विज्ञान शिक्षण / Teaching of science

पौधों और जन्तुओं में समानता तथा अन्तर| Similarity & Differences between Plants & Animals

पौधों और जन्तुओं में समानता तथा अन्तर

पौधों और जन्तुओं में समानता तथा अन्तर

पौधों और जन्तुओं में समानता तथा अन्तर
(DIFFERENCE AND SIMILARITY IN ANIMALS AND PLANTS)

पौधे और जन्तु परस्पर इतने निर्भर हैं कि एक-दूसरे के बिना इनका जीवन सम्भव नहीं है। निम्न प्रकार से समानता है-

1. वृद्धि- जन्तुओं तथा पौधों में वृद्धि होती है। समय के साथ-साथ वे बड़े होते हैं।

2. आकार- जन्तुओं का आकार निश्चित अवस्था में ही फैलता है जबकि पौधों का आकार विशाल रूप ले लेता है।

3. श्वसन क्रिया- पौधे श्वसन क्रिया के फलस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड ग्रहण करते हैं और ऑक्सीजन छोड़ते हैं जबकि जीव-जन्तु ऑक्सीजन ग्रहण करते हैं और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं।

4. भोजन-जीव- जन्तु प्राकृतिक पदार्थों को भोजन के रूप में ग्रहण करते हैं, जबकि पौधे पृथ्वी में उपस्थित खनिज लवणों एवं खाद पर निर्भर रहते हैं।

5. पानी की आवश्यकता- जन्तुओं तथा पौधों को अपने जीवन काल को बढ़ाने के लिए पानी की अत्यधिक आवश्यकता होती है।

6. मानव के लिए आवश्यकता- जीव-जन्तु तथा पौधे दोनों ही मनुष्य के लिए अत्यधिक उपयोगी हैं। पौधों से खाद्य पदार्थ, इमारती लकड़ी आदि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं तथा भी मनुष्य के लिए खाद्य रूप में प्रयोग किए जाते हैं।

7. रोग- जन्तुओं तथा पौधों को रोग लगते हैं। अधिक रोग फैलने से ये दोनों ही नष्ट हो जाते हैं।

पौधों और जन्तुओं में अन्तर

  1. पौधों में ऊपर की वृद्धि होती है, ये काफी ऊँचाई तक बड़े हो जाते हैं, जबकि जन्तु कुछ ऊँचाई तक ही बड़े होते हैं।
  2. पौधों और जन्तुओं में संवेदना शक्ति होती है। जीवों में संवेदना शक्ति अधिक होती है। ये उसको प्रकट कर सकते हैं जबकि पौधे अपनी संवेदना शक्ति को प्रकट नहीं कर पाते हैं।
  3. पौधे प्रकाश की उपस्थिति में ही बढ़ते हैं, जबकि जीव के लिए प्रकाश की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
  4. जीव अपने भोजन के लिए पौधों का उपयोग करते हैं, जबकि पौधे अपने भोजन के लिए जीवों का उपयोग नहीं करते हैं।
  5. पौधे एक ही स्थान पर स्थिर रहकर बड़े होते हैं, जबकि जन्तु गति अवस्था में चलकर बड़े होते हैं।
  6. पौधों पर ऋतु परिवर्तन का प्रभाव पड़ता है जबकि जन्तुओं पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

जन्तुओं एवं वनस्पतियों में वातावरणीय अनुकूलन
(ENVIRONMENTAL ADAPTATION IN ANIMALS AND PLANTS)

प्रत्येक जीवधारी ऐसे आवास में रहना पसन्द करता है, जो उसकी सभी अथवा अधिकतर आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकें अर्थात् कोई भी जीव जाति यदि सफलतापूर्वक बने रहना चाहती है, तो उसे अपने आवास की परिस्थितियों एवं उनमें होने वाले परिवर्तनों के साथ पूर्ण सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है, अन्यथा वह कालान्तर में समाप्त हो जायेगी। ऐसा करने के लिए समय-समय पर जीवधारियों को अपनी रचना एवं क्रियाकलापों में अनेक परिवर्तन लाने पड़ते हैं। इसे ही अनुकूलन (Adaptation) कहते हैं। अनुकूलन की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-

“अनुकूलन जीवधारियों एवं वनस्पतियों की वह क्षमता है जिसके द्वारा वे कालान्तर में ऐसे रचनात्मक व क्रियात्मक लक्षणों का विकास कर लेते हैं जिनकी सहायता से वे अपने आवास में सफलतापूर्वक जीवनयापन करते हैं व प्रजनन करके अपनी जाति का अस्तित्व बनाये रखते हैं और उसे आगे बढ़ाते हैं।”

अनुकूलन के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  1. मरुस्थलीय चूहे मैदानी चूहों की अपेक्षा मरुस्थल में अच्छी प्रकार से रह सकते हैं।
  2. मरुस्थल में ऊँट अन्य जानवरों की अपेक्षा अधिक सुगमता से रह सकता है।
  3. पक्षी आकाश में तथा मछलियाँ पानी में रहने के लिए अनुकूलित होती हैं।

विभिन्न प्रकार की अनुकूलताएँ-

जीवधारियों में दो प्रकार की अनुकूलताएँ मिलती हैं-

  1. संरचनात्मक अनुकूलन,
  2. क्रियात्मक अनुकूलन।

1. संरचनात्मक अनुकूलन-

जब किसी जीवधारी के शरीर की रचना में कुछ ऐसे परिवर्तन हों जिनसे उस जाति को अपने आवास में रहने में अधिक सुविधा हो इसे संरचनात्मक अनुकूलन कहते हैं; जैसे-पक्षियों में उड़ने के लिए पंख विकसित होना।

2. क्रियात्मक अनुकूलन-

जब किसी जीवधारी की शारीरिक क्रियाओं में कोई ऐसी विशेषता आ गई हो या ऐसे परिवर्तन हो गए हों जिनसे उसे अपने आवास में रहने व फैलने-फूलने में अधिक सहयोग मिले तो इसे क्रियात्मक अनुकूलन कहते हैं, जैसे-मरुस्थलीय चूहों को कम पानी की आवश्यकता होना।

(i) जन्तुओं में वातावरणीय अनुकूलन— सभी जन्तु वातावरण में होने वाले परिवर्तन से प्रभावित होते हैं एवं उसी परिवर्तन के अनुसार अपने को परिवर्तित करते हैं। उदाहरण, महान् जीव वैज्ञानिक डार्विन के अनुसार जब सूखा पड़ा और घास सूख गयी तो अपना जीवन बचाने के लिये जिराफ को वातावरण के अनुकूल होना पड़ा अर्थात् पेड़-पौधों की पत्तियाँ खाने के लिये गर्दन उठानी पड़ती थी। इसी कारण उनकी गर्दन लम्बी हो गयी।

(ii) वनस्पतियों में वातावरणीय अनुकूलन— वनस्पतियाँ भी वातावरण के अनुसार अपने को बदल लेती हैं। उदाहरण, नागफनी मरुस्थल में पानी की कमी के कारण पत्तियों को काँटों में बदल लेती हैं। जिससे पानी का खर्च कम मात्रा में हो।

Important Links

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider.in does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment