संस्कृति क्या है?
साधारण शब्दों में कहा जा सकता है कि मनुष्य द्वारा अप्रभावित प्राकृतिक शक्तियों को छोड़कर जितनी भी मानवीय दशाएँ हमें चारों ओर से प्रभावित करती है उन्हीं की सम्पूर्ण व्यवस्था को हम संस्कृति कहते है। स्पष्ट है कि संस्कृति का तात्पर्य “शिष्टाचार के ढंगों अथवा विनम्रता मात्र से नहीं बल्कि संस्कृति एक व्यवस्था है जिससे हम जीवन के व्यवहारों के तरीकों, प्रतिमानों बहुत से भौतिक और अभौतिक प्रतीकों, परम्पराओं, विचारों, सामाजिक मूल्यों एव अविष्कारों को सम्मिलित करते है।”
संस्कृति का अर्थ
संस्कृति शब्द संस्कार से बना है संस्कार का अर्थ है शुद्धि की क्रिया अथवा परिष्कार। इसका तात्पर्य यह है कि संस्कृति का सम्बन्ध उन सभी वस्तुओं व विचारों से है जो व्यक्ति का परिष्कार कर सके। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संस्कृति का अभिप्राय सामाजिक प्रशिक्षण के उन तरीकों तथा मानवीय ज्ञान से है जिनके द्वारा समाज में अनुकूलन करना सीखता है। एक व्यक्ति जीवन के आरम्भ से ही परिवार, विद्यालय व बाहरी जगत के उन व्यवहारों को सीखना आरम्भ कर देता जिन्हें उनके समाज में आवश्यक समझा जाता है। एक ओर व्यक्ति को अपनी प्रथाओं तथा परम्पराओं के अनुसार कार्य करना होता है तो दूसरी ओर उसके सामने नई-नई वस्तुओं के उपयोग के तरीकों को सीखने की समस्या रहती है। इस प्रकार कोई व्यक्ति किसी समाज का सदस्य होने के नाते जितने भी भौतिक और अभौतिक व्यवहार को सीखता है वे सभी उसकी संस्कृति के अंग होते हैं।
संस्कृति की परिभाषा
हर्सकोविट्स (Herskovits) ने संस्कृति की बहुत संक्षिप्त परिभाषा देते हुए लिखा है कि “संस्कृति पर्यावरण का मानव निर्मित भाग है । “
According to Herskovits, “Culture is the man-made part of environment.”
अर्थात् हमें चारों ओर से प्रभावित करने वाली सभी दशाओं की (जिन दशाओं और वस्तुओं का निर्माण मनुष्य ने किया है।) सम्पूर्णता का नाम ही संस्कृति है। इस तथ्य को भौतिक तथा संस्कृति की प्रकृति के आधार पर सरलतापूर्वक समझा जा सकता है।
टायलर ने अपनी पुस्तक Primitive Culture में लिखा है कि “संस्कृति वह जटिल सम्पूर्णता है जिससे ज्ञान, विश्वास, कला, आचार, कानून, प्रथा और इसी तरह की उन सभी क्षमताओं का समावेश होता है जिन्हें मनुष्य समाज का सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है। “
According to E.B. Tylor, “Culture is the complete whole which includes knowledge, belief, art, moral, law, custom and any other capabilities and habits acquired by men as a member of society.”
राबर्ट बीरस्टीड, के अनुसार, “संस्कृति एक जटिल सम्पूर्णता है जिसमें वह सभी विशेषताएँ सम्मिलित है जिन पर हम विचार करते है, कार्य करते है और समाज के सदस्य होने के नाते उन्हें अपने पास रखते हैं।”
According to Robert Bierstedt, “Culture is the complete whole that consists of everything we think and do and have as a member of society.”
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि संस्कृति भौतिक व अभौतिक तत्वों की वह जटिल सम्पूर्णता है जिसे व्यक्ति समाज के सदस्य होने के नाते प्राप्त करता है तथा जिससे वह अपना सम्पूर्ण जीवन व्यतीत करता है।
संस्कृति का स्वरूप (Nature of Culture)
संस्कृति स्वयं में एक व्यापक शब्द है जिसमें पूरे मानव जाति के इतिहास का निचोड़ समाहित होता है। अतः संस्कृति का स्वरूप भी बहुत व्यापक होता है। संस्कृति के स्वरूप को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है-
(1) संस्कृति, समाज के मूल्यों, आदर्शों, विचारों एवं प्रतीकों का दायरा है।
(2) संस्कृति, व्यक्ति की सामाजिक विरासत होती है न कि जैविकीय विरासत।
(3) संस्कृति का हस्तान्तरण होता है और इस हस्तान्तरण में भाषा एवं संकेतों का महत्वपूर्ण योगदान होता है।
(4) संस्कृति अर्जित की जाती है और यह अर्जन बहुत धीरे-धीरे होता है अर्थात् संस्कृति के अर्जन की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है।
(5) संस्कृति निरन्तर प्रगतिशील रहती है।
(6) संस्कृति के माध्यम से ही जैविक एवं सामाजिक गतिशीलता बनी रहती है और समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार इसके लिए आदर्श वातावरण का निर्माण करते हैं।
(7) संस्कृति के अन्तर्गत् भौतिक एवं अभौतिक दोनों ही तत्व आते हैं।
(8) मनुष्यों के मध्य होने वाली सामाजिक अन्तक्रिया का परिणाम ही संस्कृति है।
(9) सभी संस्कृतियों का कुछ न कुछ अंश एक-दूसरे में सम्मिलित रहता है।
(10) एक समाज की संस्कृति के अन्तर्गत कई उप-संस्कृतियाँ हो सकती हैं।
(11) संस्कृति का स्वरूप सार्वभौमिक होता है।
(12) संस्कृति का स्वरूप अत्यन्त व्यापक होता है।
(13) संस्कृति में समाज के पूर्व इतिहास का सार सम्मिलित होता है
(14) संस्कृति सदैव विकासशील रहती है अर्थात् संस्कृति सदैव परिवर्तित होती रहती है।
(15) संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व निर्माण में सहायक की भूमिका का निर्वहन करती है।
(16) संस्कृति ही समाज में लोगों को एक सूत्र में बाँध कर रखती है।
(17) संस्कृति ही समाज के आदर्शों के लिए प्रेरणा स्रोत की भूमिका निभाती हैं।
(18) भिन्न-भिन्न समाजों की संस्कृतियाँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं।
संस्कृति की विशेषताएँ (Characteristics of Culture)
संस्कृति की विशेषताएँ बहुत व्यापक है। इन व्यापक विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित हैं-
(1) ग्राह्यता- संस्कृति ग्राह्य की जाती है। मानव की शारीरिक संरचना इस प्रकार की होती है कि अपने पूर्वजो द्वारा अर्जित संस्कृति के साथ दूसरी संस्कृति को ग्रहण कर सकता है। अतः हम कह सकते हैं संस्कृति सर्वग्राही होती है।
(2) सामाजिक विरासत– संस्कृति सामाजिक विरासत का वह लक्षण है जो हमने अपने पूर्वजों से सीखा है। मनुष्य संस्कृति को बिना किसी प्रयास के अचेतन मन से ही सीख लेता है। बिना संस्कृति के आदर्श को सीखे मनुष्य समाज के साथ सामंजस्य नहीं बना सकता है। समाज ऐसे व्यक्ति को स्वयं में सम्मिलित नहीं करता है। अतः मनुष्य को सामाजिक विरासत के आदर्शों का अनुसरण करना होता है।
(3) संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमान हैं- संस्कृति में सीखे जाने का गुण विद्यमान होता है अतः संस्कृति सीखे हुए व्यावहारिक आदर्शों का सम्पूर्ण योग है। संस्कृति को समाज में आकर ही सीखा जाता है क्योंकि संस्कृति कोई जन्मजात गुण नहीं है। बालक जैसे-जैसे समाज के सम्पर्क में आता है वैसे-वैसे समाज की संस्कृति के (रीति-रिवाज, आचार-विचार, नियम इत्यादि) आदर्शों को सीखता जाता है।
(4) संस्कृतिक एक स्वाभाविक प्रक्रिया है- संस्कृति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि मनुष्य जन्म के पश्चात् स्वाभाविक रूप से संस्कृति के आदर्श प्रतिमानों को स्वयं में आत्मसात् करके उनका अनुसरण करने की कोशिश करता है।
(5) संस्कृति मानव-समाज का सार है- समाज के नैतिक, चारित्रिक एवं व्यावहारिक आदर्शों की झाँकी संस्कृति में मिलती है। समाज की संस्कृति के मापदण्ड द्वारा किसी विशेष काल में समाज के विकास को मापा जा सकता है। संस्कृति सम्पूर्ण मानवीय इतिहास का सार है क्योंकि इसमें समाज के सम्पूर्ण गुणों के इतिहास का निचोड़ सम्मिलित होता है।
(5) संस्कृति में हस्तान्तरित होने का गुण होता है- संस्कृति को सामाजिक विरासत भी कहा जाता है क्योंकि संस्कृति में सीखे जाने का ही नहीं बल्कि हस्तान्तरित होने का गुण भी विद्यमान होता है। संस्कृति को एक पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को हस्तांतरित करती चलती है। संस्कृति हस्तान्तरण करने का सबसे उचित माध्यम मानव भाषा एवं प्रतीक होते हैं। इन्हीं माध्यमों के द्वारा संस्कृति का हस्तान्तरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में होता है और यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है।
(7) संस्कृति परिवर्तनशील होती है- संस्कृति के हस्तान्तरण के कारण उसमें परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होता रहता है क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी इसमें अपनी सुविधा एवं परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन करती है। जिससे संस्कृति में पीढ़ी दर पीढ़ी परिवर्तन होता रहता है। इसीलिए संस्कृति को एक निरन्तर चलने वाली एवं परिवर्तनशील प्रक्रिया कहा जाता है।
श्री जे. एफ. क्यूबर के अनुसार, “संस्कृति सीखे हुए व्यवहार तथा सीखे हुए व्यवहारों के ऐसे परिणामों (जिसमें मनोवृत्तियाँ, ज्ञान व भौतिक वस्तुएँ सम्मिलित हैं) का निरन्तर परिवर्तनशील प्रतिमान है जिनका समाज के सदस्यों द्वारा प्रयोग और उन्हीं में हस्तान्तरित होता है।”
(8) संस्कृति में सन्तुलन तथा संगठन का गुण निश्चित होता है- संस्कृति विभिन्न प्रकार की इकाइयों से मिलकर बनी हुई है। ये सभी इकाइयाँ एक दूसरे से सह-सम्बन्धित होती हैं। अतः एक इकाई में हुए परिवर्तन का असर किसी किसी रूप में दूसरी इकाइयों पर भी पड़ता है। ये सारी इकाइयाँ एक साथ मिलकर कार्य करती हैं इनका पृथक-पृथक कोई अस्तित्व नहीं है। प्रत्येक इकाई का एक निश्चित एवं सुव्यवस्थित क्रम होता है एवं प्रत्येक इकाई का एक निश्चित कार्य होता है।’
(9) संस्कृति मानव आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक होती है- जैसा कि उपरोक्त बिन्दु में स्पष्ट किया गया है कि संस्कृति अनेक इकाइयों का सुव्यवथित ढंग से संगठित रूप है। प्रत्येक इकाई का अपना एक अलग कार्य है। इन कार्यों के माध्यम से ही समाज के अन्तर्गत् व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। जो संस्कृति समाज में व्यक्ति की शारीरिक सामाजिक एवं मानसिक आवश्यकताओं में असफल रहती है। उस संस्कृति में निरन्तरता बने रहने की सम्भावना कम रहती है। संस्कृति के माध्यम से मनुष्य अपने जीवन की प्रत्येक गतिविधि (भोजन, वस्तु, आवास, खोज, सामाजिक आदर्शों के अनुरूप व्यवहार इत्यादि) को सिखाती है। अतः हम कह सकते हैं कि संस्कृति के माध्यम से मानव आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
(10) संस्कृति में व्यवस्थापन या अनुकूलन करने का गुण होता है- जैसा कि हमें ज्ञात हो चुका है कि मानव आवश्यकताओं की पूर्ति संस्कृति के माध्यम से होती है। अतः संस्कृति स्वयं को मानव आवश्यकताओं के अनुरूप खुद में परिवर्तन करके व्यवस्थित करती रहती है। इसके लिए संस्कृति को तत्कालीन भौगोलिक एवं सामाजिक दशाओं के अनुरूप स्वयं को व्यवस्थित करना पड़ता है।
श्री पिडिंगटन के अनुसार, संस्कृति को उन भौतिक तथा बौद्धिक साधनों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिनके द्वारा मानव अपनी जैविकीय एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा अपने वातावरण के साथ अनुकूलन करता है।
According to Piddington, “The culture of people may be defined as the sum total of the material and intellectual equipment whereby they satisfy their biological and social needs and adopt themselves to their environment.”
(11) संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है- आदर्श संस्कृति के अन्तर्गत् समाज के आदर्श नियम एवं आदर्श प्रतिमान आते हैं। इन सामाजिक आदर्शों का अनुसरण समाज के सदस्यों को करना होता है। समाज के सदस्य द्वारा इन आदर्शों के अनुकूल आचरण किया जाता है तो उसकी प्रशंसा की जाती है एवं सामाजिक आदर्शों के प्रतिकूल आचरण करने वाले व्यक्ति की निंदा होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है।
(12) संस्कृति सार्वभौमिक, सामाजिक और विशिष्ट होती है- हर समाज की अपनी अलग संस्कृति होती है। समाज चाहे छोटा हो या बड़ा उसकी अपनी एक संस्कृति होती है। बिना संस्कृति के समाज की कल्पना मात्र कोरी कल्पना ही है। समाज आधुनिक हो अथवा प्राचीन, उन्नत हो अथवा पिछड़ा हुआ, छोटा हो या बड़ा उसकी अपनी एक संस्कृति अवश्य होगी। संस्कृति के अन्तर्गत् सम्पूर्ण समाज आता है न कि व्यक्ति विशेष। संस्कृति का निर्माण किसी एक व्यक्ति के द्वारा नहीं किया जा सकता है। इसका निर्माण तो समाज के अन्तर्गत होने वाली अन्तःक्रिया से ही सम्भव है। अर्थात् संस्कृति किसी एक व्यक्ति पर निर्भर न होकर पूरे समाज पर निर्भर होती है। प्रत्येक समाज की अपनी एक अलग विशिष्टता होती है जो उस समाज की संस्कृति में साफ परिलक्षित होती है। इस विशिष्टता का प्रमुख कारण उस समाज की सामाजिक, आर्थिक एवं भौगोलिक परिस्थितियाँ होती है।
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