B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

सूक्ष्म शिक्षण का इतिहास, चक्र, आवश्यकता, महत्त्व एवं सीमाएँ

सूक्ष्म शिक्षण का इतिहास (History of Micro-Teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में एक नवाचार है, जो कक्षा में एक नियंत्रित अभ्यास की प्रक्रिया है। इसका विकास ‘स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका में सन् 1961 में एलेन, एचीसन एवं बुश के संयुक्त प्रयास के फलस्वरूप हुआ। सर्वप्रथम नियंत्रित रूप में “संकुचित अध्ययन अभ्यास क्रम” शुरू किया गया जिसके अन्तर्गत प्रत्येक छात्राध्यापक 5 से 10 छात्रों को एक छोटा-सा पाठ पढ़ाता था और अन्य छात्राध्यापक विभिन्न प्रकार की भूमिका का निर्वाह करते थे। सन् 1963 ई. में एलेन ने इस उपागम की विशद व्याख्या की तथा इसे सूक्ष्म शिक्षण की संज्ञा प्रदान की इसलिए सूक्ष्म शिक्षण का जन्मदाता एलेन को माना जाता है। सूक्ष्म-शिक्षण, अध्यापक प्रशिक्षण की एक प्रयोगशालीय एवं वैश्लेपिंग विधि है जिसके माध्यम से छात्राध्यापकों में शिक्षण कौशल का विकास किया जाता है। विडियो टेप रिकार्डर का प्रयोग भी छात्राध्यापकों के शिक्षण व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाने के लिए करना प्रारम्भ किया। सन् 1965 में हैरी गैरीसन ने शिक्षण सामर्थ्य के क्षेत्र में काम करते हुए एक दीपिका की रचना की जिसे ‘स्टेनफोर्ड शिक्षण सामर्थ्य अर्हण दीपिका’ कहकर सम्बोधित किया जाता है। सन् 1966 में ओर्म, सन् 1967 में क्लेनवैश, सन् 1971 में मैक्लीज तथा अनवन आदि अनेक शोधार्थियों ने अपने शोधपत्रों के आधार पर सारे विश्व को आकर्षित किया।

भारत में सन् 1967 में डी. डी. तिवारी ने सूक्ष्म-शिक्षण शब्द का प्रयोग शिक्षण प्रशिक्षण के क्षेत्र में प्रारम्भ किया। इसके उपरांत 1970 में चुड़ोसमा ने 1971 में, एल. पी. सिंह, मर्कर तथा पन्गौत्रा ने 1973 में तथा दोसाज ने 1974 में सूक्ष्म शिक्षण के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पादित करके, इसका विकास किया। सूक्ष्म-शिक्षण के क्षेत्र में वैज्ञानिक जानकारी भारत में सन् 1974 में पासी एवं शाह ने सूक्ष्म शिक्षण के क्षेत्र में सर्वप्रथम प्रकाशन करके किया था। इसके उपरांत भट्टाचार्य ने 1974 में, ललिता एवं जोशी ने 1976 में, सिंह व ग्रेविन ने 1977 में तथा गुप्ता ने 1978 में इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करके इसका प्रचार-प्रसार किया। इंदौर विश्वविद्यालय में सन् 1978 में सर्वप्रथम सूक्ष्म-शिक्षण पर राष्ट्रीय परियोजना का निर्माण किया गया। देहरादून ने सूक्ष्म-शिक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करते हुए, परिसूक्ष्म – शिक्षण पर प्रथम भारतीय मोनोग्राफ ‘मिली टीचिंग : एन्यू एक्सपैरीमेण्ट इन टीचर एजुकेशन’ एन.सी.ई.आर.टी. नई दिल्ली के सहयोग से प्रकाशित करवाया। भारत में सूक्ष्म-शिक्षण पर शोध कार्य प्रमुख रूप से दिल्ली, इंदौर, सहारनपुर, बड़ौदा तथा देहरादून में किया जा रहा है। शिक्षण का यह लघु रूप अध्यापक प्रशिक्षण के क्षेत्र में, अध्यापकों में शिक्षण कौशलों के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर, शिक्षण के उन्नयन में विशेष योगदान दे रहा है।

सूक्ष्म-शिक्षण व्यवस्था के सोपान

उक्त दस सोपानों संक्षिप्त विवरण निम्न हैं-

(1) अभिविन्यास (Orientation) – प्रथम सोपान के अन्तर्गत, सबसे पहले सूक्ष्म-शिक्षण विशेषज्ञ द्वारा कक्षों में छात्राध्यापकों के बीच सूक्ष्म-शिक्षण के संप्रत्यय अर्थ, उसके घटक, सूक्ष्म-शिक्षण चक्र, इसके सोपानों, विशेषताओं, गुण-दोषों आदि के बारे में चर्चा विस्तृत रूप से की जाती है ।

(2) शिक्षण-कौशलों की परिचर्या (Discussion of Teaching Skills)- सूक्ष्म शिक्षण एवं कौशल विशेष की सम्यक् एवं विस्तृत जानकारी प्रदान करने के उपरांत, कौशल विशेष को लेकर आदर्श सूक्ष्म पाठ का स्वरूप प्रदर्शित किया जाता है। इस प्रक्रिया को ही “मॉडल आदर्श पाठ प्रस्तुतिकरण” कहना कहा जाता है।

इसके अन्तर्गत निम्न क्रियाएँ सम्पादित की जाती हैं-

(i) सर्वप्रथम अध्यापक-प्रशिक्षण स्वयं आदर्श सूक्ष्म पाठ-योजना के अन्तर्गत सूक्ष्म पाठ पढ़ाकर दिखाता है।

(ii) शिक्षक प्रशिक्षण द्वारा तैयार आदर्श सूक्ष्म पाठ लिखित रूप से भी छात्राध्यापकों को दिया जा सकता है जिससे उन्हें स्वयं कार्य करने में सहायता प्राप्त हो सके।

(iii) शिक्षक प्रशिक्षण द्वारा तैयार आदर्श पाठ को वीडियोटेप पर रिकार्ड करके टेलीविजन पर प्रदर्शित किया जा सकता है।

(iv) आदर्श पाठ प्रस्तुतीकरण को साधारण टेप रिकार्डर पर टेपकर प्रशिक्षणार्थियों को सुनाया जा सकता है जिससे वे लाभान्वित होते हैं।

(3) पाठ-निरीक्षण एवं समालोचन (Lesson Observation and Criticism)- चतुर्थ सोपान में निरीक्षण एवं समालोचना करने की बातों का छात्राध्यापकों को जानकारी दी जाती है। पाठ की समाचोलना के लिए प्रत्येक छात्राध्यापक की प्रत्येक शिक्षण कौशल के लिए अलग-अलग निरीक्षण प्रपत्र दिए जाते हैं। इस प्रपत्र के समुचित उपयोग की बातों से अवगत कराया जाता है।

(4) सूक्ष्म पाठ योजना की तैयारी (Preparation of Micro Lesson Plan)— इस पाँचवें सोपान के अन्तर्गत प्रशिक्षणार्थी किसी विशेष कौशल के परिप्रेक्ष्य में पाठ्यवस्तु की एक छोटी इकाई को लेकर एक सूक्ष्म पाठयोजना को लिखित रूप में तैयार करता है।

(5) शिक्षण सत्र (Teaching Session)- इस सोपान के अन्तर्गत प्रशिक्षणार्थी तैयार की गई सूक्ष्म पाठ योजना को पूर्व निर्धारित समय सीमा 6 मिनट तथा कक्षा का आकार 5 से 10 छात्रों वाली कक्षा में विषय-वस्तु को पूर्व निर्धारित शिक्षण कौशल के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है। इस सूक्ष्म पाठ योजना के प्रस्तुतीकरण को विडियो टेप-रिर्काडर द्वारा टेप भी किया जा सकता है। यदि इस प्रकार से टेप करने की व्यवस्था नहीं हैं तो प्रशिक्षक या छात्राध्यापक पाठ प्रस्तुतिकरण के दौरान उसका विधिवत् समालोचना हेतु आवश्यक बातों को लिखित रूप से नोट करते हैं।

(6) प्रतिपुष्टि (Freedback)- इस सोपान के अन्तर्गत अवलोकनकर्ता शिक्षण सत्र समाप्त होने के उपरांत लिखित रूप में नोट समालोचना के अनुसार प्रतिपुष्टि प्रदान करता है। इस कार्य हेतु 6 मिनट का समय निर्धारित होता है ।

(7) पुनर्योजना (Replan)– इस सोपान के अन्तर्गत प्राप्त प्रतिपुष्टि के आधार पर अपने सूक्ष्म पाठ-योजना का पुनर्नियोजना करता है अर्थात् पुन: पाठ-योजना को तैयार करता है। पाठ पुन नियोजन के लिए 12 मिनट का समय निर्धारित रहता है। पुनर्नियोजना सत्र भी कहकर सम्बोधित किया जाता है । इस सत्र को

(8) पुनः शिक्षण (Re-teaching)– इस सोपान के अन्तर्गत पुनर्नियोजित सूक्ष्म पाठयोजनानुसार पुनः शिक्षण कार्य सम्पादित किया जाता है पुनः शिक्षण हेतु 6 मिनट का समय निर्धारित होता है। इस सत्र को पुनः शिक्षण सत्र भी कह कर सम्बोधित किया जाता है। इस शिक्षण में पूर्ववत पाठ के निरीक्षण की व्यवस्था की जाती है।

(9) पुनः प्रतिपुष्टि (Re-feedback)- इस सोपान के अन्तर्गत पुनः निरीक्षित तथ्यों के आधार पर प्रशिक्षणार्थी को पुनः प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है जिससे वांछित शिक्षण व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सके।

यह संचालित सूक्ष्म-शिक्षण कार्य पूर्व वर्णित सोपानों के अन्तर्गत तब तक संचालित होता रहता है। जब तक की प्रशिक्षणार्थी के व्यवहार में वांछित परिवर्तन नहीं हो जाता है।

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र (Cycle of Micro-teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र का तात्पर्य उस पक्ष से लिया जाता है। जिस पथ पर आगे बढ़कर किसी कौशल विशेष में दक्षता हासिल की जाती है। इसका संक्षिप्त विवरण निम्न है-

सूक्ष्म-शिक्षण चक्र

सूक्ष्म-शिक्षण समय अन्तराल (Time Duration of Micro-teaching)

सूक्ष्म-शिक्षण समय अंतराल के सन्दर्भ में मतभेद पाया जाता है। स्टेन फोर्ड विश्वविद्यालय तथा डी.ए.वी. कॉलेज देहरादून के शोधार्थियों ने अपने-अपने ढंग से सूक्ष्म शिक्षण समय अंतराल को प्रदर्शित किया है-

स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय अमेरिका द्वारा सूक्ष्म शिक्षण समय अंतराल का विभाजन निम्न ढंग से किया गया है-

शिक्षण चरण             –     5 मिनट

मूल्यांकन चरण          –     10 मिनट

पुनः पाठ निर्माण चरण  –     15 मिनट

पुनः शिक्षण चरण        –     5 मिनट

पुनः मूल्यांकन चरण     –    10 मिनट

कुल समय                –    45 मिनट

डी.ए.वी. कॉलेज, देहरादून द्वारा सूक्ष्म शिक्षण समय अंतराल का विभाजन निम्न ढंग से किया गया है—

शिक्षण चरण             –    6 मिनट

प्रथम मूल्यांकन          –     4 मिनट

पुनः पाठ योजना चरण   –    15 मिनट

पुनः शिक्षण चरण        –    6 मिनट

पुनः मूल्यांकन चरण      –   4 मिनट

कुल समय                 –   35 मिनट

वर्तमान समय में सूक्ष्म-शिक्षण समय अंतराल को सुविधा के दृष्टिकोण से निम्न ढंग से विभाजित किया गया है—

शिक्षण सत्र                –    6 मिनट

प्रतिपुष्टि सत्र               –    6 मिनट

पुनः पाठ निर्माण सत्र      –    12 मिनट

पुनः शिक्षण सत्र           –    6 मिनट

पुनः प्रतिपुष्टि सत्र          –    6 मिनट

कुल समय                 –    36 मिनट

सूक्ष्म शिक्षण हेतु निर्धारित समय अंतराल 36 मिनट के अंतर्गत सूक्ष्म-शिक्षण चक्र का स्पष्टीकरण निम्न ढंग से किया जा सकता है।

सर्वप्रथम किसी विशिष्ट शिक्षण कौशल को ध्यान में रखकर सूक्ष्म-पाठ योजना का निर्माण किया जाता है निर्मित सूक्ष्म-पाठ योजना के तहत् छात्राध्यापक को वास्तविक कक्षा के 5 से लेकर 10 छात्रों को पढ़ाना पड़ता है। इस शिक्षण सत्र हेतु 6 मिनट का समय निर्धारित होता है। सूक्ष्म शिक्षण सत्र के अंतर्गत विडियो टेपरिकार्डर न उपलब्ध होने पर पर्यवेक्षण द्वारा ही शिक्षण कार्य का मूल्यांकन किया जाता है? शिक्षण कार्य निर्धारित समय में समाप्त होने के उपरांत पर्यवेक्षक द्वारा प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है। प्रतिपुष्टि हेतु 6 मिनट का समय निर्धारित होता है। इस चरण के अभाव में छात्राध्यापक के शिक्षण कार्य की सफलता एवं असफलता का ज्ञान होना सम्भव नहीं है। अतः यह शिक्षण कार्य का अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण सोपान होता है प्राप्त प्रतिपुष्टि के आधार पर पुन: पाठ- नियोजन का कार्य सम्पादित किया जाता है जिसके लिए 12 मिनट का समय निर्धारित किया गया है। पुनः पाठ नियोजन के उपरांत पुनः शिक्षण कार्य निर्धारित समय सीमा 6 मिनट के अंतर्गत किया जाता है । पुनः शिक्षण सत्र की निर्धारित समय सीमा समाप्त हो जाने के उपरांत पुनः निर्धारित समय सीमा 6 मिनट के अन्तर्गत प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है। यह कार्य इसी चक्र के अन्तर्गत तब तक संचालित किया जाता है जब तक प्रशिक्षणार्थी निर्धारित शिक्षण कौशल में दक्ष नहीं हो जाता है।

सूक्ष्म-शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व (Needs and Importance of Micro teaching)

(i) सूक्ष्म-शिक्षण द्वारा शिक्षण कार्य को सरल बनाया जाता है, क्योंकि शिक्षण प्रक्रिया जटिल होती है। इसमें अनेक कौशल सन्निहित होते हैं।

(ii) इस प्रविधि में प्रशिक्षणार्थी अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार शिक्षण कौशलों पर ध्यान केन्द्रित कर उन्हें सीखने का प्रयत्न करता है।

(iii) इस प्रविधि में प्रशिक्षणार्थी को एक साथ शिक्षण के सम्पूर्ण कौशलों पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया जाता है बल्कि एक समय में केवल एक शिक्षण कौशल पर ध्यान देना पड़ता है।

(iv) प्रशिक्षणार्थी अपनी न्यूनताओं एवं कमियों को दूर करने के लिए किसी एक विशिष्ट कौशल पर बार-बार अभ्यास करने का अवसर प्राप्त करता है।

(v) प्रशिक्षणार्थी का वस्तुनिष्ठ अंकन किया जाता है।

(vi) इस प्रविधि में मूल्यांकन में प्रशिक्षणार्थी को अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार होता है जिसके फलस्वरूप मूल्यांकन की प्रक्रिया में उसे सक्रिय रखा जाता है।

(vii) निरीक्षण द्वारा पाठ का पूर्णरूपेण निरीक्षण सम्भव होता है।

(viii) इस प्रविधि में शिक्षण सत्र के समाप्त होने के तुरंत बाद ही प्रशिक्षणार्थी को प्रतिपुष्टि प्रदान की जाती है।

(ix) इस प्रविधि के द्वारा प्रशिक्षणार्थी को कम समय में अधिक सीखने का अवसर प्राप्त होता है।

(x) इस प्रविधि में एक ही प्रशिक्षणार्थी के दो व्यवहारों (पाठ, पुनः पाठ के अध्यापन में) की तुलना का अवसर प्राप्त होता है।

(xi) इस प्रविधि में शिक्षण और अधिगम की परिस्थितियों पर अधिक प्रभावकारी नियंत्रण होता है।

(xii) इस प्रविधि द्वारा छात्राध्यापकों में आत्म-विश्वास पैदा किया जाता है।

(xiii) यह प्रविधि, सामान्य शिक्षण का एक लघु रूप होता है जिसमें सामान्य शिक्षण की समस्याओं एवं जटिलताओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

(xiv) यह प्रविधि समय के दृष्टिकोण से अधिक मितव्ययी होती है।

(xv) इस प्रविधि द्वारा प्रशिक्षणार्थियों को शिक्षण कौशलों को क्रमवार सीखने का अवसर प्राप्त होता है जिससे प्रशिक्षणार्थियों में शिक्षण कौशलों का समुचित रूप से विकास करके शिक्षण कार्य में दक्ष बनाया जा सकता है।

सूक्ष्म शिक्षण की सीमाएँ (Limitation of Micro-Teaching)

सूक्ष्म शिक्षण में जहाँ एक ओर अनेक लाभ एवं महत्त्व पाए जाते हैं वहीं दूसरी ओर इसकी कुछ सीमाएँ भी पाई जाती हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) सूक्ष्म-शिक्षण की प्रक्रिया ज्यादा नियंत्रित एवं संकुचित शिक्षण की ओर ले जाती है।

(ii) सामान्य शिक्षण की प्रक्रिया में अनेक शिक्षण कौशल पाए जाते हैं, जबकि सूक्ष्म-शिक्षण द्वारा लगभग 15 से 28 कौशलों तक सीमित नहीं है।

(iii) सूक्ष्म शिक्षण के लिए निर्धारित समय अंतराल (5 से 10 मिनट) में बहुत कम पाठ वस्तु का प्रस्तुतीकरण हो पाता है जिससे पाठ अंशों में बिखर जाता है।

(iv) यह शिक्षण को कक्षागत शिक्षण से दूर ले जाती है।

(v) इस प्रविधि द्वारा प्रशिक्षण में अधिक समय लगता है।

(vi) प्रशिक्षणार्थी इस सूक्ष्म-शिक्षण में छोटे आकार (5 से 10 छात्रों की संख्या) की कक्षा में पढ़ाता है, वही प्रशिक्षणार्थी जब बड़े आकार की कक्षा में शिक्षण कार्य करने जाता है तो अपना प्रायः आत्मविश्वास खो देता है।

(vii) 5 से 10 छात्रों को शिक्षण समूहों में विभक्त कर देने से विद्यालय का टाइम-टेबिल ही चौपट हो जाता है।

(viii) प्रभावशाली सूक्ष्म शिक्षण कार्य को सम्पादित करने हेतु टेप रिकॉर्डर, विडियो टेप रिकॉर्ड, क्लोज सर्किट टी.वी. आदि की आवश्यकता पड़ती है, जबकि भारतीय महाविद्यालय इस खर्च को वहन करने की स्थिति में नहीं है।

(ix) इस प्रविधि में प्रतिपुष्टि शिक्षण कार्य के दौरान प्राप्त न होकर, इसकी समाप्ति पर प्राप्त होता है जिससे शिक्षण कार्य में प्रोत्साहन लगातार प्राप्त नहीं होता है।

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