डॉ. मेरिया मॉण्टेसरी (1870-1952)
डॉ. मेरिया मॉण्टेसरी
Dr. Maria Montessori (1870-1952)
मॉण्टेसरी पद्धति की जन्मदात्री डॉ. मेरिया मॉण्टेसरी थीं। उनका जन्म 1870 में इटली में हुआ था। वे एक साधन सम्पन्न पिता की पुत्री थीं। उनके पिता ने उनका शिक्षण विशेष देखरेख के साथ किया। मॉण्टेसरी विलक्षण प्रतिभा की धनी थीं, उन्होंने 1894 में केवल 24 वर्ष की अवस्था में एम. डी. की उपाधि प्राप्त की। उनकी विशेष रुचि मन्द बुद्धि बालकों को पढ़ाने की थी। उन्होंने पिछड़े छात्रों से सम्बन्धित अनेक अध्ययन किये। इन अध्ययनों में इनको शिक्षा की परम्परागत प्रणाली में अनेक दोष दिखायी दिये। मॉण्टेसरी ने इन्हीं दोषों को दूर करने के लिये शिक्षा की एक नयी प्रणाली को जन्म दिया। यह पद्धति मॉण्टेसरी प्रणाली के नाम से जानी जाती है। उन्होंने अपने प्रयोग में फ्रांस निवासी डॉ. इटार्ड से काफी प्रेरणा प्राप्त की थी। उन्होंने मन्द बुद्धि छात्रों पर कई अनुसन्धान तथा प्रयोग किये और लेख लिखे। मॉण्टेसरी एडवर्ड सेमुअल के सम्पर्क में भी रहीं। मॉण्टेसरी धीरे-धीरे अत्यन्त लोकप्रिय होती गयीं। विश्व के कई देशों ने इनकी पद्धति को शिक्षा में अपना लिया। सन् 1939 में उन्होंने भारत की यात्रा की और उसी समय उन्होंने मद्रास में मॉण्टेसरी संघ की स्थापना की तब से अब तक मॉण्टेसरी पद्धति भारत में खूब फल-फूल रही है। सन् 1952 में मॉण्टेसरी पद्धति एवं बालकों की खेल की शैक्षिक पद्धति की जननी मॉण्टेसरी का निधन हो गया।
मॉण्टेसरी के शैक्षिक सिद्धान्त
Principles of Maria Montessori
मॉण्टेसरी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों पर आधारित सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
1. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त – मॉण्टेसरी का कथन है कि छात्र का स्वाभाविक विकास उसी दशा में हो सकता है, जब उसे अपनी मूल प्रवृत्तियों के अनुसार कार्य करने की स्वतन्त्रता हो। यदि छात्रों को स्वतन्त्रता प्रदान नहीं की जाती तो उनकी मूल प्रवृत्तियों का दमन होता है। यह दमन छात्रों के लिये हानिकारक होता है।
2. आत्म-विकास का सिद्धान्त – रूसो, पेस्टॉलाजी तथा फ्रॉबेल की भाँति मॉण्टेसरी भी आत्म-विकास के सिद्धान्त को स्वीकार करती हैं। उनके अनुसार छात्र का सर्वांगीण विकास बाहरी शक्तियाँ नहीं कर सकी। छात्र का विकास उनकी आन्तरिक शक्तियों द्वारा होता है। अत: शिक्षक का कर्तव्य है कि छात्र की जन्मजात शक्तियों का विकास करे। मॉण्टेसरी छात्र को एक शरीर मानती हैं, जो कि निरन्तर बढ़ता रहता है। वह एक आत्मा है, जो निरन्तर विकसित होती रहती है।
3. व्यक्तित्व का सिद्धान्त-मॉण्टेसरी के अनुसार – “शिक्षा का कार्य छात्र के व्यक्तित्व का अधिकतम विकास करना है।” यदि छात्रों को यह अवसर मिलता है कि वह शिक्षक के निर्देशन में कार्य कर सकें तो छात्र अपने व्यक्तित्व का विकास करने में समर्थ होता है। कुछ भी हो छात्र को स्वतन्त्र वातावरण अवश्य मिलना चाहिये। इसी प्रकार उसके व्यक्तित्व का विकास किया जा सकता है।
4. ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा का सिद्धान्त – मॉण्टेसरी को विश्वास था कि छात्र के बौद्धिक विकास के लिये यह आवश्यक है कि उसकी ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जाय। मॉण्टेसरी ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञान का द्वार मानती हैं। यही कारण है कि वह अपनी पद्धति में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण पर विशेष बल देती हैं। मॉण्टेसरी के अनुसार प्रारम्भिक कक्षाओं में शिक्षा का आधार ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होना चाहिये।
5. माँस-पेशियों के प्रशिक्षण का सिद्धान्त – मॉण्टेसरी ने शिक्षा का एक उद्देश्य छात्र को क्रियाशील बनाना माना है। इस प्रकार उनके माँसपेशियों के प्रशिक्षण से छात्र लिखना-पढ़ना सीखता है। उसमें आत्म-विश्वास की भावना प्रस्फुटित होती है। मॉण्टेसरी ने माँसपेशियों के प्रशिक्षण के महत्व को इन शब्दों में स्वीकार किया है-“छात्र एक ऐसा प्राणी है, जिसको अपने शरीर को विभिन्न माँसपेशियों की गति पर विश्वास नहीं होता। अत: छात्र को सम्बन्धित गतियों में प्रशिक्षित करना अति आवश्यक है।”
6. सामाजिक प्रशिक्षण का सिद्धान्त – छात्र में सामाजिकता की भावना का उदय होना आवश्यक है। इसी कारण मॉण्टेसरी सामाजिक प्रशिक्षण के सिद्धान्त पर बल देती हैं। मॉण्टेसरी पद्धति के अनुसार विद्यालय शिशुओं का शिशु-गृह होता है। उसमें शिशुओं को अपना कक्ष स्वयं साफ करना होता है, उन्हें भोजन परोसना होता है। शिशु यह कार्य मिल – जुलकर करते हैं। इस प्रकार उनमें सामाजिकता की भावना प्रस्फुटित होती है। उनको सहयोग से कार्य करना आ जाता है। उनमें उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है। ये सामाजिक गुण छात्र को योग्य नागरिक बनने में सहायता करते हैं। इस प्रकार मॉण्टेसरी पद्धति सामाजिक प्रशिक्षण के सिद्धान्त पर आधारित है।
7. स्व-शिक्षा का सिद्धान्त – छात्र की स्व-शिक्षा ही वास्तविक शिक्षा है। छात्र को अपने प्रयास से ज्ञान अर्जित करना चाहिये। उसे ज्ञान अर्जित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होनी चाहिये। स्व-शिक्षा तभी सम्भव हो सकती है, जब छात्र पर शिक्षक किसी प्रकार का प्रतिबन्ध न लगाये। मॉण्टेसरी के अनुसार-“मानसिक विकास का कार्य स्वयं बालक का कार्य होना चाहिये।”
8. शिक्षा का आधार – खेल विधि – फ्रॉबेल की शिक्षा का आधार खेल था। मॉण्टेसरी ने भी अपनी पद्धति में शिक्षण कार्य का आधार खेल ही रखा। इस पद्धति में छात्र सीखने के लिये अनेक उपकरण काम में लाते हैं। छात्रों की ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण खेल द्वारा होता है, किन्तु जिन खेलों को मॉण्टेसरी ने अपनी शिक्षण पद्धति में प्रयोग किया है, वे खेल साधारण खेलों से भिन्न है।
मॉण्टेसरी की शिक्षण पद्धति
Teaching Method of Montessori
मॉण्टेसरी ने अपने विद्यालयों के लिये कोई पाठ्यक्रम निर्धारित नहीं किया, किन्तु अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से मॉण्टेसरी शिक्षण विधि को तीन भागों में विभाजित करके अध्ययन किया जा सकता है।
मॉण्टेसरी की शिक्षण-विधि निम्नलिखित तीन भागों में विभाजित की जा सकती है जिनका वर्णन इस प्रकार है-
1. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा – माॅण्टेसरी विद्यालयों में 3 से 7 वर्ष तक के छात्र पढ़ते हैं। उनको सबसे पहले कर्मेन्द्रियों की शिक्षा दी जाती है। इसके लिये गतिशीलता का ध्यान रखा जाता है। विद्यालय के छात्र स्वावलम्बी होते हैं। वे अपना कार्य स्वयं करते हैं। छात्रों को अपना शरीर साफ रखना, कपड़े साफ रखना, कपड़े बदलना, भोजन पकाना तथा परोसना सिखाया जाता है। ऐसे काम करने से छात्र प्रसन्नता का अनुभव करते हैं तथा उनको अपनी कर्मेन्द्रियों को भी प्रशिक्षित करने का अवसर मिलता है। छात्रों को शरीर का सन्तुलन करना आ जाता है। उनको दैनिक दिनचर्या का काम करना भी आ जाता है।
2. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा – ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा उपकरणों के माध्यम से दी जाती है। मॉण्टेसरी का विश्वास था कि एक समय में केवल एक ज्ञानेन्द्रिय का प्रयोग किया जाय। इसी कारण अपनी पद्धति में मॉण्टेसरी ने जो उपकरण बनाये, वे एक समय में केवल एक ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करते हैं। “शिक्षण विधि में इन्द्रियों की शिक्षा का अधिक महत्व होना चाहिये।”
मॉण्टेसरी के अनुसार विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों को किस प्रकार प्रशिक्षित किया जाता है, उसका वर्णन इस प्रकार है-
- चक्षु इन्द्रियाँ – रंगों की पहचान करना सिखाना, विभिन्न रंगों की टिक्कियाँ दिखाना, रंगों से सम्बन्धित प्रश्न पूछना आदि।
- घ्राणेन्द्रिय – सुगन्धित पुष्पों को सूंघना, आँख पर पट्टी बाँधकर किसी भी वस्तु को सूंघना आदि।
- स्वादेन्द्रिय – विभिन्न स्वादों का ज्ञान कराने के लिये खट्टी, मीठी, चरपरी, तीखी, कड़वी तथा नमकीन वस्तुओं को खिलाना।
- स्पर्शेन्द्रिय – विभिन्न प्रकार की वस्तुओं का स्पर्श कराना। इसके लिये गरम, गुनगुने तथा ठण्डे पानी में हाथ डालना। चिकने और खुरदरे पदार्थों का ज्ञान कराना आदि।
उपर्युक्त ज्ञानेन्द्रियों के लिये तीन चरण काम में लाये जाते हैं-
- किसी वस्तु के विषय में शिक्षिका स्वयं बताती है।
- फिर छात्र से उस वस्तु के विषय में पूछा जाता है।
- पुनरावृत्ति करने के लिये उस वस्तु के विषय में पुनः प्रश्न पूछा जाता है।
3. पढ़ने-लिखने की शिक्षा – मॉण्टेसरी के अनुसार पढ़ने की अपेक्षा लिखना सरल होता है। ज्ञानेन्द्रियों के अनेक अभ्यास करने के पश्चात् पढ़ना, लिखना और अंकगणित सरलता से आ जाता है। ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण से पढ़ना, लिखना स्वतः आ जाता है।
(1) लिखना – इस पद्धति में लिखना पहले सिखाया जाता है और पढ़ना उसके पश्चात् । मॉण्टेसरी के अनुसार पढ़ने के लिये उच्चारण आवश्यक होता है और यह केवल पर्याप्त बौद्धिक विकास के पश्चात् ही सम्भव हो सकता है, किन्तु लिखने में केवल अनुकरण की आवश्यकता होती है।
लिखने के स्वाभाविक विकास के लिये तीन क्रियाएँ आवश्यक होती हैं-
- कलम पकड़ने का अभ्यास
- अक्षरों के स्वरूप को समझना तथा
- अक्षरों का उच्चारण । मॉण्टेसरी विधि से छात्र डेढ़ मास में लिखना सीख जाता है। छात्र को लिखना आ जाना इस प्रणाली की सबसे बड़ी सफलता है।
(2) पढ़ना – मॉण्टेसरी का विश्वास है अंकित चिह्नों से भाव निकालना ही पढ़ना है। पढ़ना सिखाने के लिये शिक्षिका छात्रों के समक्ष किसी पहचानी वस्तु को रख देती है। उस वस्तु का नाम वह श्यामपट्ट पर लिख देती है। इस पद्धति में छात्र द्वारा श्यामपट्ट पर लिखे शब्द का वाचन कराया जाता है। जब छात्र उस शब्द को ठीक प्रकार से पढ़ने लगता है तब शिक्षिका अत्यन्त वेग से उस पूरे शब्द को कई बार दोहरवाती है। इसके बाद अन्य शब्द भी उसी प्रकार लिखे और पढ़े जाते हैं। शब्दों का पढ़ना आ जाने के पश्चात् छात्र को वाक्य पढ़ना सिखाया जाता है। छात्र को लिखना सीखने के पन्द्रह दिन पश्चात् पढ़ना आ जाता है।
(3) गणित – लिखना-पढ़ना सिखाने की भाँति मॉण्टेसरी प्रणाली में गणित सिखाने की नवीनता नहीं है। गिनती सिखाने के लिये विभिन्न लम्बाइयों के छोटे-बड़े दस डण्डों का प्रयोग किया जाता है। इन डण्डों की लम्बाई कई भागों में विभाजित करके इन भागों को लाल – नीला रंग दिया जाता है। छात्र पहले लम्बाई के क्रम में डण्डों को रखता है और फिर उसके लाल-नीले भागों को गिनता है। छात्र डण्डों को 1,2,3,4 आदि क्रम संख्या देता है। इसी विधि से जोड़ना, घटाना, गुणा और भाग करना सिखाया जाता है। इस विधि से छात्र प्रारम्भिक गणित को सोख लेता है, किन्तु अन्य प्रक्रियाओं को सिखाने में समय लगता है।
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