समाजशास्‍त्र / Sociology

जनजातीय समाजों में न्याय | Justice in tribal Societies in Hindi

कानून तथा प्रथाएँ

कानून तथा प्रथाएँ

जनजातीय समाजों में न्याय

जनजातीय समाजों में न्याय की व्याख्या कीजिए।

जनजातीय समाजों में न्याय- आदिम समाजों में आधुनिक समाजों की भाँति न्याय-व्यवस्था अदालत, न्यायाधीश, वकील आदि नहीं होते। इसका प्रमुख कारण यह है कि इन समाजों में राजनीतिक संगठन का स्वरुप बहुत अस्पष्ट है। इन समाजों में आधुनिक अर्थ म राज्य, सरकार, न्यायालय आदि ही कम देखने को मिलते हैं। फलतः सामाजिक नियमों को तोड़ने वालों को दण्ड और कानून का पालन करने वालों के हितों की रक्षा व उनके लिए न्याय की व्यवस्था करने के लिए अन्य संगठन अपनाया जाता है और वह है रक्त सम्बन्धी समूह (Kin groups)। अपराधी को दण्ड देने की न्याय की व्यवस्था करने का उत्तरदायित्व इसी रक्त-सम्बन्धी समूह पर होता है जिसके सदस्य अपने को इस विषय में सम्मिलित रुप से उत्तरदायी समझते हैं। अधिकतर जनजातियों का अपना एक वंशानुगत मुखिया होता है जो उस समूह की न्याय-व्यवस्था को परिचालित करता न्याय-व्यवस्था के अन्तर्गत बड़े-बूढ़ों की एक समिति (a council of elders) होती है जिसमें उस जनजाति के अन्तर्गत पाए जाने रक्त-सम्बन्धी समूहों के प्रतिनिधि होते हैं। इनका कार्य मुखिया को न्याय करने के काम में परामर्श देना तथा अपराधी को सजा देने के विषय में सहायता करना है। आदिम समाजों में न्याय-व्यवस्था का यह स्वरुप अनेक कारणों से है जैसे, समाज का सरल और छोटा रुप रक्त-सम्बन्धों की प्रधानता, आमने-सामने का सम्बन्ध, बाहरी जगत् से कम या न के समान सम्पर्क आदि। साथ ही यह बात भी है कि मौखिक परम्परा के रुप में लिखित कानूनों या नियमों का पालन आदिम समाजों के लोग जनमत के डर से ही करते हैं। उदाहरणार्थ को (crow) जनजाति के लोग सामाजिक नियमों को इस कारण नहीं तोड़ते कि वैसा करने पर उसके नाते-रिश्तेदार उसकी हँसी उड़ाएंगें और उसकी सामाजिक स्थिति गिर जाएगी। जहाँ कि प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को घनिष्ठ रुप से जानता-पहचानता और जहाँ रोज ही प्रत्येक व्यक्ति को दूसरे के सम्पर्क में आना होता है, वहाँ किसी सामाजिक नियम को तोड़कर सबके लिए हँसी-मजाक की एक वस्तु बन जाना सबसे बड़ी सजा है। आदिम समाजों की सम्पूर्ण न्याय-व्यवस्था इसी एक तत्व के कारण बहुत सरल हो जाती है। सामान्यतः इन समाजों की न्याय-व्यवस्था के प्रमुख आधार इस प्रकार हैं-

सम्मिलित उत्तरदायित्त्व (Collective Responsibility)- आदिम समाजों में समूह से पृथक् एक व्यक्ति का कोई अस्तित्व हो ही नहीं सकता, इस कारण उसके समूह के लोग ही सम्मिलित रुप से उसके अपराध के लिए भी उत्तरदायी होते हैं। यह भावना रक्त-सम्बन्धी समूहों में और भी दृढ़ हैं। उदाहरणार्थ, आदिम समाजों में पाए जाने वाले गोत्र-संगठन (clan organization) को ही लिए। एक गोत्र के सदस्य स्वयं को रक्त-सम्बन्धी मानते हैं, इस कारण आदि गोत्र के किसी सदस्य के प्रति कोई दुर्व्यवहार करता है, उसे मारता-पीटता या अन्य किसी भी प्रकार से उसके प्रति कोई अन्याय करता है, तो उस गोत्र के सभी सदस्य उसका विरोध करने के तैयार हो जाते हैं और वास्तव में अन्याय या अत्याचार करने वाले व्यक्ति से ही नहीं, अपितु उसके समूह से बदला लेते हैं क्योंकि गोत्र के सभी सदस्य समग्र या सम्मिलित रुप से अपने प्रत्येक सदस्य को सुरक्षा प्रदान करने के सम्बन्ध में उत्तरदायी मानते हैं। इस सम्मिलित उत्तरदायित्व का एक दूसरा पक्ष भी है और वह यह कि गोत्र के किसी सदस्य के हीन कार्यों का उत्तरदायित्व और बदनामी सारे गोत्र के सदस्यों पर आती है। यह बात केवल गोत्र-समूहों के सम्बन्ध में ही नहीं, बल्कि उन समूहों के सम्बन्ध में भी सच है जिनमें गोत्र-व्यवस्था नहीं पाई जाती।

अपराध का निर्धारण (Determination of Crime)- आदिम समाजों में अपराध का निर्धारण कई तरीकों से होता है। कोई व्यक्ति अपराधी है या नहीं, यह तय करने के लिए प्रत्यक्षदर्शियों की गवाहियों की आवश्यकता सदैव नहीं होती। कुछ इस प्रकार के अपराधी होते हैं जिनके अपराध का निर्धारण अदृश्य जगत् की दैवी शक्तियों पर इस विश्वास पर छोड़ दिया जाता है कि वे शक्तियाँ ही यह स्पष्ट करेंगी कि एक व्यक्ति वास्तव में अपराधी है या नहीं। कई स्थितियों में इस सम्बन्ध में व्यक्ति को कठिन परीक्षाएँ देनी पड़ती हैं। यदि वह उन परीक्षाओं में सन्तोषजनक रुप से निकल जाता है तो उसे निर्दोष मान लिया जाता है, वरना उसे दण्ड भुगतना पड़ता है। ये परीक्षाएँ कितनी कठोर होती हैं, इस बात का आभास -एक उदाहरणों के द्वारा हो सकता है। अफ्रीका की कुछ जनजातियों में अगर लोगों को यह सन्देह हो जाए कि किसी स्त्री ने यौन-सम्बन्धी कोई अपराध किया है, पर वह स्त्री अपने अपराध की स्वीकार नहीं कर रही है तो जह अपराधी हा महा, इस मिाारित करने के लिए उस स्त्री को किसी ऊँची जगह या पहाड़ी के ऊशलेजोकर लुढ़का दिया जाता है। वह स्वीसुढ़कती हुई नीचे आकर गिरती है। अगर इस बना रहता है तो उसे निर्दोष मान लिया जाता है, अन्यथा वह दण्डित की जाती है। इसी प्रकार पर भी उसे किसी प्रकार की चोट नहीं लगती है और उसका शरीर बिना किसी आधात के पूर्ववत् कुछ जनजातियों में एक व्यक्ति को अपनी निषिताको प्रमाणित करने के लिए जलती हुई आग या उबलते हुए पानी में अपना हाथ डाल देना पड़ता है। प्राचीन हिन्दू समाज में भी इसी प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। सीताजी को अपने सतीत्व को प्रमाणित करने के लिए अग्नि-परीक्षा देनी अपराधी को उसके बूरे काम के ले दण्ड अवश्य ही मिलेगा। केही थी। यह सब एक अर्थ में दण्ड का प्रतिकारात्मक सिद्धान्त है, जो वास्तव में नैतिक न्याय की पूर्ति (Fulfilment ofmoral justice) पर आधारित है, क्योंकि यह विश्वास किया जाता का बुरे काम का परिणाम सदैव बुरा ही होता है, चाहे उसके लिए उसे कानून के अनुसार दण्ड बिले या न मिले। आदिम समाजों में लोगों को इस प्रकार की परीक्षा इसीलिए देनी होती है कि नहा लोग यह विश्वास करते हैं कि दण्ड की देवी या प्रतिकार-देवी (Nemesis) के द्वारा प्रत्येक दूसरा कोई करता है तो उसे उसके लिए दण्ड भुगतना पड़ता है। इतना ही नहीं, जिस व्यक्ति के प्रति अपराध किया गया है उसकी सामाजिक स्थिति के अनुसार भी दण्ड की मात्रा कमया ज्यादा हो सकती है। उदाहरणार्थ, अफ्रीका की कुछ जनजातियों में एक-साधारण स्त्री के साथ व्यभिचार (adultery) करने पर उसे एक व्यक्तिगत तथा सामान्य गलती समझी जाती है, परन्तु काही कार्य राजा या मुखिया की स्त्री के साथ करने पर अपराधी को मृत्युदण्ड देने की व्यवस्था है। कुछ जनजातियों में अपराधी को व्यक्तिगत रुप से दण्ड दिया ही नहीं जाता। इन समाजों में तो अपराधी-व्यक्ति के परिवार, गोत्र या गाँव के लोगों को मार-पीटकर तथा उनके सामान को लूट- पाटकर उसके अपराधों का दण्ड दिया जाता है क्योंकि इन समाजों में दण्ड का यह सिद्धान्त है कि अपराधी के कार्य से किसी एक व्यक्ति का नुकसान नहीं होता, वरन् एक परिवार, गोत्र या गाँव का नुकसान होता है। इस कारण नुकसान-प्राप्त वह परिवार, गोत्र या गाँव अपराधी के भी परिवार, गोत्र या गाँव से बदला लेता है और उसके सभी सदस्यों को नुकसान पहुंचाता है।

क्षतिपूर्ति (Compensation or Wereglid)- आदिम समाजों में नुकसान-प्राप्त तथा नुकसान करने वाले के बीच के झगड़े को क्षतिपूर्ति कराकर शान्त करने की रीति भी पाई जाती है। कुछ समाजों में तो किस अपराध पर कितना हर्जाना लिया जा सकता है या अपराधी को देना पड़ता है, यह परम्परा द्वारा पहले से ही निश्चित रहता है। परन्तु इस सम्बन्ध में स्मरणीय है कि किन अपराधों में हर्जाना-दावा किया जा सकता है, इसकी सूची प्रत्येक आदिम समाज में अलग- अलग है। इफूगाओ (Ifugao) जनजाति में अधिकांश झगड़ों या अपराधों का निपटारा क्षतिपूर्ति कर देने से हो जाता है, पर जान-बूझकर हत्या करने पर उसकी क्षतिपूर्ति तो एकमात्र खून से ही हो सकती है; अर्थात् खून के बदले खून बहना आवश्यक है। इस जनजाति में सम्पत्ति के आधार पर तीन स्पष्ट वर्ग हैं। जुर्माने की मात्रा आर्थिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग निश्चित की जाती है। इसी प्रकार किरगीज जनजाति में वर्ग-स्थिति के अनुसार हर्जाना देने की रीति है। अमेरिका कुछ इण्डियन जनजातियों में हर्जाना पाने के लिए इन्तजार न करके नुकसान-प्राप्त व्यक्ति अपराधी के कुछ घोड़े को मारकर या उसकी अन्य कोई कीमती वस्तु नष्ट करके सन्तोष कर लेता है। व्यभिचार के रुप में होने वाले अपराधों में तो इस नीति का विशेषकर प्रयोग किया जाता है। समाओ जनजाति में अपराधी नुकसान-प्राप्त पक्ष को कीमती चटाई तथा ऐसी ही दूसरी चीजें भेंट करता है और साथ ही उनके लिए जलाने वाली लकड़ी, पत्थर तथा प्रत्ते लाता है। इस प्रकार वह परम्परा स्वीकृत शैली से यह जताना चाहता है कि वह अब उनकी ही शरण में है और अगर वे चाहें तो उसे मार-काट सकते और खा सकते हैं। इस प्रकार के उपहार तथा आत्मसमर्पण अधिकांशतः विकार नहीं जाते और वह अपराधी नुकसान प्राप्त पक्ष के गुस्से को शान्त करने में सफल हो जाता है। अन्य आदिम समाजों में क्षति-पूर्ति दूसरे तरीकों से भी की जाती है। उनमें है कि अपराधी-व्यक्ति को सम्पूर्ण गाँव को एक सामाजिक भोज देना पड़ता है, तब कहीं उसे अपराध से मुक्ति दी जाती है। किन्हीं जनजातियों में क्षतिपूर्ति पर इतना बल दिया जाता है अगर अपराधी हर्जाना देने में बिल्कुल ही असमर्थ है तो समूह का मुखिया अपने पास से प्राप्त व्यक्ति को हर्जाना दे देता है।

अदालती कार्यवाही (Trial) – न्याय की यह मांग है कि अपराधी को दण्डित करने । पहले उसे अपनी सफाई देने का अवसर दिया जाए। ऐसा इसलिए किया जाता है कि कहीं निर्दोष के तो दण्ड नहीं मिल रहा है। इस कार्यवाही में वादी तथा प्रतिवादी अर्थात् सम्भावित अपराधी तर नुकसान-प्राप्त व्यक्ति दोनों को ही उपस्थित होना पड़ता है और दोनों पक्षों की बातों को ध्यान से जाता है। प्रायः सभी जनजातियों में किसी-न-किसी रुप में यह व्यवस्था पाई जाती है। मैक्सिको के एजटक्स पीरु की इन्कास तथा गिनी की सूडान जनजातियों में भी ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं।

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