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बहुसांस्कृतिक शिक्षा के लक्ष्य | बहुसांस्कृतिक शिक्षा के पक्ष

बहुसांस्कृतिक शिक्षा के लक्ष्य
बहुसांस्कृतिक शिक्षा के लक्ष्य

बहुसांस्कृतिक शिक्षा (MULTICULTURAL EDUCATION)

प्रस्तावना (Introduction)

बहुसांस्कृतिकता या सांस्कृतिक विविधता भारतीय समाज की वस्तुनिष्ठ वास्तविकता है और यह बहुसांस्कृतिकता भाषा, रीति-रिवाज, मूल्यों, संख्या, पहनावे व खान-पान के रूप में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। ‘सहभागी बहुलवाद’ से तात्पर्य ऐसी प्रक्रिया से है जिसमें सामाजिक न्याय के लक्ष्य को ध्यान में रखकर, पदानुक्रम को तोड़ते हुए, विविधता बनाए रखने की बात की जाती है। इस तरह का बहुसांस्कृतिवाद विभिन्न समूहों के बीच दूरी कम करने की बात करता है, जिसके लिए कठिन प्रयासों के साथ-साथ दूसरों की अस्मिता का सम्मान करने की आवश्यकता होती है। भारतीय समाज में उपलब्ध इस सांस्कृतिक विविधता एवं बहुलवाद की छाप इसकी विभिन्न संस्थाओं पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है, हमारी शैक्षिक संस्थाएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं, आज हमें सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक व आर्थिक रूप से भिन्न-भिन्न समूह विद्यालयों एवं कक्षाओं में दिखाई देते हैं। यह सांस्कृतिक विविधता शैक्षिक प्रक्रिया में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है क्योंकि संस्कृति व्यक्ति के ज्ञान, उस ज्ञान को अर्जित करने के रास्तों एवं उस ज्ञान को पाकर उसे समाज में क्या भूमिका निभानी है को स्पष्ट रूप से प्रभावित करती है।

संस्कृति एवं शिक्षा के सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए अनेक अध्ययन हुए जिसमें विभिन्न विद्वानों ने विद्यालयों में बच्चों के सांस्कृतिक व सामाजिक परिवेश को महत्त्व देने की बात कही है। डेलपिट (1992) अपने लेख में ऐसे कई उदाहरण प्रस्तुत करती हैं जो बच्चों के घर की संस्कृति एवं स्कूल की संस्कृति में उपस्थित विरोधाभास को उजागर करते हैं। इन उदाहरणों के माध्यम से वे स्पष्ट करती हैं कि अगर विद्यालयों एवं शिक्षकों के द्वारा बच्चों के सांस्कृतिक परिवेश को समझने का प्रयास नहीं किया जाता है तो छात्रों में अस्मिता, द्वन्द्व व संकट के साथ आत्मविश्वास की कमी जैसी समस्याएँ बढ़ने की सम्भावना अधिक हो सकती है। हॅर्नानडेज, (1989) का भी मानना है कि शिक्षण एक अन्तर्सास्कृतिक प्रक्रिया है उनके अनुसार सभी बच्चों एवं शिक्षकों का एक सांस्कृतिक परिवेश होता है, उनके अपने कुछ मूल्य, रीति-रिवाज, दृष्टिकोण, व्यवहार एवं पूर्वाग्रह हो सकते हैं। ये सांस्कृतिक पक्ष शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं एवं इनका विद्यार्थियों के व्यवहारों व शिक्षण पर महत्वपूर्ण भाषा में नस्ल का किसी भी व्यक्ति की स्कूल में उपलब्धि में स्कूल के प्रति उसके जरिये पर प्रभाव पड़ सकता है।

डेलपिट हॅर्नानडेज के अलावा अन्य बहुत से शिक्षाविद एवं विद्वान जैसे- बैंक शीट भी शिक्षा व सांस्कृतिक विविधता के बीच गहरा सम्बन्ध रखते हैं एवं शिक्षा को छात्रों के सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ने के लिए बहुसांस्कृतिक शिक्षा को एक उपाय के रूप में सुझाते हैं। बहुसांस्कृतिक शिक्षा एक ऐसा उपागम है जिसमें सामाजिक में सांस्कृतिक रूप से भिन्न छात्रों की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सबको समान अकादमिक अवसर उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाता है, इस प्रकार बहुराि तिक शिक्षा सामाजिक न्याय एवं लोकतान्त्रिकता की भावना में वृद्धि करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यद्यपि विभिन्न विद्वान शिक्षा एवं सांस्कृतिक विविधता के सम्बन्धों को शैक्षिक प्रक्रियाओं में महत्वपूर्ण स्थान देते हैं लेकिन फिर भी बहुसांस्कृतिक शिक्षा के स्वरूप व परिभाषा को लेकर विभिन्न विद्वानों में कोई एकता नहीं है। बहुसांस्कृतिक शिक्षा के विचार को अलग-अलग विद्वानों ने अलग अलग रूप में देखा है इसका प्रमुख कारण मानव समाज में उपलब्ध विविधता है इसी विविधता के कारण कोई एक सर्वमान्य परिभाषा दे पाना सम्भव नहीं है। लेकिन फिर भी बैंक के द्वारा प्रस्तुत परिभाषा हमें बहुसांस्कृतिक शिक्षा के स्वरूप व अवधारणा को समझने में मदद करती है।

“बहुसांस्कृतिक शिक्षा एक विचार, एक आन्दोलन एवं एक शैक्षिक सुधार की प्रक्रिया है जिसका मुख्य उद्देश्य ‘शैक्षिक संस्थाओं के ढाँचे में इस प्रकार परिवर्तन करना है जिससे कि विभिन्न जातीय, नस्लीय, जेंडर व सांस्कृतिक समूहों से सम्बन्धित छात्रों को स्कूल में अकादमिक रूप से समान उपलब्धि अर्जित करने के अवसर प्राप्त हो सके।”

बहुसांस्कृतिक शिक्षा के लक्ष्य (Aims of Multicultural Education)

रामसे (1987) ने बहुसांस्कृतिक शिक्षा के तीन प्रमुख लक्ष्य बताए हैं उनके अनुसार बहुसांस्कृतिक शिक्षा का पहला लक्ष्य बच्चों में सकारात्मक रूप से व्यक्तिगत जेंडर, नस्ल, वर्ग व संस्कृति से सम्बन्धित अस्मिता के निर्माण के साथ-साथ विभिन्न समूहों में उनकी पहचान व इज्जत बनाना है। दूसरा लक्ष्य ऐसे सामाजिक सम्बन्धों का विकास करना है जिसमें दूसरों के प्रति एक रूचि स्वीकृति व सहयोग की भावना हो। उनके अनुसार बहुसांस्कृतिक शिक्षा का तीसरा उद्देश्य बच्चों की अपने परिवेश के स्वायत्त व आलोचनात्मक समीक्षक बनने में मदद करना है।

रामसे जहाँ बहुसांस्कृतिक शिक्षा का मुख्य लक्ष्य बच्चों में विविध सांस्कृतिक परिवेश में रहने के लिए आवश्यक गुणों व लक्षणों का विकास करना मानती हैं वहीं दूसरी ओर बैंक शैक्षिक संस्थाओं के ढाँचे में सुधार करना बहुसांस्कृतिक शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य मानते हैं। उनके अनुसार “बहुसांस्कृतिक शिक्षा का प्रमुख लक्ष्य स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालय के ढाँचे में इस तरह परिवर्तन करना है जिससे कि विविध समूहों के विद्यार्थियों को अधिगम के समान अवसर प्राप्त हो सकें।” इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वे स्कूल को एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखने पर बल देते हैं।

बहुसांस्कृतिक शिक्षा के पक्ष ( Aspects of Multicultural Education)

बहुसांस्कृतिक शिक्षा को विद्यालयों में सही प्रकार से अपनाने एवं अध्यापकों, शोधार्थियों व शिक्षाविदों में इसकी अवधारणाओं, प्रत्ययों व सिद्धान्तों का सही व समुचित विकास करने के उद्देश्य से बैंक ने बहुसांस्कृतिक शिक्षा से सम्बन्धित पाँच महत्वपूर्ण पक्षों को प्रस्तावित किया। किसी भी अध्यापक को बहुसांस्कृतिक शिक्षा की गहन समझ बनाने के लिए इन पाँचों पक्षों को समझना जरूरी है।

(1) संक्षेपण एकीकरण (Condense Integration) – बैंक द्वारा प्रस्तावित पाँच पक्षों में से यह पहला पक्ष है। यह पक्ष इस बात पर बल देता है कि स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु में विभिन्न संस्कृतियों का समुचित प्रतिनिधित्व होना चाहिए। पाठ्यचर्या में पढ़ाई जाने वाली विषय-वस्तु में विभिन्न समूह, समाजों एवं संस्कृतियों का उचित प्रतिनिधित्व होने से इन समूहों के बच्चे उससे एक जुड़ाव महसूस करते हैं एवं उनमें अधिगम के प्रति एक सकारात्मक रवैया उत्पन्न होता है ।

(2) ज्ञान का निर्माण (Knowledge Construction) – बैंक द्वारा प्रस्तावित दूसरा महत्वपूर्ण पक्ष है इस पक्ष की विशेषता यह है कि इसमें अध्यापक शैक्षिक गतिविधियों के माध्यम से छात्रों को यह समझाने का प्रयास करता है कि किस प्रकार शोधकर्ताओं व लेखकों की सांस्कृतिक अवधारणाएँ, सन्दर्भ व परिप्रेक्ष्य ज्ञान सर्जन की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकते हैं। यह पक्ष अध्यापकों एवं छात्रों के ज्ञान को देखने के नजरिए में परिवर्तन की बात करता है एवं ज्ञान का उपभोक्ता के स्थान पर उसका उत्पादक बनने के लिए प्रेरित करता है।

(3) समतावादी शिक्षण (Equity Pedagogy) – इस पक्ष में अध्यापक द्वारा अपना शैक्षणिक विधियों एवं रणनीतियों में इस प्रकार बदलाव लाने पर जोर दिया जाता है, जिससे कि कक्षा में उपलब्ध सांस्कृतिक नस्लीय, जातीय रूप से विविध छात्रों को अपनी अकादमिक उपलब्धि को बढ़ाने के समान अवसर मिल सकें। इसके लिए अध्यापकों को अपनी कक्षा में छात्र-छात्राओं की व्यक्तिगत आवश्यकताओं को देखते हुए शिक्षण – शैलियों एवं उपागमों को अपनाना होता है।

(4) पूर्वाग्रह में कमी (Prejudice Reduction) – छात्रों की नस्लीय अभिवृत्तियों पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है एवं शिक्षक पद्धतियों एवं सामग्री के माध्यम से अध्यापकों को विद्यार्थियों के दूसरे विद्यार्थियों के प्रति उत्पन्न होने वाले नस्लीय व जातीय पूर्वाग्रहों एवं पक्षपात पूर्ण व्यवहारों को बदलने में मदद करता है।

(5) सशक्त स्कूल संरचना (Empowering School Structure) – बहुसांस्कृतिक शिक्षा का अन्तिम पक्ष है जिसमें शिक्षक व छात्र विशेष के व्यवहार को न बदलकर स्कूल की सम्पूर्ण संरचना में बदलाव पर बल दिया जाता है। इसमें विभिन्न समूहों के बीच सम्बन्धों में गुणात्मक बदलाव की बात की जाती है जिससे कि समूहों के सम्बन्ध पारस्परिक समानता व सम्मान की भावना पर आधारित हो सके। यह पक्ष विद्यालय के ऐसे लोकतान्त्रिक ढाँचे के निर्माण का पक्षधर है जिसमें विद्यालय की जिम्मेदारी बच्चों के माता-पिता, अध्यापक व स्कूल स्टॉफ मिलकर उठाता हो।

बहुसांस्कृतिक शिक्षा से सम्बन्धित विभिन्न पक्षों को जानने एवं समझने के बाद एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि जो अध्यापक बहुसांस्कृतिक शिक्षा में प्रशिक्षित होंगे एवं शिक्षा व संस्कृति की एक दूसरे पर पारस्परिकता को समझते होंगे वे कभी भी बहुसांस्कृतिकता से भयभीत नहीं होंगे बल्कि इसे एक संसाधन के रूप में स्वीकार कर इसका प्रयोग अपने दिशानिर्देशों को उन्नत करने में करेंगे। ऐसा तभी सम्भव है जब प्रत्येक शिक्षक अपनी कक्षा में उपस्थित विभिन्न वर्गों व समूहों के बच्चों को अपनी बात खुलकर व स्वतन्त्रता से रखने के अवसर प्रदान करे ताकि बच्चे अपनी संस्कृति के प्रति सुरक्षा व दूसरों की संस्कृति के प्रति सम्मान की भावना विकसित कर सकें।

इस उद्देश्य की पूर्ति तभी हो सकती है जब शिक्षकों की ट्रेनिंग के दौरान उन्हें बहुसांस्कृतिक शिक्षा के सैद्धान्तिक व व्यवहारिक पक्षों से भली-भाँति अवगत कराया जाए क्योंकि प्रभावी शिक्षण प्रक्रिया में इसका विशेष महत्व है। एक प्रभावी शिक्षक बनने के लिए शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में संस्कृति की महत्त्वपूर्ण भूमिका को समझना आवश्यक है।”

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 एवं बहुसांस्कृतिक शिक्षा (National Curriculum Framework, 2005 and Multiculture Education)

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 में स्पष्ट किया गया है, बच्चे उसी वातावरण में सीख सकते हैं जहाँ उन्हें लगे कि उन्हें महत्वपूर्ण माना जा रहा है। हमारे स्कूल आज भी सभी बच्चे को ऐसा महसूस नहीं करवा पाते हैं… आज यह आवश्यक है कि हमारे बच्चे यह महसूस कर सकें कि वे सभी, उनका घर, उनका समुदाय, उनकी भाषा और संस्कृति महत्वपूर्ण है।”

राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 स्कूलों में विभिन्न वर्गों एवं समूहों की बढ़ती हुई संख्या को ध्यान में रखते हुए नेशनल करीकुलम फ्रेमवर्क फॉर टीचर एजुकेशन, 2009 भी अध्यापक शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों में बहुसांस्कृतिक शिक्षा के महत्व को गम्भीरता से देखता है और अध्यापक शिक्षा की ऐसी रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो वर्तमान समय की आवश्यकताओं को पूरा कर सके। “शिक्षण-अधिगम के पुनर्जीवन के लिए सामाजिक परिवेश रूपी संसाधन की योग्यता एवं क्षमता की पहचान बढ़ी है। विविधता के लिए बहुसांस्कृतिक शिक्षा एवं शिक्षण आज के समय की माँग है।”

सभी छात्र – अध्यापक शिक्षा में संस्कृति की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हैं उन सभी का मानना है कि प्रत्येक अध्यापक को अपनी कक्षा में उपलब्ध सांस्कृतिक व सामाजिक विविधता को एक संसाधन के रूप में स्वीकार करना चाहिए न कि किसी बाधा के रूप में। यदि अध्यापक अपनी कक्षा में उपलब्ध विविध समूहों के छात्रों को उनकी सांस्कृतिक विविधता के साथ स्वीकार करता है तो इससे एक ओर जहाँ सामाजिक सम्बन्ध में वृद्धि होगी वहीं दूसरी ओर वे एक लोकतान्त्रिक नागरिक भी बन सकेंगे।

जहाँ एक ओर सभी छात्र अध्यापक बहुसांस्कृतिकता को शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के लिए लाभदायक व उपयोगी मानते हैं वहीं दूसरी ओर वे इसे एक अध्यापक के लिए चुनौती के रूप में भी देखते हैं उनके अनुसार सांस्कृतिक रूप से विविध कक्षा का प्रबन्धन करना एवं सभी छात्र-छात्राओं को समान अवसर प्रदान करना शिक्षक के लिए आसान कार्य नहीं है।

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