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पर्यावरण एवं पोषणीय विकास

पर्यावरण एवं पोषणीय विकास
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पर्यावरण एवं पोषणीय विकास

पोषणीय विकास को धारणीय विकास, संधृत विकास, सतत् विकास अवस्था, टिकाऊ विकास इत्यादि के नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ है- भावी पीढ़ी की आवश्यकता को पूरी करने की क्षमता में कमी किए बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करना यानि हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति इस प्रकार से करें ताकि आने वाली पीढ़ी को भी उस संसाधन की उपलब्धता समान रूप से बनी रहे और ये तभी सम्भव है जब हम किसी भी संसाधनों का उपयोग विवेकपूर्ण करें। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ मानव सभ्यता विकसित होने लगी पर विकास के साथ इसके सकारात्मक पहलू पर सभी ने अपना ध्यान केन्द्रित किया। नकारात्मक पहलू को सबने नजरअंदाज कर दिया फलतः इस विकास का पर्यावरण पर बड़ा घातक असर पड़ा क्योंकि इससे पर्यावरण के उन तत्त्वों पर जिन पर हमारा जीवन आश्रित है, वे सभी प्रदूषित हो गये। आज विकसित देशों व विभिन्न प्रकार की पर्यावरणीय समस्या आर्थिक विकास के कारण है तो गरीब देशों में ये समस्याएँ गरीबी की वजह से है। पर्यावरण समस्याओं के मूल वजहों को लेकर विकसित देश, विकासशील देश और गरीब देशों में तनातनी है। समस्याओं से सभी प्रभावित हैं पर समाधान के नाम पर कोई एक मत नहीं है। पर्यावरण का उचित ध्यान एवं रखरखाव जरूरी है क्योंकि हम सभी हमारे लिए पर्यावरण के महत्त्व को भली-भाँति समझते हैं। पर्यावरण और विकास आपस में परस्पर जुड़े हुए हैं। विकसित देशों ने आर्थिक विकास के क्रम में पर्यावरण की जी भर उपेक्षा की उसका उपयोग तो किया पर संरक्षण के बारे में नहीं सोचा। विकासशील देश विकास की प्रक्रिया में पर्यावरणीय परिणामों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। दुनिया के अधिकतम स्थानों पर पर्यावरण से सम्बन्धित कई समस्याएँ गरीबी से संबंधित हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त सारी समस्याएँ ऐसी हैं जिसमें समस्या अगर विकास से सम्बन्धित हैं तो समाधान भी वहीं छुपा है बस बुद्धिमानी इसी में है कि विकास तो किया जाय किन्तु पर्यावरण का उचित एवं उपयुक्त ध्यान रखा जाए। यानि विकास एवं पर्यावरण में उचित तालमेल रखा जाय ताकि विकास तो हो पर पर्यावरण को कोई खतरा न हो। इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए ‘पोषणीय विकास की संकल्पना अस्तित्व में आई।

‘पोषणीय विकास’ का प्रयोग 1970 में पर्यावरण और विकास पर कोकोयाक घोषणा के समय पर किया गया था। हार्ट एवं सैलु ने इसका सार बताते हुए कहा कि “धारणीयता का सार प्राकृतिक स्रोतों की उत्पादकता को बनाये रखना है।”

पोषणीय विकास इस बात पर जोर देता है कि विकास योजना को किस प्रकार लागू किया जाय ताकि पर्यावरण को नुकसान न पहुँचे। पोषणीय विकास की संकल्पना किसी सारवान आदेश को नहीं बल्कि नीतिगत मूल्यों या लक्ष्य पर केंद्रित होती है। संसाधनों ने उपयोग की संकल्पना बहुत पुरानी है क्योंकि जीवन शैली के रूप में इस सिद्धान्त के बिना हमारा ज्यादा समय तक अस्तित्व में रहना संभव नहीं है।

विश्व आयोग की रिपोर्ट (ब्रण्टलैण्ड रिपोर्ट) पर्यावरण और पोषणीय विकास के इस रूप में परिभाषित करती है जो हमें बताती है कि विकास का क्रम ऐसा होना चाहिए जो भावी पीढ़ी की अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता को जोखिम में डाले बिना वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं को पूरा करता है। इस विकास को एक युक्ति के रूप में देखा जाता है तो प्रत्यक्ष रूप से आर्थिक विकास और पर्यावरण की अखण्डता के परस्पर विरोधी लक्ष्यों में एकीकरण स्थापित करती है। इस विकास का एक मुख्य लक्षण है कि यह मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और मानव जीवन की गुणवत्ता में अभिवृद्धि के लिए है।

ब्रण्टलैण्ड रिपोर्ट के अनुसार, पोषणीय विकास की संकल्पना के अंदर दो मूल संकल्पनायें हैं-

1. विश्व के गरीबों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की प्राथमिकता पर जोर,

2. वर्तमान और भावी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्यावरण की क्षमता पर तकनीकी और सामाजिक संगठन द्वारा अधिरोपित निर्बन्धन का विचार |

इस प्रकार पर्यावरण और इसके पोषणीय विकास के महत्त्व को समझते हुए सभी राष्ट्रों को अपना योगदान देना चाहिए ताकि भावी पीढ़ी को भी एक स्वस्थ और संतुलित पर्यावरण में जीने का अधिकार मिले।

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