पाठ्य योजना से आप क्या समझते हैं?
पाठ-योजना की आवश्यकता एवं महत्त्व
पाठ-योजना की आवश्यकता एवं महत्त्व के प्रमुख कारक निम्न प्रकार हैं-
(i) पाठ-योजना की सहायता से शिक्षक पाठ सम्बन्धी लक्ष्यों एवं प्राप्य उद्देश्यों को ध्यान में रखता है तथा वह विद्यार्थियों को इनकी प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है।
(ii) पाठ-योजना बनाते समय पाठ के सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं और कठिनाइयों का हल पहले से ही तैयार कर लेता है।
(iii) पाठ-योजना के माध्यम से कक्षा शिक्षण के समय शिक्षक के विस्मृति की सम्भावना कम हो जाती है।
(iv) शिक्षक को पाठ पढ़ाने से पूर्व पाठ-योजना के माध्यम से शिक्षण की समस्त क्रियाओं तथा सहायक सामग्री आदि की पूर्ण जानकारी हो जाती है । इससे उसे पाठ के शिक्षण में कोई कठिनाई नहीं आती। वह फिर पूर्ण आत्मविश्वास के साथ पाठ पढ़ाने का यत्न करते हैं।
(v) पाठ-योजना के द्वारा पूर्व ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान प्रस्तुत किया जाता है जिससे, पाठ में नवीनता एवं रोचकता आ जाती है विद्यार्थियों को कठिन पाठ भी सरल लगते हैं।
(vi) पाठ-योजना छात्राध्यापकों को वैज्ञानिक ढंग से शिक्षण का कार्य सिखाने में मदद करती है।
(vii) पाठ-योजना की सहायता से शिक्षक को स्वयं अपनी सफलता एवं असफलता का ज्ञान हो जाता है।
(viii) यह व्यक्तिगत भिन्नता के आधार पर कक्षा की क्रियाओं की व्यवस्था करने में सहायक सिद्ध होती है ।
(ix) पाठ-योजना से विद्यार्थियों की मानसिक शक्तियों का विकास स्वस्थ आधारों पर होता है।
(x) पाठ-योजना के द्वारा विद्यार्थियों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप से ज्ञान प्राप्त होता है।
(xi) पाठ-योजना में पाठ्यवस्तु चूँकि सीमित हो जाती है, अतः शिक्षक उसे करके बगैर किसी पुस्तक या नोट्स की सहायता से कक्षा में पूर्ण आत्मविश्वास से पढ़ा सकता है।
(xii) पाठ योजना के आधार पर शिक्षण प्रक्रियाओं में वस्तुतः विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही सक्रिय रूप से पाठ के विकास में भाग लेते हैं, जिससे कक्षा में नीरसता नहीं आती है।
(xiii) पाठ-योजना के आधार पर शिक्षण करने से विद्यार्थियों द्वारा अर्जित किया हुआ ज्ञान स्थायी होता है।
(xiv) पाठ योजना के आधार पर शिक्षण करने से निरन्तरता बनी रहती है, क्योंकि नवीन पाठ का पूर्ण पाठ से उचित सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।
पाठ-योजनाओं का वर्गीकरण (Classification of lesson Plans)
पाठ-योजना के स्वरूपों को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित पाँच प्रकार की पाठ-योजनाओं को स्वीकृत कर सकते हैं-
(1) व्यापक पाठ योजनाएँ— व्यापक पाठ योजनायें पूरी कक्षा के लिए 40 से 45 मिनट तक की बनायी जाती हैं। इसमें पाठ की इकाई का आधार बड़ा होता है। पाठ्यवस्तु भी पर्याप्त होती है। भारतीय प्रशिक्षण विद्यालयों में अध्यापकों द्वारा व्यापक योजनायें ही बनायी जाती हैं। सूक्ष्म पाठ योजना के उपरान्त जब छात्राध्यापक के वास्तविक कक्षा में शिक्षण कौशल विकसित हो जाते हैं, तदोपरान्त वह व्यापक पाठ योजनाओं का निर्माण करता है।
(2) लिखित पाठ योजनायें – इसमें छात्राध्यापक को जो कुछ कक्षा में पढ़ाना है इसे व्यवस्थित रूप से लिखित पाठ योजना को तैयार करता है। प्रशिक्षण विद्यालयों में छात्र – अध्यापक को कक्षा शिक्षण में जाने से पूर्व लिखित पाठ योजना को बनाने का अभ्यास करना पड़ता है, जिससे वे सकल रूप से शिक्षण कार्य प्रारम्भ कर सकें।
(3) अलिखित पाठ योजनायें – कक्षा में जाने से पूर्व कई प्रशिक्षित शिक्षकगण अपने अनुभवों के आधार पर अलिखितरूप से पाठ योजनायें तैयार करते हैं कि इन्हें क्या पढ़ाना है, क्यों पढ़ाना हैं, कैसे पढ़ाना है ? अतः इस स्वरूप में शिक्षक मन में पाठ योजना को विकसित करता है।
(4) सूक्ष्म पाठ योजनायें- सूक्ष्म पाठ योजनायें सूक्ष्म शिक्षण हेतु तैयार की जाती हैं। प्रशिक्षार्थियों के कौशल के विकास हेतु इस योजना का उपयोग किया जाता है सूक्ष्म पाठ-योजना, सूक्ष्म शिक्षण में वास्तविक दशा में 5 से 10 विद्यार्थियों को 5 से 10 मिनट तक कम पाठ्यवस्तु में विद्यार्थियों को पढ़ने हेतु तैयार की जाती है जिससे अध्यापक एक-एक कौशल को विकसित करता है। अतः सूक्ष्म-शिक्षण से स्पष्ट है कि इसमें कम विद्यार्थियों को कम समय में कम पाठ्यवस्तु को पढ़ाना तथा इसके द्वारा कौशलों का विकास करना ही मुख्य उद्देश्य है । वर्त्तमान में आधुनिक तकनीकी के द्वारा सूक्ष्म शिक्षण का सवाल निश्चित किया जाने लगा है। जिसमें पृष्ठपोषण एवं पुनर्बलन हेतु पूर्ण अवसर प्राप्त होते हैं जिसमें कम समय में छात्राध्यापकों में कौशलों को विकसित किया जाता है।
(5) लघु पाठ योजनायें – लघु पाठ योजनायें भी पूरी कक्षा के लिए 30-35 मिनट की अवधि के लिए बनायी जाती हैं, परन्तु इस योजना को बनाते समय इसके स्वरूप में व्यापक पाठ-योजनाओं से कुछ भिन्नता रहती है, अर्थात् सभी प्रकरण इसमें शामिल नहीं किये जाते हैं। लघु पाठ योजनाओं में निम्नलिखित तथ्य दिये जाते हैं-
(1) पाठ-योजना क्रय, (2) प्रकरण, (3) कक्षा संवर्ग, (4) विशिष्ट उद्देश्य, (5) शिक्षण बिन्दु, (6) मूल्यांकन, (7) गृहकार्य ।
पाठ-योजना के विभिन्न पद (Different Steps of Lesson Plannings)
(1) प्रस्तावना- पाठ की प्रस्तावना विद्यार्थियों के पूर्व-ज्ञान पर आधारित होती है । इसमें 3 या 4 प्रश्न पूछे जाते हैं। अंतिम प्रश्न से नवीन पाठ को शीर्षक अथवा प्रकरण निकालना चाहिए, यह मूल पाठ तक पहुँचने का मार्ग है। प्रस्तावना कहानी, कविता, चित्र अथवा चार्ट आदि पर प्रश्न करके भी निकलवाई जा सकती है। इसमें प्रश्न व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप में होने चाहिए। इसका प्रयोग कक्षा-स्तर के अनुकूल ही किया जाता है।
(2) दिनांक, विषय, प्रकरण, कक्षा, विभाग, कालांश तथा चक्र- पाठ-योजना की तैयारी इन तथ्यों के निर्धारण से होती है। विषय के अनुसार प्रकरण या उपविषय का चयन किया जाता है ।
(3) सामान्य उद्देश्य – प्रत्येक विषय को पढ़ाने के कुछ सामान्य उद्देश्य होते हैं इनका सम्बन्ध विशिष्ट विषय से होता है तथा विषय के पाठ्यक्रम को ध्यान में रखकर इनका निर्माण किया जाता है इनकी प्राप्ति हेतु शिक्षक निरंतर प्रयत्नशील रहता है। इनका कक्षा स्तर के अनुरूप होना आवश्यक है। नागरिक शास्त्र के सामान्य उद्देश्य इस प्रकार हैं-
(i) विद्यार्थियों में आदर्श नागरिकता के गुणों का समापन करना।
(ii) उनकी मानसिक शक्तियों का विकास करके उनमें उदार एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना।
(iii) उनको अपने तथा राज्य के कर्त्तव्यों व अधिकारों से अवगत करना।
(iv) उनमें नागरिकशास्त्र विषय के गहन अध्ययन के लिए रुचि जागृत करना।
(4) उद्देश्य-कथन – प्रस्तावनात्मक प्रश्न पूछने के पश्चात् शिक्षक कक्षा में पढ़ाये जाने वाले नए पाठ की घोषणा करते हुए कहता है कि आज हम इस प्रकरण के विषय में अध्ययन करेंगे । उद्देश्य – कथन के पश्चात् वह श्यामपट्ट पर प्रकरण लिख देता है।
(5) प्रस्तुतीकरण – प्रस्तुतीकरण के पद से ही पाठ का क्रियात्मक पक्ष प्रारम्भ होता है। प्रस्तुतीकरण के अन्तर्गत पाठ को सोपानों में विभाजित कर लिया जाता है जिससे विद्यार्थियों को क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप में ज्ञान की प्राप्ति हो। इसी समय शिक्षक को पाठ में प्रयुक्त होने वाली शिक्षण विधियों, प्रविधियों एवं सहायक सामग्री पर विचार करना होता है। प्रस्तुतीकरण में विकासात्मक प्रश्न पूछकर पाठ को आगे बढ़ाया जाता है। वस्तुत: इस पद के अन्तर्गत शिक्षक को विद्यार्थियों की मानसिक क्रिया को निरंतर प्रेरित तथा उत्तेजित करते रहना चाहिए।
(6) बोध प्रश्न – शिक्षक को प्रत्येक सोपान के अंत में बोध प्रश्नों के माध्यम से विद्यार्थियों को प्रदत्त ज्ञान की जाँच करनी चाहिए। इससे यह ज्ञात हो जाता है कि छात्रों ने ज्ञान को कितना आत्मसात् किया। इन बोध प्रश्नों की सहायता से शिक्षक श्यामपट सारांश का भी विकास कर सकता है।
(7) श्यापट्ट सारांश- श्यामपट्ट को शिक्षक का अभिन्न मित्र माना जाता है। यह पाठ का विकास करते हुए श्यामपट्ट पर मुख्य शिक्षण-बिन्दुओं को लिखता जाता है। नागरिकशास्त्र शिक्षण में शिक्षक को प्रत्येक सोपान के अन्त में बोध प्रश्न पूछकर श्यामपट्ट सांराश को लिखते रहना चाहिए। शिक्षक को श्यामपट्ट सारांश का विकास करते समय निरंतर विद्यार्थियों का सक्रिय सहयोग रहना चाहिए। श्यामपट्ट पर लेख सीधी पंक्तियों में हो, एक ही भाषा का प्रयोग हो तथा अक्षर चमकीले व सुडौल हों।
(8) विशिष्ट उद्देश्य – विशिष्ट उद्देश्यों का प्रत्यक्ष सम्बन्ध पढ़ाये जाने वाले पाठ से होता है। ये विशिष्ट पाठ्यवस्तु के आधार पर बनाए जाते हैं तथा विभिन्न पाठों के साथ बदलते रहते हैं। वस्तुतः इनकी प्राप्ति ही शिक्षण का मूल उद्देश्य है।
(9) सहायक सामग्री- शिक्षण को रुचिकर व स्पष्ट करने हेतु शिक्षक सहायक सामग्री का अवसरानुकूल प्रयोग करता है। सहायक सामग्री मुख्यत: तीन प्रकार की हो सकती है— श्रव्य, दृश्य, तथा श्रव्य-दृश्य । रेडियो, प्रोजेक्ट, चित्र, चार्ट, मॉडल, टेलीविजन आदि इसके उदाहरण हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक उपमा, तुलना तथा लोकोक्तियों आदि का भी प्रयोग कर सकता है। सहायक सामग्री का प्रयोग तीन अवस्थाओं में किया जा सकता है। पाठ के प्रारम्भ में, पाठ के विकास हेतु तथा पाठ की पुनरावृत्ति के संदर्भ में यहाँ यह रखना चाहिए कि सहायक सामग्री शालीन हो, सुरुचि परिचायक हो तथा विद्यार्थियों को अध्ययन की दिशा में प्रेरित करने वाली हों ।
(10) पुनरावृत्ति – पुनरावृत्ति का अर्थ है-पढ़ाये गए पाठ को दोहराना इससे शिक्षण की सफलता आँकी जा सकती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल पाठ को विद्यार्थियों ने किस सीमा तक ग्रहण किया है। पुनरावृत्ति के प्रश्न से पूर्व शिक्षक को चाहिए कि वह श्यामपट्ट पर लिखे हुए सारांश को मिटा दे तथा विद्यार्थियों से पुस्तकें और कॉपियाँ बंद करने का आदेश दे। विद्यार्थी यदि पुनरावृत्ति के प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर देते हैं तो इससे शिक्षक को अपना परिश्रम सार्थक प्रतीत होता है।
(11) पूर्व-ज्ञान – अनेक मतानुसार नवीन ज्ञान पूर्व-ज्ञान पर आधारित होना चाहिए। इससे विद्यार्थियों को ज्ञान व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध रूप से मिलता है। इससे पाठ का विकास भी स्वाभाविक रूप से होता है । अतः शिक्षक के लिए आवश्यक है कि पाठ-योजना बनाने से पूर्व ही विद्यार्थियों के पूर्व – ज्ञान की जानकारी में निश्चित एवं स्पष्ट हों।
(12) अधिगम विस्तार- पाठ के अन्त में शिक्षक पढ़ाये गए पाठ के सन्दर्भ में विद्यार्थियों को अभ्यास के लिए अधिगम विस्तार देता है। इससे विद्यार्थियों को स्वक्रिया का अवसर प्राप्त होता है तथा ज्ञान स्थायी बनता है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि अधिगम विस्तार रोचक, सीमित, स्वाभाविक, सरल, स्पष्ट व विद्यार्थियों के मानसिक स्तर के अनुकूल होना चाहिए। शिक्षक द्वारा गृहकार्य की नियमित रूप से जाँच भी की जानी चाहिए। शिक्षक को अधिगम विस्तार रोचक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
इसे भी पढ़े…
- शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा को बढ़ाने की विधियाँ
- अधिगम स्थानांतरण का अर्थ, परिभाषा, सिद्धान्त
- अधिगम से संबंधित व्यवहारवादी सिद्धान्त | वर्तमान समय में व्यवहारवादी सिद्धान्त की सिद्धान्त उपयोगिता
- अभिप्रेरणा का अर्थ, परिभाषा, सिद्धान्त
- अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत
- रचनात्मक अधिगम की प्रभावशाली विधियाँ
- कार्ल रोजर्स का सामाजिक अधिगम सिद्धांत | मानवीय अधिगम सिद्धान्त
- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था
- जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ
- दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986