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प्रोजेक्ट शिक्षण पद्धति या योजना पद्धति क्या है?- सिद्धांत, गुण एवं दोष

प्रोजेक्ट शिक्षण पद्धति या योजना पद्धति
प्रोजेक्ट शिक्षण पद्धति या योजना पद्धति

प्रोजेक्ट शिक्षण पद्धति या योजना पद्धति क्या है? (What is Project method?)

प्रोजेक्ट शिक्षण पद्धति या योजना पद्धति (Project method) — इस पद्धति के जन्मदाता श्री डब्लयू. एच. किलपैट्रिक हैं। डीवी के प्रयोजनवाद के सिद्धान्तों के आधार पर इस पद्धति का निर्माण किया गया। इसका निर्माण विद्यालय के परम्परागत एवं शुष्क वातावरण को दूर करने के लिए किया गया है। इसमें छात्रों की क्रियाशीलता को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसमें शिक्षक परिस्थितियों के निर्माणकर्त्ता तथा मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।

प्रोजेक्ट का अर्थ- ‘प्रोजेक्ट’ शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए नीचे कुछ परिभाषाएँ दी जा रही हैं-

“प्रोजेक्ट वह सहृदयपूर्ण अभिप्राययुक्त क्रिया है, जो पूर्ण संलग्नता के साथ सामाजिक वातावरण में पूर्ण की जाती है।” – किलपैट्रिक

“प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है, जिसका समाधान उसके प्रकृत वातावरण में ही किया जाता है।” – स्टीवेन्सन

“प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन का एक छोटा-सा टुकड़ा है, जिसको विद्यालय में प्रतिपादित किया जाता है।”– बैलार्ड

“प्रोजेक्ट क्रिया की वह महत्त्वपूर्ण इकाई है, जिसका शैक्षिक महत्त्व होता है और जो बोध के लिए एक या अधिक स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति पर बल देती है। इसमें समस्याओं की खोज एवं उनका समाधान निहित रहता है। प्रोजेक्ट में प्रायः भौतिक सामग्री का उपयोग किया जाता है। शिक्षक एवं छात्रों द्वारा स्वाभाविक जीवन एवं वास्तविक ढंग से इसका नियोजन एवं समाधान किया जाता है।” -गुड

उपर्युक्त परिभाषाओं से प्रोजेक्ट के निम्नलिखित गुण स्पष्ट होते हैं—

(1) प्रोजेक्ट का एक स्पष्ट उद्देश्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए उसको पूर्ण किया जाता है।

(2) प्रोजेक्ट वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में निहित रहता है और जिसकी पूर्ति नहीं परिस्थितियों में की जाती है।

(3) प्रोजेक्ट में क्रियाशीलता निहित रहती है।

(4) प्रोजेक्ट का शैक्षिक महत्त्व होता है।

(5) प्रोजेक्ट का चयन एवं सम्पादन छात्रों द्वारा स्वाभाविक जीवन में किया जाता है। इसमें शिक्षक का कार्य पथ-प्रदर्शक एवं परिस्थिति के निर्माणकर्त्ता के रूप में होता है

योजना पद्धति का प्रयोग 

अर्थशास्त्र के शिक्षण के लिए यह पद्धति बहुत उपयोगी है। इसके द्वारा छात्रों को अपने आर्थिक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों एवं समस्याओं से सरलतापूर्वक अवगत कराया जा सकता है। इसमें छात्र परस्पर सहयोगी व स्व-प्रयत्न एवं सूझ-बूझ से कार्य करके सहयोग, सहकारिता, सहानुभूति, प्रेम, मौलिक चिन्तन आदि गुणों का विकास करने में समर्थ हो सकते हैं।

योजना पद्धति के प्रयोग से आर्थिक जीवन की व्यावहारिक समस्याओं के स्वरूप को भली-भाँति समझा जा सकता है। इसके सफल प्रयोग के लिए क्रमशः निम्नलिखित सात स्तरों को पार करना पड़ता है-

1. परिस्थिति उत्पन्न करना (Creation of the Situation)

2. योजना का चयन (Selection of the project)

3. उद्देश्य निरूपण (Purposing)

4. योजना पूर्ण करने का कार्यक्रम (Plan of the Project)

5. कार्यक्रम को क्रियान्वित करना (Execution of the Plan)

6. कार्य का निर्णय (Judgement of the Work)

7. कार्य का लेखा (Recording)।

योजना के प्रकार

प्रोजेक्टों का वर्गीकरण विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से किया है। कुछ विद्वान प्रोजेक्ट के दो रूप बताते हैं- (1) वैयक्तिक (Individual) तथा (2) सामूहिक (Collective)। प्रयोजनवाद सामूहिक प्रोजेक्ट का पक्षपाती है। कुछ विद्वान प्रोजेक्ट के चार रूप बताते हैं- (1) समस्यात्मक (Problematic ), (2) अभ्यासात्मक (Drill type), (3) रचनात्मक या उत्पादनात्मक (Constructive or productive type) तथा (4) उपभोगात्मक (Consumer type ) । पहला वर्गीकरण छात्रों की संख्या के आधार पर किया गया, जबकि दूसर वर्गीकरण कार्यों के आधार पर निर्धारित है । अर्थशास्त्र में वैयक्तिक, सामूहिक, समस्यात्मक, अभ्यासात्मक तथा रचनात्मक उद्योगों के प्रोजेक्टों के लिए पर्याप्त अवसर प्राप्त हैं। सामूहिक योजनाओं के उपयोग से छात्रों में सामाजिक गुण का विकास किया जा सकता है, जबकि वैयक्तिक योजनाएँ छात्रों की वैयक्तिक क्षमताओं एवं कुशलताओं के विकास के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। अभ्यासात्मक योजनाओं द्वारा छात्रों के ज्ञान को स्थायी बनाया जा सकता है। समस्यात्मक प्रोजेक्ट छात्रों को समस्या-समाधान की प्रक्रिया से अवगत कराने में उपयोगी सिद्ध हो सकता है । उत्पादनात्मक योजनाएँ छात्रों की उत्पादन कुशलता को बढ़ाने में सहायता प्रदान करती हैं।

योजना पद्धति के गुण

(1) योजना पद्धति द्वारा छात्रों को सहयोग के साथ रहने, विचार करने तथा कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिससे वे समान अभिप्रायों को प्राप्त करने में सफल होते हैं। इसके द्वारा छात्रों में उत्तम सामाजिक गुणों एवं आदतों का विकास किया जाता है जिससे वे समाज की आर्थिक स्थिति को सुधारने में सहायक हो सकें तथा उसमें सफलतापूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सकें। इसके द्वारा छात्रों में व्यावहारिक गुणों का विकास होता है, जिससे वे अपने व्यावहारिक जीवन को श्रेष्ठ बनाने में सफल होते हैं।

(2) इसके द्वारा विभिन्न विषयों में सरलता से समन्वय स्थापित किया जा सकता है।इसके अतिरिक्त पाठ्यचर्या में भी एकीकरण स्थापित किया जा सकता है, क्योंकि योजना एक अभिप्राययुक्त क्रिया होती है जिसको सामाजिक पर्यावरण में रहकर पूर्ण किया जाता है। इस प्रकार पाठ्यचर्या का वास्तविक जीवन से सम्बन्ध स्थापित होता है जो इसका विशेष गुण है।

(3) इस पद्धति द्वारा रटने की प्रवृत्ति को निरुत्साहित किया जाता है और छात्रों को चिन्तन, तर्क तथा निर्णय के आधार पर समस्या सुलझाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस प्रकार उनमें स्वाध्याय की आदत का निर्माण होता है।

(4) यह पद्धति सीखने के सिद्धान्तों पर आधारित है। उदाहरणार्थ, अभ्यास तत्परता तथा परिणाम का नियम। इस कारण यह पद्धति मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के अनुकूल है।

(5) बालकों में इस पद्धति द्वारा सतत् प्रयत्नशीलता तथा रचनात्मक सक्रियता का है विकास होता है।

(6) योजना पद्धति के अन्तर्गत शिक्षालय के जीवन को वास्तविक जीवन से सम्बन्धित किया जाता है। वे अपनी योजनाओं की पूर्ति सामाजिक पर्यावरण में करते हैं जिससे वे व्यावहारिक जीवन की शिक्षा प्राप्त कर लेते हैं और बाद में उनको जीवन की कठिनाइयों को सुलझाने में कोई कठिनाई नहीं होती। इस सम्बन्ध के कारण बालक स्वयं अपने मूल्यों का निर्माण करने में सफल होता है।

(7) इस पद्धति में स्व-क्रिया पर बल दिया जाता है। छात्र इसके द्वारा स्वानुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं।

(8) इस पद्धति के प्रयोग से कक्षा-शिक्षण के दोषों का निवारण किया जा सकता है। इसमें छात्र वैयक्तिक एवं सामूहिक रूप से अपनी योग्यता, रुचि तथा क्षमता के अनुसार कार्य करते हैं।

(9) इस पद्धति के प्रयोग से छात्रों में सामाजिक गुणों, आदतों तथा अभिरुचियों का विकास होता है।

(10) इस पद्धति द्वारा छात्रों को श्रम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, जिससे वे श्रम के महत्त्व को समझ सकें और राष्ट्र एवं विश्व के श्रमिकों का आदर कर सकें।

योजना पद्धति के दोष एवं सीमाएँ

(1) इस पद्धति द्वारा शिक्षण करने से ज्ञान खण्डों में विभाजित करके प्रदान किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इसके द्वारा क्रम तथा तारतम्य के साथ ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता।

(2) यह पद्धति बहुत व्ययपूर्ण है। इसके प्रयोग के लिए विभिन्न उपकरणों, उपादानों, साधनों, पुस्तकों, पत्रिकाओं आदि की आवश्यकता है। इस कारण भारत जैसे निर्धन देश में इसका प्रयोग पर्याप्त मात्रा में नहीं किया जा सकता।

(3) इस पद्धति द्वारा शिक्षण करने में समय बहुत लगता है।

(4) योजनाओं के पूर्ति के लिए सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती इसलिए भी योजना पद्धति को नहीं अपनाया जाता।

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