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पारिस्थितिकी अनुक्रमण का अर्थ एंव प्रकार | Meaning and types of ecological sequencing

पारिस्थितिकी अनुक्रमण का अर्थ एंव प्रकार | Meaning and types of ecological sequencing
पारिस्थितिकी अनुक्रमण का अर्थ एंव प्रकार | Meaning and types of ecological sequencing

पारिस्थितिकी अनुक्रमण का अर्थ एंव प्रकार | Meaning and types of ecological sequencing

पारिस्थितिकी अनुक्रमण का अर्थ

किसी भी पारिस्थितिकी तन्त्र में वनस्पति के एक समुदाय द्वारा प्रतिस्थापन को अनुक्रमण कहते हैं। जैव समुदाय में जीवों की आपसी प्रतिद्वन्द्विता प्रकृति की एक विलक्षण व्यवस्था है जिसके तहत जीव अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए सतत् संघर्ष करता है यह संघर्ष ही उसके विकास का आधार है। संघर्ष करके एक जाति का जीव अपनी वंश वृद्धि करता है। जो एक स्तर पर पहुँचकर स्थिर हो जाती है। इसे चरम अवस्था कहते हैं। अनुक्रमण द्वारा ही चरम अवस्था की प्राप्ति होती है। इस अवस्था तक पहुँचने में शक्तिशाली जीवों को अनेक क्रियात्मक परिवर्तन करने पड़ते हैं। क्योंकि प्रकृति तथा अन्य जातियों द्वारा अवरोध भी खड़ा किया जाता है इस संघर्ष में निर्बल जातियों को प्रभुत्वशाली जाति की आधीनता भी स्वीकार करनी पड़ती है और कभी-कभी स्थान त्याग के लिये भी बाध्य होना पड़ता है। अनुक्रमण में एक जाति का जीव दूसरी जाति का स्थान ग्रहण करता है स्पष्टतः किसी एक वनस्पति समुदाय या पारिस्थितिकी तन्त्र का दूसरे समुदाय या पारिस्थितिकी से प्रतिस्थापन अनुक्रमण कहलाता है। यह अनुक्रमण तब तक चलता रहता है जब तक चरमावस्था न प्राप्त हो जाये। अनुक्रमण श्रृंखला के विधि चरणों को सेरे कहते हैं। अनुक्रमण के निम्न तीन महत्त्वपूर्ण पक्ष होते हैं-

  1. अनुक्रमण द्वारा किसी क्षेत्र में जैव समुदाय की जातियों का स्थायित्व
  2. भौतिक वातावरण पर जैव प्रभाव जनित अनुक्रमणीय परिवर्तन |
  3. सहवासिता द्वारा आकार के निर्धारण में होने वाला परिवर्तन।

स्पष्ट है कि अनुक्रमण प्राकृतिक प्रक्रिया है जो जैव जाति के क्रमबद्ध परिवर्तन को दर्शाती है। इस परिवर्तन का अन्तिम लक्ष्य उच्चतम स्तर पर पहुँचना होता है। जब एक निश्चित समय और स्थान के परिप्रेक्ष्य में अनुक्रमण का अध्ययन किया जाता है तो उसे पारिस्थितिकी अनुक्रमण कहते हैं।

पारिस्थितिकी अनुक्रमण किसी क्षेत्र के जैव जगत के उस क्रमबद्ध परिवर्तन को कहा जाता है। जो एक निश्चित समय में घटित होता है। किसी क्षेत्र का जैव जगत अपनी उपस्थिति और प्रक्रिया से पर्यावरण में बदलाव लाते हैं। जिससे पर्यावरण कुछ जीवों के लिए प्रतिकूल हो जाता है। ऐसी दशा में परिवर्तित पर्यावरण से सामंजस्य करने वाली जातियाँ वहाँ आकर बसने लगती हैं। अनुक्रमणीय परिवर्तन की गति सदैव समान नहीं होती। ओडम ने अनुक्रमण के तीन ढंग बताये है-

  1. जैव जातियों का अनुक्रमणीय परिवर्तन निर्धारित क्रम में होता है।
  2. अनुक्रमण जैव जाति के पर्यावरणीय परिवर्तन से जुड़ी प्राकृतिक व्यवस्था है, जो जैव विकास का आधार है।
  3. यह पारिस्थितिकी तन्त्र की स्थिरता का प्रतीक है। इसके लिये पर्यावरणीय परिवर्तन जैवीय गुण, कालिक परिवर्तन तथा अनुकूलन क्षमता प्रमुख कारण हैं। वनस्पतियों के विकास में जलवायु सर्वप्रमुख कारक है।

फ्रेडरिक क्लीमेण्टस ने वनस्पति के अनुक्रमणीय विकास में निम्न पाँच प्रावस्थाओं का उल्लेख किया है-

(i) निर्वस्त्रीकरण की प्रावस्था – इस प्रावस्था में सतह नग्न तथा वनस्पति है। रहित होती

(ii) पौधों के प्रवास की प्रावस्था – इस प्रावस्था में दूसरे क्षेत्र से पौधों के बीजों का आगमन होता है।

(iii) आस्थापन की प्रावस्था – इस प्रावस्था में पौधों के बीजों की स्थापना होती है तथा पौधों का जनन होता है ।

(iv) प्रतिक्रिया की प्रावस्था- इस प्रावस्था में विकसित पौधों के मध्य प्रतिस्पर्धा तथा उनका स्थानीय निवास्य पर प्रभाव पड़ता है।

(v) स्थिरीकरण की प्रावस्था— यह प्रावस्था जातियों की जनसंख्या की अन्तिम समस्थिति की दशा की द्योतक है।

वनस्पति समुदाय का विकास अलग-अलग निवास्य में अनुक्रमण द्वारा निर्धारित होता है। जलीय शुष्क तथा स्थल पारितन्त्रों के अनुक्रमणों में समानता नहीं होती है। पारितन्त्र में वनस्पति समुदाय का विकास जलवायु, मृदा, जैविक तथा भौतिक कारकों द्वारा नियन्त्रित तथा प्रभावित होता है।

अनुक्रमण के प्रकार

क्लीमेण्टस ने अनुक्रमण के निम्न दो प्रकार बतायें हैं—

  1. प्राथमिक अनुक्रमण
  2. द्वितीयक अनुक्रमण 

(i) प्राथमिक अनुक्रमण-

प्राथमिक अनुक्रमण उसे कहते हैं जो किसी वनस्पति या जीव सर्वथा अछूते निर्जीव निवास्य पर प्रारम्भ होता है। समुद्र से उन्मज्जित नया भू-क्षेत्र या सर्वथा नयी झील ऐसे ही क्षेत्र होते हैं। किसी नये निवास्य में जिस पर पहले से किसी जीव समुदाय का अस्तित्त्व न हो सर्वप्रथम जब किसी जीव का आविर्भाव होता है उस पर वहाँ पोषक तत्त्व की प्रचुरता होती है। अतएव जैवपुंज में तेजी से वृद्धि होती है इस जैव पुंज के विघटन से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि होती है मिट्टी में जीवांश की वृद्धि होती है। मिट्टी में जीवांश की वृद्धि होने पर उसमे जल ग्रहण करने की क्षमता बढ़ जाती है, मिट्टी की प्रकृति बदलने लगती है। धीरे-धीरे वहाँ ऐसे पौधे उगने लगते हैं जिन्हें अधिक जल और अधिक पोषक तत्त्वों की आवश्यकता होती है।

वृक्ष रहित नग्न क्षेत्र पर जब प्रथम पादप का विकास होता है तो उसे आरम्भिक पादप कहते हैं। इनमें शैवाल तथा लिचेन प्रमुख होते हैं। कुछ लिचेन अम्ल का स्त्राव करते हैं जिससे शैल खनिजों में अभिक्रिया होती है। इससे मिट्टी में बैक्टीरिया का विकास होता है धीरे-धीरे मिट्टी का निर्माण शैलों के अपक्षय से प्राप्त चूर्ण तथा बैक्टीरिया की सक्रियता द्वारा होता रहता है तथा उसकी मोटाई बढ़ती रहती है। मिट्टी में रहने वाले कुछ सूक्ष्म जीव व कीड़ों-दीमक, चींटी, मकड़ी, गुबरैला, केंचुआ आदि का विकास हो जाता है शैवाल तथा लिचेन के बाद मॉस, उसके बाद घास तथा अन्त में सदापर्णी घासों का विकास होता है। वनस्पति में परिवर्तन के साथ-साथ नये प्राणियों की स्पीशीज (गोलकृमि, केंचुये) आदि विकसित हो जाती हैं। वनस्पति के सघन होने पर स्थान, प्रकाश, जल तथा पोषक तत्त्वों की प्राप्ति के लिए पौधों में आपसी प्रतिद्वन्द्विता प्रारम्भ हो जाती है। इस प्रतिस्पर्धा में समर्थ या शक्तिशाली पादप जीवित रहते हैं तथा कमजोर पादप समाप्त हो जाते अर्थात् Survival of the fittest का नियम लागू होता है। यदि ऐसे निवास्य में एक से अधिक जातियाँ विकसित हुई हैं तो उनके सदस्यों के मध्य संघर्ष में समर्थ जाति का पूरे वनस्पति समुदाय का प्रभुत्व स्थापित हो जाता है। वनस्पति के अन्त में ऊँचे वृक्षों का विकास होता है और उनकी संख्या बढ़ती है। समस्त निवास्य में घने तथा ऊँचे वृक्षों का वितान दिखाई पड़ता है। प्राथमिक अनुक्रमण का नवीनतम उदाहरण क्राकाटाओं द्वीप (इण्डोनेशिया) पर मिलता है। यह द्वीप जावा तथा सुमात्रा के मध्य स्थित है। इस पर 1883 में ज्वालामुखी का विस्फोट हुआ था। विस्फोट के कारण पूर्ववर्ती जीव-जन्तु समूल नष्ट हो गये। 1886 तक इस द्वीप पर प्रथम सेरे (पौधे, नील हरित शैवाल) लावा की ठंडी परतों पर उमड़े। उसके बाद मॉस, फर्न, फूलवाले पौधों की 15 स्पीशीज तथा घास की 4 जातियाँ दिखाई दीं। 1906 में कुछ पेड़ उगे जो कुछ वर्षों में पूरे द्वीप पर छा गये। 1921 में सर्वेक्षण के समय यहाँ पशुओं की 770 तथा 1933 में 1100 स्पीशज मिलीं। यहाँ इन विविध जन्तुओं का प्रवेश वायु, समुद्र तथा मनुष्य के माध्यम से हुआ है।

(ii) द्वितीयक अनुक्रमण-

वनस्पति समुदाय के पुनर्विकास को द्वितीयक अनुक्रमण कहते हैं। किसी क्षेत्र में पहले से मिलने वाले जीव-जन्तु जब आग, बाढ़ या खेती द्वारा नष्ट हो जायें और उस क्षेत्र पर नये ढंग से जैव अनुक्रमण प्रारम्भ हो जाये तो उसे द्वितीयक अनुक्रमण कहते हैं। मानवीय हस्तक्षेप से (वनों की कटाई, जंगलों को जलाकर खेती करने, स्थानान्तरणशील कृषि करने, सड़क तथा बाँध का निर्माण करने से) तथा प्राकृतिक कारणों (वनाग्नि, बाढ़, आँधी, सूखा, भू-स्खलन, जलवायु में परिवर्तन) द्वारा किसी निवास्य क्षेत्र की पूर्व वनस्पति पूर्णरूपेण या आंशिक रूप से नष्ट होती है तथा दूसरी जाति के जीवों द्वारा निवास्य निर्माण किया जाता है।

जब किसी क्षेत्र में वनस्पति समुदाय का विकास अपने चरम तक पहुँचने से पूर्व ही मानवीय हस्तक्षेपों द्वारा नष्ट कर दिया जाय या उसके विकास में अवरोध उत्पन्न कर दिया जाता है तो इस स्थिति में वनस्पति को अधोचरम वनस्पति कहते हैं। जब अमुक क्षेत्र में वनस्पति विकास में विक्षोभ दीर्घ काल तक चलता रहता है तो वनस्पति विकास की सामान्य प्रावस्थायें नहीं आतीं। इस प्रक्रिया से बदलता नया पर्यावरण विक्षेपित चरम वनस्पति को पोषण नहीं दे पाता। अतः ऐसी वनस्पति के स्थान पर नये पर्यावरण के अनुकूल नयी वस्पति का विकास होता है। जंगलों की कटाई करके मानव ने अनेक भागों में कृषि की है इससे वनस्पति समुदाय का विकास बाधित तथा विक्षुब्ध हुआ है। यदि ऐसे क्षेत्रों में कृषि करना बन्द कर दिया जाये तो पुनः वनस्पति का विकास पूर्व प्रावस्थाओं के अनुरूप हो जायेगा। स्थानान्तरणशील कृषि वाले भागों में द्वितीयक अनुक्रमण से पहले शाकीय तृणों-खर-पतवार का विकास होता है तत्पश्चात् छोटी-छोटी झाड़ियों का घना आवरण विकसित हो जाता है। इससे छोटी घासें व खरपतवार नष्ट होने लगते हैं। धीरे-धीरे झाड़ियों का स्थान वृक्ष ले लेते हैं और वनस्पति समुदाय की चरम स्थिति पुनः स्थापित हो जाती है।

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