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शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली प्रविधियाँ | Techniques used in Teaching in Hindi

शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली प्रविधियाँ
शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली प्रविधियाँ

शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली प्रविधियाँ (Techniques used in Teaching)

शिक्षण में प्रयुक्त होने वाली प्रविधियाँ निम्नलिखित हैं:

(i) प्रश्न प्रविधि (Questioning technique)

(ii) अभ्यास प्रविधि (Drill technique)

(iii) कार्य-निर्धारण प्रविधि (Assignment technique)

(iv) कथन प्रविधि (Narration technique)

(v) अवलोकन प्रविधि (Observation technique)

(vi) नाटकीय प्रविधि (Dramatization technique)

(vii) कहानी-कथन प्रविधि ( Story-telling technique)

(viii) परीक्षा प्रविधि (Examination technique)

(ix) उदाहरण प्रविधि (Illustration technique)

(x) समीक्षा प्रविधि (Review technique)

(xi) सेमीनार (Seminar)

(xii) सिम्पोजियम (Symposium

(xiii) सामूहिक वाद-विवाद ( Panel discussion)

(xiv) सम्मेलन प्रविधि ( Conference technique)

(xv) कार्यशाला प्रविधि (Workshop technique)—

(i) प्रश्न प्रविधि (Questioning technique) 

शिक्षण प्रश्न प्रविधि का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके द्वारा सिखने की प्रक्रिया को प्रभावोत्पादक बनाया जाता है। प्रश्नों का परम्परागत ध्येय बालक के ज्ञान को जाँचना था, परन्तु आधुनिक शैक्षिक प्रक्रिया में प्रश्न महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं तथा इस प्रविधि द्वारा बहुत से प्रयोजनों की पूर्ति की जाती है। प्रश्नों में मुख्य प्रयोजनों को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है—

(1) छात्रों में कार्य के प्रति कौतूहल एवं रुचि जागृत करना।

(2) सीखने की प्रक्रिया में इनके द्वारा पथ-प्रदर्शन करना।

(3) विचार-प्रक्रिया को प्रोत्साहित करना।

(4) निर्धारित कार्य के लिए उत्प्रेरणा प्रदान करना।

(5) छात्रों की आवश्यकताओं, अभिरुचियों तथा तात्कालिक समस्याओं का ज्ञान प्राप्त करना।

(6) कार्य के मुख्य बिन्दुओं पर प्रकाश डालना।

(7) छात्रों के अर्जित ज्ञान तथा उन्नति को मापना।

(8) सामाजिक जीवन की जटिलताओं को समझने के लिए उनके मस्तिष्क को तत्पर बनाना।

(9) अन्वेषण तथा अनुसन्धान के लिए प्रोत्साहित करना।

(10) प्रश्नों द्वारा तथ्यों के ज्ञान तथा अनुभवों को व्यवस्थित करने में सहायता प्रदान करना।

(ii) अभ्यास प्रविधि (Drill technique)

यह प्रविधि थॉर्नडाइक के अभ्यास के नियम पर आधारित है। इस नियम के अनुसार बालक किसी तथ्य की जितनी बार आवृत्ति करेगा वह उतना ही उसके मस्तिष्क में स्थायी हो सकेगा। अभ्यास का अर्थ को स्पष्ट करते हुए रिस्क ने लिखा है, “अभ्यास मुख्यतः सूचनाओं, नियमों, परिभाषाओं, तिथियों, संकेतों, सूत्रों तथा शब्दावलियों के रखने से सम्बन्धित है।” वुडरफ के अनुसार, “अभ्यास संकेतात्मक ज्ञान-प्राप्ति की शिक्षण प्रणाली है।” जेम्स एम. ली (James M. Lee) का मत है कि शैक्षिक दृष्टिकोण के उपयुक्त अभ्यास के संचालन में शिक्षा को निम्नलिखित विधियों का प्रयोग करना चाहिए-

(1) अभ्यास को छात्रों की कमजोरियों पर केन्द्रित किया जाए, क्योंकि वह मूलतः उपचारात्मक युक्ति है।

(2) इसके द्वारा विषय-वस्तु के कृत्रिम सम्बन्धों की अपेक्षा स्वाभाविक सम्बन्धों पर बल दिया जाए।

(3) अभ्यास वैयक्तिक होना चाहिए।

(4) पुनरावृत्ति का प्रयोग कमी एवं कुशलतापूर्वक किया जाना चाहिए।

(iii) कार्य-निर्धारण प्रविधि (Assignment technique)

शिक्षण – कला में कार्य-निर्धारण एक प्रयोगात्मक प्रविधि है सामान्यतः इसका प्रयोग पाठ की समाप्ति के उपरान्त किया जा सकता है। यह कई रूपों में निर्धारित किया जा सकता है; जैसे—कक्षा कार्य-निर्धारण, अवकाश के समय के लिए कार्य, प्रति दिन के लिए कार्य, गृह-कार्य आदि । कार्य-निर्धारण के दो आधार हैं-प्रथम, परम्परागत कार्य-निर्धारण जो पाठ्य-पुस्तकों पर आधारित होता है तथा द्वितीय, आधुनिक कार्य-निर्धारण जो छात्रों की रुचियों, आवश्यकताओं तथा योग्यताओं पर आधारित होता है। दुर्भाग्यवश भारत में कार्य-निर्धारण के प्रथम आधार को ही अपनाया जाता है इसलिए इस प्रविधि की कटु आलोचना की जाती है। आलोचकों का कथन है कि इसके कारण उनका जीवन नीरस व शुष्क बन जाता है। इसके द्वारा छात्रों के स्वास्थ्य को हानि भी पहुँचायी जाती है, परन्तु यह दोष कार्य-निर्धारण प्रविधि के नहीं हैं, वरन् उसके प्रयोग के हैं। यदि कार्य-निर्धारण बालकों की रुचियों, आवश्यकताओं एवं प्रवृत्तियों के अनुसार दिया जाए तो ये दोष दूर हो सकता है।

(iv) कथन प्रविधि (Narration technique)

कथन द्वारा बालक पर्याप्त मात्रा में ज्ञान अर्जित करता है। बालकों की रुचियों तथा उनकी सीखने की प्रक्रिया को इस प्रविधि द्वार प्रोत्साहित किया जाता है। कथन का मुख्य लक्ष्य छात्रों को किसी अप्रत्यक्ष वस्तु का ज्ञान प्रदान करना है। इस प्रविधि द्वारा वर्णित वस्तु या सामग्री को सरल, सुगम, स्पष्ट तथा सुबोध बनाया जा सकता है। प्रत्येक बात या तथ्य प्रश्नों द्वारा बालकों से नहीं निकलवाया जा सकता है। अतः प्रश्नोत्तर प्रविधि की पूर्ति ‘कथन’ द्वारा की जाती है। जब न प्रश्न पूछने से तथा व्याख्याता करने से हमारा मन्तव्य सफल होता है तब उस समय कथन हमारी सहायता करता है। सामाजिक शिक्षण के विषयों में इस प्रविधि का प्रयोग बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षक को करते समय अधोलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए :

(i) कथन बालकों की आयु तथा मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए तथा शिक्षक कथन करते समय उनके अवधान विस्तार का ध्यान रखे।

(ii) कथन अधिक लम्बे न हों तथा शिक्षक को उनके बाहुल्य पर भी रोक लगानी चाहिए।

(iii) कथन की भाषा तथा शैली छात्रों के मानसिक स्तर तथा आयु के अनुकूल होनी चाहिए।

(iv) कथन करते समय शिक्षक को प्रश्नोत्तर प्रविधि तथा सहायक सामग्रियों का भी उपयोग करना चाहिए ।

(v) अवलोकन प्रविधि (Observation technique)

‘निरक्षण’ ज्ञानार्जन का वह सुबोध एवं प्रभावशाली साधन है जिसके द्वारा बालक स्वयं क्रियाशील रहकर किसी वस्तु या तथ्य का पता लगा सकता है। जो ज्ञान बालक अवलोकन द्वारा प्राप्त करता है वह स्थायी होता है तथा उसके सम्पूर्ण ज्ञान का एक अंग बन जाता । सामाजिक अध्ययन में इस प्रविधि के प्रयोग से छात्रों के मानसिक जीवन एवं उसकी वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षक को इस प्रविधि का प्रयोग करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए :

(1) निरीक्षण करते समय शिक्षक छात्रों को स्वतन्त्रतापूर्वक निरीक्षण करने की आज्ञा दे दे, परन्तु साथ-ही-साथ उनका पथ-प्रदर्शन एवं उनके कार्यों का निरीक्षण भी करता रहे।

(2) शिक्षक जिस सामाजिक संस्था या संगठन का छात्रों को निरीक्षण कराना चाहता है। उसे उनको दिखाने से पूर्व उनको स्वयं निरीक्षण कर लेना चाहिए।

(3) निरीक्षण के हेतु चयन की हुई परिस्थितियाँ छात्रों के सामाजिक जीवन से सम्बन्धित हों ।

(4) निरीक्षण काल में शिक्षक छात्रों के प्रश्नों का भी उत्तर देता रहे तथा उनसे स्वयं प्रश्न करता रहे, परन्तु प्रश्न ऐसे होने चाहिए जिससे छात्रों को विषय-वस्तु के ज्ञानार्जन में सहायता मिले तथा वे उसका पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकें। निरीक्षण करने के पश्चात् अध्यापक छात्रों के ज्ञान की परीक्षा ले तथा सम्बन्धित विषय पर एक छोटा-सा वाद-विवाद करवा दे तदुपरान्त उसे स्वयं विषय की गहन, सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचना करनी चाहिए । इसके उपरान्त छात्रों से उनके विषय में लिखवाए ।

(vi) नाटकीय प्रविधि ( Dramatization technique)

इस प्रविधि के प्रयोग से छात्रों की सृजनात्मक शक्तियों का विकास किया जाता है। शिक्षण में इस प्रविधि का प्रयोग आधुनिकतम है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षण में इस प्रविधि के उपयोग के लिए पर्याप्त अवसर है। उदाहरणार्थ, ऐतिहासिक प्रकरण— शिवाजी की आगरा-यात्रा, महाराणा प्रताप आदि; नागरिकशास्त्र — संसद की बैठक की कार्यवाही का अभिनय आदि ग्रामीण समस्याएँ; छुआछूत के बुराई को दूर करने के लिए अभिनय द्वारा उपदेश, स्वास्थ्य के नियमों का अभिनय आदि इसके द्वारा छात्रों को स्वक्रिया द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के लिए अनेक अवसर प्रद किए जाते हैं। इस रीति के प्रयोग से पाठ की सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचना हो जाती है। इसके प्रयोग से छात्रों में विषय-ग्राह्यता, आत्म-विश्वास तथा आत्माभिव्यंजन शक्ति विकसित की जाती है। इसके द्वारा उसकी झिझक तथा लज्जाशील प्रवृत्ति को कम किया जाता है। इसके अतिरिक्त बालक बोलने की कला भी सीख लेते हैं।

(vii) कहानी-कथन प्रविधि (Story-telling technique) 

इस प्रविधि का प्रयोग छोटी कक्षाओं तक सीमित है। यह प्रविधि छात्रों की कल्पनाप्रियता एवं कौतूहल की भावना को तृप्त करने में बहुत सहायक है। यह प्रविधि मनोवैज्ञानिक है, क्योंकि कल्पना की उड़ान में बालकों की बहुत-सी नैसर्गिक प्रवृत्तियों का अनजाने में ही विकास किया जा सकता सामाजिक अध्ययन का शिक्षक इस प्रविधि के प्रयोग से समाज के विकास के इतिहास को मनोरंजन ढंग से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। सामाजिक अध्ययन के शिक्षक को इस प्रविधि का प्रयोग करते समय अधोलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए—

(1) कहानी कहने का ढंग रुचिकर, स्वाभाविक तथा भावपूर्ण होना चाहिए।

(2) कहानी की भाषा, शैली तथा विषय-वस्तु बालकों के मानसिक स्तर, रुचि, व्यवस्था एवं स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार होनी चाहिए।

(3) कहानी को क्रमानुसार सुनाया जाए।

(4) कहानी की विषय-वस्तु को छात्रों के सामाजिक जीवन की वास्तविक परिस्थितियों से सम्बन्धित प्रवृत्तियों से सम्बन्धित किया जाए। इसके अतिरिक्त उसकी विषय-वस्तु स्थानीय सन्दर्भों से युक्त हो तो अच्छा होगा।

(viii) परीक्षा प्रविधि ( Examination technique)

यह प्रविधि पाठ्यक्रम के समस्त विषयों के शिक्षण में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा बालकों के अर्जित ज्ञान की परीक्षा ली जाती है कि उसने पठित सामग्री को किस सीमा तक आत्मसात् कर लिया है। शिक्षक इसके प्रयोग में लिखित तथा मौखिक प्रश्नों की सहायता लेता है। इसका सबसे प्रमुख काम यह होता है कि शिक्षक को अपने पाठ की सफलता का ज्ञान हो जाता है तथा छात्र भी अपनी कमियों की जानकारी प्राप्त कर लेता है। इस प्रविधि प्रयोग में लाते समय शिक्षक को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए :

(1) प्रश्नों में अधिकाधिक वस्तुनिष्ठता लानी चाहिए।

(2) प्रश्न सरल भाषा में प्रस्तुत किए जाने चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रश्न संक्षिप्त, अर्थपूर्ण, नपे-तुले एवं नुकीले हों।

(3) प्रश्न प्रस्तावित पाठों के अधिकाधिक क्षेत्र पर आधारित होने चाहिए अर्थात् कुछ पाठों पर ही आधारित नहीं हो, वरन् उनका क्षेत्र विस्तृत हो।

(4) प्रश्नों का अंकन निष्पक्ष भाव से किया जाना चाहिए अर्थात् उनमें पक्षपात के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

(5) छात्रों की कठिनाइयों एवं अशुद्धियों को दूर करना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को उनकी पुस्तिकाओं में टिप्पणी लिख देनी चाहिए।

(ix) उदाहरण प्रविधि (Illustration technique) 

सामाजिक अध्ययन में इस प्रविधि का महत्त्व है। उदाहरण द्वारा शिक्षक पाठ को रोचक तथा ग्राह्य बनाने में समर्थ होता है। वह इनके द्वारा सूक्ष्म विचारों को स्थूल रूप प्रदान करने में समर्थ होता है । अतः, शिक्षक इनके माध्यम से सूक्ष्म, दुरुह तथा जटिल तथ्यों को छात्रों के लिए स्पष्ट, बोधगम्य, रोचक तथा सरल बनाने में सफल होता है। आधुनिक शिक्षा में इनके प्रयोग पर अधिक बल दिया जा रहा है, क्योंकि इनके द्वारा छात्रों की रुचि एवं अवधान को आकृष्ट करने में सहायता मिलती है। दूसरे, ये छात्रों को ज्ञान प्राप्ति के लिए प्रेरणा भी प्रदान करने में सहायक हैं। तीसरे, अनुभवों को विकसित करने में भी सहायक हैं।

(x) समीक्षा प्रविधि (Review technique)

सामान्यतः समीक्षा का अर्थ अध्ययन किए हुए पाठों की प्रमुख बातों को दोहराने से किया जाता है जिससे वे बातें छात्रों के मस्तिष्क में स्थायी हो सकें। शिक्षा की धारणा में परिवर्तन आ जाने के फलस्वरूप इसके भी अर्थ में परिवर्तन आ गया । अब समीक्षा केवल दोहराने की क्रिया को ही नहीं माना जाता, वरन् इसमें निर्देशन को भी स्थान प्रदान किया जाता है, जिससे छात्रों के समक्ष पुरानी बातों को नवीन ढंगों से प्रस्तुत किया जा सके और उसमें नवीन समझदारी एवं दृष्टिकोण उत्पन्न किए जा सकें। इस प्रकार समीक्षा द्वारा छात्रों की समझदारी, रुचियों, आवश्यकताओं तथा आन्तरिक प्रेरणाओं को जानने का प्रयास किया जाता है।

(xi) सेमीनार (Seminar) 

सेमीनार या विचार गोष्ठी अनुदेशन (Instruction) की एक ऐसी प्रविधि है जिससे चिन्तन स्तर के अधिगम के लिए अन्तःप्रक्रिया की परिस्थिति उत्पन्न की जाती है। इस प्रविधि के प्राप्त – उद्देश्य (Objectives) इस प्रकार हैं :

1. ज्ञानात्मक प्राप्य उद्देश्य – इस प्रविधि के प्रयोग से अधिगम की ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं, जिसे ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है :

(i) विश्लेषण तथा आलोचनात्मक क्षमताओं का विकास करना।

(ii) संश्लेषण तथा मूल्यांकन की योग्यता का विकास करना।

(iii) निरीक्षण तथा अनुभवों के प्रस्तुतीकरण की क्षमताओं का विकास करना ।

2. भावात्मक प्राप्य-उद्देश्य- इस प्रविधि के प्रयोग से उच्च भावात्मक पक्षों का विकास सम्भव होता है :

(i) दूसरों की भावनाओं के प्रति सम्मान की भावना का विकास सम्भव होता है।

(ii) भावात्मक स्थिरता का विकास सम्भव होता है।

(xii) सिम्पोजियम (Symposium)

प्लेटो ने एक सुन्दर आदान-प्रदान (Dialogue) के लिए ‘सिम्पोजियम’ शब्द का प्रयोग किया है। शब्द-कोश के अनुसार सिम्पोजियम का अर्थ उस सभा से लिया गया है, जिसमें बौद्धिक मनोरंजन किया जाता है । इसमें इस प्रकरण पर वातावरण अपने विचार प्रस्तुत करते हैं, परन्तु ये विचार एक क्रम में प्रस्तुत किए जाते हैं। सिम्पोजियम के लिए हिन्दी में विचार समिति शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह एक ऐसा समूह है जिसमें श्रोताओं को उत्तम विचारों से अवगत कराया जाता है। श्रोतागण इसमें अपने विचारों को भी सम्मिलित करते हैं और नीति, मूल्यों आदि के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं।

(xiii) सामूहिक वाद-विवाद (Panel discussion)

हैरी ए. आवर स्ट्रीट ने पैनल वाद-विवाद (Panel discussion) पर प्रयोग किया। इन्होंने एक छोटे समूह के रूप में एक निश्चित समय के लिए श्रोताओं के समक्ष वाद-विवाद का आयोजन किया। इनमें श्रोताओं ने भी वाद-विवाद में भाग लिया। उन्होंने विशेषज्ञों से प्रश्न भी पूछे । इस प्रकार श्रोताओं के प्रकरण के सम्बन्ध में अधिक जानकारी प्राप्त की।

सामूहिक वाद-विवाद के उद्देश्य :

(i) सूचनाओं और तथ्यों को प्रदान करना।

(ii) किसी समस्या या प्रकरण का विश्लेषण करना।

(iii) मूल्यों का निर्धारण करना।

(iv) मनोरंजन के लिए आयोजन करना।

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