राजनीति विज्ञान / Political Science

उत्कृष्ट (क्लासिकल) परम्परा की सीमाएं

उत्कृष्ट (क्लासिकल) परम्परा की सीमाएं
उत्कृष्ट (क्लासिकल) परम्परा की सीमाएं

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उत्कृष्ट (क्लासिकल) परम्परा की सीमाएं

बक्ल, कॉम्टै आदि विद्वानों के अनुसार विज्ञान, ज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत कार्य और कारण सदैव निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है और जिसके निष्कर्ष निश्चित एवं शाश्वत होते हैं। विज्ञान की इस परिभाषा के आधार पर विद्वान् राजनीति विज्ञान को विज्ञान के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। कॉम्टे के शब्दों में, “राजनीति विज्ञान के विशेषण उसकी अध्ययन विधियों, सिद्धान्तों एवं निष्कर्षों के सम्बन्ध में एक मत नहीं हैं। इसमें विकास की निरन्तरता का अभाव है। इसमें उन तत्वों का अभाव है जिनके आधार पर भविष्य के लिए ठीक निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।” इन विद्वानों द्वारा अपने कथन के पक्ष में निम्नलिखित तर्कों का प्रयोग किया जाता है-

सर्वमान्य तथ्यों का अभाव – राजनीति विज्ञान में गणित के दो और चार या भौतिक विज्ञान के ‘गुरूत्वाकर्षण के नियम’ की भांति ऐसे तथ्यों का नितान्त अभाव है, जिन पर सभी विद्वान् सहमत हों। यदि एक ओर आदर्शवादी राज्य की अनावश्यक सत्ता का सर्वोच्च प्रतिपादन करते हैं, तो दूसरी ओर अराजकतावादी राज्य की अनावश्यकता का। वे जामिन फ्रेंकलिन, एवेसीज और लास्की जैसे अनेक विद्वान् एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के समर्थक हैं तो लैकी, सिजविक, ब्लंटशली आदि एक सदनात्मक व्यवस्थापिका के नितान्त विरोधी है। अन्य बातों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार के मतभेद विद्यमान हैं।

कार्य और कारण में निश्चित सम्बन्ध का अभाव- भौतिक एवं रसायन विज्ञान में कार्य और कारण में निश्चित सम्बन्ध पाया जाता है, किन्तु राजनीतिक क्षेत्र में घटित होने वाली घटनाएँ अनेक पेचीदे कारणों का परिणाम होती हैं और क्रिया-प्रतिक्रिया के इस चक्र में अमुक घटना किन कारणों के परिणामस्वरूप हुई, यह कहना बहुत कठिन हो जाता है। 1917 की सोवियत क्रान्ति साम्यवादी विचारधारा के परिणामस्वरूप हुई या उस समय के विशेष अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण के कारण, इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

पर्यवेक्षण एवं परीक्षण का अभाव- पदार्थ विज्ञान में एक प्रयोगशाला में बैठकर यन्त्रों की सहायता से मन चाहे प्रयोग किये जा सकते हैं किन्तु राजनीति विज्ञान में इस प्रकार के पर्यवेक्षण एवं परीक्षण सम्भव नहीं हैं। क्योंकि राजनीति विज्ञान के अध्ययन विषय मानव के क्रिया-कलाप हमारे नियंत्रण में नहीं होते हैं। इस सम्बन्ध में ब्राइस ने कहा है कि, “भौतिक विज्ञान में एक निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बार-बार प्रयोग किया जा सकता है लेकिन राजनीति में एक प्रयोग बार बार दोहराया जा सकता है क्योंकि उसी प्रकार की दशाएँ दुबारा नहीं पैदा की जा सकतीं जैसे कोई एक ही प्रवाह में दुबारा प्रवेश नहीं कर सकता।”

मानव स्वभाव की परिवर्तनशीलता- प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन विषय निर्जीव होते हैं, लेकिन राजनीति विज्ञान का अध्ययन विषय मानव एक जीवित, जाग्रत और चेतना सत्ता है। अलग-अलग व्यक्तियों के स्वभाव में अन्तर ही है और एक समान परिस्थितियों में रहने वाले व्यक्ति भी भिन्न-भिन्न रूप से आचरण करते हैं। ऐसी स्थिति में राजनीति विज्ञान जो कि मनुष्य और उससे सम्बन्धित संस्थाओं का अध्ययन करता है, प्राकृतिक विज्ञान की तरह नहीं हो सकता है।

अचूक माप की कमी- शुद्ध माप विज्ञान की एक विशेषता है लेकिन राजनीति विज्ञान में शुद्ध माप सम्भव नहीं है। मनुष्यों का आवेग उत्तेजना, भावना, अभिलाषा, क्रोध, प्रेम आदि राजनीति को प्रभावित करने वाले तत्व नितान्त अस्पष्ट और अदृश्य हैं जिन्हें ताप या गैस के दबाव की भाँति मापा नहीं जा सकता है।

भविष्यवाणी की क्षमता का अभाव – पदार्थ विज्ञान के निश्चित होने के कारण किसी भी विषय के सम्बन्ध में भविष्यवाणी की जा सकती है। उदाहरणार्थ यह सही बतलाया जा सकता। है कि किस दिन औरकिस समय चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण लगेगा। लेकिन राजनीति विज्ञान में यह नहीं बताया जा सकता है कि किसी निश्चित विचार का जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा या चुनाव के किस पक्ष को विजय प्राप्त होगी। जून 1970 के ब्रिटिश आम चुनाव तथा मार्च 1971 और मार्च 1977 के लोकसभा के चुनाव परिणाम अप्रत्याशित रहे हैं। और इन सबके अतिरिक्त जनवरी 1980 लोकसभा के जो चुनाव हुए, उनके सम्बन्ध में सामान्तया यह सोचा जाता था कि किसी भी दल के लिए लोकसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त करना सम्भव नहीं होगा, लकिन इन्दिरा कांग्रेस के द्वारा लोकसभा में लगभग दो तिहाई बहुमत प्राप्त कर लिया गया है। बर्क कहते हैं कि, “राजनीति में भविष्यवाणी करना मूर्खता है।”

परिभाषा, शब्दावली तथा अध्ययन पद्धतियों के सम्बन्ध में मत वैभिन्य- विज्ञान की एक विशेषता यह मानी जाती है कि उसमें परिभाषा, शब्दावली तथा अध्ययन पद्धतियों के सम्बन्ध में निश्चितता तथा एकमतता हो लेकिन हमारी अध्ययन पद्धतियों के सम्बन्ध में स्थिति विपरीत ही है। स्वयं इस विषय के नाम के सम्बन्ध में मत वैभिन्य है और राजनीति विज्ञान की उतनी ही परिभाषाएँ हैं, जितने इसमें लेखक। इस विषय के अन्तर्गत प्रजातन्त्र और समाजवाद जैसी अनेक बहुअर्थी धारणाएँ भी हैं। इसी बात की ओर लक्ष्य करते हुए लावेल ने लिखा है कि “राजनीति विज्ञान में आधुनिक विज्ञान की प्रथम आवश्यकता की कमी है। इसमें शिक्षित व्यक्तियों के बोधगम्य पारिभाषिक शब्दों का अभाव है।”

अध्ययन विषय आत्मपरक (Subjective) है, वस्तुपरक (Objective) नहीं- विज्ञान वस्तुपरक होता है और इसकी अध्ययन वस्तु निर्जीव होने के कारण वैज्ञानिक मानवीय भावनाओं से दूर रहते हुए तटस्थता के साथ इनके अध्ययन में संलग्न रहता है लेकिन राजनीति विज्ञान के अध्ययन में वस्तुपरक दृष्टिकोण अपनाना अर्थात् अध्ययन में तटस्थ रहना कठिन है चाहे कश्मीर का प्रश्न हो या महाशक्तियों के शीत युद्ध का प्रश्न, राजनीतिक विषयों का अध्ययन पदार्थ विज्ञानों की भाँति वैज्ञानिक रूप नहीं ले सकता उपर्युक्त तर्कों के आधार पर बक्ल कहते हैं कि, “विज्ञान की वर्तमान अवस्था में राजनीति को विज्ञान मानना तो बहुत दूर रहा, यह कलाओं में भी सबसे पिछड़ी हुई कला है।” इसी बात को मैटलैण्ड ने अपनी व्यंग्यमयी भाषा में इस प्रकार कहा है कि, “जब में राजनीति विज्ञान शीर्षक के अन्तर्गत परीक्षा प्रश्नों को देखता हूँ तो मुझे प्रश्नों के प्रति नहीं वरन् शीर्षक के प्रति खेद होता है।’ बर्क अपनी उपहासमयी भाषा में कहते हैं कि, “जिस प्रकार हम सौन्दर्य विज्ञान को विज्ञान की संज्ञा नहीं दे सकते हैं, उसी प्रकार राजनीति विज्ञान बनना न तो सम्भव है और न ही वांछनीय हैं।

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