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आदर्शवाद का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएँ, सिद्धान्त, गुण, दोष, आदर्शवाद का शिक्षा पर प्रभाव

आदर्शवाद का अर्थ
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अनुक्रम (Contents)

आदर्शवाद का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Idealism)

आदर्शवाद शब्द आंग्लभाषा के आइडियालिज्म (Idealism) शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘Idealism’ शब्द की उत्पत्ति प्लेटो के विचारवादी सिद्धान्त से हुई है, जिसका आशय है “अन्तिम सत्ता वास्तविक विचारों या विचार वाद में है ।” उचित और सही शब्द Idea-ism ही है किन्तु उच्चारण की सुविधा हेतु इसमें ‘एल’ ‘1’ जोड़ दिया गया है।

आदर्शवादी धारणा के अनुसार आध्यात्मिक जगत, भौतिक जगत की अपेक्षा अधिक महान हैं क्योंकि यह जगत ही सत्य है, जब कि भौतिक जगत नाशवान व असत्य है। आध्यात्मिक, जिसके मूल में विचार हैं, से ज्ञान के मन (Mind) तथा आत्मा का ज्ञान होता है।

पैट्रिक के अनुसार, “भौतिकवाद संसार का आधार ‘पदार्थ’ (Matter) में देखता है – जबकि आदर्शवाद संसार का आधार ‘मन’ (Mind) में देखता है।” कहने का आशय है कि भौतिकवाद ‘पदार्थ’ को ‘मन’ से पहले की वस्तु मानता है जबकि आदर्शवाद – ‘मन’ को’ ‘पदार्थ’ से पहले की।

जे.एस. रॉस के अनुसार, “आदर्शवादी दर्शन के बहुत से और विविध रूप हैं परन्तु सबका आधारभूत तत्व यही है कि संसार के उत्पादन कारण मन और आत्मा है जो मन का वास्तविक स्वरूप है।”

According to J.S. Ross, “Idealistic philosophy takes many and varied forms, but the postulate underlying all is that mind or spirit is the essential world stuff, that the true reality is of a mental character.”

डी. एन. दत्ता के अनुसार, “आदर्शवादी वह सिद्धान्त है, जो अन्तिम सत्ता आध्यात्मिक मानता है।”

According to D.N. Dutta, “Idealism holds that ultimate reality is spiritual.”

आदर्शवादी दर्शन (Idealism Philosophy)

आदर्शवादी दर्शन में ‘विचारों को ही सत्य माना गया है, इस विचार से प्लेटो ने भी अपनी सहमति व्यक्त की है। आदर्शवाद का उदगम स्वयं मानव प्रकृति में है। आध्यात्मशास्त्रीय दृष्टि से यह आध्यात्मवाद है अर्थात् इसके अनुसार विश्व में परम वस्तु की प्रकृति आध्यात्मिक है। आदर्शवादी दर्शन को कुछ मूल तत्वों में विभक्त किया गया है जिनके अध्ययन को निम्नलिखित प्रकार से प्रकट किया गया है-

आदर्शवादी दर्शन

(1) आदर्शवाद की तत्व मीमांसा (Metaphysics of Idealism)

 महान दार्शनिक प्लूटो ने ब्रह्माण्ड को दो भागों में विभाजित किया है-

(i) विचार जगत – प्लेटो विचारों को अनादि, अनन्त एवं अपरिवर्तनशील मानते थे। उनका मानना था कि विचारों में दैवीय एवं नैतिक अवस्था का वास होता है। इन्हीं की सहायता से ईश्वर इस संसार का निर्माण करता है। प्लेटो ने आत्मा को ईश्वर माना है उनका मानना था कि आत्मा जन्म लेने से पूर्व विचारों के संसार में भ्रमण करती है एवं यहाँ आने के उपरान्त भी वह विचारों के संसार में जाने के लिए उत्सुक रहती है।

(ii) वस्तु जगत- महान दार्शनिक लाइबेनीज इस जगत के प्रत्येक पदार्थ में एक स्वतंत्र आध्यात्मिक तत्व चिरबिन्दुओं (Monads) की सत्ता स्वीकार करते थे। उनका मानना था कि वस्तु जगत विविध चिरबिन्दुओं का योग है। वही दूसरी तरफ बर्कले का मत है कि आत्मा (मन) के कारण हमें वस्तु की प्रतीति होती है। वस्तु का स्वयं का कोई अस्तित्व नहीं होता है।

इन सबके विपरीत हीगल द्वैतवादी हैं अर्थात् दोनों को स्वीकारते हैं उन्होंने आत्मा (Soul) एवं वस्तु ( Matter) दोनों को ही एक अलग सत्ता के रुप में स्वीकारा है। हगल का मत है कि आत्मा का चरम रूप परमात्मा है एवं परमात्मा ही वस्तु जगत का निर्माणकर्ता है। अतः हीगल की विचारधारा को निरपेक्ष आदर्शवादी विचारधारा की संज्ञा दी जाती है।

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Metaphysics of Idealism)

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(i) आदर्शवादी विचार तथा आत्मा को सत्य मानते थे।

(ii) आत्मा, शरीर का जीवन है।

(iii) इसमें आध्यात्मिक स्वः को प्रधानता देते हैं।

(iv) आदर्शवादी आत्मा को निरपेक्ष मानते हैं।

(v) आदर्शवादी आत्मा को अनुभूति का विषय मानते हैं।

(vi) इसमें सत्य की प्रकृति आंतरिक होती है।

(vii) आदर्शवाद को बुद्धिवादी दर्शन एवं आध्यात्मिकवादी दर्शन भी कहा जाता है।

(viii) आदर्शवादी का सत्य सुनिश्चित तथा सार्वभौमिक होता है।

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा का वर्गीकरण (Classification of Metaphysics of Idealism)

तत्व मीमांसा के तीन रूपों को माना गया है। अतः इसे तीन वर्गों में विभाजित किया गया है जो कि निम्न हैं-

तत्व मीमांसा का वर्गीकरण

(i) ऐकेश्वरवाद (Monism) – ऐकेश्वरवादियों के अनुसार सत्य एक है। उसी एक सत्य को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त किया जाता है। ऐकेश्वरवाद भी दो प्रकार का होता है, प्रथम वह जो ‘पदार्थ या प्रकृति’ को सत्य मानता है, जिसे प्रकृतिवाद की संज्ञा दी जाती है। द्वितीय वह जो ईश्वर को सत्य मानता है, इसे आदर्शवाद की संज्ञा दी जाती है।

(ii) द्वैतवाद (Dualism)— इस संसार में दो प्रकार के द्वैत्तो को मान्यता दी जाती है। प्रथम ‘प्रकृति या पदार्थ’ एवं द्वितीय चेतना या ईश्वर’ । इन दोनों ही सत्ताओं को मानने वालों को ‘द्वैतवादी’ कहते हैं।

(iii) अनेकेश्वरवाद (Pluralism) – प्रकृति, पदार्थ, द्रव्य, चेतना, ईश्वर एवं निरपेक्ष सत्य अनेक प्रकार के सत्य इसमें सम्मिलित हैं। इस संसार में मनुष्य को विभिन्न प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं। इसमें अनुभव के साथ-साथ उपादेयता को भी महत्व दिया जाता है।

(2) आदर्शवाद की ज्ञान मीमांसा (Epistemology of Idealism)

आदर्शवाद ज्ञान मीमांसा का दर्शन है तत्व मीमांसा का नहीं। इसमें ज्ञान का विशद् विवेचन प्रस्तुत किया गया है। सुकरात का मानना है कि यथार्थ ज्ञान बौद्धिक ही होता है। अवधारणाओं के माध्यम से जो ज्ञान प्राप्त होता है वही वास्तविक ज्ञान (Knowledge is Knowledge through the Concept ) है और अवधारणाएँ बौद्धिक होती हैं।

(3) आदर्शवाद की मूल्य मीमांसा (Aniology of Idealism) 

शिव क्या है? इसके विषय में आदर्शवादियों का कहना है कि सद्जीवन को ब्रह्माण्ड से सामंजस्य स्थापित करके ही व्यतीत किया जा है। सुन्दर क्या है? आदर्शवादी इसका उत्तर भी निरपेक्ष सत्ता के दृष्टिकोण से देते हैं। उनका मानना है कि निरपेक्ष सत्ता सुन्दरतम् है। इस संसार में जो कुछ भी सुन्दर है वह उसका अंशमात्र है। अंश के माध्यम से हम निरपेक्ष सत्ता को प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

(4) आदर्शवाद की तर्क मीमांसा (Logic of Idealism) 

आदर्शवाद के अन्तर्गत औपचारिक तत्व को विशेष महत्व दिया गया है क्योंकि इसमें मन को प्रमुख रूप से सत्य माना जाता है।

जे.ई. क्रीटन ने भौतिक तर्क मीमांसा में सामाजिक अनुभवों को महत्व दिया है इसको भौतिक तर्क की भी संज्ञा दी गई है।

क्रीटन दोनों प्रकार के चिन्तन को समान मानता है एवं उसका कहना है कि हमारा चिन्तन आगमन से आरम्भ होता है एवं निगमन की ओर बढ़ता है जिससे हम सामान्यीकरण करते हैं। वस्तुओं के गुणों का बोध भी आगमन चिन्तन से सम्बन्धित है। निगमन चिन्तन द्वारा पदार्थों की वैधता का आंकलन भी करते हैं जिसके अन्तर्गत न्यायगत चिंतन का प्रयोग किया जाता है।

आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त (Main Principles of Idealism)

आदर्शवाद के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-

(1) ईश्वर निर्मित ब्रह्माण्ड- आदर्शवादियों का मानना है कि इस ब्रह्माण्ड की कोई नियामक सत्ता अवश्य है और इसका स्वरूप आध्यात्मिक है। आदर्शवादियों के अनुसार, ब्रह्माण्ड दो मूल तत्वों से मिलकर बना है, पहला आत्मा और दूसरा प्रकृति। उनके अनुसार ब्रह्माण्ड की रचना परमात्मा, पदार्थ द्वारा करता है।

(2) आध्यात्मिक जगत को महत्व – प्लेटो ने इस ब्रह्माण्ड को दो जगतों में बाँटा है-वस्तु जगत और विचार जगत। इनके अनुसार विचार जगत परिवर्तनशील व अनित्य है इसलिए असत्य है और उसके बिना जगत भी असत्य है। बल्कि विचार जगत को इन्होंने सत्य माना है क्योंकि वह अपरिवर्तनशील व नित्य है।

(3) संसार की सर्वश्रेष्ठ रचना मनुष्य है- आदर्शवादी मनुष्य को ब्रह्माण्ड की सर्वश्रेष्ठ रचना मानते हैं क्योंकि उनका मानना है कि ये शक्तियाँ विशेषकर आध्यात्मिक शक्ति मनुष्य के अलावा संसार के किसी प्राणी के पास नहीं है।

(4) नैतिक आचरण को महत्व – आदर्शवादियों के अनुसार, सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् आध्यात्मिक मूल्य है। इनका कहना है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में ही सत्यम् शिवम् और सुन्दरम् के दर्शन कर सकता है।

(5) राज्य एक सर्वोच्च सत्ता है- आदर्शवादी व्यक्ति से भी ज्यादा श्रेष्ठ राज्य को मानते हैं। प्रसिद्ध आदर्शवादी हीगल एवं फिक्टे ने भी राज्य को सर्वोच्च और आदर्श सत्ता के रूप में स्वीकार किया है।

(6) मनुष्य जीवन का अन्तिम उद्देश्य ईश्वर प्राप्ति है- आदर्शवादियों का मानना है कि मनुष्य के अन्दर आत्मा का निवास होता है और यह आत्मा अनन्त, अनादि और सूक्ष्म है परन्तु अज्ञानता के कारण वह अपनी शक्तियों को पहचान नहीं पाता है।

(7) भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा मनुष्य का विकास- आदर्शवादियों के अनुसार भौतिक ज्ञान की प्राप्ति भौतिक शक्ति अर्थात् इन्द्रियों द्वारा होती है और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति आध्यात्मिक शक्ति अर्थात् आत्मा द्वारा होती है। उनका मानना है कि आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा वह संस्कृति और सभ्यता आदि का निर्माण करता है और उसकी सहायता से अपने भौतिक वातावरण पर नियन्त्रण करने में सफल होता है।

(8) आध्यात्मिकता या विचार ही सच्ची वास्तविकता है।

(9) जो कुछ मन संसार को देता है, वही सच्ची वास्तविकता है।

(10) केवल मानसिक जीवन ही जानने योग्य है।

(11) भौतिक और प्राकृतिक संसार- जिसे विज्ञान जानता है, वास्तविकता की अपूर्ण अभिव्यक्ति है।

(12) इन्द्रियों के माध्यम से सच्ची वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता।

(13) निरपेक्ष मन (Absolute Mind) जिसका अंश हमारा मन है, में जो कुछ विद्यमान है, उसके सिवा और किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है ।

(14) परब्रह्म परमात्मा का सम्बन्ध मन से होता है।

(15) विचार, ज्ञान, कला, नैतिकता और धर्म का ही जीवन में सर्वाधिक महत्व है।

(16) अन्तर्दृष्टि, ज्ञान का सर्वोच्च रूप है।

(17) आत्मनिर्णय सच्चे जीवन का सार है।

(18) सत्य ज्ञान मानसिक या आध्यात्मिक आधार पर ही प्राप्त हो सकता है।

(19) जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य का महत्व अधिक है।

(20) आदर्शवाद के अनुसार, संसार की समस्त वस्तुओं में भिन्नता होते हुए भी एकता विद्यमान रहती है।

(21) आदर्शवादी मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास को मूल्यवान समझते हैं और उनके अनुसार व्यक्तित्व के विकास का अर्थ आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना है।

आदर्शवाद और शिक्षा के उद्देश्य (Idealism and Aims of Education)

आदर्शवाद और शिक्षा के उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(1) मनुष्य को मनुष्य बनाना (To Make Man a Man) – मानवोचित गुणों के अभाव में मनुष्य, मनुष्य नहीं रह पाता है। अतः आध्यात्मिक शक्ति का ज्ञान मनुष्य के लिए आवश्यक है।

(2) आत्मानुभूति का उद्देश्य (Aims of Self Realisation) – आत्मानुभूति का अर्थ है, आत्मा का ज्ञान हो। अतः शिक्षा का उद्देश्य प्रत्येक व्यक्ति में उचित शिक्षा के माध्यम से सामाजिक गुणों का विकास करना है।

(3) आध्यात्मिक विकास करना (To Ensure Spiritual Development)- आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक को आध्यात्मिक दृष्टि से विकसित करना है। शिक्षक को चाहिए कि वह बालक को आध्यात्मिक रूप से विकसित करने के लिए इस प्रकार की शिक्षा-व्यवस्था का संगठन करें जिससे उसका आध्यात्मिक विकास हो। अतः प्रसिद्ध विद्वान रस्क के अनुसार, “शिक्षा मानव जाति को इस योग्य बनाए कि वह अपनी संस्कृति की सहायता से आध्यात्मिक जगत में अधिक से अधिक पूर्णता सहित प्रवेश कर सके तथा आध्यात्मिक जगत की सीमाओं का विस्तार भी कर सके।”

(4) सत्यम, शिवम् तथा सुन्दरम् को विकसित करना (To Cultivate the Truth, Beauty and Goodness) –आध्यात्मिक जगत की उन्नति के लिए सत्यम, शिवम् तथा सुन्दरम् जैसे चिरंतन मूल्यों को विकसित करना परम आवश्यक है। प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह इन मूल्यों को विकसित करे। जब तक इन मूल्यों को विकसित नहीं किया जायेगा तब तक आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त नहीं होगी।

(5) सांस्कृतिक सम्पत्ति की रक्षा, विकास तथा हस्तान्तरण Development and Transmission of Cultural Heritage) – आदर्शवादियों के (Security, अनुसार धर्म, नैतिकता, कला, साहित्य, गणित, विज्ञान आदि के द्वारा मनुष्यों के नैतिक, मानसिक तथा कलात्मक कार्यों को विकसित किया जाता है। इस सांस्कृतिक सम्पत्ति पर प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार समान रूप से होता है। अतः संसार के प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह इससे पूर्णरूपेण परिचित हो जाए व इसकी रक्षा करे।

(6) मूल प्रकृति को आध्यात्मिक प्रकृति में बदलना (Conversion of Inborn Nature into Spiritual Nature)- आदर्शवादी शिक्षा का छठा उद्देश्य बालक की मूल प्रकृति अर्थात् मूल प्रवृत्तियों का शोधन करना तथा उन्हें सांस्कृतिक एवं सामाजिक वातावरण के अनुसार विकसित करते हुए उचित मार्ग दर्शन द्वारा आध्यात्मिक बनाना है।

(7) पवित्र जीवन के लिए तैयारी करना (Preparation for a Holy Life)- आदर्शवादियों के अनुसार बालक में आध्यात्मिक मूल्यों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए उन सभी परिस्थितियों का सर्जन करना आवश्यक है जिनमें रहते हुए वह पवित्र जीवन व्यतीत करके आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त कर सके। फ्रोबेल के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य है- भक्तिपूर्ण, पवित्र तथा कलंक रहित जीवन की प्राप्ति।

आदर्शवाद का शिक्षा पर प्रभाव (Impact of Idealism on Education)

आदर्शवादी विचारधारा शिक्षा में पारलौकिकता तथा मानवीय गुणों के समुचित निर्धारण पर बल देती है। वैसे तो आदर्शवाद का शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान है परन्तु शिक्षा में यह केवल आध्यात्मिकता और भौतिकता पर अधिक बल देता है। यहाँ पर भौतिकता से तात्पर्य जीवन की आवश्यकताओं से है। आदर्शवादी विचारधाराओं की शिक्षा में महती भूमिका होती है। आदर्शवाद का शिक्षा पर प्रभाव को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है।

आदर्शवाद और पाठ्यचर्या (Idealism and Curriculum)

आदर्शवादी पाठ्यचर्या को मानव जीवन के सर्वोच्च आदर्श की प्राप्ति में सहायक मानते हैं। पाठ्यचर्या मानव जाति के अनुभवों का संगठन करता है उन्हें व्यक्त करता है। यह मानव जाति के अनुभवों का प्रतीक है तथा सभ्यता का प्रतिबिम्ब है।

(1) प्लेटो ने आदर्शवादी पाठ्यचर्या में निम्नलिखित विषयों का समावेश किया है-

(2) नन के अनुसार, मानव क्रियाओं के आधार पर पाठ्यचर्या इस प्रकार होनी चाहिए-

अतः स्पष्ट है कि आदर्शवाद में पाठ्यचर्या को बहुत महत्व दिया है। अतः जे. एस. रॉस के अनुसार, “मनुष्य को सच्चे तथा विशिष्ट अर्थों में मानव होने के लिए अपनी इस विरासत को ग्रहण करना चाहिए। उसे सामान्य संस्कृति का अर्जन अपने लिए करना चाहिए और यथा सम्भव सामान्य भंडार में वृद्धि करनी चाहिए।”

(3) रॉस ने पाठ्यचर्या को इस प्रकार बनाया है-

आदर्शवाद और शिक्षण विधियाँ (Idealism & Methods of Teaching)

आदर्शवादियों ने शिक्षा क्षेत्र में अनेक शिक्षण विधियों का विकास किया। प्लेटो के गुरु सुकरात ने वाद-विवाद, व्याख्यान तथा प्रश्नोत्तर विधियों को अपनाया। प्लेटो, प्रश्नोत्तर विधि के साथ-साथ संवाद विधि का प्रयोग करते थे, प्लेटो के शिष्य अरस्तु ने आगमन तथा निगमन विधियों के प्रयोग पर बल दिया।

आधुनिक आदर्शवादी विचारकों में हीगल ने तर्क विधि (Logical Method), पेस्टालॉजी ने अभ्यास एवं आवृत्ति विधि (Practice and Repetition Method), हरबर्ट ने अनुदेशन विधि (Instruction Method) तथा फ्रोबेल ने खेल विधि (Play way Method) का विकास किया। आदर्शवाद की प्रमुख शिक्षण विधियाँ निम्न प्रकार हैं-

(1) संवाद विधि,

(2) खेल विधि,

(3) आगमन एवं निगमन विधि,

(4) प्रश्नोत्तर विधि अथवा सुकरात विधि,

(5) अनुकरण विधि,

(6) निर्देशन विधि,

(7) व्याख्या विधि,

(8) प्रयोग एवं अभ्यास विधि,

(9) तर्क विधि, एवं

(10) संवाद विधि

आदर्शवाद और शिक्षक (Idealism and Teacher)

गोटे (Gote) ने एक बार अपने अध्यापक के विषय में कहा था उसके अन्तर्गत हमने कुछ सीखा नहीं है अपितु अपने को बनाया है। सच्चा शिक्षक शाश्वत जीवन का क्रम एवं शब्द है। आदर्शवादी शिक्षक को उद्यान के माली के रूप में मानते हैं। माली जिस प्रकार प्रत्येक बाग की शोभा को अनावश्यक झाड़-झंखाड़ दूर कर बढ़ाता है, उसी प्रकार शिक्षक भी बालकों के दुर्गुणों को दूर कर उन्हें सभ्य व सुसंस्कृत बनाता है।”

आदर्शवाद व अनुशासन (Idealism and Discipline)

आदर्शवादी अनुशासन की स्थापना पर बहुत बल देते हैं। उनके अनुसार प्रारम्भ में बालकों पर कड़े अनुशासन की आवश्यकता होती है। हॉर्न के अनुसार, “सत्ता का आरम्भ वाह्य रूप से होता है परन्तु यह समीचीन होगा, यदि इसका अन्त आदत-निर्माण तथा आत्म-नियन्त्रण द्वारा आन्तरिक रूप में हो।” विशेष रूप से यह शिक्षक का कर्तव्य है कि वह बालकों में अनुशासन की जागृत करें। वह अपने जीवन में उच्च को अपनाकर ही बालकों को प्रभावित कर सकता है। इस प्रकार आदर्शवाद के अन्तर्गत अनुशासन का रूप प्रभावात्मक है।

आदर्शवाद का मूल्यांकन (Evaluation of Idealism)

आदर्शवाद के गुण (Merits of Idealism)

आदर्शवाद के गुण निम्नलिखित हैं-

(1) आदर्शवादी शिक्षा के अन्तर्गत बालकों में ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम’ जैसे गुणों का विकास किया जाता है, इसके फलस्वरूप उनमें उत्कृष्ट चरित्र का निर्माण होता है।

(2) आदर्शवादी शिक्षा इस अर्थ में अद्वितीय है कि इसमें शिक्षा के उद्देश्यों की विस्तृत व्याख्या की गई है।

(3) आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया है। यह बालक और समाज दोनों के लिए मंगलमय है।

(4) आदर्शवादी शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है। यह शिक्षा उनकी रचनात्मक शक्तियों के विकास पर भी बल देती है।

(5) यह शिक्षा आत्म-अनुशासन एवं आत्म-नियन्त्रण के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करती है।

आदर्शवाद के दोष (Demerits of Idealism)

आदर्शवाद के दोष निम्नलिखित है-

(1) आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य न केवल ‘अमूर्त’ है वरन् इनका सम्बन्ध भी मात्र भविष्यमें है।

(2) आदर्शवादी पाठ्यचर्या में आध्यात्मिक विषयों को ही सर्वप्रमुख स्थान दिया गया है। जबकि आज के औद्योगिक युग में इनको आवश्यक नहीं समझा जाता।

(3) शिक्षण विधि के क्षेत्र में आदर्शवाद की कोई विशेष देन नहीं है।

(4) विचार और मन पर अधिक बल देने से इस शिक्षा में बौद्धिकता को आवश्यकता से अधिक महत्व दिया गया है।

(5) यह शिक्षा को तो बहुत ऊँचा स्थान देती है, किन्तु इसमें बालक का स्थान गौण है।

(6) आदर्शवाद हमें जीवन के अन्तिम ध्येय की ओर ले जाता है, जिसकी हमें तात्कालिक आवश्यकता नहीं है। इस समय तो हमारी आवश्यकताएँ मुख्य रूप से रोटी, कपड़ा और मकान से सम्बन्धित होती हैं।

(7) आदर्शवादी पाठ्यचर्या में मानवीय विषयों को ही प्रमुख स्थान दिया गया है, जबकि आज के वैज्ञानिक युग में वैज्ञानिक विषयों को ही मुख्य स्थान मिलना चाहिए।

निष्कर्ष (Conclusion)

यह ठीक है कि रोटी, कपड़ा और मकान आज हमारी बुनियादी आवश्यकताएँ हैं किन्तु मानव जीवन केवल इन वस्तुओं की प्राप्ति तक ही सीमित नहीं किया जा सकता। आत्मिक सन्तोष की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिकता का सहारा लेना आज भी मनुष्य के लिए अनिवार्य ही है। पश्चिमी भौतिक जगत भी आज यह मानने लगा है, कि आदर्शवाद ही मानव को सुख व शान्ति प्रदान कर सकता है।

रस्क के अनुसार, “भौतिक संसार, जिसे विश्व जानता है, अपूर्ण वास्तविकता है। इसे आदर्शवाद का आध्यात्मिक संसार ही पूर्ण करता है। इसके अतिरिक्त, आदर्शवाद मनुष्य की प्रकृति की विशिष्टता पर बल देता है और मनुष्य को मानसिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा धार्मिक शाक्तियों पर अधिकार देता है।”

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