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विविधता का अर्थ | विविधता के प्रकार | विविधता में एकता की आवश्यकता एवं महत्व

विविधता का अर्थ
विविधता का अर्थ

विविधता (DIVERSITY)

भारत विश्व के विशालतम् राष्ट्रों में से एक है। यहाँ पर विभिन्न जाति, वर्ग एवं समूहों के लोग रहते हैं एवं अपनी-अपनी स्थिति के अनुकूल जीवनयापन करते हैं। यहाँ पर जीवनयापन करने वाले लोगों में पर्याप्त विविधता, असमानता आदि पाई जाती है। यही विविधता एवं असमानता भाषा, जाति, लिंग क्षेत्र आदि के आधार पर दृष्टिगोचर होती है। यही कारण है कि आज भारतीय समाज असमानता, विविधता एवं सीमान्तीकरण जैसी समस्याओं का सामना कर रहा है। यही समस्याएँ आज हमारे समाज एवं शिक्षा के सामने चुनौती के रूप में खड़ी हैं अतः इनका पृथक-पृथक अध्ययन करना अति आवश्यक प्रतीत होता है।

विविधता का अर्थ (Meaning of Diversity)

भारत विभिन्नताओं का देश है तथा इसके प्रत्येक भाग में विविधता का समावेश है। विविधता से तात्पर्य प्रायः भौगोलिक, शारीरिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि में असमानता से है। इस असमानता के द्वारा ही उपरोक्त सभी तथ्यों में भिन्नता परिलक्षित होती है। ये भिन्नताएँ भारतीय समाज के मौलिक आधारों और उनमें होने वाले परिवर्तनों को समझने में सहायक है।

भारत में प्रजाति, जाति, जनजाति, धर्म, भाषा, जलवायु, भौगोलिक परिस्थितियाँ, खान-पान और वेश-भूषा आदि के आधार पर विविधता देखने को मिलती है। यहाँ अनेक संस्कृतियों के सह अस्तित्व पाया जाता है। हमारे देश में कुछ बाहरी संस्कृतियों का भी समावेश होने के कारण हमारे देश में विभिन्न धर्मों भाषाओं, प्रथाओं, रीति-रिवाज, वेश-भूषा, विचारों की विविधता तथा समाज में उच्च एवं निम्न वर्गों के आधार पर दृष्टिगोचर होती है। वर्तमान में विभिन्न ऐसे समूह बन गए हैं जो प्रायः समाज में अलग अस्तित्व की माँग करते रहते हैं।

इस विविधता के परिणामस्वरूप बहुलतावादी समूहों का जन्म होता है। जिनके कारण कभी-कभी जातीय एवं साम्प्रदायिक दंगे होने लगते हैं। अतः हमारे देश में विविधता का स्वरूप अत्यन्त विस्तृत हैं।

विविधता के प्रकार (Types of Diversity)

हमारे देश में विभिन्न स्तरों पर विविधता विद्यमान हैं जो देश के प्रत्येक प्रान्त को क्षेत्र, भाषा, संस्कृति के आधार पर विभिन्न स्तरों में बाँटती है। इन स्तरों के आधार पर विविधता का अलग रूप परिलक्षित होते हैं-

(1) भाषा स्तर पर विविधता

भाषा एवं मनुष्य का अत्यन्त गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य अपने विचारों का प्रकटीकरण भाषा के माध्यम से ही करता है तथा भाषा द्वारा ही मानव समूह परस्पर अन्तः क्रिया करते हैं। भाषा ही एक ऐसा माध्यम जिसके द्वारा संस्कृति से सम्बन्धित विभिन्न तत्व लिखित रूप में संचित एवं पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानान्तरित होते है। वास्तव में भाषा हमारे सामुदायिक जीवन का आधार है।

भारत एक बहुभाषायी राष्ट्र है। भाषा पर किए गए सर्वेक्षणों से ज्ञात हुआ है कि भारत में लगभग 179 भाषाएँ तथा 544 बोलियाँ (Dilects) प्रचलित हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि भारत में 1650 भाषाएँ एवं बोलियाँ पाई जाती हैं। प्रत्येक भौगोलिक क्षेत्र या उपक्षेत्र स्तर पर भाषाओं की विविधता परिलक्षित होती है। इन भाषाओं को तीन भाषाई परिवारों में विभक्त किया गया है-

(i) इण्डो आर्यन भाषा परिवार- भारत में आर्य भाषा 78.8 प्रतिशत लोगों द्वारा बोली जाती है। इसमें पंजाबी सिन्धी, हिन्दी, बिहारी, बंगला, असमिया, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, उड़िया, कश्मीरी आदि भाषाएँ सम्मिलित हैं।

(ii) द्रविड़ भाषा परिवार- भारत में 20.6 प्रतिशत लोग द्रविड भाषा बोलते हैं। इसमें तेलगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम, कोडग, गोंडी आदि भाषाएँ आती है।

(iii) आस्ट्रिक भाषा परिवार- इसमें मुंडार, बौन्दो, जुआंग, भूमिय, सन्थाली, खासी इत्यादि भाषाएँ आती हैं।

भाषायी विविधता की अधिकता के कारण भाषाओं का वर्गीकरण भी निश्चित नहीं रह पाता है। मंगोल जाति के लोग तिब्बती-चीनी परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। इस भाषा पर आर्य भाषाओं का प्रभाव भी देखने को मिलता है। तमिल, तेलुगु, कन्नड़ एवं मलयालम द्रविड़ परिवार की मुख्य भाषाएँ हैं जो तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं केरल में बोली जाती हैं। उदाहरणार्थ- ब्लूचिस्तान की ब्रहुई भाषा द्रविड़ समूह की मानी जाती हैं जबकि झारखण्ड के प्रमुख आदिवासियों द्वारा बोली जाने वाली ओरांव भाषा द्रविड़ों से मिलती-जुलती है। इन भाषाओं को लेकर भाषाशास्त्री भ्रमित हैं कि ये भाषाएँ द्रविड़ परिवार की हैं या अन्य किसी परिवार की।

(2) सांस्कृतिक स्तर पर विविधता (Diversity at Cultural Level)

भारत में संस्कृति के स्तर पर अत्यधिक विविधता पाई जाती है क्योंकि भारत में बहु- धार्मिकता पाई जाती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रत्येक वर्ग की अपनी विशेष परम्पराएँ, मान्यताएँ, आचरण आदि विकसित हो गए है। ये परम्पराएँ एवं मान्यताएँ एक-दूसरे से पूर्णतया भिन्न है। इन परम्पराओं, मान्यताओं एवं व्यवहारों का आधार कहीं क्षेत्रीयता, तो कहीं धार्मिकता, तो कहीं अन्य आधार हैं। संस्कृति किसी भी वर्ग की निरन्तर व्यवहार करने की एक विशेष प्रकार की विधि है जो वह अपने पूर्वजों, समाज तथा आस-पास के वातावरण से सीखता है।

भारत जैसे विशाल देश में सांस्कृतिक विविधताओं का होना स्वाभाविक है। इस देश का भौगोलिक पर्यावरण धार्मिक विश्वास, सांस्कृतिक उन्नति, औद्योगिक प्रगति, जीवनशैली में विविधताएँ आदि सभी सांस्कृतिक विविधताओं की अभिव्यक्ति है। हमारे देश में सांस्कृ तिक विविधताएँ – धर्म, वेशभूषा, खान-पान, रहन-सहन, संगीत, नृत्य, लोकगीत, विवाह प्रणाली व जीवन संस्कार आदि अनेक क्षेत्रों में दिखाई देती है। अनेक धर्मानुयायी यहाँ विद्यमान हैं। इन सबकी अलग-अलग प्रथाएँ, रुचियाँ व इच्छाएँ हैं। मत-मतान्तरों की विविधता भी संस्कृति स्तर को प्रभावित करती है। कुछ जातियों समुदायों एवं सम्प्रदायों के व्यक्तिगत लोकाचार हैं जिनका क्षेत्र की जनसंख्या के तत्वों से सावयवी सम्बन्ध रहता है। जिसके कारण किसी देश व समाज की संस्कृति के व्यक्तित्व का विकास होता है। जैसे- भारत अनेक भूखण्डों में विभाजित है या प्रत्येक भू-भाग की अपनी एक विशेषता है। प्रत्येक प्रदेश की अपनी संस्कृति है, जैसे- मध्य प्रदेश की नगरीय संस्कृति की विशेषता जनजातियों के क्षेत्र से बिल्कुल भिन्न है जबकि दोनों एक ही राज्य के निवासी हैं फिर भी इनके रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान, बोली व्यवहार, रीति-रिवाज आदि में विविधताएँ सरलता से देखी जा सकती हैं। इसी प्रकार सामाजिक विविधता के अन्तर्गत समाज में भिन्नता आने का कारण धार्मिक विश्वासों की विविधताएँ, जातीय संरचना व सांस्कृतिक विविधताएँ आदि भी होती हैं।

(3) क्षेत्रीय स्तर पर विविधता (Diversity at Regional Level)

भारत देश एक विशाल देश है जो विभिन्न भागों में विभाजित है। प्रत्येक क्षेत्र में समान सामाजिक व्यवस्था सम्भव नहीं हो पाती। यहाँ क्षेत्रीय भिन्नताएँ इतनी अधिक है कि कहीं-कहीं तो आज भी अभावमय जीवन तो कहीं विलासितापूर्ण जीवन कहीं लोग पशुपालन करते है तो कहीं उद्योग धन्धों की सहायता से आजीविका कमा रहे हैं। अतः देश को विविधता प्रदान करने में क्षेत्रीय भिन्नताओं का भी बहुलता है। क्षेत्रीय स्तर पर किसी भी क्षेत्र की उसकी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाजों आदि ये विविधता पाई जाती है। यह विविधताएँ उस क्षेत्र में विभिन्न समस्याओं को जन्म देती है।

(4) धार्मिक स्तर पर विभिन्नता (Diversity at Religious Level)

सामान्य रूप से भारत में अनेक धर्मों का समावेश पाया जाता है। विश्व में शायद ही अन्य ऐसा कोई देश हो जहाँ धर्मों की इतनी विविधता एवं बहुलता पाई जाती है। हमारे देश में मुख्यतः हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन आदि धर्म पाए जाते हैं। मुख्य धर्मों में भी अनेक समुदाय और मत-मतान्तर पाए जाते हैं। भारत में धार्मिक रूप से हिन्दुओं की जनसंख्या सबसे अधिक है। चूँकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है इसलिए यहाँ सभी धर्मों को अपना विकास करने का पूर्ण अधिकार है।

भारतीय समाज एवं जनजीवन में धार्मिक विविधता भी बहुत है। 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में सात धर्मों को मान्यता दी गई है- हिन्दू, मुस्लिम, इसाई, सिक्ख, बौद्ध, जैन आदि धर्म है। सिक्ख धर्म एकेश्वरवादी धर्म है जिसमें एक ही ईश्वर को परमसत्ता माना गया है। बौद्ध धर्म पहले भारत में पर्याप्त रूप से फैला था लेकिन वैदिक हिन्दूवाद के बाद यह कुछ स्तरों तक ही सीमित हो गया। बौद्ध धर्म अनात्मवाद सिद्धान्त में विश्वास करता है। बौद्ध धर्म के अनुसार आत्मा पाँच स्कन्धों रूप, संज्ञा, वेदना, संस्कार तथा विज्ञान या चेतना का योग है। इस प्रकार ये पाँच स्कन्ध अनित्य, क्षणिक एवं सतत् परिवर्तनशील हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म क्षणिकवाद पर भी विश्वास करता है। जैन धर्म का तात्पर्य निग्रन्थ (मुक्ति) से है। जिस प्रकार विष्णु एवं शिव के अनुयायी को क्रमशः वैष्णव एवं शैव कहा जाता है उसी प्रकार जैन धर्म के अनुयायियों जैनी निग्रन्थी कहा जाता है। पारसी एक लघु समुदाय है। भारत में इनका आगमन 8वीं शताब्दी में पर्सिया से हुआ तथा ये भारत की जनसंख्या में घुल-मिल गए। भारत में इनकी जनसंख्या के आकार की तुलना में योगदान अधिक रहा है। पारसी धर्म की ऐतिहासिक भूमिका पर प्रभाव डालते हुए ए. आर. वाडिया ने लिखा है- “वर्षों से इस धर्म ने अन्य लोगों में अपना नैतिक एवं आध्यात्मिक उत्साह खुले दिल से हस्तान्तरित किया है। अच्छे विचार, अच्छे वचन तथा अच्छे कर्म जरथुस्त्रयों के ही एकाधिकार नहीं हैं। अति प्राचीनकाल में जरथुस्त्र ने जो सीख दी थी कि उनका पुरस्कार (परिणाम) यह है कि आज यह धर्म समस्त मानवता की विरासत बन गया है।”

(5) लैंगिक स्तर पर विविधता

भारत में विविधता प्रायः लैंगिक स्तर पर भी पाई जाती है। लैंगिक स्तर पर समाज में प्रायः स्त्री-पुरुष में विविधता पाई जाती है। समाज में इनके लिंग के आधार पर इनके कार्यों में विभेद किया जाता है तथा इसी आधार पर समाज में इनकी स्थिति का निर्धारण किया जाता है। पुरुषों को समाज में उच्च स्थिति एवं स्त्रियों को लैंगिक स्तर पर विभेद किया जाता है। समाज में माता-पिता भी अपने बच्चों में लड़का-लड़की के आधार पर विभेद करते है। सरकारी नौकरियों में भी लैंगिक आधार पर विविधता व्याप्त होती है तथा स्त्री-पुरुषों को आय में विविधता पाई जाती है। अतः भारत में विविधता का एक प्रमुख स्तर लिंग के आधार पर भी किया जाता है।

(6) जाति एवं जनजाति स्तर पर विविधता

भारत एक विशाल जातीय विविधता वाला देश है। भारत में लगभग तीन हजार जातिगत समूह हैं। प्रत्येक जाति के अपने खान-पान, विवाह तथा सामाजिक सहवास के नियम हैं। जाति स्तर पर विविधता प्रायः ऊँच-नीच एवं निश्चित व्यवसाय के आधार पर छुआ-छूत की भावना द्वारा परिलक्षित होती है। कुछ जातियाँ एक क्षेत्र स्तर तक ही सीमित रहती है। अतः भारत में जाति स्तर पर उनका खान-पान, विवाह, परिवार एवं नातेदारी व्यवस्था में विविधता देखने को मिलती है।

भारतीय समाज में जाति के आधार पर भी विविधता दिखाई देती है। यह विविधता प्राकृतिक या बाह्य कारणों से नहीं बल्कि हिन्दू संस्कृति की ही देन है। भारतीय उपमहाद्वीपीय में अन्य कई धर्म जैसे कि मुस्लिम एवं ईसाई धर्म के कुछ समूहों में ऐसी व्यवस्थाएँ देखी जाती हैं। सामान्यतः जाति के आधार पर प्रमुख विभाजन निम्न प्रकार से देखने को मिलता है-

(i) ब्राह्मण – विद्वान समुदाय- जिसमें याजक (Priest) विद्वान, विधि विशेषज्ञ, मंत्री एवं राजनयिक सम्मिलित हैं।

(ii) क्षत्रिय- उच्च एवं निम्न मान्यवर या सरदार जिनमें राजा, उच्च पद के लोग, सैनिक एवं प्रशासक भी सम्मिलित हैं।

(iii) वैश्व – व्यापारी एवं कारीगर समुदाय- जिनमें सौदागर, दुकानदार, व्यापारी एवं खेल के मालिक सम्मिलित हैं।

(iv) शूद्र – सेवक या सेवा प्रदान करने वाली प्रजाति में अधिकतर गैर-प्रदूषित कार्यों में लगे शारीरिक श्रम करने वाले व्यक्ति व कृषक सम्मिलित होते हैं।

भारत में आधुनिक सभ्यता से कोसो दूर रहने वाले मानव समूह को जनजाति अथवा वन्यजाति कहते हैं। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 6.78 करोड़ जनजातीय लोग रहते हैं। इन सभी जनजातियों की भाषा, प्रजा विधि तथा संस्कृति भी अलग-अलग है। इसलिए इन सभी जनजातियों में सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है। भारतीय संविधान में संख्या 216 है। परन्तु इनके अतिरिक्त भी ऐसे समुदाय हैं जो जनजातीय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। सम्पूर्ण भारत को जनजातियों की दृष्टिकोण से चार क्षेत्रों में बाँटा गया है।

(i) मध्य क्षेत्र- मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, बिहार, उड़िसा तथा पश्चिम बंगाल की जातियाँ आती हैं।

(ii) उत्तर पूर्वी क्षेत्र – हिमालय की तराई, असम और बंगाल की जनजातियाँ आती हैं।

(iii) दक्षिण क्षेत्र – केरल मैसूर मद्रास तथा पूर्वी पश्चिमी घाटो में रहने वाली जनजातियाँ आती हैं।

(iv) पश्चिमी क्षेत्र – राजस्थान, गुजरात एवं महाराष्ट्र में रहने वाली जनजातियाँ आती हैं।

इस प्रकार देश के सभी भागों जैसे- मध्य प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, आन्ध्र प्रदेश एवं असम आदि में ये जनजातियाँ मुख्य रूप से पाई जाती है। इनमें भी मध्य प्रदेश में इन जातियों का प्रतिशत सर्वाधिक है। जनजातियों की कुल जनसंख्या का विवरण निम्न है- हिमालय का क्षेत्र (11.35 ) मध्य भारत का क्षेत्र (56.88), पश्चिमी भारत का क्षेत्र (24.86) तथा दक्षिणी भारत का क्षेत्र (6.21) है।

इन जनजातियों के व्यवसाय खानपान, रहन-सहन, वैवाहिक सम्बन्ध और रीति-रिवाजों में अनेक विविधताएँ मिलती हैं। ये लोग अपनी सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह करते हुए समूहों में रहते हैं। इस समय भारत की अनेक जनजातियाँ पर-संस्कृ तिकरण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। जनजातीय संस्कृतियों के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए इन्हें विकास के उचित अवसर प्रदान किए जाने चाहिए तथा इन्हें भरतीय संस्कृति की मुख्य धारा में आने का अवसर भी प्रदान किया जाना चाहिए।

(7) विश्वास के स्तर पर विविधता

धार्मिक स्तर पर विविधता होने के कारण, विश्वास के स्तर पर भी विविधता पाई जाती है। हिन्दू धर्म में बहुदेवों की कल्पना की गई है जो व्यावहारिक स्तर पर भी बहु देवों की पूजा एवं विश्वास के रूप में सामने आता है। इसी प्रकार जनजाति क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के टैबू (पूजा पाठ एवं विश्वास) पाएं जाते है। इसी कारण से भारतीय संविधान में धर्म निरपेक्षता को अपनाया गया है तथा समस्त नागरिकों को अपना धर्म, पूजा-पद्धति एवं विश्वास को अपनाने (मानने) की छूट प्रदान की गई। राज्य धार्मिक मामलों में स्वयं को अलग रखता है और विवाद की स्थिति में सामंजस्य या फिर न्यायालय के निर्णय द्वारा समाधान निकाला जाता है।

(8) वैयक्तिक स्तर पर विविधता

भारत एक वैयक्तिक विभिन्नता वाला देश है। वैयक्तिक आधार पर यहाँ गोरे, काले, रंग, लम्बे, छोटे एवं मोटे लोगों में भेद, पतले मोटे स्तर पर विविधता आदि देखने को मिलती है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ न कुछ विषमताएँ अवश्य पाई जाती है। कोई व्यक्ति अधिक सुन्दर तो कोई कुरूप होता है। भारत के प्रत्येक प्रान्त में वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर विविधता देखने को मिल जाती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति प्रायः विशेष पहनावें एवं क्षेत्र से भी प्रभावित होते है जिससे उनमें भिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती है।

अतः उपरोक्त सभी स्तरों पर विविधता का व्यापक स्वरूप देखा जा सकता है। भारत में वैयक्तिक, जातीय, क्षेत्रीय, भाषाई आदि के आधार पर विविधता पाई जाती है। यहाँ समाज के विभिन्न खण्डों में विभाजित करने वाली शक्तियाँ काफी प्रभावशाली है, साथ ही धर्म के क्षेत्र में सम्मिलित कर उनके पालन पर विशेष जोर दिया गया है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति से आशा की गई है कि वह अपनी प्रास्थिति से जुड़े हुए सभी दायित्वों को भली-भाँति निभाएँ ताकि विविधता के होते हुए भी एकता का विकास हो।

विविधता के सन्दर्भ में शिक्षा की भूमिका (Role of Education in the Context of Diversity)

जहाँ तक विविधता की बात है तो ये एक सर्वमान्य सत्य है कि भारत विविधता पूर्ण देश है। इस विविधता पर प्रत्येक भारतीय को गर्व है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक कहना है कि जितनी विविधता सम्पूर्ण विश्व में है इतनी विविधता केवल भारत में है। इस विविधता का ज्ञान हमें शिक्षा के माध्यम से प्राप्त होता है। प्रत्येक व्यक्ति पर्यटन / देशाटन नहीं कर सकता है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, जैसे- आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, प्रशासनिक एवं गरीबी, बीमारी इत्यादि।

भारत में भाषायी, क्षेत्रियता, लैंगिक, जातीय एवं धार्मिक स्तर पर विविधता पाई जाती है। इन सबका ज्ञान हम शिक्षा के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा हम विविधता एवं उससे जुड़े तथ्यों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा एवं विविधता भारत में एक दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। भारतीय समाज की विविधता जैसे- धार्मिक परम्पराएँ, त्योहार, सभ्यता एवं संस्कृति इत्यादि की जानकारी हमें शिक्षा के माध्यम से ही मिलती है। भारतीय एवं विदेशी साहित्यकारों ने भारतीय विविधता के बारे में बहुत कुछ लिखा है जिसका आनन्द एक शिक्षित व्यक्ति ही उठा सकता है। विविधता को जानने एवं उसके विविध पहलुओं को समझने के लिए शिक्षा की आवश्यकता होती है।

इस प्रकार उपर्युक्त तथ्यों के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि विविधता एवं शिक्षा एक-दूसरे के पूरक के रूप में कार्य करते हैं। शिक्षा जहाँ लोगों को ज्ञान देती है वहीं विविधता उसमें रोचकता उत्पन्न करती है।

विविधता में एकता की आवश्यकता एवं महत्व (Need and Importance of Unity in Diversity)

किसी विकासशील राष्ट्र की सुदृढ़ता एवं अस्तित्व उसके नागरिकों में राष्ट्रीय एकता से होता है। हमारा देश एक बहुधर्मी, बहुसंस्कृति, बहुजातीय एवं बहु भाषायी है, फिर भी सभी सम्मिलित रूप से राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बंधे हुए हैं, परन्तु अत्यधिक आधुनिकता के प्रभाव से आज प्रत्येक व्यक्ति ने स्वयं के हित के आगे राष्ट्र हित का विस्मरण कर दिया है जिससे राष्ट्रीय एकता की डोर कमजोर पड़ गई है और इसका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। जिस कारण हमारे देश में राष्ट्रीय एकता लाने की अत्यधिक आवश्यकता एवं महत्व है-

(1) राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से- किसी भी देश की सुरक्षा उसके देश में राष्ट्रीय एकता पर निर्भर करती है। देश की रक्षा हेतु सीमा सुरक्षा बल तैयार किया जाता है जो सीमा पर दुश्मनों से राष्ट्र की रक्षा करने के लिए तत्पर रहते हैं परन्तु कुछ व्यक्ति दुश्मनों के हितैषी होते हैं, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते हैं। अतः इस दृष्टि से इन सभी को राष्ट्रहित से सम्बद्ध किया जाना चाहिए।

(2) वर्ग संघर्ष की समाप्ति की दृष्टि से- वर्गीय विषमता एवं संघर्ष लगभग प्रत्येक राष्ट्र में देखने को मिलता है। भारत में इन वर्गों में प्रायः जाति, धर्म, क्षेत्र एवं संस्कृति इत्यादि के आधार पर संघर्ष देखने को मिलता रहता है। इसके अतिरिक्त राजनैतिक दलों, उद्योगपतियों, मजदूरों एवं सरकारी कर्मचारियों में भी संघर्ष देखने को मिलता रहता है। परिणामतः इन सभी संघर्षों में दंगे, तोड़-फोड़, आगजनी, कामबन्दी / हड़ताल आदि व्यवधान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार के वर्गीय संघर्षों को रोकने की दृष्टि से देश में राष्ट्रीय एकता लाना परम् आवश्यक है।

(3) हम की भावना के विकास की दृष्टि से- प्रत्येक राष्ट्र में वर्गीय संघर्ष समाप्त करने एवं नागरिकों के मध्य ‘हम’ की भावना लाने के लिए राष्ट्रीय एकता की परम् आवश्यकता है। नाम, धर्म, जाति, भाषाएँ एवं क्षेत्रों के अलग होते हुए भी वे ‘हम की भावना’ के द्वारा राष्ट्र के अस्तित्व की रक्षा हेतु अपने व्यक्तिगत हितों को त्यागकर राष्ट्रहित हेतु एकता के सूत्र में बँधे रहें।

(4) लोकतन्त्रीय शासन में आस्था की दृष्टि से- हमारा देश एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र है। यहाँ प्रत्येक नागरिकों को समान अधिकार दिये गए हैं, परन्तु फिर भी नागरिकों की आस्था शासन तन्त्र की सुदृढ़ता में नहीं होती और वे अपने अधिकारों का उचित प्रयोग लोकतन्त्र की स्थापना में नहीं करते। उनमें लोकतन्त्र की आस्था राष्ट्रीय एकता के द्वारा ही उत्पन्न हो सकती है।

(5) क्षेत्रीय संकीर्णता की समाप्ति की दृष्टि से- हमारे देश में राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्नता विद्यमान है और दूसरी कुछ विघटनकारी तत्व इन प्रान्तों में क्षेत्रीय-संकीर्णता उत्पन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। जिसके परिणामस्वरूप इन प्रान्तों में क्षेत्रीय संकीर्णता तथा संघर्ष जन्म लेने लगते हैं तथा सीमा-विवाद, विघटन, व्यापारिक विवाद इत्यादि बढ़ता है। जिसके कारण ये क्षेत्र अपने पृथक अस्तित्व की मांग करने लगते हैं। भारत में झारखण्ड, उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, अरूणाचल प्रदेश आदि क्षेत्रीय – संकीर्णता का ही परिणाम हैं। अतः क्षेत्रीय संकीर्णता की समाप्ति तथा इस-विभाजन को रोकने की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता है।

(6) विघटनकारी तत्वों के उन्मूलन की दृष्टि से- चूँकि हमारे देश में विभिन्न भाषाओं, जातियों, धर्मों, संस्कृतियों इत्यादि के आधार पर भिन्नता पाई जाती है परन्तु फिर भी सभी के मध्य एक समानता या एकता देखने को मिलती है जो उन्हें आपस में जोड़े रखती है, परन्तु कुछ विघटनकारी तत्व देश के नागरिकों में जाति, वर्ग, धर्म, क्षेत्र या भाषा आदि के आधार पर फूट डालने का प्रयत्न करते हैं, उन्हें हिन्दू-मुस्लिम, पिछड़े एवं अनुसूचित आदि जातियों के आधार पर अलग अधिकारों की मांग करने को प्रोत्साहित करते हैं। अतः राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए वैयक्तिक, क्षेत्रीय, जातीय, भाषायी भिन्नता एवं स्वार्थ को त्याग कर समाप्त करने की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता है।

(7) राष्ट्रीय उन्नति एवं जीवन स्तर को उठाने की दृष्टि से- किसी भी राष्ट्र का सम्पूर्ण विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उसके विभिन्न भागों में राष्ट्रीय एकता का समावेश हो तथा उसकी नीतियों-रीतियों एवं जनसहयोग की सम्पूर्ण सहभागिता हो। राष्ट्रीय उन्नति को अग्रसर करने हेतु सर्वप्रथम राष्ट्र संचालनकर्ता राष्ट्रहित को ध्यान में रखे तत्पश्चात् वह उचित नीतियों योजनाओं का आयोजन करें। जिससे राष्ट्र का आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक विकास हो तथा नागरिकों का जीवन स्तर ऊँचा उठे।

अतः उपरोक्त सभी दृष्टिकोणों को ध्यान में रखते हुए किसी राष्ट्र की सम्पूर्ण प्रगति एवं सुचारू व्यवस्था, शान्ति व्यवस्था, सद्भावना, भाईचारा, सुरक्षा, सम्पूर्ण विकास आदि स्थापित करने की दृष्टि से राष्ट्रीय एकता की परम आवश्यकता है।

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