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सामूहिक परिचर्चा- प्रक्रिया, लाभ, दोष एवं सीमाएँ

सामूहिक परिचर्चा
सामूहिक परिचर्चा

सामूहिक परिचर्चा (Group Discussion)

सरल शब्दों में सामूहिक परिचर्चा का अर्थ है समूह के अन्तर्गत की जाने वाली पारस्परिक परिचर्चा या वाद-विवाद या गोष्ठी । विचारों के आदान-प्रदान के रूप में सामूहिक परिचर्चा विधि को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि सामूहिक परिचर्चा निर्धारित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रयोग में लाई जाने वाली एक ऐसी विधि है, जिसमें सामूहिक परिचर्चा अर्थात् विद्यार्थियों तथा शिक्षकों के मध्य या विद्यार्थियों में होने वाली पारस्परिक वाद-विवाद बिना किसी पूर्व योजना के यूँ ही प्रसंगवश होता रहे ऐसी कोई बात नहीं है। शिक्षक एवं विद्यार्थी दोनों को ही इस परिचर्चा में पूरी तरह सक्रिय साझेदारी निभाकर परिचर्चा की गतिविधियों के नियोजन तथा संगठन पर इस तरह से ध्यान देना होता है कि उनके माध्यम से निर्धारित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को ठीक ढंग से प्राप्त किया जा सके।

सामूहिक परिचर्चा की प्रक्रिया (Process of Group Discussion)

सामूहिक परिचर्चा में किसी एक कक्षा के विद्यार्थी विषय अध्यापक के साथ मिलकर एक समूह का निर्माण करते हैं। समूह का नेतृत्व विषय अध्यापक के हाथ में होता है। विद्यार्थियों के साथ मिलकर सामूहिक परिचर्चा विधि के संगठन और संचालन हेतु सामान्य रूप से निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना आवश्यक होता है-

(1) नियोजन अवस्था (Planning stage)— इस अवस्था में अध्यापक विद्यार्थियों को सामूहिक परिचर्चा की आवश्यकता एवं उपयोगिता का अनुभव कराने का प्रयत्न करता है। तथा शिक्षण अधिगम उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए परिचर्चा प्रक्रिया को किस तरह, आयोजित किया जायेगा, इन सभी बातों पर विचार करने का प्रयन्त करता है।

(2) क्रियान्वयन अवस्था (Implementation stage) — इस अवस्था में सामूहिक परिचर्चा व्यूह रचना को नियोजन के आधार पर क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया जाता है।

अध्यापक समूह का नेतृत्व संभालते हुए यह प्रयत्न करता है कि समूह के उत्तरदायी सदस्यों के रूप में सभी विद्यार्थी सामूहिक परिचर्चा में पूरी सक्रियता से अपनी-अपनी भूमिका निभायें। इस परिचर्चा तथा विचारों के आदान-प्रदान का तरीका पूरी तरह जनतंत्रात्मक (Democratic) होता है। शिक्षक के कुशल नेतृत्व में विद्यार्थी वर्ग ऐसी वांछित परिचर्चा में संलग्न रहता है जिससे शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्रभावी ढंग से उपलब्धि हो सके।

(3) मूल्यांकन अवस्था (Evaluation stage) – इस अवस्था में सामूहिक परिचर्चा के परिणामों का शैक्षिक उद्देश्यों की उपलब्धि के सन्दर्भ में मूल्यांकन करने का प्रयत्न किया जाता है। इस कार्य हेतु समूह सचिव (Member secretary) जो विद्यार्थियों में से ही एक होता है, परिचर्चा की सारी कार्यवाही को नोट करता जाता है जैसे परिचर्चा में विद्यार्थियों की क्या-क्या गतिविधियाँ रहीं, क्या-क्या प्रश्न पूछे गये, किस तरह के सुझाव किन-किन बातों के लिये दिये गये, किसी एक निर्णय पर कैसे पहुँचा गया तथा अध्यापक द्वारा किस प्रकार का निर्देशन और परामर्श दिया गया। इस तरह की सभी बातें रिकॉर्ड की जारी रहती हैं। इस तरह रिकॉर्ड की नई कार्यवाही के आधार पर यह देखा जाता है कि शिक्षण अधिगम उद्देश्यों की प्राप्ति के सन्दर्भ में क्या कुछ कमी रह गई है? इस कमी को पूरा करने के लिए वांछित सूचना, सामग्री, स्पष्टीकरण इत्यादि जैसी आवश्यकता हो, अध्यापक द्वारा विद्यार्थियों को प्रदान करने के प्रयत्न किये जाते हैं।

सामूहिक परिचर्चा के लाभ (Advantages of Group Discussion) 

सामूहिक परिचर्चा व्यूह रचना का उपयोग निम्नलिखित लाभों के अर्जन में सहयोगी होता है-

(1) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में छात्रों का सहयोग व्यूह रचना द्वारा शिक्षक को आसानी से प्राप्त हो सकता है।

(2) यह व्यूह रचना छात्रों को सामूहिक गतिविधियों में भाग लेने तथा मिल-जुलकर सोचने-समझने के अच्छे अवसर प्रदान करने का कार्य करती है। इसके द्वारा छात्रों का सामाजिक विकास करने तथा उन्हें जनतांत्रिक जीवन जीने का ढंग सीखाने के भी उचित अवसर प्राप्त होते हैं।

(3) समूह के सदस्य के रूप में सभी की बातें सुनने के द्वारा छात्रों को एक अच्छा श्रोता बनने का प्रशिक्षण मिलता है और उनमें नेतृत्व की क्षमता भी विकसित होती है। परिचर्चा में जब कोई एक छात्र अपनी बात कहता है तो समूह के अन्य विद्यार्थी उसके विचारों को ध्यान से सुनते हैं और उसके विचारों को पर्याप्त सम्मान देते हुए अपने तर्कपूर्ण विचार सभी के सामने बड़े ही जनतांत्रिक ढंग से बारी-बारी से रखने का प्रयत्न करते हैं।

(4) इस व्यूह रचना के माध्यम से छात्रों में विविध प्रकार की योग्यताओं, क्षमताओं और कुशलताओं का सहज ही विकास हो जाता है। विचारों का संश्लेषण, विश्लेषण तथा मूल्यांकन करने की योग्यता, निष्कर्ष निकालने की क्षमता, समस्या समाधान की योग्यता, आलोचना तथा समालोचना क्षमता आदि इसी प्रकार के गुण हैं जिनका समावेश करने में यह विधि सहयोगी सिद्ध हो सकती है। समूह के सन्दर्भ के रूप में सामूहिक हित चिन्तन से सम्बन्धी बातों में रुचि रखने, सामूहिक कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण उत्पन्न करने तथा अन्य सामाजिक और नैतिक गुणों के विकास में भी इस विधि का उपयोग छात्रों के व्यवहार में ज्ञानात्मक (Cognative) और भावात्मक (Affective) पक्षों से सम्बन्धित वांछित शिक्षण अधिगम उद्देश्यों में सहायता कर सकता है कि किसी भी विचार को स्वीकार करने के लिए उसे तर्क की कसौटी पर रखकर अवश्य ही देखा जाना चाहिए। उसके गुण, दोषों की पर्याप्त समीक्षा करके ही उस पर कोई क्रिया करनी चाहिये तथा व्यवहार में लाने से पहले उसके परिणामों पर ध्यान देकर ही आगे बढ़ना चाहिये।

(5) मौखिक अभिव्यक्ति और सशक्त सम्प्रेषण योग्यता का विकास करने हेतु इस विधि से बहुत सहयोग प्राप्त हो सकता है तथा साथ ही सृजनात्मक एवं रचनात्मक चिन्तन को बढ़ावा देने में यह विधि लाभप्रद सिद्ध हो सकती है।

(6) यह विधि जनतांत्रिक ढंग से खुलकर सभी बातों को सोचने, विचारों की समीक्षा करने तथा आलोचना करने का अवसर प्रदान करती है। इस प्रकार की खुली समीक्षा आ आलोचना किसी भी गलत तथा अपूर्ण सूचना और विचार या समस्या समाधान के त्रुटिपूर्वक तरीके को अनायास ही स्वीकार करने के दोषों से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को मुक्त करने में सक्रिय भूमिका निभा सकती है।

सामूहिक परिचर्चा के दोष एवं सीमाएँ (Drawbacks of Limitations of Group Discussion)

सामूहिक परिचर्चा व्यूह रचना में निम्नलिखित दोष एवं सीमाओं की उपस्थिति पायी जा सकती है-

(1) समूह नेता होने के नाते अध्यापक सामूहिक परिचर्चा में अपना दबदबा बनाये रखने हेतु व्यर्थ ही समूह के सदस्यों के सुझावों और बातों की अनदेखी करने का प्रयास कर सकता है, अपनी ही बातें मनवाने का प्रयास कर सकता है और स्वयं ही बोलते रहकर उन्हें बोलने का कोई अवसर नहीं देने की भूल कर सकता है।

(2) सामूहिक परिचर्चा अपने लक्ष्य भटक सकती है क्योंकि सदस्यगण व्यर्थ की बातों में अपना समय बर्बाद कर सकते हैं।

(3) समूह के सदस्य परिचर्चा के दौरान एक-दूसरे से उलझ सकते हैं। व्यक्तिगत आक्षेप और कटाक्षों से परिचर्चा का वातावरण खराब हो सकता है।

(4) समूह में से कोई एक या दो सदस्य पूरी परिचर्चा पर इस तरह से छाये रह सकते हैं कि दूसरों को कुछ कहने या करने आ अवसर ही नहीं मिले।

(5) समूह के जो सदस्य संकोची प्रकृति के या आगे बढ़कर सहज रहने वाले नहीं होते, समूह परिचर्चा में प्रायः उपेक्षित ही रह जाता हैं, फलस्वरूप परिचर्चा में उनको कोई भी योगदान देखने को नहीं मिलता।

(6) परिचर्चा के दौरान समूह के सदस्य अपनी-अपनी मान्यता, विचारधारा और किन्हीं व्यक्तिगत कारणों से भी छोटे-छोटे दबाव समूहों (pressure groups) में बँट सकते हैं। इन्हें अड़ियल रूख अपनाने से परिचर्चा में उचित निर्णयों और निष्कर्षो पर पहुँचने में बहुत कठिनाई उपस्थित हो सकती है।

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