B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

भारतीय समाज- प्रकृति, स्वरूप, विशेषताएँ, मूल प्रवृत्तियाँ, समाज का शिक्षा पर प्रभाव

भारतीय समाज
भारतीय समाज

भारतीय समाज (Indian Society)

भारत विविधता युक्त समाज है। भौगोलिक बनावट, जलवायु, जनसंख्या, प्रजाति, धर्म, इतिहास, राजनीति, भाषा, संस्कृति एव बहुसमाज व्यवस्था की दृष्टि से भारत के विभिन्न भागों में अनेक विषमताएँ पाई जाती हैं। इन विभिन्नताओं के बावजूद भी विभिन्न लोगों जातियों एवं समुदायों के मध्य एक अनोखी समानता एवं एकता भारत में सदैव विद्यमान रही है। भारत के उत्तर में हिमालय, दक्षिण में पठार तथा समुद्र तट, पश्चिम में थार का रेगिस्तान, पूर्व में पहाड़ी भाग तथा मध्य में मैदानी भाग ने यहाँ की सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्था एवं संस्कृति को प्रभावित किया है। पहाड़ी, मैदानी, पठारी तथा समुद्र तटीय क्षेत्रों के निवासियों के खान-पान, पहनावे भाषा रहन-सहन, प्रथाओं, त्योहारों तथा उत्सवों में विभिन्नताएँ पाई जाती हैं फिर भी सम्पूर्ण भारत एक संगठित इकाई एवं राष्ट्र है। भारतीय संविधान में इस एकता को बनाए रखने का आश्वासन दिया गया है। तथा सभी धर्मों, भाषाओं, प्रान्तों जातियों तथा प्रजातियों के लोगों के हितों की रक्षा करने एवं देश के पिछड़े, दुर्बल एवं निर्धन लोगों के उत्थान के लिए कल्याणकारी योजनाएँ बनाने की बात कही गई है।

भारतीय समाज की प्रकृति, स्वरूप एवं विशेषताएँ (Nature, Forms and Characteristics of Indian Society)

भारतीय समाज की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) विविधता में एकता (Unity in Diversity) – विविधता में एकता भारतीय समाज की अनुपम विशेषता है। यहाँ भाषा, धर्म, जाति, भौगोलिक पर्यावरण, जनसंख्या, प्रजाति जनजाति आदि के आधार पर अनेक विभिन्नताएँ व्याप्त है। फिर भी उनमें एकता के दर्शन होते हैं।

(2) संयुक्त व्यवस्था (Joint Arrangements) – भारत में संयुक्त परिवार व्यवस्था का प्रचलन आदि काल से चला आ रहा है। इसमें 3-4 या अधिक पीढ़ियों के सदस्य एक साथ निवास करते हैं, उनकी सम्पत्ति सामूहिक होती है, वे सामान्य पूजा में भाग लेते हैं एवं सभी सदस्य परिवार के मुखिया के अधीन होते हैं।

(3) धर्म की प्रधानता (Primacy of Religion) – भारतीय समाज धर्म प्रधान है। भारतीय समाज में मानव जीवन के प्रत्येक व्यवहार को धर्म के द्वारा नियन्त्रित करने का प्रयास किया जाता है। भारतीय समाज के विभिन्न अंगों पर धर्म की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। प्रत्येक भारतीय अपने जन्म से मृत्यु तक सूर्योदय से सूर्यास्त तक दैनिक व वार्षिक जीवन में अनेक धार्मिक कार्यों की पूर्ति करता है।

(4) जाति-व्यवस्था (Caste System) – भारतीय समाज में जाति व्यवस्था के आधार पर सम्पूर्ण समाज को कई छोटे-छोटे उप-भागों में बाँटा गया है। अति प्राचीन काल में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र- चार वर्ण थे जो कालान्तर में चलकर जाति के रूप में विकसित हो गए। जाति व्यवस्था भारतीयों के जीवन को विभिन्न रूपों में प्रभावित करती है। जाति की सदस्यता जन्म से प्राप्त होती है, प्रत्येक जाति की समाज में एक विशिष्ट स्थिति होती है।

(5) सहिष्णुता (Tolerance)- भारतीय समाज की एक महान विशेषता इसकी सहिष्णुता है। भारत में सभी धर्मों, जातियों, प्रजातियों एवं सम्प्रदायों के प्रति उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम-भाव पाया जाता है। हमारा भारतीय समाज किसी के प्रति भी कठोरता या द्वेष-भाव नहीं रखता है।

(6) आध्यात्मवाद (Spiritualism) – भारतीय समाज में आध्यात्मवाद को महत्व दिया गया है। भौतिक सुख एवं भोग-लिप्सा कभी भी जीवन का ध्येय नहीं माना गया। आत्मा एवं ईश्वर के महत्व को स्वीकार किया गया तथा शारीरिक सुख के स्थान पर मानसिक एवं आध्यात्मिक आनन्द को सर्वोपरि माना गया है। धर्म एवं आध्यात्मिक आनन्द को सर्वोपरि माना गया है। धर्म एवं आध्यात्मिकता भारतीय समाज की आत्मा है।

(7) समन्वय (Coordination) – भारतीय समाज की उदार एवं सहिष्णु प्रकृति के कारण ही इसमें विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय हो पाया है। भारतीय संस्कृति वह समुद्र है जिसमें विभिन्न संस्कृति रूपी सरिताएँ अपना पृथक अस्तित्व समाप्त कर विलीन हो गई है।

(8) कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त (Doctrine of Karma and Rebirth) – भारतीय समाज में कर्म को अधिक महत्व दिया गया है। यहाँ यह माना जाता है कि अच्छे कर्मों का फल अच्छा तथा बुरे कर्मों का फल बुरा मिलता है। श्रेष्ठ कर्म करने वाले को उच्च योनि में जन्म मिलता है जबकि बुरे कर्म करने वाले निम्न एवं हेय योनि में जन्म लेते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त विशेषताएँ भारतीय समाज की ऐसी विशेषताएँ है जिनके कारण भारतीय समाज आज तक जीवित है तथा विश्व में उसे सम्मान एवं आदर की दृष्टि से देखा जाता है।

भारतीय समाज की मूल प्रवृत्तियाँ (Basic Trends of Indian Society)

मैक्डूगल के अनुसार मानव व्यवहार सप्रयोजन होता है और उसका आधार मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। मूल प्रवृत्तियाँ जन्मजात स्वाभाविक और सर्वमान्य होती हैं तथा ये सभी चेतन प्राणियों में समान रूप से मिलती हैं। पशु एवं मनुष्य जैसे सभी प्राणियों में इसी की प्रेरणा से व्यवहार होता है। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है इस प्रकार मनुष्य में तथा संवेदनशीलता है साथ-ही-साथ उसमें कुछ मूल प्रवृत्तियाँ भी पाई जाती हैं। मनुष्य कुछ गतिशीलता की न्यूनतम इकाई परिवार है तथा व्यक्ति मिलकर परिवार का निर्माण करते हैं। परिवारों का सम्मिलित रूप समुदाय कहलाता है तथा समुदाय से ही समाज का निर्माण होता है। व्यक्ति विशेष की प्रवृत्तियाँ सामाजिक रूप ले लेती हैं और व्यक्तियों की समान प्रवृत्तियाँ समाज की प्रवृत्तियों का रूप ले लेती है। भारतीय समाज की कुछ मूल प्रवृत्तियाँ है जिन्हें हम निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-

(1) मानवीय प्रवृत्तियाँ (Human Tendencies) – मानव एक सामाजिक प्राणी है और वह निरन्तर अपने परिचित व्यक्तियों के समूह में रहना चाहता है। यह समूह उसका परिवार, जाति, सहकर्मी या समुदाय हो सकता है। मानव की समूह में रहने की ही प्रवृत्ति समुदाय एवं समाज को जन्म देती है। मानव समाज में विभिन्न परम्पराओं का क्रियान्वयन करता है जो धीरे-धीरे व्यक्ति एवं समाज की आवश्यकता एवं प्रवृत्ति बन जाती है। मानव समाज में कर्मकाण्ड, अन्धविश्वास और सामाजिक ऊँच-नीच जैसे प्रवृत्तियों का जन्म होता है। प्राचीन काल से चली आ रही इन क्रियाओं को समाज अपनी परम्परा बना लेता है तथा उनमें सुधार नाममात्र भी नहीं होता है। इस प्रकार से परम्पराएँ समाज की मूल प्रवृत्ति बन जाती है।

(2) जातीयता की प्रवृत्ति (Trend of Ethnicity) – भारतीय समाज में जातीयता की प्रवृत्ति प्रारम्भ से विद्यमान रही है। भारतीय समाज विभिन्न जाति, वर्ग, समूह, समुदाय एवं धर्म का सम्मिश्रण है। इसलिए भारतीय समाज में जातीयता की प्रवृत्ति होना स्वाभाविक है। इन समाजों में भले ही विभिन्न वर्गों, जातियों एवं समुदायों का निवास हो परन्तु उनकी परम्पराएँ एवं प्रवृत्तियाँ एक समान होती है। प्रारम्भिक काल से ही भारतीय समाज में जाति एवं वर्ग का विभाजन रहा है। वर्ग के सामाजिक एवं आर्थिक स्तर में विभिन्नताएँ होती हैं और इन्हीं के सन्दर्भ में उनमें प्रवृत्तियों का निर्माण होता है। वर्तमान में भी जातीयता भारतीय समाज की मूल प्रवृत्ति बन चुकी है।

(3) सामाजिक संगठन (Social Organisation) – भारतीय समाज में संगठन का बहुत ही महत्व रहा है सामाजिक संगठन की दृष्टि से प्रत्येक गाँव में पंचायत या चौपाल की व्यवस्था थी जहाँ ग्रामीण लोग आपसी झगड़े एवं विवादों का निराकरण करते थे और पंचायत अथवा चौपाल द्वारा दिया गया निर्णय सर्वमान्य होता था। वर्तमान में पंचायत अथवा चौपाल का स्वरूप बदल गया है परन्तु समाज की क्रियाएँ एवं व्यवस्थाएँ अपने उसी रूप में चल रही है। वर्तमान में पंचायत अथवा चौपाल का विकसित रूप देखने को मिलता है परन्तु प्रवृत्तियाँ उसी रूप में चली आ रही हैं तथा समाज में विद्यमान हैं। इस प्रकार संगठनात्मक व्यवस्था भारतीय समाज की मूल प्रवृत्ति बन गई है।

(4) सामाजिक उत्सव (Social Event) – सामाजिक उत्सव का पर्याय प्रायः वृत्ति एवं व्यवसाय, धनार्जन एवं मनोरंजन के लिए होता था। सामाजिक उत्सव के अन्तर्गत मेलों, उत्सवों, नृत्य एवं गायन का प्रचलन रहा है। समाज के विभिन्न व्यक्ति इन उत्सवों में भाग लेते हैं। कुछ अपने वृत्तिक का संचालन करते हैं तो कुछ अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भ्रमण करते हैं। भारतीय ग्रामीण समाज मेलों तथा उत्सवों का बहुत शौकीन होता है इसके लिए विभिन्न सार्वजनिक स्थान निर्धारित होते हैं। ये सामाजिक उत्सव विभिन्न धर्म, महापुरुष, कक्षाओं, दैवीय क्रियाओं पर भी आधारित होते हैं। भारतीय समाज आज भी इन सामाजिक मूल्यों को संजोए हुए हैं तथा ये क्रियाएँ आज भी उसी रूप में प्रचलित हैं। इस प्रकार भारतीय समाज में उत्सव एक मूल प्रवृत्ति बन गई है।

(5) धार्मिक प्रवृत्तियाँ (Religious Tendencies) – भारतीय समाज के ग्रामीण परिवेश में बहुत सी धार्मिक प्रवृत्तियाँ प्रचलित हैं। भारतीय समाज विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों का समावेश हैं। प्रत्येक धर्म की अपनी मान्यताएँ हैं तथा उन्हीं मान्यताओं पर आधारित उनके कर्मकाण्ड, अनुष्ठान एवं देवी-देवता हैं। इन कर्मकाण्डों के निर्वहन हेतु अलग-अलग पूजा स्थलों की व्यवस्था होती है। इन स्थलों में मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारा आदि हैं। भारतीय समाज आज भी इन्हीं प्रवृत्तियों का अनुसरण कर रहा है तथा उसी स्वरूप में समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठानों, कर्मकाण्डों का संचालन करता है। ये सामाजिक क्रियाएँ भारतीय समाज की मूल प्रवृत्ति बन गई है।

(6) आर्थिक एवं सामाजिक अन्तर्निर्भरता (Economic and Interdependence)- भारतीय समाज में विभिन्न जाति एवं समुदाय के लोग निवास करते हैं जिनके अपने-अपने स्वतन्त्र व्यवसाय हैं। इन व्यवसायों में कृषि, लोहार, Social बढ़ई, घोषी, नाई, कुम्हार, ग्वाला आदि हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक दूसरे पर निर्भर रहता है। इनके द्वारा उनके व्यवसाय को बल मिलता है तथा सामाजिक अन्तर्निर्भरता भी बनी रहती है। वर्तमान में भी भारतीय समाज अपनी आर्थिक क्रियाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु एक दूसरे पर निर्भर रहता है। इस प्रकार आर्थिक एवं सामाजिक अन्तर्निर्भरता भारतीय समाज की मूल प्रवृत्ति बन गई है।

(7) सांस्कृतिक प्रवृत्ति (Cultural Tendency) – भारतीय समाज में विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक पहचान अक्सर उनके धर्म, क्षेत्र तथा जातीयता के आधार पर की जाती है। वास्तविकता यह है कि सांस्कृतिक रूप से भारतीय समाज के किसी भी धार्मिक समुदाय में कोई समरूपता नहीं है। क्षेत्रीयता के आधार पर प्रत्येक वर्ग एवं समुदाय अलग-अलग प्रवृत्तियों का अनुपालन करते हैं। ये प्रवृत्ति भारतीय समाज में प्राचीन काल से चली आ रही है तथा मूल प्रवृत्ति बन चुकी है।

(8) सुरक्षात्मक प्रवृत्ति (Protective Tendency) – मानव में सुरक्षा की भावना निहित होती है और वह इसी दृष्टि से ग्राम समुदाय एवं समाज जैसे परिवेश का निर्माण करता है। सामान्यतः जिन क्षेत्रों में सुरक्षा की भावना अच्छी होती है और चोर, लुटेरों एवं असामाजिक तत्वों का भय नहीं होता है वहीं पर बस्तियों एवं निवास का स्थान बनता है। जनसंख्या का दबाव उन्हीं क्षेत्रों पर सिमटता चला जाता है। भारतीय समाज की ये प्रवृत्ति आज भी समाज में विद्यमान है। आज भी व्यक्ति एवं समाज सुरक्षा की भावना से अभिभूत होकर अपने निवास, व्यवसाय इत्यादि का चयन करता है अतः यह भारतीय समाज की प्रवृत्ति प्राचीन काल से चली आ रही है।

उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन द्वारा स्पष्ट होता है कि भारतीय समाज में प्राचीन काल से पारम्परिक रूप से चली आ रही विभिन्न परम्पराएँ, क्रियाएँ एवं मान्यताएँ आज भी भारतीय समाज में विद्यमान हैं। उनके स्वरूप में समय एवं परिस्थिति के अनुसार बहुत कम ही परिवर्तन आए हैं। उनकी धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, मानवीय एवं जातीय प्रवृत्तियाँ आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं। ये परम्पराएँ तथा प्रवृत्तियाँ अपने प्राचीन मूल्यों एवं संस्कारों के संरक्षण का कार्य करती हैं तथा सामाजिक रूप से इनका अपना महत्व है।

शिक्षा व समाज में सम्बन्ध (Relation between Education and Society)

वर्तमान में ही नहीं अपितु प्राचीनकाल से ही हमें यह देखने को मिलता है कि समाज के स्वरूप के आधार पर शिक्षा के स्वरूप को भी रखा जाता है। वर्तमान समय में समाज अपने सिद्धान्तों के अनुसार ही शिक्षा की व्यवस्था करता है।

ओटावे के अनुसार, “किसी भी समाज में दी जाने वाली शिक्षा समय-समय पर उसी प्रकार बदलती है, जिस प्रकार समाज बदलता है।”

इसे निम्न उदाहरणों द्वारा और अधिक स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं-

(1) भौतिकवादी समाज (Materialistic Society)- शिक्षा की ऐसी व्यवस्था जिससे समाज व्यावसायिक सम्पन्नता प्राप्त करे इसमें भौतिक सुख-सुविधाओं को ज्यादा महत्व दिया जाता है।

(2) आदर्शवादी समाज (Idealistic Society)- इसमें आध्यात्मिकता को अधिक महत्व दिया जाता है। अतः ऐसे समाज की शिक्षा में चारित्रिक गठन एवं नैतिक विकास पर बल दिया जाता है।

(3) प्रयोजनवादी समाज (Pragmatic Society) – प्रयोजनवादी के अनुसार इस परिवर्तित समाज में शिक्षा का स्वरूप भी बदलते रहना चाहिए। अतः “इस प्रकार समाज व शिक्षा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं; एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है, दोनों एक दूसरे पर पूर्णतया निर्भर हैं, अतः समाज पर शिक्षा के प्रभाव व शिक्षा पर समाज के प्रभाव को समझते हुए हम इसके सम्बन्ध को और अधिक अच्छे से समझ सकेगें “।

समाज का शिक्षा पर प्रभाव (Effect of Society on Education)

शिक्षा पर समाज के प्रभाव को हम निम्न बिन्दुओं के माध्यम से समझ सकते हैं-

(1) समाज की भौगोलिक स्थिति और शिक्षा (Geographical Situation of Society and Education)- किसी भी समाज का जीवन उसकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार बदलता रहता है। जिस समाज की भौगोलिक स्थिति मानव जीवन के अनुकूल होती है और प्राकृतिक संसाधन भी भरपूर होते हैं। उनमें व्यक्तियों के पास शिक्षा हेतु समय व धन दोनों होते हैं। परिणामतः उनमें शिक्षा की उचित व्यवस्था होती है परन्तु जिस समाज की भौगोलिक स्थिति ऐसी हो जिसमें मनुष्य को जीवन रक्षा के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ता है। उनमें शिक्षा हेतु समय व धन की कमी होती है और वहाँ शिक्षा का क्षेत्र भी सीमित होता है।

(2) समाज की संरचना और शिक्षा (Structure and Education of Society)- भिन्न-भिन्न समाज का स्वरूप भी भिन्न ही होता है। किसी समाज में जातियाँ होती है व जाति-भेद भी, कुछ समाज में जातियाँ तो होती हैं परन्तु जाति भेद नहीं होते हैं। भारतीय समाज में जहाँ प्राचीन समय में शूद्र को उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया जाता था वहाँ आज इस प्रकार का कोई जाति-भेद देखने को नही मिलता है।

(3) राजनीतिक दशाओं का प्रभाव ( Influence of Political Conditions) – शिक्षा पर समाज की राजनीतिक दशाओं का भी प्रभाव पूर्णतः पड़ता है जिस समाज की राजनीतिक स्थिति जैसी होती है उसके शिक्षा का स्वरूप भी वैसे ही देखने को मिलता है। यही कारण है कि आज अमेरिका, रूस, चीन, जापान तथा भारत इत्यादि में शिक्षा की व्यवस्था राजनीतिक दशाओं के आधार पर ही देखने को मिलता है।

(4) समाज की संस्कृति और शिक्षा (Culture and Education of Society)- किसी भी समाज की संस्कृति, उस समाज की रहन-सहन, खान-पान, व्यवहार, प्रतिमान, विश्वास, परम्पराएँ, आचार-विचार, रीति-रिवाज, आदर्श, मूल्य, कला, कौशल, संगीत, नृत्य, साहित्य, भाषा, धर्म, दर्शन आदि हैं। किसी भी समाज का उसकी संस्कृति पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है।

(5) आर्थिक दशाओं का प्रभाव (Influence of Economic Condition) – समाज की आर्थिक दशा का भी प्रभाव शिक्षा पर पड़ता है जिस समाज की आर्थिक दशा अच्छी होती है वहाँ शिक्षण संस्थाएँ खोली जाती हैं, उच्च भवन की व्यवस्था की जाती है। इसके विपरीत जिस समाज की आर्थिक स्थिति अच्छी नही होती वहाँ व्यावसायिक शिक्षा, निःशुल्क शिक्षा के बारे में सोचना कल्पना मात्र है।

(6) शिक्षा व सामाजिक परिवर्तन (Education and Social Change)- समाज परिवर्तनशील होता है। अतः समाज के साथ उसके शिक्षा के स्वरूप भी बदलते रहते हैं, जैसे – प्राचीनकाल में भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता पर ज्यादा बल दिया जाता था परन्तु वर्तमान में विज्ञान और तकनीकी की शिक्षा को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। आज नारियाँ, पुरूष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती हैं यह सामाजिक परिवर्तन का एक अच्छा उदाहरण है।

शिक्षा का समाज पर प्रभाव (Effect of Education on Society)

जिस प्रकार एक तरफ समाज, शिक्षा को प्रभावित करता है वहीं दूसरी ओर इस बात को भी हम नकार नहीं सकते कि शिक्षा भी काफी हद तक समाज की सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक दशा को प्रभावित करती है। जिसे निम्न बिन्दुओं द्वारा अधिक स्पष्ट रूप से समझाया जा सकता है-

(1) शिक्षा व सामाजिक परिवर्तन (Education and Social Change)- आधुनिक समय में विज्ञान तथा अनुसंधान के क्षेत्र में विभिन्न तकनीकियों एवं प्रविधियों (Techniques) के क्षेत्र में नवीन परिवर्तन शिक्षा की ही देन है। शिक्षा ही सामाजिक परिवर्तन का मूल कारण है जिसका मुख्य कारण मनुष्य द्वारा सादा जीवन न अपनाकर प्रभुत्व सम्पन्न जीवन को अपनाना हैं।

(2) शिक्षा द्वारा समाज की भौगालिक स्थिति पर नियंत्रण (Control on Geographical Situation of Society by Education)- शिक्षा के माध्यम से समाज की वे भौगोलिक स्थितियाँ जो मनुष्य के मार्ग में बाधा उत्पन्न करती थी उन पर नियंत्रण पा लिया गया है। आज ‘जलयान’ के निर्माण से समुद्र तक को हम आसानी से पार कर सकते हैं, अतः शिक्षा के माध्यम से ही हम इन भौगोलिक स्थितियों पर नियंत्रण पा सकते हैं।

(3) सामाजिक विरासत का संरक्षण (Preservation of Social Heritage)- प्रत्येक समाज को अपनी संस्कृति व सभ्यता पर गर्व होता है अतः प्रत्येक समाज अपने समाज के रीति-रिवाज, परम्पराएँ, मूल्यों, आदशों इत्यादि को संरक्षित रखना चाहता है, अतः शिक्षा इस कार्य में समाज को अपना पूर्ण सहयोग देता है।

(4) शिक्षा द्वारा समाज का राजनीतिक विकास (Political Development of Society by Education)- शिक्षा के माध्यम से ही व्यक्ति समाज की राजनीतिक जागरूकता से परिचित होता है, उसे अपने कर्तव्यों एवं अधिकारों का ज्ञान होता है। इस प्रकार एक शिक्षित व्यक्ति ही अपने देश की राजनीतिक विचारधारा की रक्षा एवं उसका विकास कर सकता है।

(5) सामाजिक भावना की जागृति (Awaking of Social Feeling) – किसी भी व्यक्ति की उन्नति हेतु उसमें सामाजिक भावना का विकास अवश्य करना चाहिए, यह कार्य केवल शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। अतः शिक्षा बालक के समाजीकरण का एक सशक्त साधन है।

(6) शिक्षा व समाज की आर्थिक स्थिति (Economic Condition of Education and Society)- आज शिक्षा, समाज की आर्थिक स्थिति का मूलाधार है। शिक्षा के द्वारा ही व्यक्ति को किसी उत्पादन कार्य में निपुण करने का पूरा प्रयत्न किया जाता है।

इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि शिक्षा व समाज दोनों ही एक दूसरे के परक होते हैं। जिस प्रकार का समाज होता है, वहाँ शिक्षा की व्यवस्था वैसे ही सुनिश्चित की जाती है। अतः समाज व शिक्षा के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। दोनों ही पर पूरी तरह आश्रित हैं। अतः एक के बिना दूसरे की कल्पना करना मात्र एक कल्पना ही होगी और कुछ भी नहीं।

Important Links

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment