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विद्यालय के प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व | Duties and Responsibilities of School Headmaster

विद्यालय के प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व
विद्यालय के प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व

किसी विद्यालय के प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व क्या होते हैं? वर्णन कीजिए। 

प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व- किसी भी विद्यालय में प्रधानाचार्य का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान होता है, क्योंकि एक रूप में विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्था का सम्पूर्ण भार प्रधानाचार्य पर ही होता है। यह पूर्ण सत्य है, जैसा कि शिक्षा आयोग ने लिखा है- “राष्ट्र के भाग्य का स्वरूप विद्यालयों में बनता है।” और इसके साथ यह सत्य है कि इस स्वरूप को साज-संवार कर निर्मित करने का कार्य विद्यालय के प्रधान और शिक्षकों द्वारा पूरा किया जाता है। आयोग ने यह भी लिखा है कि संस्था का स्तर और नैतिकता मुख्य रूप से उसके प्रशासन की योग्यताओं, शासनपूर्णता और दृष्टि पर निर्भर है। विद्यालय में प्रधानाचार्य का केन्द्रीय स्थान है। उसकी इस महत्त्वपूर्ण स्थिति का समर्थन अनेक विद्वानों ने किया है।

डब्यू. एम. रायबर्न ने लिखा है कि-“विद्यालय में प्रधानाचार्य का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, जितना एक जहाज में कप्तान का।” विद्यालय अच्छा है या बुरा, यह इस बात पर निर्भर है कि विद्यालय का प्रधान कैसा है? “जैसा प्रधानाध्यापक है, वैसा ही विद्यालय।” महान् प्रधानाध्यापक ही विद्यालय को महान् बनाते हैं। समाज में विद्यालय की उच्चतर और अच्छी स्थिति बहुत कुछ उस प्रभाव पर निर्भर है, जो प्रधानाचार्य अपने सहकर्मी अध्यापकों, विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों तथा सामान्य जनता के ऊपर डालता है।

प्रधानाचार्य विद्यालय के विभिन्न अंगों को एकीकरण के सूत्र में बाँधकर रखने वाला एक साधन है, जो संस्था भर में सन्तुलन बनाये रखता है और साथ-ही-साथ इस बात की चेष्टा करता रहता है कि उसका शान्तिपूर्वक सर्वांगीण विकास होता रहे। वही विद्यालय की गति का निर्धारक है और वही इन परम्पराओं को, जो समय के साथ-साथ विकसित होती रहती है, एक निश्चित रूप देने वाली मुख्य शक्ति है। वह वास्तव में अपने कुशलता, बौद्धिक क्षमता, नेतृत्व, अन्तदृष्टि, सूक्ष्म-विचार शक्ति, मनोवृत्ति एवं मानवीय गुणों के साथ एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है जिससे संस्था के प्रत्येक कार्य प्रकाशित और गौरवान्वित होते हैं।

विद्यालय का प्रधान एक शिक्षक और प्रशासक ही नहीं बल्कि इसके साथ ही वह एक नेता है, एक सामाजिक है, एक निरीक्षक है, परामर्शदाता है और संगठनकर्ता है। विद्यालय को सचेतन रखने का कार्य वही करता है। विद्यालय में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका के कारण ही पाल वर्गीज ने प्रधानाचार्य को ‘विद्यालय संगठन की मेहराब में शिखर का पत्थर’ कहा है, विद्यालय की समस्त मानवीय एवं भौतिक क्षमता के उपयोग की जिम्मेदारी उसी पर है। प्रधानाचार्य विद्यालय के सृजनात्मक स्वरूप का मुख्य स्रोत है।

प्रधानाचार्य के कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व.

प्रधानाचार्य के सभी दायित्वों का विभाजन दो भागों में किया जा सकता है-

  1. आन्तरिक उत्तरदायित्व
  2. बाह्म उत्तरदायित्व

आन्तरिक उत्तरदायित्व

ऐसे उत्तरदायित्व जिनका परिपालन विद्यालय के स्तर को ऊंचा करने के लिए प्रधानाध्यापक विद्यालय के भीतर रहकर अनिवार्य रूप से करता है, आन्तरिक उत्तरदायित्वों के अन्तर्गत आते हैं। इन उत्तरदायित्वों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

(क) सामान्य उत्तरदायित्व
(ख) विशिष्ट उत्तरदायित्व

(क) सामान्य उत्तरदायित्व

(1) नियोजन- विद्यालय का सुचारु रूप से संचालन बुद्धिमानी से तैयार की गयी योजना पर निर्भर है। योजना किसी भी प्रशासन की पहली अनिवार्यता है। योजना के कारण विद्यालय-कार्यक्रम में समुचित व्यवस्था और कम का प्रादुर्भाव होता है एवं नयी परिस्थितियों में परिवर्तन का क्षेत्र बढ़ जाता है। योग्य प्रधानाचार्य नवीन सत्र प्रारम्भ होने से पूर्व सत्र की क्रियाओं की योजना अपने अध्यापकों की सहायता से तैयार कर लेता है। तैयार की गयी योजना से प्रधानाध्यापक की प्रबन्ध-पटुता का पता लगाया जा सकता है।

(2) सत्रारम्भ के पूर्व के उत्तरदायित्व– नया सत्र आरम्भ होने से पूर्व प्रधानाचार्य को विद्यालय में अनेक कार्य करने पड़ते हैं, जिससे विद्यालय खुलने पर कठिनाईयों से बचा जा सके। जिस दिन विद्यालय खुलता है उस दिन विद्यालय में सर्वत्र नयापन दृष्टिगत होना चाहिए। ऐसा प्रतीत हो कि पूरा विद्यालय नये और पुराने सभी छात्रों का स्वागत करने के लिए तत्पर है। विद्यालय खुलने के 3-4 दिन पूर्व अध्यापकों की बैठक आने वाली समस्याओं के सन्दर्भ में बुला ली जानी चाहिए।

(3) सत्रकालीन दायित्व— विद्यालय का सत्र आरम्भ हो जाने के एक-दो सप्ताह बाद ही प्रधानाचार्य को पर्यवेक्षण कार्यक्रम, छात्रों की स्वास्थ-परीक्षा, प्रवेश सम्बन्धी परीक्षाओं आदि की व्यवस्था कर लेनी चाहिए। प्रवेश-परीक्षा की व्यवस्था जितनी पहले कर ली जाय उतना ही ठीक है।

(4) सत्रावान के समय के दायित्व- सत्रावान के समय प्रधानाध्यापक को निम्नलिखित तैयारी कर लेनी चाहिए-

  1. वार्षिक परीक्षा के लिए प्रश्न-पत्रों की रचना और मुद्रण, परीक्षा का क्रियान्वयन, उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन, परीक्षा-फल की तैयारी और परीक्षा परिणाम की घोषणा।
  2. छात्रों के संचित अभिलेख-पत्रों की पूर्ति।
  3. अगले वर्ष के लिए पाठ्य-पुस्तकों की नयी सूची।
  4. जो छात्र विद्यालय छोड़कर जाते हैं उनके स्थानान्तरण प्रमाणपत्र की आवश्यकता।
  5. विद्यालय का वार्षिक प्रतिवेदन।

(5) मानवीय सम्बन्ध- प्रधानाध्यापक का सीधा सम्बन्ध छात्रों, अध्यापकों, अन्य कर्मचारियों तथा समाज के लोगों से होता है। उसमें सम्बन्ध निर्माण की कुशलता होनी चाहिए। उसमें सभी का विश्वास होना चाहिए।

(ख) विशिष्ट उत्तरदायित्व

(1) पर्यवेक्षण- विद्यालय के नेता के रूप में प्रधानाचार्य को विद्यालय में निम्नलिखित का पर्यवेक्षण करना पड़ता है-

(क) अध्यापक, पाठ्यक्रम और मूल्यांकन कार्यक्रम का पर्यवेक्षण- विद्यालय में कक्षा-शिक्षण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण क्रिया है। कक्षा-शिक्षण जितना ही प्रभावशाली होगा विद्यालय के छात्र उतनी ही मात्रा में लाभान्वित होंगे। अध्यापन का पर्यवेक्षण प्रधानाध्यापक का एक महत्त्वपूर्ण दायित्व है। जो प्रधानाध्यापक केवल कार्यालय के पत्र-व्यवहार और फाइलों में ही व्यस्त रहता है और अध्यापन के ऊपर किञ्चित ध्यान नहीं देता, वह जानबूझकर अध्यापकों और छात्रों का ही अहित करता है। कक्षा-शिक्षण के पर्यवेक्षण के लिए जाने से पूर्व प्रधानाध्यापक को उद्देश्यों की स्पष्टता अवश्य होनी चाहिए। उद्देश्यहीन पर्यवेक्षण औपचारिक ही नहीं होगा। कक्षा में जाकर प्रत्यक्ष रूप में पीछे बैठकर शिक्षण कार्य का अवलोकन और तत्सम्बन्धी विशेषताओं तथा न्यूनताओं को डायरी में नोट करना प्रधानाध्यापक का काम होता है।

(ख) पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का पर्यवेक्षण— छात्रों के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का विशेष महत्त्व है। इन क्रियाओं के द्वारा छात्रों में न्याय, सद्भावना, निर्णय करने की शक्ति, संगत विचार, सहिष्णुता आदि गुणों का समावेश होता है। विद्यालय के अधिक-से-अधिक छात्र इन क्रियाओं में भाग लें, यह देखना प्रधानाचार्य का काम है, क्योंकि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का यदि विद्यालय में समुचित प्रकार के संचालन किया जाय तो छात्रों के विकास के साथ ही इनसे विद्यालय का स्तर भी उँचा होता है।

(ग) विद्यालय अभिलेख और हिसाब- किताब का पर्यवेक्षण–विद्यालय में जितने प्रकार के अभिलेख रखे जाते हैं उन सभी का निरीक्षण एक निश्चित क्रम से प्रधानाचार्य को करना चाहिए। प्रधानाचार्य को चाहिए कि वह समस्त कक्षाओं की पंजियों को माह में एक बार अवश्य देखें।

(घ) छात्रावास का पर्यवेक्षण– यदि विद्यालय आवासीय है तो पर्यवेक्षण का कार्य भी प्रधानाचार्य को करना पड़ता है। छात्रावास में विद्यार्थियों को प्राप्त होने वाली सुविधाओं को उसे देखना चाहिए। अलग-अलग समयों में उनके अध्ययन, मनोविनोद, भोजन और शयन का निरीक्षण करना चाहिए।

(ङ) सामान्य पर्यवेक्षण– प्रधानाध्यापक विद्यालय की चतुर्दिक प्रगति के लिए जिम्मेदार है। विद्यालय का उच्च प्रशासकीय रूप प्रधानाध्यापक के नियमित अवलोकन का ही परिणाम है। प्रत्येक व्यक्ति का अपनी जगह कार्य करना और प्रत्येक वस्तु का समुचित उपयोग इस बात पर निर्भर है कि प्रधानाध्यापक अपनी सतर्क आँखों से उन्हें देखता रहता है। विद्यालय में अनेक ऐसी समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं जिनका हल समय पर कर देने से विद्यार्थियों को अधिक लाभ होता है।

(2) शिक्षण- प्रधानाचार्य को चाहिए कि वह उन कक्षाओं में शिक्षण-कार्य करें जिसमें प्रतिवर्ष नये विद्यार्थी अधिक संख्या में आते हैं। इस दृष्टि से छठीं और नवीं कक्षाएँ उपयुक्त हैं। उसे यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि वह विद्यालय की छोटी कक्षाओं में पढ़ा रहा । इन कक्षाओं में पढ़ाने के दूरगामी परिणाम होते हैं। छात्रों का अति आरम्भ में ही प्रत्यक्ष सम्बन्ध विद्यालय के प्रधान से हो जाता है और उनकी झिझक उनके प्रति समाप्त हो जाती है।

(3) प्रबन्ध— इसके अन्तर्गत प्रधानाध्यापक को निम्नलिखित कर्त्तव्यों का पालन करना पड़ता है-

(i) विद्यालय भवन का प्रबन्ध- प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह विद्यालय-भवन के प्रबन्ध पर अवश्य ध्यान दें। प्रत्येक कक्षा के छात्रों के लिए उपयुक्त और पर्याप्त फर्नीचर हों, ऐसी व्यवस्था उसे करनी चाहिए। इसी प्रकार अध्यापक-कक्ष, पुस्तकालय, कला-भवन एवं प्रयोगशालाओं में आवश्यक उपकरणों की व्यवस्था की ओर उसे ध्यान देना चाहिए।

(ii) आपूर्ति प्रबन्ध– विद्यालय-कार्यालय से प्रधानाध्यापक का प्रतिदिन का प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। उसका अधिक समय कार्यालय के कार्यों में ही व्यतीत होता है। विद्यालय- कार्यालय वास्तव में जनता और विद्यालय के सम्पर्क की कड़ी है। विद्यालय से जो प्रभाव जनना प्राप्त करती है, वही वास्तव में विद्यालय का प्रभाव समझा जाता है।

(iii) विद्यालय-वित्त का प्रबन्ध–विद्यालय के उचित संचालन के लिए वित्त को प्रबन्ध समुचित ढंग से किया जाना चाहिए। विद्यालय का बजट तैयार करना, रसीदों को संलग्नीकरण, अलग-अलग मदों में कोष का विभाजन, बैंक की रसीदें, व्यय का वितरण आदि की व्यवस्था प्रधानाध्यापक को सावधानीपूर्वक करना चाहिए। विद्यालय में किये जाने वाले प्रत्यक्ष व्यय को व्यवस्थित रखना चाहिए।

(iv) समय-सारणी का प्रबन्ध–विद्यालय की सम्पूर्ण क्रियाओं का संचालन समय- सारणी के अनुसार होता है इसलिए प्रधानाध्यापक को समय-सारणी का निर्माण इस प्रकार कराना चाहिए कि विद्यालय के समस्त उपलब्ध साधनों का समुचित उपयोग हो और शिक्षकों में कार्य विभाजन ठीक-ठीक हो सके।

(v) पुस्तकालय का प्रबन्ध– पुस्तकालय विद्यालय का वह स्थान है जहाँ ज्ञान का संचित भण्डार होता है। एक अच्छे पुस्तकालय का अभाव प्रधानाध्यापक के कर्त्तव्य-निर्वाह की कमी ही सूचित करता है। जिस प्रधानाध्यापक की रुचि अध्ययन-अध्यापन में होगी और जो विद्यार्थियों एवं अध्यापकों के बौद्धिक विकास के लिए सतत चिन्तित रहता होगा उसके पास विद्यालय में निश्चित रूप से सुसज्जित पुस्तकालय होगा।

बाह्य उत्तरदायित्व

प्रधानाध्यापक के बाह्म उत्तरदायित्व को निम्नलिखित भागों में बाँट सकते हैं-

(1) शिक्षा-विभाग सम्बन्धी-शिक्षा- विभाग द्वारा भेजे गये आदेश, नियम आदि जिला विद्यालय निरीक्षक के माध्यम से प्रधानाध्यापक को प्राप्त होते हैं। इन आदेशों का पालन एवं विभाग द्वारा दिये गये निर्देशों के अनुसार कार्य करना उसकी जिम्मेदारी का एक अंग है।

(2) माध्यमिक शिक्षा परिषद् सम्बन्धी- माध्यमिक शिक्षा परिषद् पाठ्यक्रम एवं परीक्षा सम्बन्ध में प्राय: सीधे पत्र-व्यवहार विद्यालयों के प्रधानाचार्यों से करती है। प्रधानाध्यापक को चाहिए कि वह पत्र-प्राप्ति के बाद अपने सहयोगियों की सहायता से अविलम्ब कार्य प्रारम्भ कर दें।

(3) प्रबन्ध समिति सम्बन्धी- निजी विद्यालयों के प्रधानाचार्यों का अच्छा सम्बन्ध प्रबन्ध-समिति के सदस्यों से होना चाहिए परन्तु वे किसी प्रकार के निरर्थक विवाद में न पड़े। प्रबन्ध समिति का एक सदस्य होने के नाते उसे अपने दायित्व का निर्वाह विवेकपूर्वक करना चाहिए।

(4) समाज सम्बन्धी-विद्यालय को समाज के प्रतिरूप में विकसित करना प्रधानाध्यापक का महत्त्वपूर्ण दायित्व है। उसे विद्यालय में सामाजिक क्रियाओं को विशेष महत्त्व देना चाहिए। शिक्षक-अभिभावक संघ की स्थापना और उसका प्रभावपूर्ण संचालन करके प्रधानाध्यापक अपने उद्देश्य में काफी सफल हो सकता है। वह पूरी तरह समाज से सम्बन्धित रहे।

(5) विशेष अवसर सम्बन्धी-विद्यालय कार्य के प्रधानाध्यापक को प्रायः विद्यालय से बाहर जाना पड़ता है। उसे चाहिए कि वह विद्यालय में वरिष्ठ और अनुभवी अध्यापक को ही कार्य भार सौंपकर बाहर जाये। उसे शिक्षा सम्बन्धी सेमिनार और ग्रीष्मकालीन शैक्षिक आयोजनों में स्वयं सम्मिलित होना चाहिए और अपने अध्यापकों को प्रोत्साहित करके भेजना चाहिए। किसी दैवी विपदा या राष्ट्रीय संकट के समय उसे कर्त्तव्यनिष्ठ होकर कार्य करना चाहिए।

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