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पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त | Principles of Curriculum Development in Hindi

पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त
पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त

पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त (Principles of Curriculum Development)

पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) गत्यात्मक (Dynamic)

यह कहा जा सकता है कि एक स्थायी पाठ्यक्रम एक मृतक पाठ्यक्रम के समान होता है। जैसे भविष्य तथा शिक्षा प्रक्रिया एक गत्यात्मक स्थिति में रहता है, उसी प्रकार इसका पाठ्यक्रम भी गत्यात्मक होना चाहिए। प्रशासकों, पाठ्यक्रम विकासकर्त्ताओं, अध्यापकों आदि के द्वारा निरन्तर पाठ्यक्रम की विभिन्न सम्बन्धों में जाँच पड़ताल की जानी चाहिए जैसे यह क्या कर रहा है, और यह विद्यार्थियों की आवश्यकताओं की कितने अच्छे ढंग से पूर्ति कर रहा है। पाठ्यक्रम दोहराई के लिए प्रावधान बनाए जाने चाहिए, विशेष रूप से उन परिवर्तनों के लिए जो वास्तविक रूप से इसमें सुधार लाते हैं न केवल परिवर्तन के लिए। वर्तमान पाठ्यक्रम में ऐसे प्रावधान भी होने चाहिए कि इसे किसी समय भी पुनः निर्देशित, परिवर्तित और यहाँ तक कि इसमें से उपविषयों को समाप्त भी किया जा सके परन्तु एक बात का हमेशा ध्यान रखा जाए कि पाठ्यक्रम में यदि कभी भी, कोई भी परिवर्तन किया जाए तो वह विद्यार्थियों की वृद्धि व विकास से सम्बन्धित होना चाहिए।

(2) आँकड़े आधारित (Data Based)

पाठ्यक्रम को प्रभावी ढंग से क्रियान्वित रूप प्रदान करना है तो इसके लिए आवश्यक है कि इसका विकास आँकड़ों पर आधारित हो। पाठ्यक्रम की विषय सामग्री के बारे में निर्णय विभिन्न प्रकार के आँकड़ों की उपलब्धि के पश्चात ही किया जाना चाहिए जैसे विद्यार्थियों की विशेषताएँ तथा जिन व्यवसायों के लिए उन्हें तैयार किया जा रहा है, उसकी प्रकृति सम्बन्धी आँकड़े। पाठ्यक्रम सामग्री की गुणवत्ता की निश्चितता अनुदेशकों तथा विद्यार्थियों, जो उसका प्रयोग करते हैं, से आँकड़ों को प्राप्त करने के पश्चात् ही की जानी चाहिए। वास्तव में पाठ्यक्रम निर्णय के लिए आँकड़ों के आधार पर अत्यधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए। इसके लिए कारण यह है कि परम्परागत पाठ्यक्रम के विकासकर्ताओं ने उन सम्बन्धों पर बल देने की पूर्णतया अवलेलना की थी जो आँकड़ों तथा पाठ्यक्रम निर्णयों में होना चाहिए।

(3) भविष्य केन्द्रित (Future Oriented)

शिक्षा शास्त्री भविष्य से अत्यधिक सम्बन्धित होते हैं। आज से 20 साल बाद स्कूल को किस प्रकार की प्रयोगशालाओं की आवश्यकता होगी ? जो विद्यार्थी आज स्कूल में हैं, उनके लिए किस प्रकार की निरंतर शिक्षा की आवश्यकता होगी ? इसी प्रकार के प्रश्न समय-समय पर शिक्षाशास्त्रियों द्वारा उठाए जाते हैं, जो भविष्य के बारे में सोचते हैं क्योंकि पाठ्यक्रम की विषय सामग्री एवं संरचना के बारे में निर्णय लिए जाते हैं, इसलिए इन निर्माणों के आधार पर भविष्य परिणामों के बारे में सोचना चाहिए। कोई भी पाठ्यक्रम जिसे कल के लिए उचित माना जाता है वह कल के साथ-साथ आज की आवश्यकताओं के लिए भी उत्तरदायी होना चाहिए। यह पाठ्यक्रम आज से 20, 30 या 40 वर्ष बाद तक भी सफल होगा, वह उनकी भविष्य की संभावनाओं पर निर्भर करता है।.

(4) विद्यार्थी केन्द्रित (Student Oriented)

प्रभावी पाठ्यक्रम विद्यार्थी केन्द्रित होना चाहिए। वर्तमान समय में सबसे अधिक चर्चा का विषय ही यही है कि पाठ्यक्रम किस प्रकार उत्तम ढंग से विद्यार्थी की आवश्यकताओं की पूर्ति करे। अध्यापक के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न उपागम जैसे समूह शिक्षण और व्यक्तिगत अनुदेशन का प्रयोग किया जाता है। उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विस्तृत रूप से प्रबन्ध किए जाने चाहिए जैसे इस प्रकार के अनुदेशन का प्रयोग किया जाए जिनमें प्रत्येक व्यक्ति के अधिगम के विकास के लिए विभिन्न अधिगम शैलियों वाले विद्यार्थियों का सामंजस्य हो सके या कोर्स के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वैकल्पिक रास्तों को उपलब्ध कराए जाए। विद्यार्थियों की सहायता के लिए किसी भी साधन को प्रयोग किया जाए, प्रत्येक विद्यार्थी का व्यक्तिगत रूप कि उसकी सम्भव उत्तम ढंग से किस प्रकार से सहायता की जाए। से ध्यान रखा जाना चाहिए

(5) पूर्ण तथा जुड़े हुए (Fully Articulated)

यद्यपि यह सत्य है कि सभी कोर्स तथा अन्य शैक्षिक क्रियाएँ महत्त्वपूर्ण ढंग से पाठ्यक्रम की गुणवत्ता में योगदान देती हैं। वे एक-दूसरे से किस प्रकार सम्बन्धित होते हैं, यह उन अनुभवों की भिन्नता पर आधारित होता है जो केवल संतोषजनक होते हैं या वे जो अत्यन्त श्रेष्ठ होते हैं। पाठ्यक्रम संधियों से अभिप्राय है कि विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित विषय सामग्री को तर्कपूर्ण ढंग से एक वर्ष से दूसरे वर्ष के साथ जोड़ा जाए।

(6) वास्तविक (Realistic)

पाठ्यक्रम कभी भी शून्यता में क्रियाशील नहीं हो सकता। पाठ्य-सामग्री का विकास केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि एक व्यक्ति को क्या जानना चाहिए अपितु इसमें यह भी शामिल किया जाना चाहिए कि एक व्यक्ति को क्या करने योग्य होना चाहिए। पाठ्यक्रम की विषय सामग्री ज्ञान, कौशल, अभिवृत्ति तथा मूल्यों पर आधारित होनी चाहिए जो इस बात को आधार प्रदान करती है कि क्या सिखाया जाता है।

(7) स्पष्ट परिणाम (Explicit Outcomes) 

विस्तृत रूप से लक्ष्य प्रत्येक पाठ्यक्रम का महत्त्वपूर्ण भाग होते हैं, यद्यपि इन लक्ष्यों की वैधता की सीमा यही होती है कि इन्हें अधिक स्पष्ट रूप से संप्रेषित किया जा सकता है । यद्यपि यह देखा गया है कि हम सम्पूर्ण पाठ्यक्रम परिणामों को विशेष मापक शब्दों के रूप में कथित नहीं कर सकते, परन्तु इनमें से बहुत-से परिणामों को इस ढंग से लिखा जा सकता है कि विस्तृत पाठ्यक्रम के लक्ष्यों को अधिक संख्यात्मक बनाया जा सकता है। परिणाम जितने अधिक विस्तृत रूप में स्पष्ट होंगे, तो हम यह बताने में समर्थ हो पाएँगे कि क्या विद्यार्थी इन्हें प्राप्त कर पाएँगे, और किस प्रकार कोई विशेष परिणाम किसी विशेष व्यवसाय या क्षेत्र से सम्बन्धित है। यही शायद अधिक महत्त्वपूर्ण कारक है कि जिससे हम यह निश्चित कर सकते हैं कि पाठ्यक्रम परिणाम स्पष्ट एवं संक्षिप्त है।

(8) मूल्यांकन सजगता (Evaluation Conscious)

बहुत-से शिक्षाशास्त्रियों द्वारा मूल्यांकन को ऐसी प्रक्रिया माना जाता है जो पाठ्यक्रम विकास के सिद्धान्त के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। पाठ्यक्रम मूल्यांकन निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसे नियोजित किया जाता है तथा क्रमबद्ध किया जाता है। पाठ्यक्रम का जैसे ही निर्माण करना प्रारम्भ किया जाता है, विद्यार्थियों पर इसके पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए योजना का निर्माण भी शुरू हो जाना चाहिए। फिर जब पाठ्यक्रम को लागू किया जाता है तो आँकड़ों का एकत्रीकरण प्रारम्भ हो जाता है, जिसके अन्तर्गत अध्यापक पाठ्यक्रम की शक्तियों व कमजोरियों को जानते हैं।

इस प्रकार पाठ्यक्रम निर्माण के समय-समय पर विभिन्न शिक्षाशास्त्रियों के द्वारा विभिन्न सिद्धान्त दिए गए हैं।

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