वाणिज्य / Commerce

मुद्रास्फीति बनाम मुद्रा संकुचन की विवेचना कीजिए।

मुद्रास्फीति बनाम मुद्रा संकुचन की विवेचना कीजिए।
मुद्रास्फीति बनाम मुद्रा संकुचन की विवेचना कीजिए।

मुद्रा प्रसार अन्यायपूर्ण है तथा मुद्रा संकुचन अनुपयुक्त। इन दोनों में मुद्रा संकुचन सम्भवतः अधिक बुरा है।” व्याख्या कीजिए। अथवा मुद्रास्फीति बनाम मुद्रा संकुचन की विवेचना कीजिए।

मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन दोनों ही बुरें हैं, क्यों ? – मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन दोनों ही सामाजिक दृष्टि से बुरें है लेकिन लार्ड कीन्स का कहना है कि, “मुद्रा प्रसार अन्यायपूर्ण है और मुद्रा संकुचन अनुपयुक्त। दोनों में से कदाचित मुद्रा संकुचन अधिक बुरा है। “इस कथन की सच्चाई को देखने के लिए हमें मुद्रास्फीति एवं मुद्रा संकुचन के प्रभावों की जाँच करनी पड़ेगी।

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मुद्रास्फीति बनाम मुद्रा संकुचन-प्रभाव

मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन दोनों ही बुरे हैं क्योंकि ये समाज के विभिन्न वर्गों के बीच कुवितरण उत्पन्न कर देते हैं और नैतिक स्तर गिरा देते हैं। मुद्रा प्रसार में वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाने से निर्माताओं, व्यापारियों, उद्योगपतियों, मध्यस्थों एवं सटोरियों को लाभ होता है और वेतन भोगियों एवं उपभोक्ताओं को हानि होती है। कीमत स्तर में वृद्धि और मजदूरियों की वृद्धि के मध्य समय विलम्ब के कारण मजदूरों का जीवन निर्वाह कठिन हो जाता है। मध्यमवर्गीय जनता की आय स्थिर रहने के कारण इस वर्ग के लोग महँगाई के कारण पिस जाते हैं। इस काल में अधिक-से-अधिक चोरबाजारी, भ्रष्टाचार, मुनाफाखोरी, वेश्यावृत्ति आदि अनेक अनैतिक कार्यों को प्रोत्साहन मिलता है। इसके विपरीत मुद्रा संकुचन में वस्तुओं के भाव घटने से अगर उपभोक्ताओं को लाभ प्राप्त होने की आशा होती है तो इसमें व्यापार की स्थिति खराब हो जाती है, उत्पादन कम होने लगता है और बेकारी की समस्या उत्पन्न होने लगती है और आर्थिक विकास रूक जाता है अतः मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुच दोनों ही समाज के लिए हानिकारक होते हैं।

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मुद्रा प्रसार अन्यायपूर्ण क्यों हैं?

मुद्रा प्रसार के अन्यायपूर्ण होने के निम्नलिखित कारण हैं-

(1) आर्थिक विषमता और अन्यायपूर्ण वितरण

मुद्रा प्रसार में धन का वितरण गरीबों की जेब से धनिकों की जेब में होता है। धनिकों को अधिक लाभ और गरीबों की आय में स्थिरता से धन के असमान वितरण को बढ़ावा मिलता है तथा गरीब और गरीब तथा धनी और धनी होते हैं।

(2) अदृश्य करारोपण

जब सरकार अपने बजट के घाटे की पूर्ति के लिए नयी मुद्रा का निर्गमन करती है तो यह नीति एक प्रकार से लोगों पर अदृश्य करारोपण ही होती हैं क्योंकि इससे वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमत बढ़ जाती है और उपभोक्ता उनके उपयोग से वंचित रह जाता है।

(3) निर्धन वर्ग पर बुरा प्रभाव 

मुद्रा प्रसार के कारण सम्पत्ति का केन्द्रीकरण धनिक वर्ग में ही हो जाता है और समाज के निर्बल वर्ग को अत्यन्त कष्टपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ता है।

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(4) समाज में व्यक्तियों का नैतिक पतन

मुद्रा प्रसार राजस्व के सिद्धान्त के आधार पर भी अन्यायपूर्ण है क्योंकि अदृश्य करारोपण का सर्वाधिक भार निर्धन वर्ग पर पड़ता है। इसका कारण यह है कि मूल्य वृद्धि सबसे अधिक अनिवार्यताओं में हुआ करती है और समाज का निम्न वर्ग ही इन वस्तुओं का अधिक उपयोग करता है।

(5) कृत्रिम सम्पन्नता 

मुद्रा प्रसार इसलिए भी अन्यायपूर्ण है कि इससे समाज में कृत्रिम सम्पन्नता उत्पन्न हो जाती है जो थोड़े समय तक बनी रहती है और अपनी चरम सीमा तक पहुँचकर टूट जाती है। इसके पश्चात् मुद्रा संकुचन के सभी दुष्परिणाम उपस्थित हो जाते हैं।

(6) मध्यम वर्ग के लिए अभिशाप

मध्यम वर्ग के लिए मुद्रा प्रसार अभिशाप होता है क्योंकि जीवन निर्वाह व्यय, आय के मुकाबले में बढ़ जाते हैं, बचतें समाप्त हो जाती हैं, जीवन स्तर गिरता है और निराशा का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसके परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जाती है और सामाजिक विघटन का जन्म होता है।

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मुद्रा संकुचन अनुपयुक्त क्यों हैं?

मुद्रा संकुचन को निम्न कारणों से अनुपयुक्त कहा जाता है-

1. लाभ की तुलना में अधिक हानि- मुद्रा संकुचन से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक होती है जैसे-बेरोजगारी का फैलना, धनोत्पत्ति के कार्यों का घटना एवं आर्थिक जीवन का पतन की ओर जाना आदि।

2. घातक परिणाम- मुद्रा संकुचन इसलिए भी अनुपयुक्त है कि अगर देश में एक बार मन्दी की स्थिति प्रारम्भ हो जाती है तो उसको रोकना कठिन हो जाता है और इसके घातक प्रभाव सम्पूर्ण राष्ट्र में व्याप्त हो जाता है।

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मुद्रा संकुचन ही अधिक बुरा है

उपयुक्त विवेचन से यह पता चलता है कि मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन दोनों ही समाज के लिए हानिकारक हैं, लेकिन मुद्रा प्रसार अपेक्षाकृत कम बुरा हैं, क्योंकि-

(1) यद्यपि मुद्रा प्रसार समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य आय का कुवितरण उत्पन्न कर देता है किन्तु वह समाज की वास्तविक आय को नहीं घटाता है। इसके विपरीत मुद्रा संकुचन न सिर्फ बेकारी को जन्म देकर राष्ट्रीय आय में कमी लाता है बल्कि समाज के प्रत्येक वर्ग को निर्धन कर देता है ।

(2) मुद्रा प्रसार की अपेक्षा मुद्रा संकुचन में अनैतिकता अधिक गम्भीरता से फैलती है क्योंकि मुद्रा संकुचन में लाखों स्वस्थ्य एवं कार्य करने के योग्य स्त्री-पुरूषों को अपने उदर की पूर्ति के लिए अनैतिक कार्यों का सहारा लेना पड़ता हैं, जबकि मुद्रा प्रसार में सभी व्यक्ति किसी न किसी रोजगार में लगे रहते हैं।

(3) मुद्रा प्रसार अपनी प्रारम्भिक अवस्था में लाभकारी सिद्ध हो सकता है। इसकी प्रारम्भिक अवस्था में नये-नये उद्योग धन्धे स्थापित होने से उत्पादन में वृद्धि होती है एवं बेरोजगारी दूर होती है। अत: इसको आर्थिक विकास की संज्ञा दी जाती है किन्तु मुद्रा संकुचन शुरू से ही विनाशकारी परिणाम पैदा करने लगता है। इसके अन्तर्गत बेरोजगारी बढ़ती है, उत्पादन कम होने लगता है एवं राष्ट्र का आर्थिक एवं नैतिक पतन हो जाता है।

(4) मुद्रा प्रसार को नियन्त्रित करना सम्भव है लेकिन मुद्रा संकुचन को नियन्त्रित करना अत्यन्त कठिन होता है।

निष्कर्ष-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि मुद्रा प्रसार एवं मुद्रा संकुचन दोनों में ही बुराइयां हैं। लेकिन अगर इन दोनों में से किसी एक का चुनाव करना पड़े तो मुद्रा प्रसार ही उपयुक्त होगा। इस प्रकार कीन्स का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि, “मुद्रास्फीति अन्यायपूर्ण है और मुद्रा संकुचन अनुपयुक्त, लेकिन इन दोनों में मुद्रा संकुचन सबसे बुरा है। ” इसका कारण यह है कि मुद्रा-स्फीति के समय काम उपलब्ध हो जाने पर श्रमिकों को कम से कम रोटी तो प्राप्त हो जाती है, चाहे वह आधी हो किन्तु मुद्रा संकुचन के समय बेकारी के कारण उसकी वह आधी रोटी भी छिन जाती है।

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