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नियोजन के कारक या तत्व | Factors or Elements of Planning in Hindi

नियोजन के कारक या तत्व
नियोजन के कारक या तत्व

नियोजन के कारक या तत्व (Factors or Elements of Planning)

शिक्षण-अधिगम का नियोजन (Planning the Teaching-Learning) – शिक्षा के क्षेत्र में आज विभिन्न प्रकार के परीक्षण किये जा रहे हैं। अनेक नवीन प्रवृत्तियाँ तथा कार्य-पद्धतियाँ शिक्षण के क्षेत्र में प्रचलित हो रही हैं। अब ‘पढ़ाने’ की अपेक्षा ‘सीखने’ पर शिक्षण को एक उच्चतम व्यावसायिक क्रिया समझा जाने लगता है। शिक्षक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कार्य हैं—अपने छात्रों के लिए शैक्षिक लक्ष्य तथा विशिष्ट उद्देश्यों की रचना करना और इन्हीं के अनुसार छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने की चेष्टा करना।

शिक्षण का उद्देश्य प्रभावशाली शिक्षण होता है। छात्र किसी भी पाठ्य वस्तु तभी प्रभावशाली ढंग से सीख सकते हैं, जब उन्हें सीखने के उद्देश्य भली-भाँति स्पष्ट हों कि उन्हें क्या सीखना है तथा कैसे सीखना है। एक अच्छा शिक्षक सदैव छात्रों की योग्यता तथा आवश्यकता, विषय-वस्तु की प्रकृति तथा शिक्षण स्रोतों की उपलब्धता एवं मापन साधनों की स्पष्टता को ध्यान में रखते हुए अपने शिक्षण उद्देश्यों को निर्धारित करता है यही कार्य शिक्षण नियोजन की प्रक्रिया में आते हैं। निम्नांकित चित्र से ये कार्य और स्पष्ट हो जाते है-

चित्र: शिक्षण के शिक्षण नियोजन में कार्य

चित्र: शिक्षण के शिक्षण नियोजन में कार्य

शिक्षण-अधिगम का नियोजन — शिक्षक का सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य है शिक्षण-अधिगम का नियोजन करना । शिक्षण-अधिगम का नियोजन करते समय शिक्षक को निम्न तीन प्रमुख कार्य करने पड़ते हैं-

(1) कार्य-विश्लेषण (Task analysis),

(2) शिक्षण के उद्देश्यों को पहचानना (Identification of Teaching Objectives),

(3) सीखने के उद्देश्यों को लिखना (Writing Learning Objectives)।

इन पर एक-एक करके नीचे प्रकाश डाला गया है-

(1) कार्य-विश्लेषण (Task Analysis)

कार्य विश्लेषण का अर्थ (Task Analysis and its Meaning)- कार्य-विश्लेषण दो शब्दों से मिलकर बना है। कार्य विश्लेषण (Task + Analysis)। कार्य (Talk) ‘किसी + भी पाठ्य-वस्तु के शिक्षण में उपलब्धि की इकाई (Unit) है जो कि सामूहिक रूप से क्रियान्वयन (Function) कहलाता है।’ (Task may be defined as unit of performance which collectivity constitute a function.) विश्लेषण का अर्थ है— छोटे-छोटे भागों में बाँटना । अतः कार्य-विश्लेषण में छात्रों की पाठ्य सामग्री से सम्बन्ध रखने वाली का विश्लेषण किया जाता है। ‘कार्य विश्लेषण’ का प्रत्यय रायल (Rayle) ने प्रदान किया था। यह प्रत्यय शिक्षण तथा प्रशिक्षण कार्यक्रमों के विकास के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो रहा है। कार्य-विश्लेषण के माध्यम से एक शिक्षक सीखने के उद्देश्यों, शिक्षण नीतियों तथा शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में सही निर्णय लेने में समर्थ होता है। कार्य-विश्लेषण के अन्तर्गत विश्लेषण के साथ-साथ संश्लेषण की क्रिया भी सम्मिलित रहती है (Task analysis contains task analysis as well as task synthesis) ।

कार्य-विश्लेषण में कार्य के विश्लेषण करने के पश्चात् शिक्षक संश्लेषण के द्वारा निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचकर सही निर्णय ले लेता है कि उसे क्या पढ़ाना है— क्यों पढ़ाना है— कितनी गहराई तक पढ़ाना है— किन युक्तियों का प्रयोग करना है। “Task analysis is, as the name implies a way of describing and a help in developing understanding about the task—i.e., what to perform, why to perform and in developing skills about how to perform.” कार्य-विश्लेषण का सम्प्रत्यय ‘प्रशिक्षण- मनोविज्ञान’ (Training Psychology) से निकला है। कार्य-विश्लेषण वास्तव में एक ऐसा उपकरण है जिसके माध्यम से ज्ञान, कौशल तथा अभिवृत्तियों आदि को परिभाषित किया जाता है, छोटे-छोटे तत्वों में विश्लेषण किया जाता है और पुनः उन्हें संश्लेषित किया जाता है।

कार्य-विश्लेषण, सीखने के उद्देश्यों, शिक्षण नीतियों तथा शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में ही निर्णय लेने में शिक्षक की सहायता करते हैं। कार्य-विश्लेषण से छात्रों को यह पता चलता है कि उन्हें क्या-क्या पढ़ना है, कौन-कौन से सम्बन्धित तत्वों का अध्ययन करना है तथा किन अधिगम परिस्थितियों में कैसे पढ़ना है।

आई. के. डेवीज ने इस कार्य – विश्लेषण की चार प्रमुख विशेषताएँ बताई हैं

कार्य-विश्लेषण में-

(1) छात्रों के सीखने की क्रियाओं का विवरण दिया जाता है।

(2) अपेक्षित व्यवहारों की पहचान की जाती है।

(3) उन उद्दीपनों (Stimulation) तथा परिस्थितियों (Situation) को पहचाना जाता है जिनके द्वारा छात्र अपेक्षित व्यवहार करते हैं।

(4) वांछित व्यवहार परिवर्तन के लिए लक्ष्यों, युक्तियों, कौशलों व व्यूह रचनाओं के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाता है कि इनमें से कौन-सा उपयुक्त है।

ये विशेषताएँ कार्य-विश्लेषण के लक्ष्यों (Aims ) की ओर संकेत करती हैं।

कार्य-विश्लेषण के स्रोत (Sources of Task Analysis)

निम्नांकित चित्र कार्य-विश्लेषण के विभिन्न स्रोतों का दिग्दर्शन करता है-

कार्य-विश्लेषण के स्रोत

कार्य-विश्लेषण के स्रोत

कार्य-विश्लेषण के तत्व (Components of Task Analysis)

कार्य-विश्लेषण के दो प्रमुख तत्व होते हैं-

(1) भौतिक तत्व (Physical component)- इनका सम्बन्ध उपकरणों एवं कार्यो में सहायक अन्य तत्वों के प्रयोग से है।

(2) मानसिक तत्व (Mental component)- इनका सम्बन्ध विधियों, निर्णयों तथा अन्य मानसिक भावों तथा विचारों से है।

कार्य-विश्लेषण के प्रकार (Types of Task Analysis)

अधिकतर विद्वानों ने कार्य-विश्लेषण को तीन भागों में बाँटा है-

  1. पाठ्य वस्तु या प्रसंग विश्लेषण (Content or Topic Analysis)
  2. क्रिया विश्लेषण (Job Analysis)
  3. कौशल विश्लेषण (Skill Analysis)

पाठ्य वस्तु का प्रसंग विश्लेषण (Content or Topic Analysis)

अर्थ तथा परिभाषा (Meaning and Definition) : पाठ्य-वस्तु विश्लेषण में पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण एक निश्चित उद्देश्य के अनुसार किया जाता है । यह विश्लेषण प्रायः शैक्षिक तथा बौद्धिक प्रकृति का होता है। इस विश्लेषण का लक्ष्य पाठ्य-वस्तु के बारे में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने का होता है। डेवीज (I. K. Davies) ने लिखा है कि पाठ्य वस्तु विश्लेषण के अन्तर्गत पाठ्य-वस्तु का उसके अवयवों तथा तत्वों में विश्लेषण तर्कपूर्ण विधि से किया जाता है तथा उसका तार्किक विधि से संश्लेषण भी किया जाता है।

(It is the analysis of topic content/unit to be taught, into its constituents or element and synthesize into logical sequence.)

पाठ्य-वस्तु विश्लेषण का एक प्रमुख लक्ष्य शिक्षण-बिन्दुओं (Teaching Points) का निर्धारण करना भी होता है। पाठ्य वस्तु में शिक्षण को जिन महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं या बातों पर बल देना चाहिए— उन्हें शिक्षण बिन्दु कहा जाता है। इन शिक्षण-बिन्दुओं के चयन करने में पाठ्य-वस्तु विश्लेषण की प्रक्रिया महत्वपूर्ण योगदान देती है। इन शिक्षण बिन्दुओं के माध्यम से शिक्षक सरलता से अपनी पाठ्य-वस्तु के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त कर लेता है। पाठ्य-वस्तु विश्लेषण से कुल शिक्षण बिन्दुओं का चयन करके उनकी संख्या ज्ञात की जाती है और इन बिन्दुओं की संख्या, महत्व आदि के आधार पर पढ़ाने का समय निश्चित किया जाता है, किन शिक्षण बिन्दुओं को ज्यादा समय देना है और किन्हें कम अथवा किस बिन्दु को प्रारम्भ में पढ़ाना है, इस प्रकार से पाठ्य-वस्तु विश्लेषण के आधार पर शिक्षक अपने शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बना सकता है।

पाठ्य-वस्तु की विधियाँ

पाठ्य वस्तु विश्लेषण की अनेक विधियाँ प्रचलित हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधियाँ डेवीज, होमे (1962), ग्लेसर (1963) मेकनर (1965) आदि की मानी जाती हैं। इनमें डेवीज की विधि सर्वाधिक सरल, स्पष्ट तथा उपयोगी सिद्ध हुई हैं।

डेवीज ने अपनी विधि को मैट्रिक्स प्रविधि (Matrix Technique) कहा है। इस विधि में सर्वप्रथम सम्पूर्ण पाठ्य वस्तु को उसके प्रकरणों में बाँटा जाता है फिर प्रत्येक प्रकरण को उसके तत्वों में विभाजित किया जाता है और एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित किया जाता है । इस प्रकार इस विधि में विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों ही प्रकार की प्रविधियाँ अपनाई जाती हैं। डेवीज की मैट्रिक्स प्रविधि को निम्नांकित चित्र से प्रदर्शित किया जा सकता है-

चित्र: पाठ्य-वस्तु विश्लेषण

चित्र: पाठ्य-वस्तु विश्लेषण

पाठ्य-वस्तु विश्लेषण के स्रोत (Sources of Topic Analysis )

पाठ्य-वस्तु के विश्लेषण हेतु शिक्षक को पाठ्य वस्तु पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। साथ ही, उसे सम्बन्धित सभी स्रोतों को ध्यान में रखना चाहिए। इसके लिए उसे अपनी प्रामाणिक पाठ्य-पुस्तकों का अध्ययन करना चाहिए। छात्रों की योग्यता, रुचि तथा मानसिक विकास का ध्यान रखना चाहिए। ये सभी आधार पाठ्य-वस्तु विश्लेषण की क्रिया लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं। निम्नांकित चित्र पाठ्य-वस्तु विश्लेषण के कुछ महत्त्वपूर्ण स्रोतों को स्पष्ट करता है-

पाठ्य-वस्तु विश्लेषण के स्रोत

पाठ्य-वस्तु विश्लेषण के स्रोत

पाठ्य-वस्तु के तत्वों की क्रमबद्ध व्यवस्था (Arrangement of Topic’s Elements in Logical Sequence)- पाठ्य वस्तु के विश्लेषण के पश्चात् उसके तत्वों को क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करने के लिए निम्नांकित नियमों का अनुसरण करना चाहिए-

(1) ज्ञात से अज्ञात की ओर ( Known to Unknown),

(2) सरल से जटिल की ओर (Simple to Complex),

(3) स्थूल से सूक्ष्म की ओर (Concrete to Abstract),

(4) अंश से पूर्ण की ओर (Part to Whole),

(5) अवलोकन से तर्क की ओर (Observation to Logical Thinking)।

शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक कैसे अपनी योग्यता, सूझबूझ, कल्पना तथा सृजनशीलता का प्रयोग शिक्षण-वस्तु के विश्लेषण तथा संश्लेषण में करता है।

पाठ्य वस्तु के तत्वों की विशेषताएँ (Characteristics of Content Elements)

पाठ्य-वस्तु के तत्वों की निम्नांकित विशेषताएँ होती हैं-

(1) तत्व स्वयं में पूर्ण (complete) होता है और छात्रों द्वारा सरलता से समझा जा सकता है।

(2) तत्व को पृथक रूप से छात्रों को समझाया जा सकता है।

(3) तत्व छात्रों के व्यवहार में परिवर्तन ला सकते हैं।

(4) छात्रों की अनुक्रिया से पता चल जाता है कि उन्हें तत्व का ज्ञान है या नहीं।

(5) तत्व का मापन प्रश्नों के द्वारा सम्भव होता है (आवश्यकतानुसार एक या ज्यादा प्रश्न एक तत्व का मापन करने में समर्थ होते हैं।)

(6) छात्रों के व्यवहार से तत्व में स्तर का मापन किया जा सकता है। जैसे ज्ञान का स्तर, बोध स्तर अथवा चिन्तन स्तर।

(7) तत्वों को यदि क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाये तो किसी प्रत्यय, विचार या तथ्य का विकास किया जा सकता है।

पाठ्य वस्तु विश्लेषण का प्रयोग पाठ् योजना निर्माण के क्षेत्र में भी किया जाता है। इसीलिए एक परिभाषा के अनुसार,

“Task analysis consists of abilities to analyse the objectives in terms of behavioural change in cognitive and affective area.”

ज्ञानात्मक क्षेत्र में पाठ्य-विश्लेषण के माध्यम से निम्नांकित तत्वों पर पहुँचा जा सकता है और उनमें तादात्मय स्थापित किया जा सकता है-

(1) पद (Term),

(3) तथ्य ( Facts),

(2) प्रत्यय (Concept),

(4) नियम एवं सिद्धान्त (Laws of Principles),

(5) संकेत (Symbols), (6) थ्योरी (Theories),

(7) प्रक्रियाएँ (Process/Methodology),

(8) कल्पना (Assumption/Postulates),

(9) सम्बन्ध (Relationship) ।

क्रियात्मक (Cognitive) – क्षेत्र में प्रकरणों का विश्लेषण करते समय शिक्षक को निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए—

(1) Performative Acquisition,

( 2 ) Expressional Acquisition,

(3) Conventional Acquisition.

भावात्मक (Affective)- क्षेत्र के प्रकरणों के विश्लेषण में निम्नांकित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिए—

(1) General Appreciation Ability,

(2) Appreciation in Particular,

(3) Appreciation with Novelty.

पाठ्य-वस्तु विश्लेषण, शिक्षक के लिए उद्देश्य-निर्धारण प्रक्रिया में दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।

क्रिया-विश्लेषण (Job Analysis) — इसे व्यावसायिक विश्लेषण भी कहा जाता है। इसमें कुछ सामाजिक तथा व्यावसायिक (Professional) क्रियाओं तथा भूमिकाओं का विश्लेषण किया जाता है।

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