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पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक तत्त्व

पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक तत्त्व
पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक तत्त्व

अनुक्रम (Contents)

पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक तत्त्व (Determinants and Motives of Curriculum Development)

यदि हम चाहते हैं कि बच्चे विवेकपूर्ण ढंग से स्वतन्त्र हो तो शायद उनके लिए यह आवश्यक होगा कि वे अपने प्रारम्भिक ज्ञान आधार के साथ-साथ निर्माण की प्रक्रिया को आत्मसात करें। अभी तक हमारी शिक्षा व्यवस्था में ज्यादा जोर ज्ञान आधार पर है जिसे अपर्याप्त ढंग से सूचनाओं का संग्रह माना जाता है। अगर हम चाहते हैं कि ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया और संगठन के सिद्धान्तों पर बल दिया जाए तो शायद हमें अपने बच्चों को पाठ्यचर्या के माध्यम से जहाँ तक सम्भव हो, व्यापक अनुभव देने पड़ेंगे। इस दृष्टि से सृजनात्मकता के विकास और सोच तथा कर्म में स्वतन्त्रता के विकास के लिए पाठ्यचर्या की विषयवस्तु के चुनाव और संगठन के का मुद्दा बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

पाठ्यचर्या को इस प्रकार की शिक्षा की रचना करनी होगी जो असमानता के विरुद्ध संघर्ष पूरा कर सके और शिक्षार्थी की सामाजिक, सांस्कृतिक, भावनात्मक और आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा सके। यह केवल सम्पूर्ण शैक्षिक प्रयासों में घटिया तत्त्वों या मामूली बातों को अपनाकर नहीं होगा। अगर वर्तमान और भविष्य की बहुआयामी चुनौतियों का मुकाबल करना तो उत्कृष्टता के साथ-साथ पाठ्यचर्या के अन्य तीन आधार स्तम्भों प्रासंगिकता, समानता व उत्कृष्टता को संज्ञान में रखकर कुछ विषयों पर चिन्तन करना होगा जो निम्न प्रकार से हैं

(1) शिक्षकों के अनुभव व चिन्त्य विषय (Teachers Experiences and Concerns)

पाठ्यचर्या के विकास हेतु शिक्षकों के अनुभव व चिन्त्य विषय भी सकारात्मक योगदान देते हैं। यद्यपि पाठ्यचर्या रचना में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले शिक्षकों की संख्या बहुत थोड़ी है, जबकि पाठ्यचर्या को लागू करने वालों में शिक्षकों का योगदान शिक्षा प्रक्रिया में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। शायद यही वजह है कि शिक्षकों को ‘पाठ्यचर्या रचनाकार’ की बजाए ‘पाठ्यचर्या का वाहक’ माना जाता है। विद्यालय आधारित पाठ्यचर्या विकास का विचार लोकप्रिय हो रहा है और जैसे-जैसे विकेन्द्रीकरण का विचार विद्यालयों में व्याप्त होगा वैसे-वैसे भविष्य में इस प्रक्रिया में शिक्षकों की भागीदारी बड़े पैमाने पर अपेक्षित होगी। यह तब तक सम्भव नहीं होगा जब तक शिक्षक इस परिवर्तित भूमिका के लिए वास्तव में सक्षम नहीं बनाए जाते। राष्ट्र को शिक्षकों के अनुभवों पर पाठ्यचर्या निर्माण के समय पूर्ण विश्वास करना चाहिए। सक्षम शिक्षक समुदाय की परिकल्पना ने शिक्षण को पुनर्व्याख्या की ओर प्रवृत्त किया है। इसके अनुसार शिक्षण कार्य अधिक चिन्तनशील और विचारशील व्यवसाय के रूप में उभरेगा।

(2) राष्ट्रीय अस्मिता का सुदृढ़ीकरण और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण (Fixation of National Integrity and Perservance of Cultural Heritage)

विद्यालयी कोर्स की अन्तर्वस्तु द्वारा यह भी अपेक्षित है कि वह भारतीय सभ्यता का विश्व सभ्यता पर एवं विश्व-सभ्यता का भारतीय सभ्यता के विचार एवं कर्म पर पड़ने वाले प्रभाव के सम्यक् बोध के माध्यम से शिक्षार्थियों में भारतीय होने में गर्व करने की भावना का संचार और पोषण करे। राष्ट्रीय अस्मिता एवं एकता का सुदृढीकरण भारत की सांस्कृतिक विरासत के अध्ययन के साथ गहराई से जुड़ा है, जो कि कई प्रकार के रंग रूपों से समृद्ध है। इस सन्दर्भ में शिक्षा को दो प्रकार की भूमिका एक साथ निभानी है जिसमें परम्परा संरक्षण के साथ गतिशीलता निहित होगी।

(3) छात्रों के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों को संज्ञान में रखना (Acknowledge Social-Cultural Perspectives of Students)

भारत में असंख्य ऐसी स्थानीय परम्पराएँ हैं, ऐसे भी कई समुदाय और व्यक्ति हैं जो भारत के पर्यावरण के विविध रूपों की सूचनाओं और उनके प्रबन्धन सम्बन्धी ज्ञान के भण्डार हैं जो उन्होंने पीढ़ियों से परम्परागत ज्ञान के रूप में पाने के साथ अपने व्यावहारिक अनुभव से भी प्राप्त किया है। इसमें विद्यालयी परम्परा को भी जोड़ा जा सकता है।

(4) समरसतापूर्ण समाज हेतु शिक्षा : बालिकाओं, विशेष आवश्यकताओं वाले छात्रों व सुविधा वंचित समूहों के शिक्षार्थियों की शिक्षा (Education for Equalization of Society: Education for Girls, Special Needs and Disadvantaged Group Students) 

शिक्षा आज भी सामाजिक भेदभावों को कम करने और उसे मिटाने हेतु महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हुए सभी को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए अवसर दिलाने हेतु प्रयासरत है। अवसर की समानता का अर्थ है कि यह सुनिश्चित करना कि प्रत्येक व्यक्ति को यथोचित शिक्षा इस गति और पद्धति से मिले जोकि उसे अनुरूप हो। इस दृष्टि से कोर्स की अन्तर्वस्तु सुविधा वंचित, सामाजिक भेदभाव के शिकार समूहों और शारीरिक रूप से चुनौतियों का सामना कर रहे बच्चों की शिक्षा पर खास ध्यान देना अनिवार्य है। इसके परिणामस्वरूप पाठ्यचर्यागत और प्रशिक्षणगत कार्यनीतियों में बालिकाओं की शिक्षा पर अधिक ध्यान देना होगा और पाठ्य-पुस्तकों और उन्हें पढ़ाने की प्रक्रिया से सभी प्रकार के लैंगिक भेदभाव और लैंगिक पूर्वाग्रह मिटाने होंगे। अतः अब इस बात की जरूरत है कि समान रूप से बालक-बालिकाओं दोनों को ध्यान में रखकर ऐसी प्रभावशाली पाठ्यचर्या कार्यनीति विकसित और लागू करें जो ऐसे बालक-बालिकाओं की पीढ़ियों का पोषण करे, जो समान रूप से सक्षम हो, एक-दूसरे के प्रति संवेदनशील हो और जो एक-दूसरे की चिन्ता से जुड़कर एक-दूसरे के साथ समान रूप से भागीदार बने, न कि एक-दूसरे के विरुद्ध हो ।

(5) पाठ्यक्रम में समावेशी शिक्षा का विकल्प (Alternate of Inclusive Education in Curriculum)

20वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में शिक्षा में समावेशन के नए सम्प्रत्यय का विकास हुआ, जिसके अनुसार किसी भी बच्चे को किसी भी आधार पर सामान्य बच्चों से अलग करना और उसकी शिक्षा की व्यवस्था अलग से करना अमानवीय माना गया और राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस विषय पर गम्भीरता से सोचा जाने लगा। 1989 में संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) में बच्चों के अधिकार विषय पर सम्मेलन हुआ और उसमें यह निर्णय लिया गया कि किसी भी क्षेत्र में बच्चों के साथ किसी भी आधार पर चाहे वह शिक्षा का क्षेत्र ही क्यों न हो, कोई भेदभाव नहीं होगा। सन् 2001 में विशिष्ट आवश्यकताओं की शिक्षा पर श्वेत-पत्र 61 समावेशी शिक्षा एवं प्रशिक्षण व्यवस्था की निर्माण 2001 प्रसारित हुआ। इसमें समावेशी शिक्षा के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि समावेशी शिक्षा यह स्वीकार करती है कि सभी सीखने वाले किसी-न-किसी दृष्टि से भिन्न होते हैं तथा उनके सीखने से सम्बन्धित आवश्यकताएँ भी भिन्न होती हैं और ये भिन्नता हमारे लिए मूल्यवान हैं तथा मानवीय अनुभवों का एक सामान्य भाग हैं। अतः सीखने वालों के बीच अन्तर को स्वीकार करते हुए हम उसका आदर करते हैं, चाहे वह अन्तर आयु, लिंग, नास्तिकता, भाषा, वर्ग एवं अपंगता किसी भी कारण क्यों न हो।

(6) पर्यावरणीय विषयों का समावेशन (Inclusion of Environmental Subjects)

पाठ्यचर्या के अन्य निर्धारकों के अतिरिक्त कुछ आलोचनात्मक चिन्त्य विषयों का भी ध्यान पाठ्य-विषयों के अन्तर्गत करना चाहिए। निरन्तर बढ़ता हुआं पर्यावरण प्रदूषण एक चिन्त्य विषय है, अतः सबसे पहले पर्यावरण संरक्षण को पाठ्यचर्या में स्थान अवश्य दिया जाना चाहिए। यूनेस्को ने पर्यावरण शिक्षा को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय मानते हुए इसकी पाठ्यक्रम में अनिवार्यता पर बल दिया था। इसी प्रकार जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा की संकल्पना करते हुए इसमें एक सामान्य कोर की बात कही गयी तो इसमें पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल किया गया।

(7) सम्बन्धित स्तर हेतु शैक्षिक उद्देश्यों की सार्थकता व स्पष्टता (Relevance and Specificity of Educational Objectives for Concerned Level)

पाठ्यचर्या के निर्धारण हेतु किस स्तर हेतु पाठ्यचर्या का निर्माण किया जा रहा है तथा उस विशिष्ट स्तर हेतु किन शैक्षिक उद्देश्यों के निर्धारण की आवश्यकता है पर विचार किया जाना चाहिए क्योंकि शिक्षा के सामान्य लक्ष्यों के मद्देनजर विभिन्न स्तरों पर अलग-अलग उद्देश्यों के वर्गीकरण की आवश्यकता है, जैसे बच्चे के विकास की अवस्थाएँ, ज्ञान की प्रकृति सामान्य तौर पर और खासतौर पर पाठ्यचर्या के विषय क्षेत्र के सम्बन्ध में और बच्चे का सामाजिक-राजनीतिक परिवेश। इसके अतिरिक्त विशिष्ट उद्देश्य होने चाहिए जिनका इस्तेमाल पाठ्य सामग्री के चुनाव एवं संगठन के लिए दिशा-निर्देश की तरह किया जा सके।

(8) अधिगमकर्त्ता की विशेषताएँ (Learner’s Characteristics)

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया से अधिगमकर्त्ता का विशेष स्थान है। शिक्षण अधिगम प्रक्रिया तभी सफल हो सकती हैं जब पाठ्यचर्या विद्यार्थी के सम्पूर्ण विकास में मदद करे। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास करना है जो केवल पाठ्यचर्या द्वारा ही सम्भव हो सकता है। इसलिए पाठ्यचर्या ऐसी होनी चाहिए जो विद्यार्थियों को जीवन की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने तथा समस्याओं को दूर करने में मदद करे। पाठ्यचर्या अधिगमकर्ता का सम्पूर्ण विकास करने के लिए प्रयत्नशील होनी चाहिए।

प्रत्येक विद्यार्थी/अधिगमकर्त्ता रुचियों, आवश्यकताओं, क्षमताओं व योग्यताओं के आधार पर भिन्न होता है। पाठ्यचर्या में इस प्रकार का प्रावधान रखना चाहिए कि प्रत्येक विद्यार्थी बिना किसी रुकावट के अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर सके।

(9) ज्ञान के स्वरूप व इनका विभिन्न विद्यालयी विषयों में चरित्रीकरण (Forms of Knowledge and Its Characterization in Different School Subjects)

पाठचर्यां ऐसी होनी चाहिए जो शिक्षार्थियों को ऐसे अनुभव उपलब्ध कराए जो उसके क्रमशः विवेक की क्षमता बढ़ाते हुए उसके ज्ञान के आधार को पुष्ट करें और दूसरों के प्रति संवेदनशील बनाएँ। ज्ञान एवं समझ पाठ्यचर्या के चुनाव और विषय वस्तु के प्रस्तावों के लिए आवश्यक पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं।

ज्ञान की कल्पना संगठित अनुभव के रूप में की जा सकती है जो भाषा, विचार-शृंखला या संकल्पना की संरचना के माध्यम से अर्थबोध पैदा करती है जिसके माध्यम से हमें अपने संसार को समझने में सफलता मिलती है। पाठ्यचर्या उन क्षमताओं के विकास की योजना होती है जिनके माध्यम से चयनित शैक्षणिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। मानवीय क्षमताओं के आयाम काफी विस्तृत होते हैं और शिक्षा के माध्यम से हम उन सबका विकास नहीं कर सकते। अतः हमें ज्ञान के विविध रूपों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पाठ्यचर्या में स्थान देना होता है।

(10) मूल्यों का संरक्षण (Preservation of Values )

भारत आध्यात्मिक सह-अस्तित्व का एक सर्वाधिक उत्पन्न प्रयोग है, अतः सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों एवं धर्मों के विषय में शिक्षा पूरी तरह से घर और समुदाय के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि भारतीय विद्यालयी पाठ्यचर्या में मूलभूत मूल्यों को अन्तः निहित किया जाये तथा देश के सभी प्रमुख धर्मों के सम्बन्ध में चेतना को एक केन्द्रीय घटक के रूप में शामिल किया जाए।

मूल्यों की शिक्षा का मतलब हमेशा से वांछनीय व्यवहार को प्रेरित करना रहा है। इस कारण विद्यार्थी अक्सर बिना किसी प्रतिबद्धता के अपनी सही भावना और विचार को छिपाकर बस जवानी तौर पर नैतिक मूल्यों की बात करने लगते हैं। अतः जरूरत बातचीत से हटकर अनुभवों और चिन्तन-मनन तक जाने की है जहाँ नैतिक व्यवहार के लिए कोई भी सरल प्रस्ताव या उपागम नहीं हो सकता।

इन बौद्धिक विशेषताओं के अतिरिक्त अधिगमकर्ता की अन्य विशेषताएँ भी पाठ्यचर्या रचना के लिए महत्त्वपूर्ण निर्धारक होती हैं। इसलिए जब पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यचर्या के उद्देश्य, विषयवस्तु कार्यनीतियों और प्रयोग आदि निर्धारित किए जायें तो इन तथ्यों पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा। इस तथ्य को पूरी गम्भीरता से पाठ्यचर्या-निर्माताओं और पाठ्यचर्या लागू करने वालों को समझना होगा ताकि छात्रों को उपयुक्त और पर्याप्त शिक्षण अनुभव दिये जा सकें। उदाहरणार्थ यदि हम पाठ्यचर्या में भाषा के अध्ययन के बात करें तो प्राथमिक स्तर के प्रथम दो वर्षों में पाठ्यचर्या में ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए जिससे उनमें सुवाच्य लेखन और सही वर्तनी (स्पेलिंग) के अवबोध के साथ मौन वाचन की सही प्रक्रिया एवं आदत विकसित हो सके। उच्च प्राथमिक स्तर पर छात्रों की दो भाषाओं में क्षमताओं पर इसलिए जोर देना होगा कि वे वास्तविक जीवन कौशल को अर्जित करने योग्य बनकर भावी दैनिक जीवन में उनका इस्तेमाल कर सकें।

पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरक

पाठ्यक्रम विकास के निर्धारक एवं प्रेरकों की अन्य प्रमुख सूचियाँ निम्नलिखित हैं-

(1) परिवार (Family)

 परिवार प्राचीनतम सामाजिक संस्था है। बालक की अनौपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ माता-पिता एवं परिवार से ही होता है। वर्तमान समय में औपचारिक शिक्षा के इतने विशाल प्रचार-प्रसार के बाद भी विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में करोड़ों बच्चे विद्यालय नहीं जा पाते हैं। ऐसे बच्चों को सामाजिक शिक्षा परिवार से ही मिलती है। इसके अतिरिक्त जो बच्चे विद्यालयों में औपचारिक शिक्षा हेतु प्रवेश लेते हैं, उनके लिए भी परिवार एक ठोस आधार पहले से ही बना चुका होता है। इस प्रकार विद्यालय में प्रवेश के समय तक बालक का बहुत कुछ समाजीकरण हो चुका होता है। अतः विद्यालय को अपने कार्यक्रम उसकी पूर्व-स्थिति के आधार पहले से ही बना चुका होता है। इस प्रकार विद्यालय में प्रवेश के समय तक बालक का बहुत कुछ समाजीकरण हो चुका होता है। अतः विद्यालय को अपने कार्यक्रम उसकी पूर्व-स्थिति के आधार पर प्रारम्भ करने होते हैं।

(2) परम्पराएँ (Traditions)

 परम्परायें अथवा रीति-रिवाज मानव समाज की अपनी विशिष्टतायें हैं। प्रत्येक समाज में ऐसे रीति-रिवाज होते हैं जो उसे सांस्कृतिक विरासत के रूप में प्राप्त हुए होते हैं। समाज के सभी लोग इन रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं का सामान्यतया बिना किसी सोच-विचार के पालन भी करते हैं। इन परम्पराओं के सम्बन्ध में प्रायः लोगों द्वारा कोई तर्क-वितर्क भी नहीं किया जाता है, क्योंकि इन परम्पराओं का पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते रहना ही इनकी सार्थकता का प्रमाण माना जाता है, किन्तु परम्पराओं के बारे में केवल यही दृष्टिकोण सर्वमान्य नहीं है।

परम्परायें परिवर्तन की गति को धीमा अवश्य करती हैं लेकिन साथ ही वे उसे व्यवस्थित रखने में भी सहायक होती हैं, स्थायित्व को बरकरार रखते हुए अराजकता की स्थिति उत्पन्न नहीं होने देती तथा क्रमिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करती हैं। अभी तक प्रचलित पाठ्यक्रम में तो परम्पराओं का दबाव रहा ही है, वर्तमान पाठ्यक्रम के निर्धारण में भी परम्परायें एक सीमा तक सशक्त भूमिका निभा रही हैं। शिक्षाक्रम निर्माताओं को प्रायः इनसे सहमति व्यक्त करते हुए उन्हें मूल रूप में या कुछ संशोधनों के साथ अपनाना ही पड़ता है। इन परम्पराओं से पूर्णतः असहमत होने या उन्हें अस्वीकार करने की स्थिति में उनके विकल्प की खोज आसान नहीं होती है। इस प्रकार परम्परायें पाठ्यक्रम निर्माण में दबाव वर्ग के रूप में कार्य करती है।

(3) सामाजिक दबाव वर्ग (Social Pressure Groups)

 शिक्षा में सामाजिक प्रवृत्ति के कारण पाठ्यक्रम को विभिन्न स्तरों पर कई तरह के सामाजिक दबावों का सामना करना पड़ता है। इन दबावों या प्रभावों को सामान्य रूप से दो भागों में रखा सकता है। पहले वर्ग में वे दबाव समूह आते हैं जो अनौपचारिक, अनियोजित तथा अचेतन होते हैं तथा दूसरे वर्ग में औपचारिक, सुनियोजित एवं चेतन दबाव समूह आते हैं। लोकतान्त्रिक समाज में तो दवाव समूहों का और भी अधिक महत्त्व होता है। वर्तमान समय में तो ऐसे अनेक संगठन बनते जा रहे हैं तो पाठ्यक्रम में परिवर्तन हेतु योजनाबद्ध रूप में कार्य करते है।

(4) धार्मिक संगठन (Religious Organisations)

 धार्मिक संगठनों एवं संस्थाओं का रहा है। विश्व के लगभग प्रत्येक समाज में विद्यालयों की स्थापना सबसे पहले धार्मिक संस्थाओं के द्वारा ही की गयी है। यद्यपि वैज्ञानिक प्रगति एवं औद्योगिक क्रान्ति के बाद शिक्षा के क्षेत्र में धार्मिक आधिपत्य कुछ कम अवश्य हुआ है किन्तु फिर भी किसी-न-किसी रूप में शिक्षा धर्म है से प्रभावित होती रही है। अब भी पाठ्यक्रम के सामाजिक आधारों में धर्म का महत्त्वपूर्ण स्थान बना हुआ है। पाश्चात्य देशों तो चर्च, सभी शैक्षिक प्रश्नों पर एक प्रभावशाली दबाव वर्ग के रूप में कार्य करता है। धार्मिक शिक्षा से जुड़े हुए अनेक प्रश्नों, जैसे- धार्मिक शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए या नहीं, यदि प्रदान की जानी है तो किस धर्म की और कितनी, यह शिक्षा अनिवार्य हो या ऐच्छिक इसका आयोजन विद्यालय के नियमित समय में हो या अतिरिक्त समय में और कितने समय तक, इस प्रकार की शिक्षा पर धन व्यय करने का दायित्व सरकार का हो या किसी अन्य स्वैच्छिक संगठन का आदि के सम्बन्ध में निर्णय प्रायः धार्मिक संस्थाओं के प्रभाव क्षेत्र तथा सम्भावित हस्तक्षेप के परिप्रेक्ष्य में ही किया जाता है।

(5) समाज की बदलती आवश्यकताएँ (Changing Needs of the Society)

 प्रत्येक समाज में, प्राचीन काल से ही कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते रहे हैं। इन परिवर्तनों से ऐसी नवीन स्थितियाँ भी उत्पन्न होती रही हैं, जिनके कारण पाठ्यक्रम में संशोधन एवं संवर्धन का क्रम निरन्तर चलता रहता है। परन्तु आधुनिक समाज में परिवर्तन गति बहुत अधिक तीव्र होने के कारण अनेक नवीन प्रवृत्तियों अपनी तीव्र गति और संख्या-बल से ही नहीं, बल्कि अपनी युगान्तकारी प्रकृति के कारण भी पाठ्यक्रम नियोजकों के सामने अनेक प्रकार की चुनौतियाँ प्रस्तुत कर रही हैं।

(6) समाज की प्रकृति (Nature of Society)

 किसी भी समाज की प्रकृति को दो तरह से समझा जा सकता है-

(1) समाज की परम्पराप्रियता तथा गतिशीलता,

(2) समाज की मुक्त अवस्था तथा नियन्त्रित अवस्था

जो समाज जितना अधिक प्राचीन होता है, वह उतना ही परम्परावादी भी होता है और उन परम्पराओं को आगे बढ़ाने के लिए भी निरन्तर प्रयत्नशील रहता है। ऐसे समाज में पाठ्यक्रम में परम्पराओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है तथा उनमें किसी तरह के परिवर्तन को सहजता से स्वीकार नहीं किया जाता। ऐसे समाज में किसी भी प्रकार के परिवर्तन को उसकी उपयोगिता असंदिग्ध होने पर भी स्वीकार करने में आवश्यकता से बहुत अधिक समय लगता है। इसका एक अच्छा उदाहरण ब्रिटेन में मीट्रिक माप-तौल प्रणाली को बहुत देर से स्वीकार करना है। इसके विपरीत नवीन समाज प्राचीन समाज की अपेक्षा अधिक गतिशील होता है अर्थात् परिवर्तनों के प्रति अधिक तत्पर होता है। अनेक नवोदित राष्ट्रों में हुए क्रान्तिकारी परिवर्तन इसके प्रमाण हैं।

(7) आधुनिक समाज की बदलती हुए आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा (Education According to Changing Needs of Modern Society)

आधुनिक समाज की बदलती हुई आवश्यकतायें, उसमें तीव्र गति से होने वाले परिवर्तनों की ही देन होती है। कोई भी समाज इन तीव्रगामी परिवर्तनों से तभी सही ढंग से अनुकूलन कर सकता है जब वह उन परिवर्तनों से उपजी वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, तकनीकी एवं पारिस्थितिकीय आवश्यकताओं के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करे ।

(8) अन्य दबाव वर्ग (Other Pressure Groups)

कई नवीन प्रभाव वर्ग वर्तमान समय में पाठ्यक्रम को प्रभावित कर रहे हैं। ये प्रभाव वर्ग प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनों रूपों में कार्य करते हैं। इस प्रकार के दबाव समूहों में विभिन्न सामाजिक एवं राजनैतिक संगठन, प्रकाशक, शैक्षिक सामग्री एवं उपकरणों के निर्माता, विभिन्न सेवाओं के चयन के लिए परीक्षा आयोजित करने वाले अभिकरणों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये अभिकरण पाठ्यक्रम को उसी प्रकार प्रभावित करने लगे हैं जिस प्रकार आधुनिक विज्ञापन भौतिक वस्तुओं के प्रयोग को प्रभावित करते हैं।

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