प्रकृतिवाद का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Naturalism)
प्रकृतिवाद को भौतिकवाद अथवा पदार्थवाद की संज्ञा भी दी जाती है। इस दर्शन के अनुसार पदार्थ ही जगत का आधार है। मन भी पदार्थ का रूप है अथवा पदार्थ का एक तत्व है अथवा दोनों का मेल है। प्रकृतिवादी दर्शन पदार्थ, मन तथा जीवन की व्याख्या भौतिक तथा रासायनिक नियमों के द्वारा शक्ति, गति, प्रकृति के नियमों एवं कार्यकारण सम्बन्ध (Casual Relationship) की सहक्रिया पर बल देता है। प्रकृतिवाद के अनुसार केवल प्रकृति ही सब कुछ है, इससे परे अथवा इसके बाद और कुछ नहीं है। अतः मानव को प्रकृति की खोज करनी चाहिए जो केवल विज्ञान द्वारा ही हो सकती है। प्रकृतिवादियों का विश्वास है कि वर्तमान सभ्यता तथा सामाजिक विकास के कारण मानव प्रकृति से दूर हो गया है। प्रकृति के निकट आने पर उसका प्राकृतिक अथवा स्वभाविक विकास हो सकेगा। इस प्रकार प्रकृ तिवादियों के अनुसार अन्तिम सत्ता प्रकृति अथवा भौतिक तत्व है। वे आदर्शवादियों की भाँति आध्यात्मिकता में विश्वास करते हुए ईश्वर की सत्ता, आत्मा की अमरता एवं इच्छा की स्वतन्त्रता को स्वीकार नहीं करते। संक्षेप में, प्रकृतिवादी दर्शन मन को पदार्थ के अधीन मानते हुए विश्वास करता है कि अन्तिम सत्ता भौतिक है, आध्यात्मिक नहीं।
प्रकृतिवादी के समर्थकों में अरस्तु (Aristotle), काम्टे (Comte), हॉब्स (Hobbes), बेकन (Bacon), डार्विन (Darwin), लैमार्क (Lamark), हक्सले ( Huxley), हरबर्ट स्पेन्सर (Herbart Spencer). बरनार्ड शॉ (Bernard Shaw) तथा रूसो (Rousseau) आदि दार्शनिकों के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
प्रकृतिवाद की परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं-
(1) ब्राइस के अनुसार, प्रकृतिवाद एक प्रणाली है और जो कुछ आध्यात्मिक है, उसका बहिष्कार ही उसकी प्रमुख विशेषता है।”
According to Brais, “Naturalism is a system where salient feature is the exclusion of whatever is spiritual.”
(2) थॉमस और लैंग के अनुसार, प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधीन मानता और यह विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता भौतिक है, आध्यात्मिक नहीं।”
According to Thomas and Lang, “Idealism is considered as opposite to naturalism which inclined to materialism and believes that ultimate fact is material and not religion.”
प्रकृतिवादी दर्शन (Naturalism Philosophy)
प्रकृतिवादी दर्शन के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित हैं-
(1) प्रकृतिवाद एवं ज्ञान मीमांसा (Naturalism and Epistemology)- ज्ञान मीमांसा या ज्ञान शास्त्र (Epistemology) दर्शन शास्त्र का वह अंग है जो ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान के अर्थ, ज्ञानार्जन की ज्ञानार्जन की सार्थक विधियाँ, ज्ञान की सीमा एवं ज्ञानार्जन सम्बन्धी समस्याओं पर विचार करता है। ‘ज्ञान’ को अर्थ की दृष्टि से सत्य ज्ञान (True Knowledge) तथा मिथ्या ज्ञान (False Knowledge) दो रूपों में लिया गया है। स्वरूप की दृष्टि से ज्ञान के दो भाग हैं प्रत्यक्ष (Direct) तथा अप्रत्यक्ष (Indirect) या परोक्ष। ज्ञान असीमित है। अतः इसे मनुष्य जीवन-भर पूरी तरह प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञानार्जन की पद्धति की दृष्टि से ज्ञान को इन्द्रियजन्य (Sensual) तथा विवेकजन्य (Rational) माना जाता है। इस सम्बन्ध में लोग एक मत नहीं हैं। सन्देहवाद ज्ञान को मनुष्य की सम्पत्ति मानकर उसके विकास की सम्भावनाओं को स्वीकार नहीं करता। बर्कले, ह्यूम और लॉक (Locke) आदि के अनुसार ज्ञान इन्द्रियजन्य और अनुभव पर आधारित है। इन्द्रियाँ ही मनुष्य को बाह्य जगत का प्रत्यक्ष ज्ञान देती है। अनुभववाद के अनुसार वही बोध ज्ञान है जो बाह्य हो और परीक्षण में वास्तविक हो । ज्ञान का सार्वभौमिक (Universal) होना ही सत्य है। एक अन्य मत के अनुसार बुद्धि सत्य का आधार है, इसलिए बुद्धि के बिना ज्ञानार्जन सम्भव नहीं होता। विवेकवाद या बुद्धिवाद (Rationalism) के अनुसार बाह्य जगत का प्रत्यक्षीकरण विवेक अथवा बुद्धि से होता है इस प्रकार अर्जित ज्ञान संवेदना (Sensation) न होकर पूर्ण ज्ञान की इकाई होता है। इस वाद के समर्थकों में देकार्ते, स्पिनोजा तथा लाइबनीज आदि हैं। ये मत सत्य और असत्य दोनों के मिश्रण हैं।
काण्ट (Kant) दोनों में समन्वय स्थापित करने के लिए इन्द्रियों और मन दोनों को स्वीकार करता है। उसके अनुसार, “इन्द्रियजन्य संवेदनाओं के योग से जो अनुभव होता है, वही ज्ञान है।” मन इस इन्द्रियजन्य ज्ञान को व्यवस्थित करके ठोस आधार प्रदान करता है। काण्ट के दर्शन को आलोचनावाद कहा गया है। बेकन (Bacon) अनुभववादी विवेकवादी और आलोचनावादी के सम्बन्ध में कहता है अनुभववादी इन्द्रियजन्य ज्ञान को ऐसे अर्जित करते हैं जैसे चीटियाँ दाना- दाना संचित करके अन्न संग्रह करती हैं। विवेकवादी लोग मकड़ी के समान अपने में स्वयं से ही जाले के समान ज्ञान का ताना-बाना बुनते हैं और आलोचनावादी मधुमक्खी के समान पुष्पों का रस (ज्ञान) बटोरकर छत्ते में (मन में) संचित करते हैं और व्यवस्थित करके मधु का रूप देते हैं।
प्रकृतिवाद के अनुसार ज्ञान प्रत्यक्ष और मौलिक होता है। उसकी दृष्टि में अनुभववाद ज्ञानार्जन के लिए सर्वोत्तम है। वह प्रत्यक्ष ज्ञान को अनुभवों द्वारा अर्जित ज्ञान मानता है। अनुभव के आधार पर मूलरूप से अनुभूत ज्ञान ही मौलिक होता है।
स्पेन्सर (Spencer) अपने विचार से ज्ञान को तीन भागों में विभाजित करता है। साधारण ज्ञान, विज्ञान तथा तत्व ज्ञान । इनके मतानुसार साधारण ज्ञान अव्यवस्थित और निम्न स्तर का होता है। यह असंगठित और ज्ञानांशों का समूह कहा जाता है। विज्ञान विशिष्ट ज्ञान है जो व्यवस्थित एवं संगठित होता है, परन्तु अपने में पूर्ण नहीं होता है। यह साधारण ज्ञान से अधिक ऊँचा होता है। तत्वज्ञान’ सर्वोत्तम और सर्वोच्च प्रकार का ज्ञान है जो स्वयं में पूर्ण व्यवस्थित और संगठित होता है। रूसो प्रकृतिवादी थे जिसने प्रत्यक्षीकरण (Perceptualisation) द्वारा अर्जित अनुभवों पर आधारित ज्ञान को अच्छा माना है।
प्रकृतिवादी प्रत्यक्ष ज्ञान का समर्थन करते हैं वे इन्द्रियों तथा अनुभव के माध्यम से ज्ञान की प्राप्ति पर बल देते हैं। यह ज्ञानेन्द्रियाँ ही हैं जिनके माध्यम से हमारा मस्तिष्क बाह्य संसार से सम्बन्ध स्थापित करता है। वे व्यक्ति को प्राथमिक स्थान तथा समाज को द्वितीयक स्थान प्रदान करते हैं। जन्म से मनुष्य अच्छा होता है। परमात्मा ने सबको अच्छा बनाया है, मनुष्य उसके साथ प्रतिक्रिया करता है, वे बुरी बन जाती हैं और मानव की चेतना कारण की आवाज है और कारण की आवाज प्रकृति की आवाज है।
(2) प्रकृतिवाद और तत्व मीमांसा (Naturalism and Metaphysics) प्रकृतिवाद में सत्ता का स्वरूप जानने और उसका सम्बन्ध स्थापित करने के लिए ‘प्रकृति’ अथवा दृव्य’ को विवेचना का विषय बनाया गया है। इससे सम्बन्धित चार वाद इस प्रकार हैं-
(i) परमाणुवादी प्रकृतिवाद (Atomistic Naturalism) – पाश्चात्य दर्शन में प्रकृतिवाद का उदय परमाणुवाद’ से ही हुआ। इस मत के समर्थक डिमाक्राइटिस और एपीक्यूरस। इनके अनुसार किसी ‘द्रव्य’ को विभाजित करते-करते एक स्थिति ऐसी आ जाती है कि उसके अंशों का और अधिक विभाजन नहीं हो पाता। यही परमाणु (Atom) होता है। जब इसकी सूक्ष्म विवेचना की जाती है तो एक ऐसी स्थिति आ जाती है जिसकी और अधिक विवेचना करना सम्भव नहीं होता। इस विवेचनात्मक स्थिति को हम परमाणुवाद (Atomism) कहते हैं। डिमाक्राइटिस इसी परमाणु को सृष्टि की इकाई मानता है। विविध परमाणुओं के संयोग से जो असंख्य, अविभाज्य और अनश्वर हैं, विश्व की रचना हुई। वे परमाणु रंग, रूप, आकार, मात्रा आदि की दृष्टि से भिन्न होते हैं। उसके अनुसार भारी परमाणु हल्के परमाणुओं की अपेक्षा शीघ्र नीचे गिरते हैं और मार्ग में एक दूसरे से संयोग करने लगते हैं। एपीक्यूरस इस बात को इसी रूप में स्वीकार नहीं करता। वह कहता है भारी परमाणु तीव्र गति से नीचे नहीं गिरते और सामान्य ढंग से संयोग भी नहीं करते। उसके अनुसार परमाणु जब गति बदलते हैं तो संयोग करते हैं। वह नियति को परोक्ष रूप में स्वीकार करता है, प्रत्यक्ष रूप में स्वीकार नहीं करता। इस प्रकार परमाणुवाद में संयोग-सम्बन्धी स्पष्ट दृष्टिकोण की भारी कमी है।
(ii) वैज्ञानिक प्रकृतिवाद (Scientific Naturalism) – परमाणुवाद की बहुत सी मान्यताएँ तब खण्डित हो गयीं जब वैज्ञानिक प्रयोग किए गए। विज्ञान से स्पष्ट हुआ कि भारी और हल्के सभी परमाणु समान गति से नीचे गिरते हैं। अब परमाणु ‘इलेक्ट्रॉन’ (Electron) तथा प्रोटॉन (Proton) में विभाजित किया गया। वैज्ञानिक प्रकृतिवाद प्रकृति को सत, तत्व और द्रव्य मानता है। परमाणु दृव्य की अन्तिम इकाई नहीं है वरन् अन्तिम इकाई एक ऊर्जा (Energy) है जो प्रकृति में निहित है तथा प्राकृतिक पदार्थों का संघटक है। सत् अर्थात् यथार्थ (Real) भी प्रकृति में निहित है। प्रकृति और विश्व स्वतः एक ऊर्जा (Energy) या विद्युत शक्ति (Electric Power ) के कारण हैं। इस धारणा से शक्ति को प्राथमिकता मिली। इसलिए वैज्ञानिक प्रकृतिवाद को ‘शक्तिवाद’ भी कहा जाता है।
प्रकृतिवाद की वैज्ञानिक विचारधारा ने प्रकृति और मनुष्य के सम्बन्ध को स्पष्ट किया। उसने मनुष्य को ज्ञानेन्द्रियों (Sense organs) तथा भौतिक अंगों (Physical Organs) का एक योग माना है। वह आत्मा (Soul) को नहीं मानता। परमाणु की शक्ति प्राकृतिक विकास के साथ चेतना को व्यक्त करती है। ईश्वर की सत्ता को भी नहीं मानता। वह नहीं मानता कि विश्व और मानव या वह जीव में कोई ईश्वरीय सत्ता है। प्राकृतिक नियमों से ही विश्व गतिमान और क्रियाशील है। प्राकृतिक नियम शाश्वत् और समरूप (Uniform) हैं। यह सब स्थायी कार्य-कारण सम्बन्ध (Causal Relationship) का परिणाम है। प्रकृति शाश्वत् होने के कारण कोई प्रयोजन नहीं रखती।
(iii) यन्त्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanistic Naturalism) – यन्त्रवादी प्रकृतिवाद, वैज्ञानिक प्रकृतिवाद की भाँति ईश्वर और आत्मा को नहीं मानता। सृष्टि-चक्र प्राकृतिक शाश्वत् नियमों से निष्प्रयोजन और कार्य-कारण सम्बन्धों के आधार पर चल रहा है। प्रकृति के सभी कार्य यन्त्रवत् चलते हैं, इनका कोई प्रयोजन (Purpose) नहीं होता। वह प्रकृति में होने वाली गतियों को घटनाओं का कारण मानता है। ये गतियाँ या परिस्थितियाँ स्वतः उत्पन्न होने वाली है। ये ही कार्य को जन्म देती हैं। विज्ञान कार्य के कारण को भूतकाल में देखता है। दर्शन और मनोविज्ञान खोज के लिए आगे की ओर देखते हैं। यही बात विकासवादी दार्शनिक भी मानता है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन यन्त्रवत् नहीं होते वे एक सत्ता से प्रभावित और संप्रयोजनात्मक होते हैं। विकासवाद ने प्रकृतिवाद को एक सार्थक अस्तित्व दिया। शारीरिक अंगों का संचालन सप्रयोजन है, यन्त्रवत् नहीं।
(iv) ऐतिहासिक प्रकृतिवाद (Historical Naturalism) – इसके अनुसार मानव विकास का इतिहास उसके संघर्षों का इतिहास है। साम्यवादी लोग मानव-संघर्ष आदर्श की प्राप्ति के लिए नहीं वरन् सम्पत्ति-संग्रह के लिए मानते हैं। कुछ दार्शनिक ऐतिहासिक प्रकृतिवाद को दार्शनिक विचारधारा नहीं मानते। दर्शन कभी आर्थिक क्रियाओं को तत्व ज्ञान में कोई स्थान नहीं देता। प्रकृतिवादियों का यह विश्वास है कि अन्तिम वास्तविकता ‘पदार्थ’ है और यह प्रकृति में पूर्ण रूप से विद्यमान है। प्रकृति ही सम्पूर्ण वास्तविकता है। यहाँ प्रकृति से परे, प्रकृति से पीछे तथा प्रकृति के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
प्रकृति के नियम शाश्वत् तथा अपरिवर्तनशील है। वे अलौकिक संसार में कोई विश्वास नहीं रखते हैं। मनुष्य स्वयं में पदार्थ है और उसका मन उसके मस्तिष्क की क्रिया का परिणाम है। वही सब कुछ है जो कुछ भी इन्द्रियाँ अनुभव करती हैं वही वास्तविक है। सत्य, वातावरण तथा परिस्थितियों का परिणाम है और इसलिए सापेक्ष है। सभी दार्शनिक समस्याओं का अन्तिम तथा सामान्य उत्तर प्रकृति में ही विद्यमान है।
(3) प्रकृतिवाद एवं मूल्य मीमांसा (Naturalism and Axiology)- प्रकृतिवाद प्रकृति के सौन्दर्यात्मक मूल्यों पर बल देता है। प्रकृति में मूल्य निवास करते हैं। इसमें बाह्य शाश्वत् तथा अन्तिम मूल्य नाम की कोई चीज नहीं है। प्रकृतिवादियों का विचार है कि जीवन का मूल्य जीवन की आवश्यकताओं व स्थितियों से उत्पन्न होता हैं। इसलिए मूल्य सापेक्ष तथा परिवर्तनशील होते हैं। प्रकृतिवाद यह भी मानता है कि नैतिकता भी सापेक्ष है। वह क्रिया जो खुशी प्रदान करती है, नैतिक है और खुशी या प्रसन्नता ही नैतिकता का आधार है। रूसो के अनुसार, “मनुष्य स्वतन्त्र पैदा होता है परन्तु हर जगह वह जंजीरों में जकड़ा होता है।”
According to Rousseau, “Man is born free but everywhere he is found in chains.”
अतः प्रकृतिवादी यह मानते हैं कि प्रकृति के अनुसार रहना ही सबसे उत्तम प्रकार का जीवन है। प्रकृति का अनुगमन करो’ (Follow Nature) यही उनका नारा है।
प्रकृतिवाद के सिद्धान्त (Principles of Naturalism)
प्रकृतिवाद के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-
(1) मनुष्य की समस्त शक्तियाँ उसकी प्रकृति के अनुसार सीमित हैं। यह अपनी जन्मजात शक्तियों तथा मूल प्रवृत्तियों के सिवाय और कुछ नहीं है।
(2) वर्तमान जीवन वास्तविक जीवन है। इसके पश्चात् कोई अन्य जीवन अथवा दूसरी दुनिया नहीं है। अतः मनुष्य को अपने वर्तमान जीवन को सुखी बनाना चाहिए।
(3) अपरिवर्तनीय प्राकृतिक नियम संसार की समस्त घटनाओं को स्पष्ट करते हैं।
(4) मनुष्य के सांसारिक जीवन की भौतिक दशाओं में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने का श्रेय वैज्ञानिक खोजों तथा मशीनों के अविष्कारों को है। अतः प्राकृतिक विज्ञानों का ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है।
(5) विचार प्राकृतिक वातावरण पर निर्भर करते हैं। इनका जन्म उस समय होता है जब किसी नाड़ी, नस अथवा पुट्ठे पर किसी प्राकृतिक उत्तेजना का प्रभाव पड़ता है।
(6) संसार (Universe) एक महान यंत्र है। मनुष्य भी इस महान यंत्र का भाग है और अपने में पूरा भी।
(7) मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुसार पृथ्वी का उच्चतम पशु है। अतः उसके जीवन का सार पाश्विकता है, न कि आध्यात्मिकता।
(8) वास्तविकता केवल बाह्य प्रकृति की ही होती है। प्रत्येक वस्तु प्रकृति से उत्पन्न होती है तथा इसी में विलीन हो जाती है परन्तु प्रकृति के बाह्य नियम कभी नहीं बदलते।
(9) वास्तविकता की सच्ची व्याख्या केवल प्राकृतिक विज्ञान के द्वारा ही हो सकती है।
(10) जीवन प्राणविहीन पदार्थ से विकसित होता है तथा भौतिक एवं रासायनिक प्रभावों का समूह होता है।
(11) अन्तिम सत्ता भौतिक तत्व है। ईश्वर, अन्तरात्मा, मन, परलोक इच्छा की स्वतन्त्रता, नैतिक प्रवृत्तियाँ, प्रार्थना तथा अमानवीय चमत्कार सब भ्रम है।
प्रकृतिवाद के विभिन्न रूप (Various Form of Naturalism)
प्रकृतिवाद के विभिन्न रूप निम्नलिखित है-
(1) पदार्थवादी प्रकृतिवाद (Physical Naturalism) – यह भौतिक विज्ञान के आधार पर सम्पूर्ण सत्य को जानने का प्रयत्न करता है। इसके अन्तर्गत् मानव के अनुभव, विचार आदि उसको उसी के आधार पर समझने का प्रयत्न करते हैं।
(2) यन्त्रवादी प्रकृतिवाद (Mechanical Naturalism) – सम्पूर्ण विश्व को एक यन्त्र मानकर चलते हैं। विश्व में जो क्रियाएं होती हैं, उनकी प्रतिक्रिया होती है। मानव को मशीन मानकर वातावरण और सहज प्रक्रिया के माध्यम से उसे समझाने का प्रयत्न करता है।
(3) जैविक प्रकृतिवाद (Biological Naturalism) – इसमें मानव की व्याख्या विकास के आधार पर होती है। संसार में हर प्राणी अपना अस्तित्व बनाए रखना चाहता है। प्रकृ तिवाद के इस रूप से शिक्षा का प्रकृतिवादी दर्शन विकसित हुआ है।
प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएँ (Characteristics of Naturalistic Education)
प्रकृतिवादी शिक्षा की विशेषताएँ निम्नलिखित है-
(1) प्रकृति की ओर लौटो (Back to the Nature) – प्रकृतिवाद शिक्षण की मुख्य विशेषता यह है कि बालक के शिक्षण का प्रबन्ध शहर के कृत्रिम वातावरण से प्रकृति के मनोरम प्रांगण में रखते हुए उसकी प्रकृति के अनुसार शिक्षित करने का निश्चय किया। रूसो के अनुसार, “प्रकृति के निर्माता के हाथों में सभी वस्तुएँ दूर ले अच्छे रूप में मिलती हैं, परन्तु मानव के सम्पर्क में आते ही वे सब दूषित हो जाती हैं।”
(2) पुस्तकीय ज्ञान का विरोध (Opposition of Bookish Knowledge)- प्रचलित शिक्षा में बालक को ग्रीक तथा लैटिन भाषाओं की पुस्तकों को बलपूर्वक रटाकर ज्ञानी बनाने का प्रयास किया जाता था। प्रकृतिवाद ने इस पुस्तकीय ज्ञान का विरोध किया और बालक के जीवन को क्रियाशील रूप से प्रभावित करके स्वाभाविक विकास पर बल दिया।
(3) प्रगतिवादी (Progressive) – प्रगतिवादी शिक्षा बालक को एक गत्यात्मक प्राणी मानती है जिसका विकास निरन्तर होता रहता है। इस विकास की चार भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं-
(i) शैशव,
(ii) बाल्य,
(iii) किशोर, एवं
(iv) प्रौढ ।
इन चारों स्थितियों में से प्रत्येक स्थिति की अलग-अलग विशेषताएँ होती हैं – प्रकृ तिवादियों ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षा की व्यवस्था इन स्थितियों को ध्यान में रखते हुए होनी चाहिए।
(4) निषेधात्मक शिक्षा (Prohibitive Education)- जे. एस. रॉस के अनुसार, “निषेधात्मक शिक्षा से अभिप्राय उस शिक्षा से है जो बालक की प्रवृत्तियों एवं शक्तियों के अनुसार दी जाती है यह गुण की शिक्षा नहीं, अपितु अवगुण से रक्षा करती है। इससे सत्य की शिक्षा नहीं होती, पर गलती से बचाती है। यह बालक को उस मार्ग पर चलने देती है, जो उसे बड़ा होने पर सत्य की ओर ले जाएगा। यह मार्ग बालक को उस अच्छाई की ओर ले जाएगा जब उसमें अच्छाई को पहचानने की योग्यता पैदा हो जाएगी।
(5) बालक की प्रधानता (Importance of the Child)- प्रकृतिवादियों का मत है कि बालक शिक्षा के लिए नहीं बल्कि शिक्षा बालक के लिए हैं। अतः उनके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था इस प्रकार की होनी चाहिए कि बालक अपनी जन्मजात शक्तियों तथा रूचियों, अभिरूचियों को अपनी इच्छा के अनुसार विभिन्न क्रियाओं में भाग लेकर बिना किसी सहायता के स्वयं ही विकसित कर सके।
(6) बालक की स्वतन्त्रता पर बल (Emphasis on Freedom of the Child) – प्रकृतिवादी शिक्षा प्रणाली बालक को हर प्रकार के बन्धनों, बाधाओं तथा उलझनों से मुक्त करके स्वतन्त्र वातावरण में विकसित होने पर बल देती है।
(7) मनोवैज्ञानिक तत्वों पर बल (Emphasis on the Training of the Senses) – प्रकृ तिवादी बालक के मस्तिष्क में ज्ञान को बाहर से देने के विरोधी हैं। उसके अनुसार ज्ञान को प्रभावशाली बनाने के लिए इन्द्रियों को प्रशिक्षित करना परम आवश्यक है।
प्रकृतिवाद एवं शिक्षा (Naturalism and Education)
प्रकृतिवाद एवं शिक्षा के सम्बन्ध को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
शिक्षा के उद्देश्य एवं प्रकृतिवाद (Aims of Education and Naturalism)
शिक्षा के उद्देश्यों के बारे में प्रकृतिवादी एक मत नहीं हैं। विभिन्न प्रकृतिवादियों ने इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न विचार प्रस्तुत किए हैं। प्रकृतिवादी शिक्षा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
(1) उचित सहज सम्बद्ध क्रियाओं का निर्माण (Formation of Appropriate Conditional Reflexes) – पदार्थवादी प्रकृतिवादियों का शिक्षा के क्षेत्र में कोई भी योगदान नहीं है, अतएव उनके द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्यों का प्रश्न ही नहीं उठता। यन्त्रवादी प्रकृतिवादियों के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मानव में ऐसी सम्बद्ध सहज क्रियाओं का निर्माण करना है जो उसके वर्तमान जीवन के लिए उपयोगी सिद्ध हों। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि इन प्रकृतिवादियों के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में इस प्रकार के विचारों, क्रियाओं और आदतों का निर्माण करना जो उसे उचित समय पर उसी प्रकार सहायता प्रदान करें जिस प्रकार कि यन्त्र के पुर्जे करते हैं। शिक्षा का कार्य व्यक्ति में इस प्रकार के व्यवहार का विकास करना है जिससे कि वह मशीन की तरह कुशलतापूर्वक कार्य करता रहे। शिक्षा के इस उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रॉस ने अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है, “व्यवहारवादी शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य सम्बद्ध सहज क्रियाओं की स्थापना करना होना चाहिए जो वर्तमान जीवन के हेतु उपयुक्त क्रिया तथा विचार की आदतें हैं ।”
According to F.S. Ross, “In behaviourist terms, the main aim of education must be to establish the conditioned reflexes that are the habits of action and thought appropriate to modern life.”
(2) अनुशासन के क्षेत्र में दमन का विरोध (Opposition of Repression in the Field of Discipline)- प्रकृतिवाद का नारा है – वैयक्तिकता, क्रिया तथा स्वतन्त्रता। अतः प्रकृतिवाद दमन (Repression) का विरोध करके बालक के स्वभाविक विकास हेतु अनियन्त्रित स्वतन्त्रता प्रदान करता है तथा ‘बालक को अपने किए का फल भोगने दो’ के सिद्धान्त पर अनुशासन की व्यवस्था करता है। आधुनिक शिक्षा में बालक की स्वतन्त्रता केवल प्रकृतिवाद की ही देन है।
(3) प्रजातीय एकता की प्राप्ति (Achievement of Racial Improvement ) – बर्नार्ड शॉ आदि कुछ प्रकृतिवादियों का मत है कि एक जाति जो संस्कृति एवं सभ्यता अर्जित करती है उसका वंशानुक्रम द्वारा हस्तान्तरण नहीं हो सकता। अतएव शिक्षा का उद्देश्य इन प्रजातीय प्राप्तियों की सुरक्षा एवं उनके विकास की गति को तीव्र करना होना चाहिए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही रॉस ने लिखा है, “जातीय प्राप्तियों के संरक्षण एक सन्तति से दूसरी सन्तति को सौंपने और उन्हें विकसित करने का नाम ही शिक्षा है।”
According to F.S. Ross, “Education; then in the preservation, the handling on and the enhancement of these racial gains, generation by generation.”
(4) अनुभव प्रधान पाठ्यचर्या पर बल (Emphasis on Experience Centred Curriculum)- प्रकृतिवाद विषय प्रधान पाठ्यचर्या के विरुद्ध अनुभव प्रधान पाठ्यक्रम का समर्थन करता है जिसके अनुसार पाठ्यचर्या में बालक के अनुभवों को सम्मिलित किया जाता है तथा पाठ्यान्तर एवं सहगामी क्रियाओं पर विशेष बल दिया जाता है। इसके लिए आधुनिक शिक्षा प्रकृतिवाद के लिए आभारी है।
(5) जीवन संघर्ष के लिए तैयार करना (Preparing for the Life Struggle)- डार्विन जीवन के लिए संघर्ष तथा समर्थ की विजय नामक सिद्धान्त में विश्वास करता था। इस सिद्धान्त के अनुसार, मानव का विकास जीवन में संघर्षों के द्वारा ही हुआ है।
(6) मूल प्रवृत्तियों का शोधन, मार्गान्तरीकरण और समन्वय (Purification, Re- direction and Coordination of Basic Instincts) – कुछ प्रकृतिवादी विचारक सुखवादी उद्देश्य का विरोध करते हैं। इन विचारकों में मैग्डूगल का नाम उल्लेखनीय है। उनके अनुसार, “शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को उन उद्देश्यों को प्राप्त करने के योग्य बनाना है जो प्रकृति ने उसके सम्मुख रखे हैं और जिनका वैयक्तिक और सामाजिक मूल्य है।” रॉस ने मैग्डूगल की शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य सहज प्रवृत्तियों, ऊर्जाओं का शोधन, सहज आवेगों का मार्गान्तरीकरण, समन्वय और तालमेल करना है।”
(7) मानव यन्त्र को पूर्ण बनाना (To Make Human Machines Perfect) – यन्त्रवादियों के अनुसार, यह सम्पूर्ण विश्व एक महान् यन्त्र के समान है। मनुष्य इस बड़े यन्त्र का एक भाग है तथा अपने में पूर्ण भी। अतः शिक्षा का उद्देश्य बालक में इस प्रकार के व्यवहार को विकसित करना है कि वह एक कुशल यन्त्र की भाँति कार्य कर सके। रॉस ने इसी विचार की पुष्टि करते हुए लिखा है- “शिक्षा का कार्य है कि वह मानव यन्त्र को अधिक से अधिक अच्छा बनाए जिससे वह अपने आगामी जीवन में आने वाली समस्याओं को कुशलतापूर्वक सुलझा सके।
According to F.S. Ross, “Education should make the human machine as good a machine as possible by attending to its constitution by elaborating it and making it capable of more and more complicated tasks.”
(8) शिक्षण पद्धतियों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण ट्रेन (Important Contribution in the Field of Methods of Teaching)- प्रकृतिवाद ने बालक को उसकी प्रकृति के अनुसार विकसित करने पर बल दिया जिसके परिणामस्वरूप शिक्षण पद्धतियों के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। विभिन्न शिक्षण पद्धतियाँ जैसे – ह्यूरिस्टिक पद्धति, डाल्टन पद्धति, निरीक्षण पद्धति, खेल पद्धति तथा मान्टेसरी पद्धति प्रकृतिवाद की ही देन है। आदर्शवाद तथा प्रयोजनवाद उपयुक्त शिक्षण पद्धतियों के लिए प्रकृतिवाद के आभारी हैं।
(9) आत्म-संरक्षण और आत्म-सन्तोष (Attainment to Self-Preservation and Self-Satisfaction)- कुछ प्रकृतिवादी शिक्षा का उद्देश्य बालक में आत्म-संरक्षण और आत्म-संतोष की भावना उत्पन्न करने में सहायता देना मानते हैं। हरबर्ट स्पेन्सर आत्मसंतोष को मानव-जीवन का सर्वश्रेष्ठ गुण मानते हैं। उनका कथन है कि बालक में आत्मसंतोष की भावना उत्पन्न करना ही शिक्षा का उद्देश्य है।
(10) समाज तथा समाजशास्त्र का वैज्ञानिक अध्ययन (Scientific Study of Society and Sociology)- समाज तथा समाजशास्त्र के वैज्ञानिक अध्ययन का जन्म प्रकृ तिवाद से ही हुआ। यही नहीं, प्रयोजनवाद का जन्म भी प्रकृतिवाद से ही समझा जाता है।
(11) वर्तमान तथा भावी प्रसन्नता व सुख की प्राप्ति (Attainment of Present and Future Happiness)- जैविक प्रकृतिवाद के अनुसार मानव का लक्ष्य वर्तमान तथा भावी प्रसन्नता व सुख को प्राप्त करना है। अतः जैविक प्रकृतिवादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक को वर्तमान तथा भावी प्रसन्नता व सुख की प्राप्ति में सहयोग देना है।
(12) वातावरण से अनुकूलन की क्षमता उत्पन्न करना (To Develop the Capacity for Adaptation of Environment) – जीवन विज्ञानवादी प्रकृतिवादियों की दूसरी शाखा के विचारक नव- लैमार्कवादी हैं। उनके अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में अपनी परिस्थितियों और वातावरण के अनुकूल बनाने की क्षमता उत्पन्न करना है।
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रकृतिवाद के अनेक दोषों के होते हुए भी इसमें ऐसे प्रशंसनीय गुण हैं जिसके कारण शिक्षकों तथा शिक्षाविदों को शैक्षिक कार्य में बड़ी सहायता तथा प्रोत्साहन मिला है। पाल मुनरो के अनुसार, “प्रकृतिवाद ने शिक्षा की अमनोवैज्ञानिक, समाजशास्त्रीय तथा वैज्ञानिक धारणा के स्पष्ट निर्माण में प्रत्यक्ष प्रेरणा दी है।”
According to Paul Monroe, “Naturalism has given direct impetus to the clear formation of the psychological and scientific conception of education.”
प्रकृतिवाद और पाठ्यचर्या (Naturalism and Curriculum)
प्रकृतिवादी किन-किन विषयों को पाठ्यचर्या में स्थान देते हैं, यह जानने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि वे कौन से आधार हैं जिन पर प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या का निर्माण करना चाहते हैं। प्रकृतिवादियों के पाठ्यचर्या सम्बन्धी विचारों की चर्चा यहाँ हम संक्षेप में कर रहे हैं-
(1) मूल प्रवृत्तियों की रुचियों और क्षमताओं का महत्व- प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या में उन्हीं विषयों को देना चाहते है जो बालक की प्रकृति अर्थात् मूल-प्रवृत्तियाँ. योग्यताओं, क्षमताओं, और स्वाभाविक क्रियाओं के अनुकूल हों।
(2) व्यक्तिगत विभिन्नता का महत्व – प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या का निर्धारण करते समय व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर विशेष ध्यान देने की बात कहते हैं। उनके अनुसार सभी बालकों को एक प्रकार का पाठ्यचर्या नहीं पढ़ाया जा सकता।
(3) व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित विषयों की प्रधानता- प्रकृतिवादी उन्हीं विषयों के अध्ययन पर विशेष बल देना चाहते हैं जो व्यावहारिक जीवन से सम्बन्धित हों। उनके अनुसार बालक को ऐसे विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष करने के योग्य बनाएं।
(4) धार्मिक शिक्षा को स्थान नही- प्रकृतिवादी धार्मिक शिक्षा के विरोधी हैं। वह उसे व्यर्थ मानते हैं। उनके अनुसार कोई भी बालक जबकि वह स्वतन्त्र रहता है धर्मपालन की बात नहीं सोचता है और न बालकों में ऐसे चिह्न पाए जाते हैं कि जो यह स्पष्ट करें कि पूजा-पाठ की भावना बालकों में स्वभाव से होती है।
(5) यौन शिक्षा का महत्व – श्री ए.एस. नीव नामक प्रसिद्ध प्रकृतिवादी ने यौन शिक्षा को अत्यधिक महत्व प्रदान किया है। उसके अनुसार बालक को यह शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए।
प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या के प्रमुख विषय (Important Subjects of Naturalistic Curriculum)
कमेनियस सब विषयों की शिक्षा पर बल देता है। प्रकृतिवाद के उपर्युक्त आधारों को ध्यान रखते हुए उसने पाठ्यचर्या में स्वास्थ्य-रक्षा, खेलकूद, प्रकृति निरीक्षण, भूगोल आदि विषयों को प्रधानता दी है। प्रसिद्ध प्रकृतिवादी विचारक हरबर्ट स्पेन्सर ने विज्ञान की शिक्षा को विशेष महत्व दिया है।
रस्क के अनुसार, “जिस प्रकार हरबर्ट के अनुयायियों ने इतिहास को केन्द्रीय विषय बनाकर शिक्षा देने का प्रयास किया, उसी प्रकार स्पेन्सर ने विज्ञान को केन्द्रीय विषय बनाया।”
इस प्रकार हरबर्ट स्पेन्सर शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, भौतिक विज्ञान, गणित, बाल-मनोविज्ञान आदि को पाठ्यचर्या में विशेष स्थान देता है, साथ ही वह भूगोल, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कला, भाषा और साहित्य को भी स्थान देने का पक्षपाती हैं। हक्सले के विचार भी स्पेन्सर के विचारों से मिलते-जुलते हैं।
प्रकृतिवाद और शिक्षण विधियाँ (Naturalisms and Method of Teaching)
इसके पूर्व कि हम इस तथ्य का विवेचन करें कि प्रकृतिवादियों ने कौन-कौन सी शिक्षण विधियों अपनाई हैं। यह जान लेना भी आवश्यक है कि किन सिद्धान्तों पर उन्होंने अपनी विधियों को आधारित किया है-
(1) करके सीखना (Learning by Doing) – प्रकृतिवादी करके सीखना पर विशेष बल देते हैं। उसके अनुसार बालक स्वयं कुछ करके सीख सकता है।
(2) स्वानुभव द्वारा सीखना (Learning by Experience)- प्रकृतिवादी ‘स्वानुभव’ के द्वारा सीखने को महत्व देते हैं। उनका कथन है कि बालकों को पुस्तकों से घेरना नहीं चाहिए बल्कि उन्हें प्राकृतिक परिस्थितियों से घेरना चाहिए जिससे कि वे स्वयं ज्ञान प्राप्त कर सकें।
रूसों के अनुसार, अपने छात्र को मौखिक पाठ मत पढ़ाओ, उसे केवल अनुभव द्वारा सीखने दो।
According to Rousseau, “Give your school no verbal lessons, he should be taught by experience alone.”
(3) प्रत्यक्ष अनुभव द्वारा सीखना (Learning by Direct Experience)—प्रकृतिवादियों है कि बालक को सामाजिक जीवन के प्रत्यक्ष अनुभव का अवसर प्रदान करना चाहिए। बालक को नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य नहीं बतलाने चाहिए बल्कि उसे प्राकृतिक समाज के रूप में संगठित करके सिखाना चाहिए।
(4) खेल द्वारा शिक्षा (Learning by Play) – प्रकृतिवादी खेल द्वारा शिक्षा को सबसे अधिक उत्तम समझते हैं और उनका कहना है कि बालकों को खेल द्वारा ही उचित शिक्षा दी जा सकती है।
प्रकृतिवादियों द्वारा प्रतिपादित शिक्षण-पद्धतियाँ (Methods of Teaching Propounded by Naturalists)
प्रकृतिवादियों ने कई नवीन शिक्षण-पद्धतियों का प्रतिपादन किया है। इनमें से मुख्य हैं- ह्यूरिस्टिक पद्धति (Heuristic Method), प्रोजेक्ट प्रणाली (Project Method), डाल्टन पद्धति (Dalton Plan), माण्टेसरी पद्धति (Montessori Method) और निरीक्षण पद्धति (Observation Method)।
प्रकृतिवाद और अध्यापक (Naturalisms and Teacher)
प्रकृतिवादी शिक्षक को शिक्षा प्रणाली का एक गौण अंग मानते हैं। वे प्रकृति को ही सबसे बड़े शिक्षक के रूप में देखते हैं। प्रकृतिवादियों के अनुसार एक अध्यापक का कर्तव्य उचित वातावरण तथा ऐसी परिस्थितियों के निर्माण तक ही सीमित है, जिसमें बालक स्वयं अपने अनुभव के आधार पर ज्ञान अर्जित कर सके और शिक्षा ग्रहण कर सके। अध्यापक को बालक के ऊपर किसी भी प्रकार से अपनी विचारधारा को नहीं थोपना है और न उसे अपने दृष्टिकोण से प्रभावित ही करना है।
बालक को स्वयं ही सब करना है और अध्यापक को किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने की स्वतन्त्रता नहीं है। रॉस ने प्रकृतिवादियों के विचारों को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘यदि शिक्षक का कोई स्थान है तो वह पर्दे के पीछे है। वह बालक के विकास का निरीक्षण करने वाला है न कि उसको सूचनाएँ, विचार, आदर्श और इच्छाशक्ति देने वाला है या उसका चरित्र बनाने वाला है। यह बातें बालक को स्वयं होकर लेना है। वह किसी शिक्षक की अपेक्षा यह अच्छी तरह जानता है कि उसे क्या, कब और कैसे सीखना है? उसकी शिक्षा, उसकी रुचियों और प्रेरणाओं के साथ विकास है न कि उसके लिए शिक्षक के द्वारा किये गये कृत्रिम प्रयास।”
प्रकृतिवाद का शिक्षा में योगदान (Contribution of Naturalism in Education)
प्रकृतिवाद का शिक्षा में योगदान को निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-
(1) अनुभवों पर बल (Emphasis on Experience) – प्रकृतिवाद ने शब्दों की अपेक्षा अनुभवों पर बल दिया है। केवल शब्द शिक्षा के लिए आवश्यक गुण नहीं है, अनुभव भी आवश्यक है।
(2) बाल-मनोविज्ञान पर बल (Emphasis on Child Psychology) – बालक को पढ़ाने के लिए उसके मनोविज्ञान को जानने की आवश्यकता की पूर्ति हेतु मनोविज्ञान के क्षेत्र में खोज प्रारम्भ हुई। मनोविज्ञान ने बताया कि बालक विकास काल में विभिन्न स्थितियों से होकर गुजरता है। यही नही, मनोविज्ञान की एक विशेष शाखा मस्तिष्क विश्लेषण को – प्रोत्साहित करती है। अतः यह भी प्रकृतिवाद की देन कहा जाता है।
(3) बाल-केन्द्रित शिक्षा पर बल (Emphasis on Child Centred Education)- बाल-केन्द्रित शिक्षा प्रकृतिवाद की ही देन है। पहले बालक को प्रौढ़ का छोटा रूप मानते थे, उसका अलग व्यक्तित्व मानने को तैयार नहीं थे जबकि अब बालक की क्रियाओं पर ही शिक्षा प्रदान करने पर बल दिया गया।
(4) शिक्षा में खेल की प्रमुखता पर बल (Emphasis on Games of Education) – शिक्षा में खेल की प्रमुखता इस विचारधारा की ही देन है। प्रकृतिवाद ने खेल को स्वाभाविक तथा आवश्यक सिद्ध किया।
(5) प्रकृति की ओर लौटो’ इस प्रमुख नारे में यह कहा गया है कि शहरी जटिलता – से दूर प्रकृति की शान्तिमयी गोद की ओर चलो।
(6) प्रकृतिवादी विचारधारा पर आधारित, स्वतन्त्रता तथा सरलता के वातावरण में, मूल प्रवृत्तियों के आधार पर, स्वयंचालित शिक्षा को बल मिला। इससे छात्रों में विभिन्न क्षमताओं का विकास सम्भव हो सका।
(7) प्रकृतिवाद बालक की रूचि पर बल देने वाली विचारधारा है। इससे भी बालक को अधिक महत्व प्राप्त हो सका है।
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