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पद-सोपान अथवा क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त का अर्थ, विशेषताएँ, प्रकार, गुण तथा दोष

पद-सोपान अथवा क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त का अर्थ
पद-सोपान अथवा क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त का अर्थ

पद-सोपान अथवा क्रमिक प्रक्रिया का सिद्धान्त का अर्थ

पद-सोपान के सिद्धान्त का अंग्रेजी रूपान्तरण ‘Hierarchy’ है। अंग्रेजी ने इसे स्केलर प्रोसेस (Scalar Process) भी कहते हैं। जिसका हिन्दी भाषा में अर्थ क्रमिक पद्धति है। इसके अनुसार संगठन में विभिन्न विभागों के पदाधिकारियों एवं कर्मचारियों को पृथक्-पृथक् पद प्रदान किया जाता है और उनका पद, उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार ही निश्चित किया जाता है। इस सम्बन्ध में अर्ल लेथम (Earl Latham) ने लिखा है कि “पद-सोपान उच्च और निम्न लोगों का उतरता हुआ मापदण्ड है, जिसमें प्रधान सबसे ऊपर होता है, जहाँ से वह अपने भयंकर नेत्रों से निम्न पदाधिकारियों के हृदय को देखता है और उनके कार्यों को अपने निर्देशन के अनुसार बदलता रहता है।’ “

संगठन के पद-सोपान के सिद्धान्त का दूसरा नाम क्रमिक प्रक्रिया भी है। क्रम शब्द से तात्पर्य चरणों की पंक्ति (A Series of Steps) है, जिसका अर्थ विस्तृत रूप में है “किसी कार्य को श्रेणीबद्ध करना।” इस शब्द का संगठन अर्थ है कि संगठन में सत्ता उच्च स्थान से निम्न स्थान की ओर क्रमिक रूप से बढ़ती है।

इस सिद्धान्त के अनुसार सत्ता के सूत्र ऊपर तथा नीचे दोनों ओर जाते हैं। हर एक कर्मचारी को यह पता रहता है कि उनको किन पदाधिकारियों के नियन्त्रण में रहना है तथा किन अधिकारियों के आदेशों का पालन करना है। इसमें सत्ता क्रमिक रूप से आगे बढ़ती है। अतः हम कह सकते हैं कि जिस प्रकार सीढ़ी से एक भी डण्डे को छोड़कर उतरने में असुविधा होती है, उसी प्रकार संगठन में किसी भी स्तर को छोड़कर आगे बढ़ने में अत्यन्त असुविधा होती है।

पद-सोपान सिद्धान्त की विशेषताएँ

इस सिद्धान्त की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. नेतृत्व– क्रमिक प्रक्रिया में उच्च अधिकारी प्रमुख माना जाता है। उसको सत्ता का अधीनस्थ अधिकारियों पर विशेष प्रभाव पड़ता है। उसका प्रमुख कार्य उन लोगों में समन्वय स्थापित करना है, जिनके द्वारा कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं।”

2. सत्ता का प्रत्यायोजन- इस सिद्धान्त में संगठन के अन्तर्गत सवोच्च अधिकारी अकेला ही सम्पूर्ण सत्ता का प्रयोग नहीं कर सकता। उसे अपने अधीनस्थ कर्मचारी को कुछ-न कुछ अधिकार देने पड़ते हैं, ताकि प्रशासन कार्य ठीक प्रकार से सम्पन्न हो सके तथा अधिकारियों एवं कर्मचारियों में उत्तरदायित्व की भावना का संचार हो सके, परन्तु कार्य क्षमता सम्पन्नता के लिए अन्तिम रूप से उत्तरदायित्व सर्वोच्च अधिकारी का ही होता है।

3. कार्यात्मक परिभाषा- क्रमिक प्रक्रिया में सर्वोच्च अधिकारी प्रत्येक अधीनस्थ कर्मचारी को उसका कार्य सौंप देता है, जिससे प्रत्येक अधीनस्थ कर्मचारी को उसके कार्य क्षेत्र का पता रहता है। पदाधिकारियों और कर्मचारियों में किसी प्रकार का मतभेद उत्पन्न नहीं होता।

पद-सोपान प्रणालियों के प्रकार

पिफनर और शेरबु ने चार प्रकार की पद-सोपान प्रणालियों का वर्णन किया है-

1. कार्य- आधारित पद-सोपान- इसके अनुसार प्रत्येक कर्मचारी का स्थान उसके द्वारा किये जा रहे कार्यों तथा उसके अधिकारों तथा कर्त्तव्यों के अनुसार निर्धारित होता है, जिसके पास अधिक अधिकार होते हैं, उनकी स्थिति संगठन में उतनी ही उच्च होती है, जिनके पास कम अधिकार होते हैं, वे संगठन में निम्न स्तर पर होते हैं ।

2. प्रतिष्ठा आधारित पद-सोपान- इस पद-सोपान प्रणाली में व्यक्तियों की स्थिति उनके कार्यों और उत्तरदायित्वों के अनुसार निर्धारित न होकर उसके पद के आधार पर होती है। सेना में यह पद्धति पायी जाती है।

3. कुशलताओं का पद सोपान- इसमें योग्यता एवं दक्षता पर बल दिया जाता है। औद्योगिक संगठन के शीर्ष पर उत्पादन अभियन्ता होता है तथा उसकी सहायता के लिए अनेक कार्यवाहक विशेषज्ञ होते हैं। कुशलता का पद-सोपान कार्य की सम्पन्नता के लिए अति आवश्यक है। किसी व्यक्ति को किसी पद पर इसलिए नियुक्त किया जाता है, क्योंकि उसमें एक समय में प्राप्त करने की अपूर्व क्षमता पायी जाती है।

5. वेतन आधारित पद- सोपान इसमें वेतन के आधार पर पद-सोपान का निर्माण किया जाता है। सर्वोच्च वेतन पाने वाला सर्वोच्च शिखर पर होता है, निम्नतम वेतन पाने वाले निम्न शिखर पर होते हैं। वेतन के अनुसार ही प्रशिक्षण का स्वरूप एवं अनुभव की मात्रा निश्चित की जाती है।

पद-सोपान सिद्धान्त के गुण

इस सिद्धान्त के गुण निम्नलिखित हैं

1. विभागीय संगठन– पद-सोपान का प्रमुख लाभ यह है कि संगठन में पद-सोपान के क्रम द्वारा केन्द्र तथा संगठन के दूरस्थ भागों में सम्बन्ध कायम रखा जा सकता है। इस प्रकार सम्पूर्ण विभाग प्रभावपूर्ण रीति से कार्य करने के लिए एक सूत्र से बँध जाता है।

2. पत्र व्यवहार की सुगमता- पद-सोपान का दूसरा लाभ है, उसमें पत्र व्यवहार की सुगमता। निर्देश तथा आदेश, जो ऊपर से चलते हैं, वह सुगमतापूर्वक नीचे के स्तर तक पहुँच जाते हैं। प्रत्येक विभाग के कर्मचारियों को उनका पूरा ज्ञान हो जाता है। यदि नीचे के स्तर का व्यक्ति भी कोई प्रार्थना या सुझाव उच्च अधिकारी को देना चाहता है, तो वह उचित मार्ग द्वारा उसे दे सकता है।

3. उचित मार्ग द्वारा प्रतिवेदन- पद-सोपान के सिद्धान्त में प्रत्येक पदाधिकारी के नीचे पदों की सीढ़ी होती है। प्रत्येक कर्मचारी अपने से निकट के उच्च अधिकारी से आदेश तथा निर्देश लेता है तथा अपनी सुविधाओं के निवारणार्थ निवेदन करता है।

4. सर्वोच्च अधिकारी की सुविधा- इस सिद्धान्त को लागू करने से सर्वोच्च पदाधिकारियों को कार्य संचालन में बड़ी सुविधा रहती है, क्योंकि इसके द्वारा आदेश देने के पश्चात् कार्य उसके अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा ही सम्पन्न होता है।

5. आदेश की एकता – आदेश की एकता संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। इस सिद्धान्त में संगठन की एकता के सिद्धान्त का पूर्ण रूप से पालन किया गया है। इसके अन्तर्गत पदाधिकारियों को केवल एक ही व्यक्ति के आदेशों का पालन करना पड़ता है।

6. उत्तरदायित्व की स्पष्टता—इस सिद्धान्त में प्रत्येक अधिकारी एवं कर्मचारी के कार्य निश्चित एवं स्पष्ट कर दिये जाते हैं, जिससे उत्तरदायित्व की स्पष्टता होती है।

पद-सोपान के दोष

इस सिद्धान्त के दोषों का वर्णन करते हुए विद्वानों ने निम्नलिखित तर्क दिये हैं-

1. पदाधिकारियों के बीच की दूरी- इस प्रक्रिया में सबसे बड़ा दोष यह है कि निम्न स्तर के कर्मचारियों, पदाधिकारियों तथा सर्वोच्च अधिकारी का सीधा सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता, जिससे शासन में ढिलाई की सम्भावना बनी रहती है।

2. अपव्ययिता- इस प्रक्रिया में विभाग को कई स्तरों में विभाजित कर दिया जाता है। अतः एक विभाग में इतने भाग होने पर धन का अधिक व्यय होता है।

3. कार्य सम्पन्नता में विलम्ब- इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें किसी आदेश या पत्र व्यवहार को करते समय विभिन्न स्तरों को पार करना होता है, जिससे कार्य सम्पन्न होने में अधिक समय लगता है।

दोषों को दूर करने का सुझाव

इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा दोष कार्य सम्पन्नता में विलम्ब का होना है। इसे दूर करने के लिए विद्वानों ने जो सुझाव रखे हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1. सत्ता के तटों के बीच पुल का निर्माण– विद्वानों का कहना है कि यदि कोई पदाधिकारी अपने तत्काल उच्च पदाधिकारी को लाँघकर ही सीधे ऊपर के अधिकारियों से सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है, तो वह अपने तत्काल उच्च पदाधिकारी से वह स्वीकृति लेकर अपना कार्य शीघ्र कर सकता है। ऐसा करने से काम बड़ी शीघ्रता के साथ पूरा हो सकता है।

2. पदाधिकारियों का पारस्परिक समझौता- विलम्ब के दोषों को दूर करने के लिए संगठन के विभिन्न अधिकारी एक-दूसरे से समझौता करके अपने कर्मचारियों को एक-दूसरे से मिलने की आज्ञा दे दें। ऐसा करने से भी कार्य की कुशलता एवं क्षमता बढ़ जायेगी।

निष्कर्ष – यद्यपि इसी प्रक्रिया में बहुत से दोष हैं, किन्तु संगठन की सफलता के लिए इस सिद्धान्त को लागू करना आवश्यक है। इसमें केवल इसी बात का प्रतिबन्ध है कि पदाधिकारियों में पारस्परिक समझौते के आधार पर विश्वास और निष्ठा बनी रहे, भले ही क्रमिक सिद्धान्त के नियमों का अक्षरशः पालन किया जा सके।

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