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शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता | Need of Educational Guidance in Hindi

शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता
शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता

शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता (Need of Educational Guidance)

आज बदलते सामाजिक परिदृश्य के परिणामस्वरूप शिक्षा प्रक्रिया में भी बहुत अधिक बदलाव हो चुका है जिसके कारण इस प्रक्रिया में अनेक जटिलताओं का भी उदय हुआ है। व्यक्तिगत विभिन्नता के प्रत्यय के कारण शिक्षा वर्तमान समय में छात्र केन्द्रित है। शैक्षिक निर्देशन छात्रों की व्यक्तिगत समस्याओं का निराकरण, शिक्षा प्रक्रिया को सुचारू ढंग से संचालित करने के लिए आवश्यक है। छात्रों की इन समस्याओं को दूर करने के लिए शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता है। शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

(1) विद्यालयी जीवन में समायोजन हेतु (For Adjustment in School Life) – शैक्षिक निर्देशन की पहली आवश्यकता नव प्रवेशित छात्र को विद्यालय में समायोजन स्थापित करने में सहायता देना है। छात्र जब विद्यालय में प्रवेश करता है। उस समय उसे विद्यालय के नीति-नियम, आचार-संहिता आदि के विषय में सूचना नहीं होती। इस कारण उनके समायोजन में समस्या होती है। इसी प्रकार ग्रामीण परिवेश वाले छात्र जब शहरी विद्यालयों में शिक्षा हेतु प्रवेश लेते हैं, तब उन्हें वहाँ के नवीन वातावरण से सामन्जस्य स्थापित करने में समस्या होती है। इस तरह की समस्याओं को दूर करने में शैक्षिक निर्देशन आवश्यक होता है।

(2) पाठ्य-विषयों के चयन में (In Selection of Course Subjects) – ज्ञान क्षेत्र की व्यापकता एवं विस्तृतता के परिणामस्वरूप अनेक नवीन विषय क्षेत्रों एवं उनके विशिष्टीकृत विषय शाखाओं का जन्म हुआ। विषयों में यह विभिन्नता एवं विस्तृतता छात्रों को विषय चयन करने में समस्या उत्पन्न करती है। व्यक्तिगत विभिन्नता के प्रत्यय से अब यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रत्येक छात्र की रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता आदि सभी अलग-अलग होते हैं। यदि छात्र को उसकी रुचि योग्यता एवं क्षमता के अनुसार पाठ्य विषय नहीं मिलता तो उसकी उपलब्धि प्रभावित होती है एवं उसका समायोजन उपयुक्त नहीं रहता। इस समस्या को दूर करने में शैक्षिक निर्देशन अति आवश्यक है।

(3) भावी शैक्षिक कार्यक्रम के चयन में (In Selecting Future Educational Programme) – एक स्तर की शिक्षा प्राप्त कर लेने के पश्चात् छात्र के समक्ष यह समस्या उत्पन्न होती है कि उसे आगे क्या करना है? किस प्रकार के पाठ्यक्रम में, किस संस्था में कहाँ वह प्रवेश ले? जो उसके लिए उपयुक्त हो एवं भविष्य में वह उन्नति कर सके। इस समय यदि छात्र का चयन गलत होता है तो उसका पूरा भावी जीवन प्रभावित हो सकता है। छात्रों को भावी शैक्षिक कार्यक्रम हेतु निर्णय लेने में शैक्षिक निर्देशन द्वारा पथ-प्रदर्शन अति आवश्यक है।

(4) छात्रों की योग्यता एवं महत्त्वाकांक्षा के मध्य समायोजन स्थापित करने में (In Establishing Adjustment between Ability and Aspiration of Students) – छात्रों की बहुतायत संख्या में ऐसा होता है कि कुछ छात्र उपयुक्त योग्यता नहीं रखते किन्तु उनकी अकांक्षा का स्तर अति उच्च होता है। इसी प्रकार कुछ छात्र अधिक योग्य एवं सक्षम होते हुए भी अपनी आकांक्षा के स्तर का उपयुक्त निर्धारण नहीं कर पाते। पहली स्थिति में यदि छात्र अति उच्च आकांक्षा स्तर के अनुरूप अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित करता है तो उसको सफलता नहीं मिलती और संसाधनों की बर्बादी होती है। दूसरी स्थिति में छात्र की प्रतिभा का समुचित उपयोग नहीं हो पाता। राष्ट्र एवं समाज सेवा में जो उसका योगदान होना चाहिए वह नहीं हो पाता। ये दोनों ही स्थितियाँ कष्टप्रद हैं। छात्रों को उनकी योग्यता एवं क्षमता के अनुरूप अपनी आकांक्षा का स्तर निर्धारित करने में उपयुक्त सहायता प्रदान करने के लिए शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।

(5) अपव्यय एवं अवरोधन रोकने में (In Stopping Wastage and Stagnation)- छात्रों द्वारा अपनी शिक्षा को बीच में छोड़ देना अपव्यय है एवं एक ही कक्षा में कई बार पढ़ना अवरोधन है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में स्वतन्त्रता के बाद से आज तक ये दो बड़ी बाधाएँ हैं जिन पर लगभग सभी आयोगों ने अपनी राय दी। अपव्यय एवं अवरोधन की यह समस्या शिक्षा के प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक विद्यमान है। इस समस्या के कारण राष्ट्रीय संसाधन, धन, समय एवं मानवशक्ति की क्षति होती है। इस समस्या के निवारण हेतु भी शैक्षिक निर्देशन की आवश्यकता होती है।

(6) अवसरों / रोजगार के साधनों के विषय में जानकारी देने में (In Providing Information about Opportunities / Sources of Employment)- शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य होता है रोजगार अर्जित कर अपनी जीविका का साधन निर्धारित करते हुए आत्मनिर्भर बनना । विद्यालय एवं महाविद्यालय स्तर पर युवा पीढ़ी को अवसरों एवं रोजगार के साधनों से अवगत कराना शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है। आज भारत के युवा शिक्षा पूरी करने के बाद भी इसी उधेडबुन में रहते हैं कि उसे जीविकोपार्जन हेतु क्या करना चाहिए? आज भारत में शिक्षित बेकारों / बेरोजगारों की अपार संख्या है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। शैक्षिक निर्देशन द्वारा समय रहते छात्रों को रोजगार के अवसरों एवं जीविकोपार्जन के साधनों के विषय में जानकारी प्रदान करने से इस समस्या को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। इस दृष्टिकोण से शैक्षिक निर्देशन अति आवश्यक है।

(7) विद्यार्थियों को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में व्यस्त रखने के लिए (For Keeping the Students Busy in Teaching Learning Process)- शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में विद्यार्थियों को व्यस्त रखना आवश्यक होता है। सदैव यह प्रयास किया जाना चाहिए कि विद्यार्थियों का ध्यान शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया से न भटके। ऐसा विद्यार्थियों का उपलब्धि स्तर (Achievement Level) बनाए रखने के लिए करना आवश्यक होता है। यदि विद्यार्थियों को अधिगम प्रक्रिया में व्यस्त नहीं किया जाएगा तो उनका ध्यान इधर-उधर भटकेगा और उनकी सीखने की प्रक्रिया का क्रम टूट जाएगा। उनका उपलब्धि स्तर बनाए रखने के लिए तथा उनका अधिगम के प्रति ध्यान बनाए रखने के लिए उन्हें अभिप्रेरित ( Motivated) किया जाना आवश्यक होता है। अवकाश के समय में भी उनका ध्यान अधिगम प्रक्रिया से न हटे, इसके लिए उन्हें प्रेरित एवं प्रोत्साहित करना आवश्यक होता है। इसके लिए हमें अनेक विधियों का चयन करना पड़ता है जिसके लिए शैक्षिक निर्देशन का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।

(8) अनुशासनहीनता एवं बाल अपराध की समस्या को दूर करने में (In Solving the Problem of Indiscipline and Juvenile Crimes)- वर्तमान में विद्यालयों में छात्रों में बढ़ती अनुशासनहीनता एक बड़ी समस्या है। आज बाल अपराध में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी हुई है। स्कूल और कॉलेज में पढ़ने वाले बहुत से विद्यार्थी आज बहुत सी आपराधिक गतिविधियों में लिप्त पाए जाते हैं। यही विद्यार्थी स्तर के बाल अपराधी आगे चलकर समाज एवं राष्ट्र के लिए एक समस्या के रूप में खड़े नजर आते हैं। इनका यही समाज विरोधी व्यवहार उनके विकास के साथ-साथ समाज एवं राष्ट्र के विकास में बाधा बनता है। इसलिए बाल अपराध की समस्या पर अंकुश लगना अति आवश्यक है। ऐसे विद्यार्थियों को विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है। शैक्षिक निर्देशन के दृष्टिकोण से बहुत ही आवश्यक है। ऐसे बालकों के लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर भी निर्देशन के रूप में सहायता आवश्यक है।

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