताओं से सम्बन्धित नही है: पाठ्यक्रम बालको को इस दृष्टि से सक्षम बनाने में असमर्थ है कि वे अपने दैनिक जीवन से बन्धित सामाजिक समस्याओं का उचित निराकरण कर सके तथा सामाजिक कार्यों एंव कर्तव्यों के ठीक निर्वाह करने के योग्य बन सके।

(iv ) राष्ट्रीयता एंव अन्तर्राष्ट्रीयता के भावो के पोषण में असमर्थ है:- प्रचलित पाठ्यक्रम इतना सशक्त और समर्थ नही बन पाया है कि वह विद्यार्थियो को जाति, धर्म, भाषा और प्रान्तवाद की संकीर्ण मनोवृतियों को उभार कर न केवल राष्ट्रीयता के सत्र में पिरोने सम्बन्धी भावो को विकसित करे बल्कि उन्हें आगे सम्पूर्ण विश्व ही एक कुटम्ब की विचारधारा में लाकर विश्व शान्ति का मार्ग प्रशस्त करे तथा मानवीय सम्बन्धो की नींव को मजबूत करने में मदद करें।

(v) पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ध्यान नहीं रखा गया है: बालको में जो स्वाभाविक व्यक्तिगत भेद पाये जाते है उनको ध्यान में रखकर इसका निर्माण नहीं किया गया है साथ ही प्रतिभाशाली और पिछड़े हुए बालकों के लिये उसके अन्दर कोई उचित प्रावधान रखने के प्रयत्न भी किये गये है।

(vi) पाठ्यक्रम में शिक्षण विधियो, शिक्षण सामग्री, मूल्यांकन आदि का उचित उल्लेख नही है:- इस पाठ्यक्रम में अधिगम अनुभवों को प्रदान करने से सम्बन्धित दिशा-निर्देशो और सुझावो का भी अभाव स्पष्ट झलकता है शिक्षण साधनों और सहायक सामग्री के प्रयोग तथा मूल्यांकन करने से सम्बन्धित बातों के उल्लेख का भी इसमें अभाव है।

(vii) पाठ्यक्रम निर्माण में समन्वय के सिद्धान्त का उचित पालन नहीं किया गया है:- जीवन भौतिक और सामाजिक वातावरण पाठ्यक्रम के अन्य विषयों आदि से समन्वय और पाठ्यक्रम निर्माण करने के कार्य में भी प्रचलित पाठ्यक्रम खरा नहीं उतरा है।

(viii) पाठ्यक्रम में प्रकरणो विषय वस्तु एंव अनुभवो का उचित एकीकरण एंव समन्वय नही है:- सामाजिक अध्ययन के पाठ्यक्रम में जो विषयवस्तु प्रकरण एंव अनुभव सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न विषयों या अध्ययन क्षेत्रों से लिये गये है उनमें उचित तालमेल बैठाकर उन्हें एकीकृत और समन्वित करने का प्रयास नहीं किया गया है।

(ix) लचीलेपन का अभाव:- पाठ्यक्रम में लचीलापन न होकर रूढ़िवादिता कठोरता तथा जड़ता है जो एक बार लिपिबद्ध कर दिया जाता है उसका अक्षरशः पालन विद्यार्थी, अध्यापक तथा परीक्षकों द्वारा परीक्षा योजना बनाने के लिये किया जाता है। इसके अन्तर्गत परिस्थितियों के अनुसार उचित परिवर्तन और परिमार्जन करने की स्वतन्त्रता प्रदान करने का कोई प्रावधान नहीं है।

(x) पाठ्यक्रम व्यावहारिक न होकर सैद्धान्तिक है:- प्रचलित पाठ्यक्रम में व्यावहारिकता की अपेक्षा सैद्धान्तिकता की अधिक छाप है पुस्तकीय ज्ञान पर ज्यादा जोर है, परन्तु सही अर्थो में सामाजिक अध्ययन के शिक्षण तथा जिस प्रकार के समाजिक तथा मानवीय गुणों का समावेश बच्चो में होना चाहिए।

(xi) क्रियाशीलता तथा रूचि सम्बन्धी सिद्धान्तों का ध्यान नहीं रखा गया है:- पाठ्यक्रम का अनुसरण भली भांति नही किया गया है उपयोगी क्रियाओं तथा व्यावहारिक गतिविधियों के आधार पर अधिगम अनुभवों का संगठित नही किया गया है और न बालको की स्वाभाविक प्रवृत्तियों तथा विभिन्न रूचियों के पोषण को ही शिक्षण का आधार बनाने का प्रयत्न इसके अन्तर्गत किया गया है।

पाठ्यक्रम में सुधार हेतु सुझाव

उपरोक्त दोषो के आधार पर यह स्पष्ट है कि माध्यमिक कक्षाओं के लिये निर्मित वर्तमान पाठ्यक्रम सामाजिक अध्ययन शिक्षण के विभिन्न उद्देश्यो की ठीक प्रकार से पूर्ति करना एक तरह से असफल ही प्रतीत होता है। सहयोग देने का जो आदर्श सामाजिक अध्ययन के शिक्षण द्वारा पूरा हो सकता है उसे सार्थक बनाने में यह असमर्थ है। अत: इसमें पर्याप्त सुधार की आवश्यकता है इसके सुधार हेतु निम्न सुझाव उपयोगी सिद्ध हो सकते है

(1) सामाजिक अध्ययन शिक्षण के उद्देश्यो का पाठ्यक्रम निर्माण समिति द्वारा पूरी तरह मनन और विश्लेषण कर ही पाठ्यक्रम निर्माण किया जाना चाहिए।

(2) पाठ्यक्रम निर्माण समिति में अनुभव अध्यापको, शिक्षाविदो तथा सामाजशास्त्रियों को उचित प्रतिनिधित्व देने की व्यवस्था होनी चाहिए।

(3) सामाजिक अध्ययन पाठ्यक्रम में विषय वस्तु जिन-जिन विषयों से ली जाए प्रस्तुतीकरण एकीकृत एंव समन्वित ढंग से ही किया जाना चाहिए, पृथक-पृथक रूप से नही।

(4) पाठ्यक्रम में सैद्धान्तिकता और व्यावहारिकता दोनो का ही उचित समन्वय एंव तालमेल करना चाहिए।

(5) पाठ्यक्रम में वातावरण केन्द्रितता, क्रियाशीलता, रूचि, जीवन के प्रति सम्बद्धता समवाय, लचीलापन आदि सिद्धान्तों का पर्याप्त अनुसरण किया जाना चाहिए।

(6) पाठ्यक्रम विषय केन्द्रित न होकर बाल केन्द्रित होना चाहिए।

(7) पाठ्यक्रम में ऐसे अनुभवो का समावेश होना चाहिए जो बालकों को न केवल उनकी सांस्कृतिक विरासत से परिचित कराये बल्कि उनको अपने चारों ओर की दुनिया और सामाजिक समस्याओं से अवगत करा सके।

(8) पाठ्यक्रम के अन्तर्गत शिक्षण विधियों, शिक्षण सामग्री तथा मूल्यांकन सम्बन्धी आवश्यक बातो का भली-भांति उल्लेख किया जाना चाहिए।

(9) पाठ्यक्रम समय तथा साधनों को ध्यान में रखकर ही निर्मित किया जाना चाहिये ताकि न तो बच्चों को यह बोझिल प्रतीत हो और न इसे समाप्त करने में उन्हें और अध्यापक को विशेष कठिनाई का समाना करना पड़े।

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