B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

पाठ-योजना के विभिन्न आयाम | Various Dimensions of Lesson Planing in Hindi

पाठ-योजना के विभिन्न आयाम
पाठ-योजना के विभिन्न आयाम

पाठ-योजना के विभिन्न आयाम (Various Dimensions of Lesson Planing)

पाठ योजना के निर्माण में अनेक आयामों को प्रस्तुत किया जाता है। इन आयामों में निम्नलिखित आयाम महत्त्वपूर्ण हैं-

(1) हरबर्ट का पाँच पदीय आयाम

(2) आर. सी. ई. एम. आयाम

(3) ब्लूम का मूल्यांकन आयाम

(4) मौरिसन का इकाई आयाम।

(1) हरबर्ट (Herbart)

हरबर्ट के अधिगम के सम्बन्ध में यह धारणा पाई जाती है। कि शिक्षार्थी को समस्त ज्ञान बाहर से दिया जाता है। इस तरह उसका ज्ञान संचित होता रहता है। यदि नवीन ज्ञान को पूर्व-ज्ञान से सम्बन्धित कर दिया जाए तब शिक्षार्थी को सीखने में आसानी होती है। सीखने की परिस्थितियों में इकाईयों को तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए। इकाई की क्रियाओं को एक क्रम में संपादित करना चाहिए। इसके लिए हरबर्ट ने पाँच सोपानों को प्रस्तुत किया है, जो निम्नलिखित हैं-

हरबर्ट के पाँच पद (Five Steps of Herbart)

शिक्षक प्रशिक्षण के दौरान प्रयोग में लाई जाने वाली पाठ योजना के निम्नलिखित पाँच पद हैं—

(1) उद्देश्य कथन – इस पद को तैयारी या प्रस्तावना भी कहा जाता है। इस पद में उद्देश्य कथन पाठ की प्रस्तवना से शुरू किया जाता है। यह पाठ प्रस्तावना विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान पर आधारित होती है। प्रस्तावना करने के कई तरीके हो सकते हैं। भिन्न-भिन्न विषयों में प्रस्तावना करने के तरीके भी भिन्न होंगे। जैसे-सीधे प्रश्न पूछकर, कविता की पंक्तियाँ पढ़कर या प्रस्तुत करके, कोई चित्र या चार्ट दिखाकर या कोई कहानी सुनाकर।

(2) प्रस्तुतीकरण- शिक्षक नवीन तथ्यों को विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध स्थापित करते हुए प्रस्तुत करते हैं। विकासात्मक तथा बोध प्रश्नों की सहायता प्रस्तुतीकरण करता है और इस पद के अन्तर्गत शिक्षक अपनी सुविधा के अनुसार सारे पाठ को दो या तीन भागों में बाँट लेता है।

(3) स्पष्टीकरण- हरबर्ट के आयाम का तीसरा पद है-स्पष्टीकरण। इस पद में शिक्षक विद्यार्थियों के सामने तथ्यों का मौखिक रूप से स्पष्टीकरण करता है। शिक्षक इसमें प्रयास करता है । इस पद को तुलना और संबंध का पद भी कहते हैं, क्योंकि इसमें शिक्षक अर्जित किए गए नए ज्ञान की पहले से प्राप्त ज्ञान से तुलना करता है तथा उन दोनों के बीच में संबंध स्थापित करता है। शिक्षक नए और पुराने ज्ञान में समन्वय स्थापित करता है।

(4) सामान्यीकरण – किसी पाठ को पढ़ने के पश्चात् कुछ न कुछ निष्कर्ष अवश्य निकाला जाता है। इन निष्कर्षों के आधार पर ही कुछ सामान्य नियम बनाए जाते हैं । इसी प्रक्रिया को सामान्यीकरण कहते हैं। विज्ञान, गणित, व्याकरण आदि में सामान्यीकरण अन्य विषयों की अपेक्षा सरल होता है। सामान्यीकरण का कार्य जहाँ तक सम्भव हो सके, विद्यार्थियों से ही करवाया जाना चाहिए, क्योंकि इससे विद्यार्थियों को गहराई से सोचने का अवसर मिलता है और उसकी कल्पना-शक्ति का विकास होता है।

(5) प्रयोग – हरबर्ट के आयाम में इस पद का बहुत ही महत्त्व है। इस पद में विद्यार्थियों के प्रदान किए गए ज्ञान को स्थायी बनाने के अवसर मिलतें हैं। सीखे हुए ज्ञान को नवीन परिस्थितियों में प्रयोग करने से ही ज्ञान स्थायी हो सकता है। उसी स्थिति में ज्ञानार्जन सार्थक हो पाता। ज्ञान को स्पष्ट करने के लिए तथा नियमों एवं सिद्धांतों की सत्यता सिद्ध करने के लिए विद्यार्थियों को अर्जित ज्ञान के प्रयोग की सुविधाएँ प्रदान करनी अति आवश्यक है।

हरबर्ट आयाम में पाठ योजना की रूपरेखा (Outline of Lesson Plan According to Herbart Approach)

(1) विषय, कक्षा तथा प्रकरण आदि – यह पाठ योजना का विशिष्टीकरण तथा सीमांकन होता है। सर्वप्रथम प्रकरण का चयन किया जाता है और किस स्तर पर शिक्षण किया जाये, शिक्षण का दिनांक, कक्षा तथा विभाग पूर्व-निर्धारित कर लिए जाते हैं। किस विद्यालय में शिक्षण किया जायेगा, इसका भी उल्लेख किया जाता है ।

(2) सामान्य उद्देश्य – प्रथम बिंदुओं के आधार पर सामान्य उद्देश्यों को निर्धारित किया जाता है। भाषा विज्ञान, गणित तथा सामाजिक विषयों के सामान्य उद्देश्य भिन्न होते हैं। एक ही विषय का एक ही प्रकरण विभिन्न स्तरों पर शिक्षण के लिए प्रयोग होता है, किन्तु उसके सामान्य उद्देश्य भिन्न होते हैं। सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति में पाठ योजना सहायक होती है परंतु एक कालांश के शिक्षण से विशिष्ट उद्देश्य ही प्राप्त किये जा सकते हैं।

(3) विशिष्ट उद्देश्य – सामान्य उद्देश्यों के बाद पाठ योजना के कुछ विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण किया जाता है इन उद्देश्यों का संबंध पढ़ाए जाने वाले पाठ से होता है। इन विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण पाठ्य-वस्तु को ध्यान में रखकर किया जाता है।

(4) उद्देश्य कथन – प्रस्तावना स्तर के प्रश्नों की सहायता से शिक्षक विद्यार्थियों से प्रकरण निकलवाता है और प्रकरण का कथन देता है कि आज इस प्रकरण का अध्ययन करेंगे।

(5) प्रस्तावना – प्रस्तावना के अन्तर्गत शिक्षक कक्षा में विद्यार्थियों का ध्यान आकर्षित करता है तथा उसके ध्यान को केन्द्रित करता है। प्रस्तावना का आधार पूर्व-ज्ञान होता है। मूल पाठ को शुरू करने का यह एक तरीका है। प्रस्तावना में विद्यार्थियों से पूर्व-ज्ञान के बारे में प्रश्न पूछे जाते हैं। इन प्रश्नों को तैयार करने में अधिक सतर्कता की आवश्यकता होती है।

(6) विकासात्मक प्रश्न — जब पाठ आरम्भ करता है तो विषय का प्रस्तुतीकरण करने के लिए प्रश्नों को पूछता है जिन्हें विकासात्मक प्रश्न कहते हैं। ऐसे प्रश्न पाठ में तार्किक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं।

(7) श्यामपट्ट सार – शिक्षण प्रक्रिया में श्यामपट्ट के बिना शिक्षक अर्थहीन है । वह शिक्षक के मित्र के रूप में कार्य करता है। शिक्षण में चॉक तथा कथन का सिद्धांत प्रसिद्ध है। शिक्षक शिक्षण बिंदुओं तथा उनकी व्याख्या साथ-साथ श्यामपट्ट पर लिखते जाते हैं तथा कई बार पाठ्य-वस्तु को खण्डों में बाँटकर पढ़ा लिया जाना चाहिए। अर्थात् विद्यार्थियों से पूछ-पूछ कर श्यामपट्ट सार की भाषा कक्षा के स्तर के अनुसार संक्षिप्त तथा स्पष्ट होनी चाहिए। वाक्यों से अर्थ पूरा निकलना चाहिए तथा पंक्तियाँ सीधी होनी चाहिए।

(8) पुनरावृत्ति प्रश्न – श्यामपट्ट सार को विद्यार्थी भी उत्तर-पुस्तिकाओं में लिख लेते हैं, उसके बाद शिक्षक श्यामपट्ट सार को मिटा देता है। प्रकरण को दोहराने तथा अभ्यास कराने के लिए प्रश्नों को पूछता है।

(9) गृहकार्य – गृहकार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होता है। गृहकार्य से विद्यार्थियों में अभ्यास तथा दोहराने की प्रवृत्ति बढ़ती है। गृहकार्य से विद्यार्थियों के ज्ञान में स्थायीपन आता है। इससे विद्यार्थियों में स्वक्रिया की आदतों का विकास होता है। गृहकार्य रुचिकर होना चाहिए तथा इसे दैनिक जीवन से सम्बन्धित करना चाहिए। गृहकार्य का यदि दैनिक मूल्यांकन नहीं किया जाता है तो वह कार्य निरर्थक सिद्ध होगा।

(10) स्पष्टीकरण – विकासात्मक प्रश्नों का उत्तर जब विद्यार्थी स्पष्ट रूप में नहीं दे पाते, उस समय शिक्षक उनका स्पष्टीकरण करने के लिए अपना कथन देता है।

आर.सी.आई.एम. आयाम (R.C.E.M. Approach)

इस आयाम का विकास क्षेत्रीय शिक्षा महाविद्यालय मैसूर ने किया है इसका विकास भारतीय शिक्षाशास्त्रियों ने किया है। इस आयाम में भी ब्लूम द्वारा वर्गीकृत शैक्षिक उद्देश्यों को संशोधन सहित प्रयोग किया गया है। इस आयाम में 17 मानसिक योग्यताओं का उपयोग किया गया है। इस आयाम ज्ञानात्मक पक्ष के 6 पदों के स्थान पर चार पदों का प्रयोग किया गया है। ये ज्ञान, बोध, प्रयोग तथा सृजनात्मक पद हैं। इस आयाम की कुछ मुख्य बातें निम्नलिखित हैं-

(i) इस आयाम में 6 पदों के स्थान पर चार पदों का प्रयोग किया गया है; जैसे-ज्ञान, बोध, प्रयोग तथा सृजनात्मक।

(ii) इस आयाम में 17 मानसिक योग्यताओं का प्रयोग किया गया है।

(iii) यह आयाम प्रणाली आयाम पर आधारित है।

(iv) यह आयाम भारतीय परिस्थितियों के अनुसार विकसित किया गया है।

(v) इसके अन्तर्गत शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण मापी जा सकने वाली मानसिक प्रक्रियाओं या योग्यताओं के रूप में भली-भाँति किया गया है।

(vi) इस आयाम में सम्प्रेषण अंतःक्रिया के माध्यम से शिक्षण अधिगम परिस्थितियों, सहायक सामग्री तथा व्यूह-रचनाओं आदि का मूल्यांकन करने की व्यवस्था है।

(vii) इस आयाम में विश्लेषण तथा मूल्यांकन करने को सृजनात्मक उद्देश्य के अन्तर्गत शामिल किया गया है।

आर.सी.ई.एम. आयाम के पद (Steps in R.C.E.M. Approach)

इस आयाम में शिक्षण की समस्त प्रक्रिया को पाठ योजना बनाते समय तीन पदों में बाँटा गया है, अर्थात् इस आयाम पर आधारित पाठ योजना के तीन पद हैं जो कि निम्नलिखित हैं-

(1) अदा – आर. सी. ई. एम. आयाम में अदा को अपेक्षित व्यवहार परिणाम का नाम दिया गया है। इस पद के अन्तर्गत पाठ के शैक्षिक उद्देश्यों का ठीक प्रकार निर्धारण एवं स्पष्टीकरण किया जाता है ।

(2) प्रक्रिया- इस आयाम में इस पद को संप्रेषण व्यूह-रचना भी कहा गया है । यह पद हरबर्ट आयाम के प्रस्तुतीकरण और ब्लूम के मूल्यांकन आयाम के अधिगम अनुभव के पदों के समान है।

(3) प्रदा- इस पद को वास्तविक व्यवहार भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त इस आयाम को वास्तविक अधिगम परिणाम भी कहते हैं। स्पष्ट है कि इस पद का सम्बन्ध पाठ के मूल्यांकन से है। व्यवहार में परिवर्तन होना ही वास्तविक अधिगम परिणाम कहलाता है।

ब्लूम का मूल्यांकन आयाम (Bloom’s Evaluation Approach)

अधिगम प्रक्रिया बहुत ही जटिल प्रक्रिया है तथा यह एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया हरबर्ट के पाठ योजना परंपरागत योजना के रूप में जानी जाती है। लेकिन इसके बाद मूल्यांकन आयाम तथा इकाई आयाम का भी विकास हुआ है। परंपरागत शिक्षण में शिक्षक द्वारा शिक्षण उद्देश्यों को निश्चित करना तथा मूल्यांकन को महत्त्व नहीं दिया जाता था, क्योंकि तब शिक्षा को मूल्यांकन तथा उद्देश्यों के प्रत्ययों का स्पष्ट ज्ञान नहीं था। यह एक अनुदेशात्मक आव्यूह मानी जाती है। इसके प्रयोग से स्वामित्व अधिगम का विकास किया जाता है और शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है। इसके अन्तर्गत सामान्य कक्षा – शिक्षण, पुनर्बलन प्रविधि, सुधारात्मक तथा व्यक्तिगत अधिगम त्रुटियों को सम्मिलित किया जाता है। विषय के कमजोर विद्यार्थियों को अतिरिक्त समय भी दिया जाता है। इस प्रकार ब्लूम का यह आव्यूह समूह पर आधारित अनुदेशन माना जाता है जिसका अनुसरण सुधारात्मक शिक्षण में किया जाता है। ब्लूम के स्वामित्व अधिगम आव्यूह के प्रयोग में अधोलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है –

(1) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण करना — मूल्यांकन आयाम का प्रथम पद है— शैक्षिक उद्देश्यों का निर्माण करना या उन्हें निर्धारित करना। मूल्यांकन आयाम में शिक्षा को उद्देश्यपूर्ण माना गया है । अतः इस आयाम पर आधारित पाठ योजना में यदि उद्देश्य निर्धारित नहीं किए जाते तो शिक्षा प्रक्रिया अर्थ हीन होकर रह जाएगी। शैक्षिक उद्देश्यों के निर्माण के दौरान कुछ बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

(2) उद्देश्यों के लिए उपयुक्त अधिगम अनुभव प्रदान करना – अधिगम अनुभवों से अभिप्राय है— वे साधन जिनकी सहायता से उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। दिन-प्रतिदिन होने वाले अनुभवों को अधिगम अनुभव नहीं कहते। स्कूल तथा उसके बाहर प्राप्त अनुभवों को ही अधिगम अनुभव का नाम दिया गया है। ये वे अधिगम अनुभव होते हैं जो शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता देते हैं। शिक्षक कक्षा में शिक्षण के दौरान कुछ ऐसी क्रियाएँ करता है जिससे विद्यार्थियों को अपेक्षित अधिगम अनुभव होने लगते हैं।

(3) व्यवहार-परिवर्तन का मूल्यांकन- अधिगम के अनुभवों की सहायता से विद्यार्थियों के व्यवहार में परिवर्तन लाया जाता है। इसके मूल्यांकन से उद्देश्यों की प्राप्ति के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकाला जाता है। अगर अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन नहीं हो सके तब इसका तात्पर्य होता है कि अधिगम के अनुभव प्रभावशाली नहीं है, इनमें सुधार करने की आवश्यकता है। व्यवहार-परिवर्तन के निम्नलिखित प्रकार कहे जा सकते हैं- (1) ज्ञानात्मक, (2) भावात्मक एवं (3) क्रियात्मक व्यवहार। इस तीनों पक्षों में परस्पर समन्वय एवं सामंजस्य होता है।

मूल्यांकन आयाम में पाठ योजना के घटक (Factors of Lesson Planning in Evaluation Approach)

ब्लूम के मूल्यांकन आयाम द्वारा पाठ योजना तैयार करने के लिए अग्रलिखित घटकों या बिन्दुओं का प्रयोग किया जाता है—

(1) शिक्षण बिन्दु – पाठ योजना के इस घटक में इस बात को शामिल किया जाता है कि कक्षा में शिक्षण-प्रक्रिया के दौरान कौन-कौन से शिक्षण बिन्दु हों। अतः इन शिक्षण बिंदुओं का निर्धारण पहले ही कर लिया जाता है। इसमें विषय-वस्तु से शिक्षण बिन्दुओं को छाँटकर लिखा जाता है।

(2) उद्देश्यों का निर्धारण – पाठ योजना के इस पद के अन्तर्गत विषय-वस्तु के शिक्षण के पहले सामान्य उद्देश्य निर्धारित किए जाते हैं और फिर विशिष्ट उद्देश्यों को लिखा जाता है। फिर इन विशिष्ट उद्देश्यों को व्यावहारिक में लिखा जाता है।

(3) शिक्षक की क्रियाएँ— पाठ योजना के इस तीसरे घटक में उद्देश्यों के निर्धारण और विशिष्टकरण के बाद शिक्षक द्वारा कक्षा में सम्पन्न की जाने वाली क्रियाओं को स्पष्ट रूप से निर्धारित किया जाता है, ताकि शिक्षक कक्षा में अपनी क्रियाओं को तय करने में अपना समय नष्ट न करे।

(4) विद्यार्थी की क्रियाएँ- पाठ योजना के इस घटक को निर्धारित करने के बाद शिक्षक की क्रियाओं में उत्तर में अनुक्रियाओं के रूप में विद्यार्थियों की क्रियाओं को भी निर्धारित किया जाता है।

(5) विधि, प्रविधि तथा शिक्षण सामग्री- अधिगम अनुभव प्रदान करने के लिए पाठ-योजना में इस घटक के अन्तर्गत शिक्षण विधियों, प्रविधियों तथा शिक्षण सामग्री का निर्धारण करना शामिल हैं।

(6) मूल्यांकन – पाठ योजना के इस पद में शिक्षण प्रक्रिया के मूल्यांकन की उन सभी प्रविधियों तथा विधियों का चयन करके लिखा जाता । इन प्रविधियों के विधियों का शिक्षण के पश्चात् उपयोग किया जाता है। इन विधियों एवं प्रविधियों से यह जाँचा जाता है कि शिक्षण तथा आयाम उद्देश्य किस सीमा तक प्राप्त हुए हैं।

मौरिसन या इकाई आयाम (Morrison or Unit Aporach)

इस आयाम के प्रवर्तक प्रो. हेनरी सी. मौरिसन हैं। उन्होंने सन् 1929 में अपनी पुस्तक ‘सैकेंडरी स्कूलों’ में अध्यापन अभ्यास में इस आयाम की व्याख्या की है। इस आयाम का आधार गेस्टाल्ट मनोविज्ञान ही है। इस मनोविज्ञान के अनुसार हमारा ध्यान सर्वप्रथम पूर्ण की ओर आकर्षित होता है, न कि अंगों की ओर। जब हम किसी आकृति या वस्तु को देखते हैं तो हमारा ध्यान सर्वप्रथम उसके पूर्ण स्वरूप पर जाता है तथा इसके पश्चात् हम उसके विभिन्न अंगों या अंशों का विश्लेषण करते हैं। इकाई आयाम का अर्थ है-किसी विषय-वस्तु को इकाईयों या उप-इकाईयों में बाँटना तथा इन इकाईयों या उप इकाईयों का शिक्षण करके विद्यार्थियों को ज्ञान प्राप्त करवाना। अतः इन आयामों का मुख्य उद्देश्य है— शिक्षण अधिगम प्रक्रिया द्वारा विद्यार्थियों को विषय-वस्तु में दक्षता प्रदान करवाना। संक्षेप में, विषय-वस्तु को छोटी-छोटी लेकिन अर्थपूर्ण इकाईयों में बाँटकर पढ़ाना। इस आयाम में एक बात का ध्यान रखा जाता है कि प्रत्येक इकाई ज्ञान पर आधारित होती है या उससे सम्बन्धित होती है। पहली इकाई की विषय-वस्तु पढ़ा लेने के बाद जब शिक्षक को विश्वास हो जाता है कि उस इकाई में विद्यार्थी ने पर्याप्त कुशलता हासिल कर ली है तब शिक्षक उस इकाई से अगली इकाई का शिक्षण का कार्य प्रारम्भ करेगा।

(1) खोज करना या अन्वेषण- खोज करने या अन्वेषण का अर्थ पता लगाना या पता करना। इकाई आयाम के इस प्रथम पद में शिक्षक विद्यार्थियों के ज्ञान की खोज करते हैं अर्थात् उनके पूर्व-ज्ञान का पता लगाते हैं। पूर्व-ज्ञान के बिना नए ज्ञान को संगठित करना कठिन होता है।

(2) प्रस्तुतीकरण – इस आयाम के प्रस्तावना के दूसरे पद में पाठ्य सामग्री की विवेचना की जाती है तथा पूरी इकाई के स्वरूप को विद्यार्थियों के सम्मुख किया जाता है। इसमें शिक्षक की भूमिका अधिक सक्रिय होती है। पहली इकाई को सीख लेने के पश्चात् ही अगली इकाई को लिया जाता है।

(3) आत्मीकरण – इस पद का सम्बन्ध ज्ञान के स्थानीकरण से होता है अर्थात् प्रस्तुतीकरण के दौरान जिस ज्ञान को अर्जित किया जाता है। आत्मीकरण के पद में उसी ज्ञान को स्थायित्व प्रदान किया जाता है। हरबर्ट आयाम में प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है तथा इकाई आयाम में आत्मीकरण को अधिक प्रधानता दी जाती है। आत्मीकरण पद में विद्यार्थी विषय-वस्तु का गहरा अध्ययन करते हैं।

(4) संगठन या व्यवस्थापन – इस पद के दौरान विद्यार्थी किए गए ज्ञान को स्वतंत्र रूप – से व लिखित रूप से प्रस्तुत करता है तथा यह जताने का प्रयत्न करता है कि वह अपने ज्ञान को किस सीमा तक संगठित करके पुनः प्रस्तुत कर सकता है।

(5) आवृत्ति या अभिव्यक्तिकरण – इस पद में विद्यार्थी की मौखिक अभिव्यक्ति शामिल है अर्थात् विद्यार्थी ने जो कुछ भी सीखा है उसे वह अपने सहपाठी या शिक्षक को सुनाता है। इस प्रकार की क्रिया सारी कक्षा के सामने मौखिक रूप से भाषण की शक्ल में की जा सकती है। इस पद के माध्यम से विद्यार्थियों ही नहीं, बल्कि लिखित, श्यामपट्ट कार्य के रूप में या प्रयोगशाला में क्रिया के रूप में भी हो सकती है।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment