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अधिगम (सीखने) के सिद्धांत | Theory Of Learning in hindi

अधिगम (सीखने) के सिद्धांत
अधिगम (सीखने) के सिद्धांत

अधिगम (सीखने) के सिद्धांत (Theory Of Learning in hindi)

अधिगम प्रगति की प्रक्रिया है। अधिगम की यह प्रक्रिया जटिल होती है और विभिन्न अवस्थाओं में उसमें भिन्नता दिखलायी पड़ती है। एक शिक्षा मनोवैज्ञानिक अधिगम की परिस्थितियों के सत्यापन योग्य स्पष्ट और विस्तृत तथ्य चाहता है और उन्हें पाने के लिए प्रयत्न करता है। अधिगम का सिद्धान्त कुछ विशिष्ट अधिगम की स्थितियों को व्यक्त करते हैं। इसलिए अधिगम के नियम तथा विधियाँ भी भिन्न भिन्न होती है। शिक्षकों को अधिगम परिस्थितियों के सिद्धान्त तथा विशिष्ट दशाओं को ध्यान में रखना आवश्यक है। अधिगम कैसे होता है अर्थात बालक किस प्रकार सीखते है। इस सम्बन्ध में अब तक विकसित मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

1. थार्नडाइक का उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त

2. प्राचीन अनुबंधन अथवा पावलव का सिद्धान्त

3. हल का पुनर्वलन अधिगम सिद्धान्त

4. स्कीनर का क्रिया प्रसूत सिद्धान्त

5. गेस्टाल्टवादी अर्न्तदृष्टि सिद्धान्त

6. टालमेन का संकेतक सिद्धान्त

थार्नडाइक का उद्दीपन अनुक्रिया सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रवर्तक “ई० एल० थार्नडाइक” को – माना जाता है जिसने साहचार्य सम्प्रदाय की मान्यताओं के अर्न्तगत सीखने के सन्दर्भ में उद्दीपन और अनुक्रिया के सम्बन्ध में व्याख्या प्रयोगों के आधार पर प्रस्तुत की। इसलिए इस सिद्धान्त को “थार्नडाइक का सम्बन्धवाद” या “र्थानडाइक का सीखने का सिद्धान्त “ भी कहते हैं।

थार्नडाइक” के अनुसार अधिगम बंध सम्बन्धों का परिणाम है। इस सम्बन्ध का निर्माण – उद्दीपनों और अनुक्रियाओं के कारण तन्त्रिकाओं में होता है। थार्नडाइक के साथ ही वुडवर्थ ने भी इस विचार को रखा कि मानसिक जगत उद्दीपनों और अनुक्रियाओं का ही परिणाम है। किसी भी क्रिया में परिस्थिति या उद्दीपन व्यक्ति को प्रेरित करता है। इस प्रकार एक विशिष्ट उद्यीपन एक विशिष्ट अनुक्रिया से सम्बन्धित हो जाता है। इस सम्बन्ध को बन्ध कहते हैं और इसे ‘उ – अ’ द्वारा संक्षेप में व्यक्त करते हैं। उद्दीपन और अनुक्रिया के इसी बन्ध के कारण इसे ‘सीखने का सम्बन्ध’ भी कहा जाता है। भविष्य में एक ही प्रकार का उद्दीपन यदि बार बार उपस्थित हो तो एक निश्चित अनुक्रिया की ही सम्भावना होगी। विशिष्ट उद्दीपन के साथ विशिष्ट अनुक्रिया का घटित होना दोनों के स्थायी सम्बन्ध का परिचायक है। उद्दीपन अधिक तीव्र होने पर अनुक्रिया भी उसी प्रकार की होगी और इस स्थिति में उअ सम्बन्ध काफी दृढ़ होगा।

इसके विपरीत यदि उद्दीपन तीव्र नहीं है। तो अनुक्रिया भी उसी अनुपात में हल्की होगी और उ अ का यह सम्बन्ध कमजोर होगा। उद्दीपन और अनुक्रिया का यह सम्बन्ध गति परक, प्रत्ययमूलक, प्रत्यक्षपरक या संवेगात्मक हो सकता है। उन्हें बन्धनों के समूह में संगठित किया जा सकता है।

हमारा ज्ञान भी इन्हीं बन्धनों का समूह है और अधिगम एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा बन्ध बनते हैं, मजबूत होते हैं और पद्धतियों में संगठित होते हैं। इस सिद्धान्त के उद्दीपन और अनुक्रिया के सम्बन्ध पर ही बल दिया जाता है, इसलिए इसे ‘सम्बन्धवाद का सिद्धान्त’ भी कहते हैं। थार्नडाइक ने अपने इस सिद्धान्त के विषय में लिखा है कि “सीखना, सम्बन्ध स्थापित करना है। मनुष्य का मस्तिष्क सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य करता है।”

Learning is connecting. The mind is man’s connection system – E.L. Thorndike.

प्रयोग- उपयुक्त सिद्धान्त थार्नडाइक द्वारा पशुओं पर किये गये प्रयोगों पर आधारित हैं यहाँ उदाहरणस्वरूप एक प्रयोग दिया जा रहा है।

थार्नडाइक ने एक पहेली पेटी में भूखी बिल्ली को बन्द कर दिया। पेटी के बाहर खाना रखा हुआ था। पेटी का दरवाजा एक खटके के दबने पर खुलता था। भोजन था। भूखी बिल्ली के लिये उद्दीपन बिल्ली भोजन के लिये बार बार अपने पंजों को सीखचों पर मारती या उन्हें सीखचों से बाहर निकालती या बाहर निकलने का प्रयास करती रही। भोजन प्राप्ति के लिए बिल्ली की यही सब अनुक्रियायें है। एक बाद अचानक ही उसकी एक अनुक्रिया से खटका दब गया और दरवाजा खुल गया। उसे भोजन प्राप्त हो गया। इसके बाद भूखी बिल्ली को कई बार पेटी में बन्द किया गया और देखा गया कि बिल्ली द्वारा खटका खोलने के प्रयत्नों की संख्या में बराबर कमी आती गई और एक बार ऐसा भी समय आया जब बिल्ली ने बिना भूल किये एक ही बार के प्रयत्न में खटका दबाकर दरवाजा खोल दिया। इस प्रकार बिल्ली ने कई प्रयासों में उद्दीपन (भोजन) और (अनुक्रिया) खटका खोलने का सम्बन्ध दृढ़ कर लिया। अपने प्रयोगों के आधार पर थार्नडाइक ने अधिगम सम्बन्धी नियमों का निरूपण किया, जिनके आधार पर सीखने की प्रक्रिया चलती है।

थार्नडाइक के नियम दो प्रकार के हैं

1. मुख्य नियम, 2. गौण नियम।

मुख्य नियम के अर्न्तगत चार नियम हैं। 1. अभ्यास का नियम, 2. प्रभाव का नियम, 3. तत्परता का नियम, 4. प्रसंगाधीनता का नियम आता है। गौण नियम के अन्तर्गत पाँच नियम है- 1. बहुअनुक्रिया का नियम, 2. मनोवृत्ति का नियम, 3. आंशिक क्रिया का नियम, 4. आत्मसात का नियम, 5. साहचर्य का नियम ।

स्कीनर का क्रिया प्रसूत अनुबन्ध सिद्धान्त

‘क्रिया प्रसूत’ अनुबंध जिसे अंग्रेजी में ‘आपरेंट कण्डीशनिंग’ के नाम से पुकारा जाता है, प्रसिद्ध अमेरिकन मनोवैज्ञानिक प्रोफेसर बी0 एफ0 स्कीनर की देन है।

इस प्रकार के अनुबन्ध के अन्तर्गत एक अपेक्षाकृत स्वतन्त्र पर्यावरण के सन्दर्भ में पुनर्वलन के समुचित अनुप्रयोग द्वारा प्राणी के व्यवहार का नियन्त्रण किया जाता है। इसमें उन अनुक्रियाओं का समूह या कार्यों का सेट निहित होता है, जिन्हें लगभग एक ही जैसे परिणामों के माध्यम से नियन्त्रित किया जाता है।

इसके उदाहरण हैं- खाना, लिखना, टहलना, साइकिल चलाना, किसी विषय पर सोचना आदि।

दूसरे शब्दों में ‘आपरेण्ट’ को व्यवहार का समानार्थक माना जा सकता है, किन्तु यह ऐसे व्यवहार का परिसूचक नहीं है जिससे ज्ञात उद्यीपक के जरिए अनुक्रिया उद्दीप्त होती है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि यह किसी पर्यावरण के सन्दर्भ में प्राणी की संक्रिया द्वारा व्यक्त होकर कुछ निश्चित परिणामों को उत्पन्न करता है। दूसरे शब्दों में यह उदीप्त न होकर उत्सर्जित होता है जिसमें किसी विशिष्ट उद्यीपक के जरिए विशिष्ट अनुक्रिया उत्पन्न होने की प्रक्रिया पर बल दिया जाता है।

क्रिया प्रसूत अनुबंधन में प्राणी की क्रिया एवं उससे उत्पन्न परिणाम अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जाते हैं। इसके अन्तर्गत प्राणी को सक्रिय होकर अनुक्रिया करने के प्रति बध्य किया जाता है और उस अनुक्रिया द्वारा प्रस्तुत परिणामों के अनुसार उसे दृढ़ बनाया जाता है जैसे घर में यदि छोटा के बालक नमस्ते करता है और उसके इस व्यवहार पर यदि उसके माता पिता उसकी प्रशंसा करते हैं, तो वह भविष्य में भी ‘नमस्ते’ करने की अनुक्रिया सीख लेता है।

वास्तव में क्रिया प्रसूत अनुबंधन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अधिगमकर्ता को विभेदक उद्यीपन की उपस्थिति या अनुपस्थिति में धनात्मक या नकारात्मक पुनर्बलन का अनुप्रयोग करते हुए किसी अनुक्रिया को उत्पन्न करना या अवरूद्ध करना सिखलाया जाता है। इस प्रकर यह कहा जा सकता है कि इसके अर्न्तगत धनात्मक पुनर्वलन जैसे पुरस्कार, प्रशंसा, प्रोत्साहन, फल आदि को व्यवहार संशोधन या अनुक्रिया नियंत्रण हेतु महत्वपूर्ण विधि के रूप में अपनाया जाता है।

प्रयोग अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने के लिए स्कीनर ने अनेक प्रयोग कबूतर, चूहों आदि पर किये। चूहे पर किया गया उनका एक प्रयोग इस प्रकार है। स्कीनर ने एक अनोखा अधिगम वक्स बनाया जो कि ‘स्कीनर बक्स’ के नाम से जाना जाता है। एक चूहे को उसमें रखा गया। एक छड़ को दबाने की अनुक्रिया चूहे को सिखलानी थी। जैसे की छड़ को दबाया जाता, पास की ट्रे में खाना आ जाता था।

क्रिया प्रसूत अनुबन्धन में अधिगम अनुक्रिया शक्ति को बढ़ाना है। अनुक्रिया शक्ति पुनर्वलन द्वारा बढ़ायी जा सकती है। इस सिद्धान्त के अनुसार यदि किसी पुनर्वलन करने वाले उद्यीपक को जिसे पुनर्बलक कहते है, किसी अनुक्रिया के तुरन्त बाद काल सामीप्य में उपस्थिति किया जाए तो अनुक्रिया की सम्भावना अथवा बारम्बारता बढ़ेगी। अतः पुनर्बलन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अनुक्रिया के तुरन्त बाद किसी उद्यीपक को कालसामीप्य में उपस्थित किया जाता है। जिससे अनुक्रिया शक्ति बढ़ती है।

स्कीनर के अनुसार- “यदि एक क्रिया प्रसूत के घटित होने का अनुसरण एक पुनर्बलन उत्तेजक के प्रस्तुतीकरण के साथ होता है, तो शक्ति में वृद्धि हो जाती है।” पुनर्बलन के कारण अनुक्रिया और उसके तुरन्त वाद उपस्थित होने वाले उद्यीपक जो कि पुनर्बलक हैं, में अनुबन्ध हो जाता है। इस प्रकार का अनुबन्धन नैमित्तिक अनुबन्धन कहलाता है। अभी तक उद्यीपक अनुक्रिया के समर्थक मनोवैज्ञानिक यह मानते आये थे कि अनुबन्धन उद्यीपन और उसके बाद उपस्थित होने वाली अनुक्रिया में होता है। अतः उसका सूत्र था (उ-अ) जबकि स्कीनर का सूत्र है (अ-उ)।

उदाहरण- एक बालक को प्रशंसा, लिखना सिखाना है जैसे ही बालक प्रशंसा शब्द सही लिखता है, उसकी पीठ तुरन्त थपथपायी जाती है। यहा प्रशंसा शब्द लिखना अनुक्रिया है तथा पीठ थपथपाना एक उद्यीपक है जिसे अनुक्रिया के तुरन्त बाद उपस्थित किया जाता है। अतः परिस्थिति इस प्रकार हुयी।

उद्यीपन- (पीठ थपथपाना)

अनुक्रिया- (प्रशंसा)

यह परिस्थिति बार-बार उपस्थित करने पर बालक की प्रशंसा लिखने की अनुक्रिया बलवती या दृढ़ हो जायेगी।

क्रियाप्रसूत अनुबंधन में पुनर्बलक प्रकार के होते हैं – प्राथमिक एवं द्वितीयक परन्तु इनका अर्थ हल के पुनर्बलकों से भिन्न है। प्राथमिक पुनर्बलक वह उद्यीपक है जिसकों उपस्थित करने के कारण कोई अनुक्रिया दृढ़ होती है।

द्वितीयक पुनर्बलक वे उद्यीपक हैं जो प्राथमिक पुनर्बलक के साथ – साथ उपस्थित होने के कारण पुनर्बलक की विशेषताएं अपना लेते हैं। द्वितीयक पुनर्बलक को अधिगामि या सीखे हुए पुनर्बलक भी कहते हैं। ये पुनर्बलक प्राकृतिक ढंग से कार्य नहीं करते बल्कि इनके लिए प्रशिक्षण अनिवार्य है।

If the occurrence of an operant is followed by presentation of a reinforucing stimules the strngth is inereased. – Skinner.

क्रिया प्रसूत अनुबंधन या शैक्षिक महत्व

अधिगम के क्रिया प्रसूत अनुबन्धन में शिक्षक अधिगम परिस्थितियों का निर्माता माना जाता है। उसे शिक्षण की परिस्थितियों को गठित करने की पूरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। इस सम्बन्ध में कुछ मुख्य बातें इस प्रकार हैं।

1. व्यवहार व्यवस्थापन (Shaping of behaviour) – विद्यार्थीयों में वांच्छित व्यवहार को पुनर्बलन द्वारा स्थापित किया जा सकता है। स्कीनर का दृढ़ मत है कि जिस तरह कुम्हार कच्ची मिट्टी के लोदे से विशेष आकृति वाले बर्तनों का निर्माण करता है, उसी तरह क्रिया प्रसूत अनुबन्धन के जरिए व्यवहार रचना संम्भव है।

2. विद्यालय अधिगम- ग्रे ग्रोबार्ड और रोजनबर्ग, मउसन तथा स्कीनर ने इस बात पर जोर दिया है कि शैक्षिक प्रक्रिया व्यवहार सुधार सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। ये सिद्धान्त स्कीनर के अधिगम सिद्धान्त पर आधारित हैं।

3. सामाजिक अधिगम – विद्यार्थी के अधिगम सामंजस्य व विकास में पुनर्बलन का प्रत्यय सहायक हो सकता है। इसके लिए उत्तेजना, विभेदीकरण और अनुक्रिया, भिन्नीकरण की प्रक्रियाएं अपनायी जा सकती है।

4. व्यवहार चिकित्सा- असामान्य व्यवहार के सुधार के लिए स्कीनर का सिद्धान्त लाभदायक सिद्ध हो रहा है। विद्यार्थियों में भी असामान्य व्यवहार पाया जाता है। उनके व्यवहार सुधार में पुनर्बलन सहायक हो सकता है।

5. अभिक्रमित अधिगम एवं शिक्षण – अभिक्रमित अधिगम एवं शिक्षण पूर्णतः स्कीनर ने क्रिया प्रसूत, अनुबन्धन के सिद्धान्त पर आधारित है।

6. शैक्षिक तकनीकी – स्कीनर अधिगम के प्रभावी नियन्त्रण हेतु कठोर उपागम (हार्डवेयर) तथा अभियांत्रिकी के महत्व को स्वीकार करते थे। विगत तीन दशकों में शैक्षिक तकनीकी के आन्दोलन को विशेष गति एवं दिशा प्रदान करने में क्रिया प्रसूत अनुबन्धन की विधि ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यही कारण है कि शिक्षण यंत्रों अभिक्रमित पाठ्यपुस्तकों तथा व्याख्यानों के प्रति विशेष रूचि ली जा रही है।

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