विभिन्न स्तरों पर निर्देशन की आवश्यकता (Need of Guidance at Different Level)
विभिन्न स्तरों पर निर्देशन की आवश्यकता- आज हम वैज्ञानिक युग में जी रहे हैं। विज्ञान के अविष्कारों एवं मानव की भौतिकवादी प्रवृत्ति के कारण उसकी आवश्यकताएँ भी बहुत अधिक बढ़ गई हैं। मानवीय व सामाजिक भूल्यों, आदर्शों एवं मान्यताओं में भी काफी परिवर्तन हुआ। सामाजिक व्यवस्थाएँ भी बदली। इनके अतिरिक्त भी समाज में बहुत अधिक परिवर्तन हुआ। इन परिवर्तनों के कारण व्यक्ति के समायोजन में कहीं न कहीं समस्याएँ भी उत्पन्न हुई। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है और इन परिवर्तनों का सीधा प्रभाव व्यक्ति और समाज पर पड़ता है इसलिए समुचित समायोजन के लिए निर्देशन की आवश्यकता महसूस की गई। समाज निरन्तर परिवर्तनशील एवं प्रगतिशील है। व्यक्ति इसी समाज का एक सदस्य है। जब व्यक्ति एवं समाज में सटीक तालमेल नहीं बैठता तो अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं तथा सामाजिक व्यवस्था बिगड़ती है जिससे राष्ट्रीय प्रगति बाधित होती है। इन् समस्याओं से निपटने के लिए निर्देशन की आवश्यकता होती है। व्यक्ति एवं समाज को ध्यान में रखते हुए निर्देशन की आवश्यकता के निम्नलिखित प्रमुख आधार हैं-
1) निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व का सामाजिक स्तर (Social level of Guidance’s Need and Importance)
आज विश्व में जितनी तीव्रगति से विकास हो रहा है समाज भी उसी तीव्रता के साथ परिवर्तित हो रहा है। वैश्विक स्तर पर देशों में सम्पर्क बढ़ा है और संस्कृतियों का आदान-प्रदान हो रहा है। बदलते परिदृश्य में सामाजिक मूल्य भी परिवर्तित हो चुके हैं।
इस बदलते परिदृश्य में समाज में सामंजस्य बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि समाज में ऐसे नागरिकों का निर्माण हो जो समाज की आवश्यकताओं से भली-भांति परिचित हों। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति को समाज के स्वरूप, व्यवस्था, होने वाले परिवर्तन, उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समुचित ज्ञान हो। निर्देशन ही वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से इनका समाधान हो सकता है। सामाजिक आधार पर निम्नलिखित कारणों से निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व है-
(i) परिवर्तित पारिवारिक स्थितियाँ (Changing Conditions of Home) – भारत में स्वतन्त्रता के पूर्व एवं उसके पश्चात् सत्तर के दशक तक संयुक्त परिवार का प्रचलन रहा जो कि अब टूट गया है। लोग एकल परिवारों में रह रहे हैं। परिवार का ताना-बाना टूट चुका है। परिवार एवं पारिवारिक भावना विखण्डित हो गई है। लोग गाँवों से शहर की ओर पलायन कर रहे हैं। ग्रामीण भारत या शहरी भारत दोनों में पारिवारिक संवेदना, अपनत्व का भाव, निःस्वार्थ सेवा का भाव समाप्त हो गया है। परिवारों से सुख, शान्ति का सम्बन्ध समाप्त सा प्रतीत होता है। सभी व्यक्ति आज तनाव में जी रहे हैं। व्यक्ति की बढ़ती हुई आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ उसे और अधिक तनाव दे रही हैं। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और अपराध ने भी पारिवारिक दशाओं में एवं संवेगात्मक असंतुलन उत्पन्न कर दिया है। पारिवारिक स्थितियाँ ठीक करते व परिवार के सदस्यों के मध्य आपस में तथा समाज से सामंजस्य बिठाने के निर्देशन अति आवश्यक है। निर्देशन ही ऐसी प्रक्रिया है जिसकी सेवा द्वारा आपस में वैमनस्य दूर कर पारिवारिक समस्याओं को दूर किया जा सकता है।
(ii) औद्योगिक दशाओं एवं श्रम की परिवर्तित स्थितियाँ (Changed Circumstances in Industrial Conditions and Labour)- कुछ दशक पूर्व तक भारत में लोग घरेलू परम्परागत पारिवारिक व्यापारों से जुड़े हुए थे। उन्हें उसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं होती थी। पीढ़ी-दर-पीढ़ी उस व्यवसाय को आगे बढ़ाते थे लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं। रोजगार एवं व्यवसाय के अनेकों नए प्रकार आ गए हैं जिसमें दक्षता हासिल करने के लिए विशेष जानकारियाँ एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। प्रत्येक व्यवसाय की कार्य प्रणाली भिन्न-भिन्न होती है। इन प्रणालियों को सीखना एवं उनका प्रशिक्षण आवश्यक होता है किन्तु प्रत्येक व्यक्ति प्रणाली के अनुसार कार्य नहीं कर पाता जिसके लिए उन्हें निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है। निर्देशन इस प्रणाली को सिखाने में विशेष महत्त्व रखता है।
(iii) बढ़ती जनसंख्या (Population Growth)- हमारे देश की जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ती जा रही है। चीन के बाद भारत विश्व की सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है जिसके कारण भारत विश्व की दौड़ में पिछड़ रहा है। ग्रामीण जनसंख्या शहरों की ओर पलायन कर रही है जिससे क्षेत्रीय असन्तुलन भी बढ़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या को रोकने एवं उनके सही नियोजन के लिए जन जागृति आवश्यक हैं जो निर्देशन के बिना सम्भव नहीं है।
(iv) सामाजिक, धार्मिक एवं नैतिक मूल्यों में परिवर्तन (Changes in Social, Religious and Moral Values)- आज वैज्ञानिक युग के बदलते परिदृश्य में सामाजिक मूल्यों का हास हो गया है। पुराने मूल्यों का ह्रास एवं नए मूल्यों की स्थापना हो रही है। आध्यात्मिक शान्ति के बदले हमारी नई पीढ़ी भौतिक सुखों की ओर उन्मुख है और उन्हें किसी भी प्रकार प्राप्त करना चाहती है। पहले आध्यात्मिक शान्ति पर बल दिया जाता था, नैतिकता समाज का अहम् गुण होती थी लेकिन आज का परिदृश्य बिल्कुल विपरीत है। आज समाज एवं व्यक्ति के मानदण्ड बदल गए हैं। नैतिकता, धार्मिकता अपना वास्तविक अर्थ खोकर केवल पाखण्ड और दिखावे के रूप में है। ऐसे में सच्चे अर्थों में सामाजिक, धार्मिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना हेतु निर्देशन अति आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है।
(v) समुचित नियोजन हेतु (For Proper Planning)- भारत विश्व का दूसरा सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है, जहाँ अपार मानव स्रोत (Human Resource) हैं। दुःखद ये है कि इस अपार स्रोत का उचित ढंग से नियोजन नहीं हो रहा है। बेरोजगारी, भुखमरी, भ्रष्टाचार, अपराध अपने चरम पर है। यदि इन परिस्थितियों को करना है तो प्रत्येक व्यक्ति को उसी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार कार्य मिलना चाहिए। यदि व्यक्ति को उसकी योग्यता, क्षमता एवं कौशल के अनुरूप कार्य मिल जाता है तो उसे सन्तुष्टि होती है और वह अधिक उत्पादक हो जाता है। अतः व्यक्तियों के सटीक नियोजन के लिए निर्देशन अति आवश्यक है।
(vi) महिलाओं के उचित व्यावसायिक समायोजन हेतु (For the Right Professional Adjustment of Females)- भारत में स्वतन्त्रता के पूर्व एवं स्वतन्त्रता के काफी बाद तक महिलाओं का कार्यक्षेत्र केवल घर की चारदीवारी के भीतर तक सीमित माना जाता था। आज स्थितियाँ बदल चुकी हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाएँ पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। हमारे भारतीय संविधान में भी महिलाओं एवं पुरुषों के समान अवसर प्रदान करने की बात कही गई है लेकिन अभी भी कुछ रूढ़िवादी यह स्वीकर नहीं कर पा रहे और किसी न किसी रूप में महिलाओं की प्रगति में रोड़ा अटकाने का कार्य कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें निर्देशन की आवश्यकता है जिससे वे अपनी सोच में बदलाव लाकर समय के साथ चल सकें।
अब महिलाएँ घर से बाहर निकल रही हैं। घर के काम के साथ-साथ बाहर भी नौकरी कर रही हैं, व्यापार कर रही हैं। ऐसे में बच्चों के पालन-पोषण एवं पारिवारिक कार्यों से सम्बंधित समस्याएँ आ रही हैं जिससे पारिवारिक तनावों में वृद्धि हो रही है। संकीर्ण विचार वाले महिला-पुरूष ऐसी कामकाजी महिलाओं को हेय दृष्टि से देखते हैं। कार्यस्थलों पर भी कभी-कभी महिलाओं के साथ अभद्रता हो जाती है और कुछ भ्रष्ट पुरुष उनकी विवशता का लाभ उठा कर उनका शोषण करना चाहते हैं। महिलाएँ अपने कार्य स्थल पर पूरी गरिमा व सम्मान के साथ कैसे कार्य सम्पादित करें? एवं साथ ही साथ अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन कुशलता पूर्वक कैसे करें? एक कठिन समस्या है। इसके लिए निर्देशन अति आवश्यक है।
(2) वैयक्तित्व स्तर पर निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Guidance on Individual level)
प्रत्येक व्यक्ति अपना अलग व्यक्तित्व रखता है और प्रत्येक व्यक्ति की अपनी अलग-अलग आवश्यकताएँ होती हैं। उनकी रुचि, रूझान, योग्यताएँ, क्षमताएँ एवं समस्याएँ भी अलग-अलग होती हैं इसलिए व्यक्ति को अलग-अलग बिन्दुओं पर निर्देशन की आवश्यकता वैयक्तिक आधार पर होती है। इस निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) शिक्षा के क्षेत्र में (In the Field of Education) – आज विज्ञान का क्षेत्र अति एवं विस्तृत हो गया है। इससे विभिन्न प्रकार के नवीन विषयों का सृजन हुआ। इन विषयों में कौन सा विषय किस छात्र के लिए लाभदायक है और किस छात्र का समुचित विकास हो सकता है। शिक्षण प्रक्रिया उपयुक्त ढंग से संचालित होने के लिए आवश्यक है कि कक्षा शिक्षण की आवश्यकताओं, छात्रों की रुचियों, योग्यताओं आदि का संयोजन उचित ढंग से हो। इसके लिए निर्देशन अति आवश्यक हैं।
(ii) सामाजिकता विकसित करने के क्षेत्र में (In the Field of Developing Socialisation)- छात्र एक सामाजिक सदस्य होता है। उसमें सामाजिकता का गुण होना अति आवश्यक है। उसके सामाजिक विकास के लिए यह आवश्यक है कि वह स्वयं एवं समाज के बीच उचित संयोजन करना सीखे। यह संयोजन विकसित करने में कभी-कभी कई समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। इसके लिए निर्देशन की आवश्यकता पड़ती है।
(iii) व्यवसाय के क्षेत्र में (In the Fields of Profession)- प्रत्येक व्यक्ति कोई कार्य तब सही ढंग से पूरा कर सकता जब तक कि उसमें कार्य के प्रति उचित अभिवृत्ति एवं अभिक्षमता (Aptitude) हो तथा उस कार्य से सम्बंधित उचित तकनीकी (Technique) एवं कौशलों (Skills) का ज्ञान हो। विद्यालयों में कार्य के प्रति उचित दृष्टिकोण उत्पन्न करना, छात्रों की आकांक्षाओं पर विचार करना एवं उनके अनुसार ही उन्हें व्यवसाय चयन के लिए निर्देशन प्रदान करना आवश्यक होता है। व्यवसाय चयन के लिए छात्रों की केवल योग्यताओं एवं क्षमताओं को ही नहीं शामिल किया जाता बल्कि उसके दृष्टिकोण, रुचि एवं कौशलों को भी शामिल किया जाता है। चूंकि रुचि, कौशल एवं दृष्टिकोण जन्मजात नहीं होते बल्कि इनको विकसित किया जाता है इसलिए इस क्षेत्र में निर्देशन की आवश्यकता होती है।
(3) शैक्षिक स्तर पर निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Guidance on the Educational Level)
शिक्षा एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है। शिक्षा ही एक ऐसी मूलभूत प्रक्रिया है जिसके द्वारा राष्ट्र समाज एवं व्यक्ति का विकास सम्भव है। शिक्षा किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं वरन् सभी के लिए होती है और भारतीय संविधान में इसके लिए प्रावधान भी है। प्रत्येक बालक को उसकी योग्यता एवं बुद्धि के अनुसार इस प्रकार शिक्षित किया जाय कि वह राष्ट्र एवं समाज के लिए उपयोगी बन सके। यह कार्य निर्देशन द्वारा ही सम्भव हो पाता है। शैक्षिक आधार पर निर्देशन की आवश्यकता निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है-
(i) पाठ्यक्रम के चयन में (In the Selection of Syllabus) – इस वैज्ञानिक युग में ज्ञान क्षेत्र अति विस्तृत एवं व्यापक हो गया है। अनेक नए विषयों का आविर्भाव हुआ है। एक-एक विषयों में अनेकों शाखाओं का उदय हुआ है। अब छात्रों के समक्ष चयन के अनेकों अवसर हैं। प्रत्येक छात्र की रुचि योग्यता एवं क्षमता अलग-अलग होती है। कोई एक विषय में पारंगत है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह अन्य विषयों में भी पारंगत हो। इस लिए प्रत्येक छात्र अपनी, योग्यता एवं रुचि के अनुसार यदि विषय का चयन करे तो अधिक से अधिक पारंगतता प्राप्त कर सकता है। छात्रों को पाठ्यक्रम चयन हेतु निर्देशन सेवा की आवश्यकता होती है। इसके लिए अनेकों मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का प्रयोग कर उनके परिणाम के आधार पर उनकी पाठ्यक्रम चयन में सहायता दी जा सकती है।
(ii) अपव्यय एवं अवरोधन की समस्या के निराकरण हेतु (For Solving the Problem of Wastage and Stagnation) भारत में ऐसे छात्रों की संख्या बहुत अधिक है जो पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं। इस प्रकार वो शिक्षा का निर्धारित स्तर प्राप्त नहीं कर पाते और उनकी शिक्षा पर हुआ व्यय व्यर्थ हो जाता है। कुछ छात्र एक ही कक्षा में कई-कई बार अनुत्तीर्ण होते हैं और उनके ऊपर कई गुना धनराशि व्यय हो जाती है। इस तरह अपव्यय एवं अवरोधन शिक्षा की एक प्रमुख समस्या है। यह समस्या प्राथमिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय तक है। यह समस्या गलत पाठ्क्रम के चयन, अयोग्य शिक्षकों, गलत छात्रों की संगति, अनुशासन हीनता आदि के कारण उत्पन्न होती है। इन समस्याओं से निपटने के लिए उचित निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता होती है।
(iii) अनुशासनहीनता की समस्या के निराकरण में (In Solving the Problem of Indiscipline)- आज शिक्षा के क्षेत्र में छात्र असंतोष एवं अनुशासन हीनता एक ज्वलंत समस्या है। छात्रों द्वारा आए दिन तोड़-फोड़ करना, लूटमार करना, राष्ट्रीय सम्पत्ति को क्षति पहुँचाना साधारण बात है। इसका प्रमुख कारण है उनकी आवश्यकताओं का वर्तमान शिक्षा प्रणाली द्वारा संतुष्ट न होना। रोजगार न पाने के कारण छात्र गलत कदम उठाते हैं और समाज के लिए समस्या उत्पन्न करते हैं। समाज में उचित समायोजन न होने से वे अपराधिक गतिविधियों में संलग्न हो जाते हैं। इन स्थितियों से निपटने के लिए निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता पड़ती है।
(iv) बढ़ती हुई छात्र संख्या के उचित समायोजन में (In the Right Adjustment of Increasing Number of Students)- देश की स्वतंत्रता के बाद भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ा। सरकारी एवं व्यक्तिगत प्रयासों से शिक्षा का भारी प्रचार-प्रसार हुआ। छात्रों की भारी संख्या के साथ ही व्यक्तिगत विभिन्नता की विविधता में भी वृद्धि हुई है। छात्रों की इस विविधता को पहचानना आवश्यक है। छात्रों को उनकी योग्यता, बुद्धि, क्षमता आदि के आधार पर शिक्षित एवं व्यावसायिक रूप से प्रशिक्षित करके उन्हें एक कुशल, उपयोगी एवं उत्पादक नागरिक बनाने के लिए निर्देशन सेवा की आवश्यकता है।
(v) शैक्षिक उपलब्धियों के स्तर को बनाए रखने में (In Maintaining the Level of Academic Achievements) – आज शिक्षा सर्वसुलभ और व्यापक हो गई है लेकिन उसके स्तर में बहुत गिरावट आ गई है। दोष वर्तमान शिक्षा व्यवस्था, शिक्षक एवं छात्रों तीनों के अंदर शिक्षा के क्षेत्र में मात्रात्मक वृद्धि गुणात्मक वृद्धि पर भारी है। शिक्षा की गुणात्मकता में ह्रास हुआ है। आज सभी पढ़ रहे हैं, उत्तीर्ण हो रहे हैं लेकिन योग्यता का स्तर बहुत गिर गया है। इसका प्रमुख कारण शिक्षकों में योग्यता एवं उत्तरदायित्व का अभाव, समाज का वातावरण, छात्रों का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार एवं आधुनिक शिक्षा व्यवस्था आदि हैं। इन कारणों को निर्देशन सेवा के माध्यम से दूर किया जा सकता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि पाठ्यक्रम चयन से लेकर शैक्षिक उपलब्धियों के स्तर को बनाए रखने में निर्देशन सेवाओं का महत्त्वपूर्ण योगदान है।
(4) मनोवैज्ञानिक स्तर पर निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Guidance on Psychological level)
हमारी शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य मानव के व्यक्तित्व का सर्वागीण विकास करना है। मनुष्य का व्यवहार उसकी मूल प्रवृत्ति एवं मनोभावों द्वारा प्रभावित होता है। उसकी अपनी मनो- शारीरिक आवश्यकताएँ होती हैं एवं इनकी संतुष्टि और मनोभाव उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। वातावरण भी व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है। यदि व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा आती है तो उस व्यक्ति का व्यक्तित्व असामान्य हो जाता है और उसमें मानसिक व संवेगात्मक विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। इन विकृतियों को निर्देशन सेवाओं द्वारा दूर करना सम्भव हो सकता है।
मनोवैज्ञानिक आधार पर निर्देशन की आवश्यकता को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) वैयक्तित्व विभिन्नताओं के विकास हेतु (For the Development of Individual Differences)- दुनिया का प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। उनके व्यवहार, दृष्टिकोण, रुचि, क्षमता आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए आवश्यक है कि व्यक्तिगत विभिन्नताओं की पहचान की जाए और इन विभिन्नताओं के आधार पर उसके व्यक्तित्व को विकसित किया जाए। इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं की पहचान करना एक जटिल कार्य हैं। विभिन्नताओं के बारे में सूचनाएँ प्राप्त कर व्यक्तित्व विकास को सही दिशा प्रदान करने में निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता है।
(ii) व्यक्तित्व विकास हेतु (For the Development of Personality)- व्यक्तित्व एक व्यापक एवं जटिल शब्द है। इसके अन्तर्गत व्यक्ति की मनोशारीरिक विशेषताएँ शामिल होती हैं। व्यक्ति के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य है। कोई व्यक्ति भविष्य में क्या कर सकता है? किस क्षेत्र में बेहतर योगदान कर सकता है? आदि का निर्धारण उस व्यक्ति का व्यक्तित्व निर्धारित करता है। व्यक्ति के बारे में पता लगाने के लिए अनेकों मनोवैज्ञानिक परीक्षणों का निर्माण हो चुका है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास किस दिशा में कैसे करना है? उसे किस प्रकार की सहायता की आवश्यकता हैं? यह निर्देशन सेवा द्वारा सम्भव है। वंशानुगत विशेषताएँ नहीं बदली जाती किन्तु पर्यावरणीय प्रभावों/ क्रियाओं जो कि व्यक्तित्व के विकास में बाधक हैं, निर्देशन सेवाओं द्वारा नियन्त्रित किया जा सकता है।
(iii) परिवार, विद्यालय एवं समाज में समायोजन हेतु (For the Adjustment in Family, School and Society)- मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसकी सामाजिकता उसके परिवार से प्रारम्भ होती है फिर वह विद्यालय में जाता है। इन सब प्रक्रियाओं से गुजर कर वह समाज का नागरिक बनता है। यदि व्यक्ति का समायोजन समाज में उपयुक्त ढंग से नहीं होता तो उसका जीवन प्रसन्न एवं शान्ति युक्त नहीं होगा। इसलिए समाज के साथ समायोजन की योग्यता एवं क्षमता विकसित करने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति को उसकी रुचि एवं योग्यता के अनुकूल अवसर मिले। यदि किसी व्यक्ति को उसके परिवार में उसकी योग्यता, रुचि आदि प्रदर्शित करने का अवसर दिया जाता है तो वह अपने परिवार से प्रेम करता है एवं प्रसन्नतापूर्वक रहता अर्थात् परिवार में उसका समायोजन उचित ढंग से हो जाता है। इसी प्रकार विद्यालय में भी यदि छात्रों को अनुकूल वातावरण नहीं मिलता तो उनका समायोजन सही ढंग से नहीं हो पाता। विद्यालय के बाद यदि व्यक्ति को उसकी रुचि के अनुसार कार्य / व्यवसाय नहीं मिलता तब व्यक्ति की योग्यता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार की परिस्थितियों में व्यक्ति के उचित समायोजन हेतु निर्देशन सेवाओं की आवश्यकता होती है।
(iv) संवेगात्मक विकास हेतु (For the Emotional Development) – मनुष्य के व्यक्तित्व का सन्तुलन उसके भावनात्मक / संवेगात्मक विकास पर निर्भर करता है। बालक के संवेगात्मक विकास के लिए परिवार, विद्यालय, पास-पड़ोस, समुदाय आदि सभी उत्तरदायी होते हैं। यदि परिवार में बालक की आवश्यकताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता और उसकी समस्याओं का समाधन सहानुभूतिपूर्वक नहीं किया जाता तो उस बालक में दूषित भावनाएँ विकसित होने लगती हैं। बालक के व्यवहार में क्रोध, हठ एवं स्वार्थ आदि उत्पन्न हो जाता है साथ ही उसमें घृणा, उपेक्षा, निराशा आदि की भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। ऐसे बालक परिवार की उपेक्षा करते हैं और कोई कार्य सही ढंग से नहीं करते। जब बालक समुदाय में युवा होता है तब उसे अनेक प्रकार की समस्याएँ, जैसे- व्यवसाय / पेशा सम्बन्धी, परिवार सम्बन्धी, वैवाहिक जीवन सम्बन्धी, प्रेम सम्बन्धी आदि का सामना करना पड़ता है। ये समस्याएँ उसके जीवन को अस्थिर कर देती हैं। इसी प्रकार विद्यालय एवं पास-पड़ोस का वातावरण भी व्यक्ति के संवेगात्मक संतुलन को बनाए रखने में बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। इन परिस्थितियों में यदि व्यक्ति को उचित निर्देशन सेवा न मिले तो व्यक्ति का व्यक्तित्व असामान्य हो जाता है एवं उसका संवेगात्मक विकास असंतुलित हो जाता है। इन समस्याओं के निराकरण हेतु निर्देशन सेवा आवश्यक होती है।
(5) व्यावसायिक स्तर पर निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Guidance at the Professional level)- आज व्यावसायिक क्षेत्रों में बहुत अधिक विविधता एवं प्रसार हो गया है। व्यावसायिक विविधता एवं वैयक्तित्व विभिन्नता के कारण यह निश्चित करना कठिन होता है कौन सा व्यवसाय किसके लिए ठीक है, कौन सा व्यवसाय व्यक्ति विशेष की रुचि एवं क्षमता के अनुरूप है या नहीं। इसके लिए निर्देशन सेवा की सहायता ली जा सकती है। आज समाज की पारिवारिक, धार्मिक, आर्थिक दशाओं में पर्याप्त अन्तर आ गया है। आज इस भौतिक युग में व्यक्ति की साधन सम्पन्नता को महत्त्व दिया जाता है न कि उसके गुणों को ऐसे वातावरण में व्यक्ति का मानसिक सन्तुलन बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उपयुक्त व्यवसाय का चयन कर उसमें प्रगति के अवसर प्रदान किए जाए जिससे व्यक्ति अपने भावी जीवन में सफल हो सके एवं अपनी मानवीय क्षमताओं का वांछित उपयोग कर सके तथा आगे चल कर वह अपने पारिवारिक जीवन एवं व्यावसायिक जीवन में सामंजस्य स्थापित कर सके। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में व्यावसायिक निर्देशन का विशेष महत्त्व है। व्यावसायिक निर्देशन के अभाव में व्यक्ति का न तो व्यक्तिगत जीवन में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है और न ही उससे शैक्षिक उपलब्धियों का वांछित उपयोग ही सम्भव हो सकता है। व्यावसायिक आधार पर निर्देशन की आवश्यकता निम्न बिन्दुओं पर हो सकती है-
(i) व्यवसाय चयन में
(ii) व्यावसायिक दक्षता प्रशिक्षण में एवं
(iii) समय-समय पर नवीन व्यावसायिक सूचनाओं एवं प्रशिक्षण हेतु
(6) राजनीतिक स्तर पर निर्देशन की आवश्यकता एवं महत्त्व (Need and Importance of Guidance on the Political level)
आज के इस लोकतान्त्रिक युग में राजनीतिक रूप से प्रत्येक व्यक्ति को सजग होना आवश्यक है। राजनीति जीवन का एक स्थाई अंग है। कोई भी राजनीति से अछूता नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर राजनीतिक जागरूकता अनिवार्य रूप से आवश्यक है। राजनीतिक आधार पर निर्देशन की आवश्यकता को निम्न बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) लोकतान्त्रिक मूल्यों के विकास हेतु (For Developing Democratic Values) – सन् 1947 में देश की स्वतन्त्रता के बाद भारत में लोकतन्त्रात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया। लोकतन्त्र में प्रत्येक व्यक्ति का अपना अलग महत्त्व होता है। लोकतन्त्र के स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि देश के प्रत्येक नागरिक लोकतान्त्रिक प्रणाली के गुणों में परिचित हों। प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का ज्ञान हो। सच्चे अर्थों में लोकतन्त्रीय प्रणाली का विकास तभी सम्भव है जब लोकतन्त्र के मूल्यों के विकास को प्राथमिकता दी जाए।
इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए हमारी शिक्षा व्यवस्था इस प्रकार नियोजित की गई है जिससे लोकतान्त्रिक मूल्यों का विकास हो सके। इन मूल्यों में हमारे अधिकार एवं कर्तव्य भी शामिल हैं तथा इसका भी ज्ञान शामिल है कि हम देश में योग्य प्रतिनिधियों का चयन कैसे करें जो की सरकार की रचना कर सके। देश की शासन व्यवस्था सुचारू ढंग से संचालित करते हुए जन आकांक्षाओं को पूरा कर सके। योग्य प्रतिनिधियों के चयन में पूर्ण निष्पक्षता एवं निःस्वार्थ भाव भी लोकतान्त्रिक मूल्यों में शामिल हैं। इन मूल्यों की शिक्षा के लिए निर्देशन सेवा उपयोगी और सहायक हो सकती है। अतः इस क्षेत्र में निर्देशन सेवा की आवश्यकता है।
(ii) राष्ट्रीय एकता एवं भावनात्मक एकता विकसित करने हेतु (For Developing National Integration and Emotional Integration)- प्रत्येक राष्ट्र के विकास एवं कल्याण के लिए यह आवश्यक है कि उसके नागरिक प्रसन्न हों, राष्ट्र से प्रेम करते हों और समृद्ध हों। यह तभी सम्भव है जब राष्ट्र के सभी नागरिकों के मन में राष्ट्रीय एकता की भावना हों। राष्ट्रीय नागरिक अपने वैयक्तिक लाभों की परवाह न करते हुए राष्ट्र के विकास हेतु तत्पर होते है। राष्ट्रीय एकता की भावना विकसित करने के लिए आवश्यक है कि राष्ट्र के नागरिक जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र आदि की परिधि से ऊपर उठकर अपने कर्तव्यों को पूरा करने में निष्ठापूर्वक संलग्न हों।
राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को हानि पहुँचाने वाली प्रवृत्तियों को पहचाना जाए और लोगों को उसका ज्ञान कराया जाए। राष्ट्रीय एकता हेतु कार्य करने वाले विभिन्न धर्मो के महापुरुषों के जीवन एवं कार्यों से लोगों को परिचित कराया जाए जिससे कि लोग प्रेरणा ले सकें।
राष्ट्र के ऐसे प्रान्त जहाँ अक्सर साम्प्रदायिक दंगे हो जाते हैं वहाँ पर बड़ी सतर्कता एवं समयबद्ध नियोजन के अनुसार राष्ट्रीय एकता हेतु कार्य करने की आवश्यकता है। इस सबके लिए निर्देशन सेवा सहायता का एक उपयुक्त माध्यम हो सकती है।
(iii) अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने हेतु (For Developing the Spirit of Internationalism) – आज जिस प्रकार से दुनिया में वर्चस्व स्थापित करने के लिए कुछ देशों में होड़ लगी हुई है उससे विश्व शान्ति को खतरा महसूस होने लगा है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश एवं विश्व का दूसरा सर्वाधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र है। इस कारण विश्व शान्ति स्थापित करने एवं बनाए रखने में उसकी महती जिम्मेदारी है। इस जिम्मेदारी का निर्वहन राष्ट्र तभी कर सकता है जबकि सभी भारतीय नागरिक अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना से युक्त हों, उनमें भारतीय नागरिक होने के साथ-साथ विश्व नागरिकता का भी बोध हो। यह विश्व नागरिकता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में निर्देशन सेवाएँ सहायक हो सकती हैं।
आज विश्व प्रत्येक देश आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में एक-दूसरे पर आश्रित हैं। ऐसे में विश्व शान्ति स्थापित करने, उसके स्थायित्व, सुव्यवस्था एवं विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना अति आवश्यक है। मानवता, विश्वशान्ति एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना हेतु विभिन्न स्तरों पर निर्देशन सेवाएँ सहायक हो सकती हैं।
(iv) अच्छे नागरिक विकसित करने हेतु (For Developing the Good Citizens)- एक राष्ट्र का विकास भौतिक एवं प्राकृतिक संसाधनों के साथ-साथ वहाँ के नागरिकों पर भी निर्भर करता है। यदि एक राष्ट्र के नागरिक राष्ट्र की व्यवस्था में सहयोग करते हैं, विश्वास करते हैं एवं राष्ट्र से प्रेम करते हैं तो निश्चित रूप से उस राष्ट्र का विकास होगा इसलिए आवश्यक है कि राष्ट्र प्रत्येक नागरिक में अच्छी नागरिकता के गुण हों। उसे अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों का भली-भाँति ज्ञान हो, अपने उत्तरदायित्वों का बोध हो, के सजगता एवं सक्षमता हो। राष्ट्र के नागरिकों में उच्च स्तर नागरिकता के गुणों बोध कराने में निर्देशन सेवाएँ सहायक हो सकती हैं।
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