भारतीय दर्शन और पश्चात्य दर्शन में अंतर
दर्शन सार्वभौमिक एवं सर्वव्यापी है एवं इसका एकमात्र लक्ष्य ज्ञान की खोज करना है। अतः ज्ञान की विवेचना भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही दर्शनों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की है। भारतीय दर्शन का आधार संश्लेषण एवं पाश्चात्य दर्शन का आधार विश्लेषण है। अतः हम कह सकते हैं कि भारतीय दर्शन संश्लेषणात्मक एवं पाश्चात्य दर्शन विश्लेषणात्मक है। भारतीय एवं पाश्चात्य दर्शन की विवेचना निम्नलिखित है-
(1) पूर्वी (भारतीय दर्शन) की व्युत्पत्ति ‘दृश’ धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है गहन अवलोकन (चिन्तन, मनन)। भारतीय दर्शन में दर्शन के व्यापक अर्थ पर बल दिया जाता है न कि संकुचित अर्थ पर। भारतीय दर्शन में मानवीय दर्शन के अति विस्तृत स्वरूप का सृजन किया जाता है। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन की उत्पत्ति ग्रीक भाषा के Philosophy (फिलॉसफी) शब्द से हुई है जो कि दो शब्दों से मिलकर बना है (Philos एवं Sophia) Philo का अर्थ होता है ‘ज्ञान के प्रति ‘ और ‘ Sophia’ का अर्थ होता है ‘अनुराग या प्रेम। अतः Philosophy का शाब्दिक अर्थ होता है ‘ज्ञान के प्रति प्रेम। पाश्चात्य दर्शन के दृष्टिकोण के अनुसार दर्शन का एकमात्र उद्देश्य ज्ञान की खोज करना होता है। पाश्चात्य दर्शन को एक शुद्ध बौद्धिक विषय माना जाता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण के अनुसार वास्तविक जीवन से दर्शन का कोई सम्बन्ध नहीं होता है। पाश्चात्य दृष्टिकोण के अनुसार जिस ज्ञान का प्रयोग केवल बौद्धिक विकास के लिए हो उस ज्ञान का उपयोग समाज एवं मानवीय जीवन में नहीं हो सकता।
भारतीय दर्शन में ज्ञान को केन्द्र बिन्दु माना गया है जो जीवन पथ को अलोकित करता है। ज्ञान को ही मोक्ष प्राप्ति का एकमात्र साधन माना है। अर्थात् ज्ञान ही वह साधन है जिसके माध्यम से मनुष्य जीवन-मरण के बन्धनों से मुक्त होता है जबकि पाश्चात्य दर्शन में जीवन के तत्वों को स्पर्श करने का सर्वथा अभाव है।
(2) भारतीय दर्शन समानान्तर क्षितिज विकास का अनुकरण करता है। भारतीय दर्शन के अन्तर्गत् एक ही समय में पृथक-पृथक विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ है अर्थात भारतीय दर्शन में उदारता का गुण विद्यमान है जिसका उदाहरण है बौद्ध धर्म, जन धर्म, योग दर्शन एवं सांख्य दर्शन जिनका का विकास अपने विचारों के आधार पर पृथक-पृथक हुआ जबकि सबके सिद्धान्त एवं विचार अलग-अलग हैं। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन ऊर्ध्वाधर विकास का अनुसरण करता है जिसे विभिन्न पाश्चात्य दार्शनिकों के विचारों से समझा जा सकता है। इन पाश्चात्य दार्शनिकों में प्लेटो, रूसो, सुकरात, अरस्तु आदि आते हैं।
(3) भारतीय दर्शनिकों (चार्वाक के अतिरिक्त) ने अपने दार्शनिक विचारों में सम्प्रदाय की स्वतन्त्रता पर विशेष बल दिया है। भारतीय दर्शनिकों साम्प्रदायिक स्वतन्त्रता की प्राप्ति के लिए अपने-अपने तरीकों पर बल दिया। सभी दार्शनिकों का मूल उद्देश्य सम्प्रदाय की स्वतन्त्रता था फिर वह दार्शनिक बुद्ध हों, महावीर जी हों या शंकराचार्य जी हों। इन सभी दार्शनिकों ने मानव को स्वतन्त्र बनाने एवं उसके कष्टों के निवारण हेतु विचारों को प्रस्तुत किया। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन में बौद्धिक उत्सुकता का केन्द्र बिन्दु तत्व मीमांसा एवं मूल्य मीमांसा के स्वरूपों के प्रति था। किसी भी पाश्चात्य दार्शनिक ने स्वतन्त्रता प्राप्त करने के लिए विचार प्रस्तुत नहीं किया है।
(4) भारतीय दर्शनिकों ने अपने दार्शनिक विचारों के माध्यम से मनुष्य को दुःखों से मुक्ति का मार्ग दिखाया है। भारतीय दर्शनिकों ने अपने-अपने दर्शन का विकास स्वतन्त्र रूप से किया है। भारतीय दर्शनिकों ने अपने दर्शन में वास्तविक ज्ञान के स्वरूप की व्याख्या प्रस्तुत की है। भारतीय दर्शन का आधार अनुभूत ज्ञान है इस ज्ञान की पुष्टि तर्क के आधार पर की जा सकती है।
(5) भारतीय दर्शन धर्म पर आधारित है। वहीं दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन आधुनिक विचारों पर आधारित होता है। पाश्चात्य दर्शन का विकास उन कौतूहल को शान्त करने के फलस्वरूप हुआ जो कौतूहल आश्चर्यजनक वस्तुओं एवं क्रियाओं को देखने से उत्पन्न हुआ। पाश्चात्य दर्शन की सामग्री मानव शास्त्र, समाज शास्त्र एवं राजनीति शास्त्र पर आधारित होती है। पाश्चात्य दर्शन के अन्तर्गत् समस्त ज्ञान-विज्ञान की व्याख्या का किया गया है। पाश्चात्य दर्शन पूर्णतः तर्क पर आधारित है।
(6) भारतीय दर्शन में आत्म ज्ञान पर बल दिया गया है। अर्थात् भारतीय दर्शन में ‘आत्मा’ का दर्शन मिलता है। दूसरी ओर पाश्चात्य दर्शन सामान्यतः मानववाद पर आधारित होता है।
(7) भारतीय दर्शन का आधार आध्यात्मिकता है अर्थात् भारतीय दर्शन का आध्यात्मवादी है। भारतीय दर्शन विश्व एवं जीवन के आधार को समझ कर अचानक ही निराशावादी हो जाता है। इसके विपरीत पाश्चात्य दर्शन आधुनिकता एवं दृष्टिकोण भौतिकवादी सिद्धान्तों पर आधारित है। यही घोर भौतिकवाद ही पश्चिमी देशों में संघर्षो एवं क्रान्ति की जड़ रहा है।
पूर्वी (भारतीय) दर्शन | पाश्चात्य दर्शन |
(1) भारतीय दर्शन आध्यात्मिक दृष्टिकोण पर आधारित है। | (1) पाश्चात्य दर्शन मानववादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं। |
(2) मनुष्य को सांसारिक दुःखों से मुक्ति दिलाना मुख्य उद्देश्य है। | (2) मनुष्य को सांसारिक सुख (भौतिकता) की । प्राप्ति के लिए अग्रसर होने पर बल दिया। |
(3) अधिकांश भारतीय दर्शन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के वास्तविक स्वरूप एवं उसके अन्तर्गत मनुष्य के स्वरूप की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। | (3) अधिकांश पाश्चात्य दर्शन केवल मनुष्य के स्वरूप की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं। |
(4) भारतीय दर्शन वास्तविक ज्ञान के स्वरूप की व्याख्या का प्रयास करते हैं। | (4) पाश्चात्य दर्शन ज्ञान-विज्ञान की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं। |
(5) अधिकांश भारतीय दर्शनों का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ है। | (5) अधिकांश पाश्चात्य दर्शनों का धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। |
(6) भारतीय दर्शन को आज भी तत्व मीमांसा के आधार पर देखा जाता है। | (6) पाश्चात्य दर्शन को ज्ञान एवं विज्ञान की व्याख्या के रूप में देखा जाता है। |
उपर्युक्त बिन्दुओं की विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता है कि भारतीय दर्शन में आध्यात्मिकता, नैतिकता एवं वास्तविकता को संश्लेषित करके दार्शनिक विचार प्रस्तुत किए गये हैं। भारतीय दर्शन में मोक्ष को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक मूल्यों की अधिकता है। इन्हीं आध्यात्मिक मूल्यों के अनुसार आचरण करने वाले मार्गों की खोज की जाती है। भारतीय दर्शन में बौद्धिकता एवं निरर्थक कल्पनाओं का कोई स्थान नहीं है। इसके विपरीत पाश्चात्य दर्शन सैद्धान्तिक प्रयोजनों पर आधारित है जिनके क्रमबद्ध विकास पर बल दिया गया है। पाश्चात्य दर्शन नीति एवं धर्म की कोई प्रेरणा नहीं देता है। पाश्चात्य दर्शन में सांसारिक सुख के साधनों को विशेष महत्व दिया गया है।
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