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Characteristics of Adolescence in Hindi | किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ | किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

Characteristics of Adolescence in Hindi
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Characteristics of Adolescence in Hindi-किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ तथा  किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताओं के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिक “विग और हंट ने लिखा है”

“किशोरावस्था की विशेषताओं का सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है “परिवर्तन” । परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है।”

इस आधार पर किशोरावस्था की निम्न विशेषताएं है-

1. शारीरिक विकास- इस काल में होने वाले शारीरिक परिवर्तन के परिणामस्वरूप लड़के एवं लड़कियों का क्रमशः पुरूष एवं स्त्री बन जाते है। लड़कों की आवाज भारी हो जाती है, दाढ़ी और मुछें निकल आती हैं तथा सन्तानोत्पत्ति के लिए शुक्राणु बनने लगते हैं। लड़कियों में मासिक स्त्रव प्रारम्भ हो जाता है, उनके कूल्हे की हड्डियां चौड़ी हो जाती है तथा वे गर्भधारण करने योग्य हो जाती है। ये परिवर्तन लड़कों में 12 से 17 वर्ष की आयु में प्रारम्भ हो जाते हैं और लड़कियों में 11 से 16 वर्ष की आयु में इन परिवर्तनों का किशोर एवं किशोरियों के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

2. मानसिक विकास- शरीरिक विकास की अपेक्षा मानसिक विकास कुछ विलम्ब से – होता है। आधुनिक बुद्धि और परिक्षाओं के आधार पर किये गये बुद्धि के मूल्याकनों से ज्ञात होता है कि पूर्व किशोरावस्था में वृद्धि का विकास कुछ मन्द रहता है किन्तु किशोरावस्था के अन्तिम चरण (15 से 18 वर्ष) में बुद्धिमत्ता में तीब्र गति से वृद्धि होती है। कम बुद्धि लब्धि – वाले बालक मानसिक विकास में चरम परिपक्वता कुशाग्र बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा जल्दी प्राप्त कर लेते हैं। बालकों के मानसिक विकास क्रम में विस्तृत व्यक्तिगत भिन्नताएं देखी गयी है। किशोरावस्था में मानसिक क्रियाओं के प्रकारों में भी वृद्धि हो जाती है।

3. सामाजिक विकास- इस आयु में किशोर-किशोरियों में अपने वय समूह के – समान बनने और उनके द्वारा पसंद किये जाने की प्रबल इच्छा रहती है जोकि प्रायः माता पिता के साथ क्लेश का कारण बनती है। बालक की अपेक्षा किशोर अधिक स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होता है और यदि माता पिता उसकी बढ़ती हुई आवश्यकताओं एवं रूचियों को नहीं समझ पाते हैं तो परिवार में किशोरों के झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं।

किशोर अपने वह समूह में मान्यता एवं प्रशंसा प्राप्त करने के लिए लालायित रहता है इसलिए उसे इस बात की बहुत चिन्ता रहती है कि वह देखने में कैसा लगता है। वह अपनी बातचीत की शैली और वेशभूषा को सम्भालने तथा सुधारने में प्रयत्नशील किन्तु शीघ्र निर्णय लेने में असमर्थ रहता है। उसे मार्ग दर्शन अथवा निर्देशन की आवश्यकता रहती है।

बिग तथा हंट के अनुसार “समूह उसकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन करने की विधियों को प्रभावित करते हैं।”

4. संवेगात्मक विकास – किशोरावस्था में तीब्र किन्तु अनियमित शारीरिक अभिवृद्धि और लैंगिक परिपक्वता के कारण शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की समस्यायें उभर आती है। वह अपने को असुरक्षित अनुभव करता है। भारतीय समाज में प्रचलित रूढ़ियों एवं अन्धविश्वासों के कारण भी किशोर के मन की संवेगात्मक उलझनों में वृद्धि हो जाती है।

पर्याप्त स्वतन्त्रता के अभाव में किशोर एवं किशोरियों में आत्मनिर्णय तथा आत्मप्रकाशन की क्षमता विकसित नहीं हो पाती है। इसके विपरीत वे अपने मन के तनावों, दुश्चिन्ताओं और अनेक प्रकार के भय को व्यक्त नहीं कर पाते हैं और मन ही मन वे घुटते रहते हैं।

‘भारतीय समाज में किशोरियों के साथ यह समस्या और भी अधिक गम्भीर है। लड़कियों को किशोरावस्था में अनेक मनोरोग घेर लेते हैं। दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली के कारण किशोर मन में भविष्य की चिन्ता, विशेषकर, व्यावसायिक सफलता के बारे में चिन्ता बनी रहती है।

5. घनिष्ठ मित्रता- किशोर किशोरियों अपने वय समूह के कुछ सदस्यों की अपने परम मित्र बना लेते हैं। इस मित्र मंडली में वे अपनी समस्याओं और गुप्त बातों का स्पष्ट रूप से रखते हैं।

6. व्यवहार में अनियमितता- किशोर किस परिस्थिति में क्या व्यवहार प्रस्तुत करेगा तथा किसी घटना के प्रति उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। कभी वह अधिक उत्साही तो कभी अकारण निराश और सुस्त दिखलाई पड़ता है।

7. विषमलिंगियों के प्रति चेतना- इस अवस्था की महत्वपूर्ण बात कामशक्ति का विकास है। कामेन्द्रियों की परिपक्वता के कारण विषमलिंगियों के प्रति उसकी रूचि बढ़ना स्वाभाविक है। कुछ किशोर किशोरियां विषमलिंगी सम्पर्क प्राप्त करके अथवा अन्य किसी प्रकार से लिंगीय सम्भोग का आनन्द लेने लगते हैं। यदि उन्हें विषमलिंगी सम्पर्क से बिल्कुल ही वंचित कर दिया जाता है तो उनमें समलिंगीय व्यवहार के लक्षण दिखलाई देने लगते हैं।

8. समायोजन में कठिनाइयाँ- किशोर का व्यवहार शिशु के समान अस्थिर होता है। उसकी बाल्यकालीन स्थिरता समाप्त हो जाती है और व्यवहार में उद्विग्नता के कारण वह समाज एवं परिवार से समायोजन करने में असमर्थ रहता है।

रॉस के अनुसार- किशोरावस्था में समायोजन का कार्य फिर नये सिरे से आरम्भ होता है।

9. स्वच्छता की भावना- शारीरिक और मानसिक दृष्टि से प्रबल एवं परिपक्व होने के कारण ही किशोर बहुत सी बातों में मनमानी करना चाहता है। यहां तक कि वह आदर्शों, नियमों और मर्यादाओं का भी लापरवाही से उल्लघंन करता है और प्रौढ़ अनुशासन के प्रति विद्रोह करना चाहता है।

10. समाज सेवा का आदर्श- किशोरावास्था में जीवन में अनेक आदर्श ग्रहण किये जाते हैं और उनमें समाज सेवा या परोपकार की भावना प्रबल हो जाती है। रॉस के शब्दों में “उसका उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है और वह आदर्श समाज का निर्माण करने में सहायता देने के लिए उद्विग्न रहता है।”

11. जीवन दर्शन का निर्माण- इस काल में बालक सत्य और असत्य, अच्छा और नैतिक और अनैतिक आदि के बारे में स्वयं सोच सकता है और इन विषयों पर की गयी बुरा, चर्चाओं को समझ सकता है।

12. नवीन रूचियों का विकास- स्ट्रांग के अनुसार 15 वर्ष की आयु तक किशोरों – की रूचि में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं और इसके बाद उनमें स्थिरता आ जाती है। उनकी रूचि प्रमुखतः रेडियो सुनना, खेलकूद तथा व्यायाम, विषमलिंगियों में दिलचस्पी, पत्र पत्रिकायें पढ़ना, प्रेम और जासूसी कथानकों के उपन्याय पढ़ना, कविता करना, नृत्य और संगीत आदि में होती है।

13. अपराध प्रवृत्ति की प्रबलता – जीवन की परिस्थितियां विषम होने के कारण किशोर शीघ्र ही कुसमायोजित हो जाता है। यदि इस समय उसके साथ कठोरता बरती जाती है तो वह कई बार अपराध का मार्ग ग्रहण कर लेता है।

14. प्रभुता एवं श्रेष्ठता की अभिलाषा – किशोर अपने समूह में कक्षा में और खेल के मैदान में अपनी श्रेष्ठता स्थापित करना चाहता है। इसके लिए वह अपने प्रत्येक कार्य को विशिष्टता पूर्वक करने की कोशिश करता है।

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