श्रव्य-दृश्य सहायक सामग्री (Audio-visual aids)
श्रव्य-दृश्य सामग्री का वर्गीकरण (Classification of Audio-Visual Aids) – इन्द्रियों के प्रयोग के आधार पर श्रव्य-दृश्य सामग्री को मोटे तौर पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(अ) श्रव्य सहायक सामग्री
(ब) श्रव्य-दृश्य सहायक सामग्री
(स) श्रव्य दृश्य सामग्री
शिक्षण की सहायक सामग्री का वर्गीकरण प्रक्षेपित माध्यम तथा अप्रक्षेपित माध्यमों के रूप में भी किया जा सकता है। सामान्यतः श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री ही इस वर्गीकरण के अन्तर्गत आती हैं फिर भी छात्रों के अध्ययन की दृष्टि से इसका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है-
(अ) श्रव्य-सहायक शिक्षण सामग्री (Audio Teaching Aids)
श्रव्य सामग्री का तात्पर्य उन साधनों से हैं, जिनमें केवल श्रव्य इन्द्रियों का प्रयोग होता है अर्थात् जिनसे ज्ञान मुख्यतः सुनकर प्राप्त होता है। निम्नलिखित पंक्तियों में हम प्रमुख श्रव्य साधनों पर प्रकाश डाल रहे हैं-
(1) रेडियो (Radio)
रेडियो के जन्म की कहानी सन् 1885 ई. से आरम्भ हुई है। आधुनिक जीवन में रेडियो का विकास इतना अधिक हो गया है कि अब यह हमारे लिये आवश्यकता की वस्तु बन गयी है। रेडियो द्वारा दूर-दूर रहने वाले बालकों को एक ही साथ आधुनिकतम घटनाओं तथा नवीनतम सूचनाओं का ज्ञान प्राप्त होता है। इनसे बालकों में नई-नई बातें सीखने की उत्सुकता उत्पन्न होती है। रेडियो द्वारा बालकों को उच्च कोटि के शिक्षा – शास्त्रियों में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं के विषय में अनेक वार्तायें तथा भाषण सुनने को मिलते है। इससे उनमें राष्ट्रीयता की भावना का विकास होता है। साथ ही वे दैनिक जीवन की समस्याओं को समझने और सुलझाने के योग्य बन जाते हैं। रेडियो पर प्रसिद्ध कलाकारों तथा संगीतज्ञों के प्रोग्राम भी प्रसारित किये जाते हैं। इन प्रोग्रामों से उन्हें गाने और बजाने की शिक्षा मिलती । संक्षेप में रेडियो द्वारा बालकों को संसार के प्रत्येक राष्ट्र तथा उसमें निवास करने वाले सभी लोगों से क्रियाओं में रूचि उत्पन्न हो जाती है। इससे उनका सामान्य ज्ञान विस्तृत होता रहता है। संक्षेप में आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में रेडियो का विशेष महत्त्व है। इसलिए लगभग सभी स्कूलों के पास अपने-अपने निजी रेडियो सेट हैं।
आकाशवाणी द्वारा रेडियो पर प्रसारित होने वाले पाठों की विस्तृत सूचना समय से बहुत पहले इन्हें प्रकाशनों के माध्यम से दी जाती है। इन प्रकाशनों में कथा, प्रकरण के सम्बन्ध में सक्षिप्त सूचना, दिनांक और समय आदि दिये रहते हैं। शिक्षक को इन प्रकाशनों की निरंतर जानकारी रखनी चाहिये तथा अपनी योजनानुसार प्रसारित पाठों का उपयोग करना चाहिये।
(2) ग्रामोफोन तथा लिंग्वाफोन (Gramophone and Linguaphone)
ग्रामोफोन तथा लिंग्वाफोन भी रेडियो की भाँति शिक्षण के महत्त्वपूर्ण उपकरण हैं। ग्रामोफोन द्वारा बालकों को भाषण तथा गाने की शिक्षा दी जाती है तथा लिंग्वाफोन द्वारा बालकों के उच्चारण शुद्ध कराके भाषा की शिक्षा दी जाती है अतः शिक्षक को उक्त दोनों उपकरणों का शिक्षण के समय आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिये। ध्यान देने की बात यह है कि यद्यपि आधुनिक शिक्षा में ग्रामोफोन तथा लिंग्वाफोन का प्रयोग काफी बढ़ता जा रहा है फिर भी यह दोनों उपकरण शिक्षक का स्थान किसी भी दशा में नहीं ले सकते। ऐसी स्थिति में शिक्षक को चाहिए कि वह इन उपकरणों का उपयोग करने के पश्चात् बालकों के सामने विषय का स्पष्टीकरण अवश्य कर दें। इससे वे ज्ञान को सफलतापूर्वक ग्रहण कर लेंगे।
(3) टेलीकान्फ्रेन्सिंग (Teleconferencing)
दूरवर्ती-शिक्षा के लिये शैक्षिक टेलीकान्फ्रेन्सिंग एक सशक्त माध्यम के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। इसमें कई प्रकार के माध्यमों का प्रयोग किया जाता है और परस्परिक समूह के द्वारा द्विपक्षीय प्रसारण सम्प्रेषण की सुविधा होती है। टेलीकान्फ्रेन्सिंग के तीन मुख्य रूप होते हैं—
(i) श्रव्य टेलीकान्फ्रेन्सिंग
(ii) दृश्य टेलीकान्फ्रेन्सिंग,
(iii) कम्प्यूटर टेलीकान्फ्रेन्सिंग की तकनीकी दूरवर्ती शिक्षा के लिए बहुत ही उपयुक्त प्रकार की तकनीक मानी जाती है।
सन् (1880) तक टेलीकान्फ्रेन्सिंग अपनी प्रयोगात्मक अवस्था में थी और इसका प्रयोग कभी-कभी किया जाता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों से दूरवर्ती-शिक्षा संस्थानों द्वारा प्रतिदिन इनका प्रयोग किया जाने लगा है। लेकिन इसके प्रयोग द्वारा यह पाया गया कि इसमें लागत की कमी आई तथा शिक्षार्थी की सेवा में गुणात्मक सुधार हुआ है। सुगमता एवं कम लागत की पूँजी के द्वारा यह दूरवर्ती शिक्षा संस्थानों एवं शिक्षार्थियों के द्वारा यह आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया। इस माध्यम का शैक्षिक संस्थानों में अधिक विकास हुआ है।
(4) टेप रिकॉर्डर (Tape-Recorder)
शिक्षण उपकरण के रूप में टेप रिकॉर्डर एक नया उपकरण है। इसके अंदर कोई भी व्यक्ति अपनी ध्वनि को किसी भी समय भरकर पुनः सुन सकता है। इस दृष्टि से टेप रिकॉर्डर का प्रयोग जहाँ एक ओर महापुरूषों के प्रवचन, नेताओं के भाषण तथा प्रसिद्ध कलाकारों की कवितायें एवं संगीत आदि के सुनाने में किया जाता है। वहाँ दूसरी ओर बालक तथा शिक्षक भी इसमें अपनी ध्वनि को भरकर पुनः सुन सकते हैं । इससे उन्हें बोलने की गति तथा स्वर, प्रभाव सम्बन्धी सभी त्रुटियों एवं उच्चारणों को सुधारने में आश्चर्यजनक सहायता मिलती है। आज टेपरिकॉर्डर एक आवश्यक उपकरण हो गया है। इसलिए इसका प्रयोग अब विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में किया जाने लगा है।
(ब) दृश्य सहायक शिक्षण सामग्री (Visual – Teaching Aids)
दृश्य सहायक सामग्री का अर्थ- दृश्य सामग्री का तात्पर्य उन साधनों से है जिनमें केवल दृश्य-इन्द्रियों का प्रयोग होता है अर्थात् जिनमें ज्ञान मुख्यतः दृश्य-इन्द्रीय के द्वारा प्राप्त होता है। दृश्य सहायक शिक्षण सामग्री के दृश्य साधनों का यहाँ सूक्ष्म रूप में वर्णन किया गया है, जो इस प्रकार है-
(1) वास्तविक पदार्थ (Real Objects)
वास्तविक पदार्थों का तात्पर्य मूल वस्तुओं से है। पदार्थ बालकों की इन्द्रियों को प्रेरणा देते हैं। तथा उन्हें निरीक्षण एवं परीक्षण के अवसर प्रदान करके उनकी अवलोकन शक्ति का विकास करते हैं। ध्यान देने की बात है कि जब बालक वास्तविक पदार्थ को देखते हैं, छुते तथा चखते हैं तो उनकी क्रमशः दृष्टिक, स्पर्शावरण तथा रसप्रतिभायें निर्मित होती हैं। ये प्रतिभायें बालकों की कल्पना-शक्ति को विकसित करने में सहयोग प्रदान करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि वास्तविक पदार्थ के प्रयोग से बालकों को नाना प्रकार के अनुभव प्राप्त होते हैं जो दूसरों के द्वारा दिये गये अनुभवों की अपेक्षा कहीं अधिक उत्तम होते हैं। स्पष्ट है कि बालकों को मेज, कुर्सी, रोटी, कपड़ा, फल, फूल तथा थर्मामीटर एवं भौतिक तुला आदि का ज्ञान देने के लिये जितना स्पष्ट ज्ञान उक्त सभी वास्तविक पदार्थों को दिखाकर दिया जा सकता है उतना और किसी विधि से असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। अतः शिक्षक को चाहिए कि वह अधिक-से-अधिक वास्तविक पदार्थों को स्कूल के संग्रहालय में संग्रह करे जिससे उन्हें बालकों के सामने आवश्यकतानुसार प्रदर्शित किया जा सकें।
(2) मॉडल (Models)
मॉडल वास्तविक पदार्थों अथवा मूल वस्तुओं के छोटे रूप होते हैं। इनका प्रयोग उस समय किया जाता है जब वास्तविक पदार्थ या तो उपलब्ध न हों अथवा इतने बड़े हों कि उन्हें कक्षा में दिखाना ही सम्भव ने हो। उदाहरण के लिये हाथी, घोड़े, रेल का इंजन तथा जहाज आदि इतने बड़े होते हैं कि उन्हें कक्षा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । अतः बालकों को उक्त सभी का ज्ञान के लिए उनके नमूने दिखाये जाते हैं। स्मरण रहे कि नमूने बड़े हों अथवा छोटे वास्तविक पदार्थों से मिलते-जुलते होने चाहिये। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि नमूने वास्तविक पदार्थों से भी अच्छे होते हैं। इसका कारण यह है कि इन्हें ठीक प्रकार से देखा जा सकता है। ध्यान देने की बात है कि यदि नमूनों में वास्तविक पदार्थों के विविध रूप स्पष्ट रूप से दिखाई देंगे तो वे बालकों की कल्पना शक्ति विकसित करते हुये शिक्षक का उद्देश्य प्राप्त करने में सहायता कर सकते हैं अन्यथा नहीं। इस दृष्टि से नमूनों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इनकी सहायता से बालकों को ऐतिहासिक, भौगोलिक तथा वैज्ञानिक सभी प्रकार के तथ्यों का ज्ञान सरलतापूर्वक दिया जा सकता है । अतः बालकों को जो भी नमूने दिये जायें वे अत्यन्त आकर्षक होने चाहिये। चूँकि नमूनों में लम्बाई, चौड़ाई तथा मोटाई तीनों स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है इसलिए ये चित्रों की अपेक्षा भी अधिक लाभदायक होते । इस दृष्टि से यदि शिक्षक को किसी कारण से बने बनाये नमूने न मिल सकें तो उसे उनका निर्माण स्वयं करना चाहिये। साथ ही उनका प्रयोग करते समय बालकों को वास्तविक पदार्थों के आकार का बोध भी करा देना चाहिये । इससे उनकी वास्तविक पदार्थों के प्रति गलत धारणायें नहीं बनेंगी।
(3) अचल चित्र (Still Pictures)
चित्रों का उपयोग उस समय किया जाता है जब न तो वास्तविक पदार्थ ही उपलब्ध हो और न ही नमूने मिल सकें। दूसरे शब्दों में जब वास्तविक पदार्थों तथा नमूनों का मिलना कठिन हो जाता है तो ऐसी स्थिति में चित्रों का प्रयोग किया जाता है। स्मरण रहे कि चित्रों से वास्तविक पदार्थों के स्पर्श के सम्बन्ध में कोई ज्ञान प्राप्त नहीं होता फिर भी इनका शिक्षण में विशेष लाभ होता है। वैसे भी चित्र प्रायः पदार्थों तथा नमूनों से सस्ते होते हैं एवं बाजार में आसानी से मिल भी जाते हैं। ध्यान देने की बात है कि जब शिक्षक ज्ञान का वितरण करते समय चित्रों की सहायता लेता है तो बालकों का ध्यान पाठ की ओर लगा रहता है। इससे शिक्षक अपने उद्देश्य को सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेता है। अतः शिक्षक को छोटी कक्षाओं में तो चित्रों का प्रयोग अवश्य करना चाहिये। स्मरण रहे कि यूँ तो चित्रों का प्रयोग प्रायः सभी स्तरों पर करना चाहिये पर विशेष रूप से भूगोल, इतिहास, विज्ञान, भाषा तथा बागवानी एवं प्रकृति निरीक्षण आदि विषयों के शिक्षण में अवश्य करना चाहिये । यदि शिक्षक को बने बनाये चित्र उपलब्ध न हो सकें तो उसे पाठ से सम्बन्धित बातों को स्पष्ट करने के लिए चित्रों का निर्माण स्वयं ही कर लेना चाहिये । चित्र के चयन सम्बन्ध में शिक्षक को निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहिए-
(i) चित्र इतने स्पष्ट रंगीन तथा आकर्षक होने चाहिये कि प्रत्येक बालक उन्हें देखकर वास्तविक पदार्थों के आकार तथा रंग-रूप में परिचित हो जाये।
(ii) चित्रों में पाठ से सम्बन्धित मुख्य-मुख्य बातें ही दिखानी चाहिये अन्यथा प्रमुख बातें लुप्त हो जायेंगी और बालक भ्रम में पड़ जायेंगे ।
(iii) चित्रों का आकार बड़ा होना चाहिए जिससे कक्षा का प्रत्येक बालक उन्हें बिना किसी कठिनाई के स्पष्ट रूप से देखकर आवश्यक लाभ उठा सके।
(4) मानचित्र (Maps)
मानचित्र का उपयोग प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं तथा भौगोलिक तथ्यों अथवा स्थानों के अध्ययन करने के लिए परम आवश्यक है। यूँ तो मानचित्र बने बनाये ही बाजार से मिल जाते हैं, पर अच्छा यही है कि शिक्षक मानचित्रों को स्वयं ही बनाये और उन्हें केवल उन्हीं बातों को सुन्दर ढंग से अंकित करे जिनकी नितांत आवश्यकता हो। स्मरण रहे कि शिक्षक को मानचित्रों के ऊपर उनका नाम, शीर्षक, दिशा तथा संकेत आदि अवश्य लिखना चाहिए तथा उनमें रंगों का प्रयोग कल्पना, अनुभव तथा कलात्मक भाव से करना चाहिये अन्यथा मानचित्र भद्दे, भौंडे तथा व्यर्थ हो जायेंगे।
(5) रेखाचित्र तथा आकृतियाँ (Line drawing and Diagrams)
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शिक्षक को वास्तविक पदार्थ, नमूने तथा चित्र एवं मानचित्र उपलब्ध नहीं हो पाते। ऐसी स्थिति में शिक्षक को भाव- प्रकाशन के लिये श्यामपट्ट पर रंगीन चाक से रेखाचित्र तथा खाके खींचने चाहिये। स्मरण रहे कि रेखाचित्र तथा खाकों का प्रयोग भाषा, भूगोल, इतिहास तथा गणित एवं विज्ञान आदि सभी विषयों में किया जा सकता है । अतः शिक्षक में शीघ्रता तथा तत्परता के साथ रेखाचित्रों तथा खाकों को बनाने की योग्यता होना परम आवश्यक है। चूँकि रेखाचित्रों तथा खाकों को बनाने में कुछ व्यय नहीं होता, इसलिए ज्ञान को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक शिक्षक को सुन्दर तथा आकर्षक रेखाचित्र खींचने तथा आकृतियाँ बनाने का अभ्यास अवश्य करना चाहिए।
(6) ग्राफ (Graphs)
ग्राफ का अपना निजी महत्त्व होता है। ग्राफ के प्रयोग से बालकों को भूगोल, इतिहास, गणित तथा विज्ञान आदि अनेक विषयों का ज्ञान सरलतापूर्वक दिया जा सकता है। स्मरण रहे कि ग्राफ की सहायता से भूगोल के पाठ में जलवायु, उपज तथा जनसंख्या आदि का ज्ञान दिया जा सकता है तथा इतिहास के शिक्षण में इसका प्रयोग स्वतंत्रता संग्राम की प्रगति तथा धार्मिक अथवा राजनैतिक विकास की प्रगति का ज्ञान देने के लिए किया जाता है। ऐसे ही गणित तथा विज्ञान का शिक्षण करते समय भी ग्राफ का उपयोग करते हुए अनेक प्रश्नों को हल किया जा सकता है। अतः शिक्षक को विभिन्न विषयों का शिक्षण करते समय आवश्यकतानुसार ग्राफ स्वयं भी बनाने चाहिये तथा बालकों से भी बनवाने चाहिये।
(7) चार्ट (Charts)
चार्टी के प्रयोग से शिक्षक को शिक्षण का उद्देश्य प्राप्त करने में अधिक सहायता मिलती है। ध्यान देने की बात है कि चार्टों का प्रयोग भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, नागरिकशास्त्र तथा गणित एवं विज्ञान आदि सभी विषयों में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। अत: शिक्षक को पाठ की आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए अधिक से अधिक चार्ट स्वयं ही तैयार करके उचित ढंग से प्रयोग करने चाहिये। स्मरण रहे कि चार्ट द्वारा प्रदर्शित की हुई विषय-वस्तु इतनी सुन्दर, सुडौल तथा मोटी होनी चाहिये कि कक्षा के प्रत्येक बालक का ध्यान उसकी ओर आकर्षिक हो जाये और शिक्षक अपने प्रस्तुतीकरण को सरलता से स्पष्ट कर सके।
(8) बुलेटिन-बोड (Bullentin Board)
बुलेटिन-बोर्ड शिक्षण का एक उपयोगी उपकरण है। इस पर देश की राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समस्याओं के सम्बन्ध में चित्र, ग्राफ, आकृति तथा लेख एवं आवश्यक सूचनाओं को प्रदर्शित करके बालकों की जिज्ञासा को इस प्रकार से उकसाया जाता है कि उनके ज्ञान में निरंतर वृद्धि होती रहे । अतः बुलेटिन बोर्ड भी शिक्षक के बड़े काम की वस्तु है। बुलेटिन बोर्ड से लाभ उठाने के लिए शिक्षक को निम्नलिखित बातें ध्यान में रखनी चाहियें-
(i) बुलेटिन-बोर्ड पर प्रदर्शित की जाने वाली सामग्री बालकों, रूचि, मानसिक स्तर तथा आयु एवं योग्यता के अनुसार होनी चाहिए।
(ii) बुलेटिन-बोर्ड पर दिखाने वाली सूचनायें एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित होनी चाहियें।
(iii) बुलेटिन-बोर्ड पर प्रदर्शित की हुई सामग्री इतनी बड़ी होनी चाहिये कि प्रत्येक बालक उसे दूर से ही देख सके।
(iv) बुलेटिन-बोर्ड स्कूल में किसी इतने ऊँचे तथा उपयुक्त स्थान पर रखना चाहिये कि औसत ऊँचाई के सभी बालक प्रदर्शित की हुई सामग्री से सरलतापूर्वक लाभान्वित हो सकें।
(v) बुलेटिन – बोर्ड स्वयं भी इतना सुन्दर होना चाहिए कि वह बालकों के आकर्षण का केन्द्र बन जाय ।
(vi) बुलेटिन-बोर्ड पर बालकों को भी अपनी एकत्रित की हुई सामग्री को प्रदर्शित करने के अवसर मिलने चाहिये ।
(9) फ्लेनेल – बोर्ड (Flannel-Board)
आधुनिक युग में फ्लेनेल-बोर्ड का भी विशेष महत्त्व है। इसको बनाने में 36″ x 48″ के एक प्लाईवुड अथवा हाई-बोर्ड के टुकड़ें पर इतने ही नाप के एक फ्लेनेल के कपड़े का खींचकर बाँध दिया जाता है। तत्पश्चात् उस पर विभिन्न विषयों से सम्बन्धित चित्र, मानचित्र, रेखाचित्र, तथा ग्राफ आदि प्रदर्शित किये जाते हैं। स्मरण रहे कि फ्लेनेल बोर्ड पर प्रदर्शित किये जाने वाले चित्रों तथा मानचित्रों आदि को खुरदरे कागज (सेण्ड पेपर) पर गोंद से चिपकाया जाता । इससे ये टुकड़ें फ्लेनेल-बोर्ड पर चिपके रहते हैं और प्रयोग करने के पश्चात् सरलतापूर्वक हटा लिये जाते हैं। ध्यान देने की बात है कि फ्लेनेल-बोर्ड का प्रयोग छोटी कक्षाओं में भाषा तथा अंकगणित एवं बड़ी कक्षाओं में इतिहास, भूगोल, नागरिकशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा गणित एवं विज्ञान आदि विषयों के शिक्षण के लिए आसानी से किया जा सकता है। अतः प्रत्येक शिक्षक को इस महत्त्वपूर्ण उपकरण का आवश्यकतानुसार प्रयोग अवश्य करना चाहिए।
(10) संग्रहालय (Museum)
संग्रहालय भी शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। इसमें सभी प्रकार की वस्तुओं को एकत्रित करके रखा जाता है। इन वस्तुओं की सहायता से पाठ रोचक तथा सजीव बन जाता है एवं बालक उसे सफलतापूर्वक समझ लेते हैं अतः शिक्षक को संग्रहालय का सदुपयोग अवश्य करना चाहिये। शिक्षक द्वारा संग्रहालय में एकत्रित की हुई वस्तुओं का प्रयोग भूगोल, इतिहास, गणित तथा विज्ञान आदि विषयों के शिक्षण में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। अतः शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों को स्कूल के संग्रहालय में विभिन्न प्रकार के डाक टिकट, सिक्के, पुराने अस्त्र-शस्त्र तथा कीड़े-मकोड़े एवं यंत्रों को एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित करे । इनसे बिना कुछ व्यय किये हुए ही स्कूल के संग्रहालय में विविध प्रकार की वस्तुयें सहज में ही इकट्ठी हो जायेंगी।
(11) जादू की लालटेन (Magic Lantern)
जादू की लालटेन एक चित्र प्रदर्शक यंत्र है। यह यंत्र शिक्षण को सजीव एवं प्रभावशाली बनाने में इतना सफल उपयोगी है कि इसकी उपयोगिता को प्रायः सभी शिक्षा- शास्त्रियों ने स्वीकार किया है। स्मरण रहे कि जादू की लालटेन को प्रयोग में लाने के लिए स्लाइडों की आवश्यकता पड़ती है । अतः यदि बालकों को दिन में विभिन्न विषयों की शिक्षा देने के पश्चात् उन्हीं के सम्बन्ध में रात्रि को स्लाइडें दिखा दी जायें तो उनकी ज्ञान के ग्रहण करने में आसानी हो जायेगी और वे उसे कभी नहीं भूलेंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि जादू की लालटेन अमूर्त तथ्यों तथा गूढ़ विचारों को बोधगम्य बनाने के लिए महत्त्वपूर्ण साधन है । पर ध्यान देने की बात है कि जादू के लालटेन का प्रयोग करते समय शिक्षक को निम्नलिखित सावधानियाँ बरतनी चाहिये-
(i) स्लाइडें दिखाने से पहले शिक्षक को प्रस्तावना के रूप में विषय से सम्बन्धित छोटी-सी टिप्पणी देनी चाहिये।
(ii) स्लाइडें दिखाते समय उनको स्पष्ट करने के लिए शिक्षक को कुछ स्पष्टीकरण करना चाहिये।
(12) श्यामपट्ट (Black-board)
कक्षा अध्यापन में दृश्य साधन के रूप में श्यामपट्ट सर्वाधिक प्रयोग में आता है श्यामपट्ट को उचित, सही एवं विधिपूर्वक उपयोग पाठ को प्रभावशाली बनाने में बहुत सहायक होता है। अध्यापक को श्यामपट्ट कार्य में कुशल होना चाहिये ताकि वह इस साधन का कुशलतापूर्वक उपयोग कर पाठ को सफल बना सकें। अच्छा अध्यापक श्यामपट्ट का सही और सार्थक उपयोग करता है । श्यामपट्ट कार्य में तीन पक्षों का विशेष ध्यान रखा जाता है-
(i) लेख स्पष्ट हो व पढ़ा जा सके।
(ii) श्यामपट्ट कार्य स्वच्छ व विधिवत हो।
(iii) यह कार्य उपयुक्त एवं पाठ से सम्बन्धित हो और पाठ विकास में सहायक हो । इस प्रकार श्यामपट्ट कार्य पाठ को रोचक बनाता है और छात्रों को पाठ्य विषय समझने में सहायक सिद्ध होता है।
(13) चित्र विस्तारक यंत्र (Epidiascop)
इस उपकरण में पारदर्शियों की आवश्यकता नहीं होती है। पुस्तकों की मुद्रित पाठ्यवस्तु तथा आकृतियों को सीधे पर्दे पर प्रक्षेपित किया जाता है। चित्र का विस्तार भी कर लिया जाता है। इसलिए उसे अपारदर्शी प्रक्षेपक भी कहते हैं, जबकि सिरोत्तरी प्रक्षेपक में पारदर्शियों का ही उपयोग किया जाता है। इन दोनों ही उपकरणों में अचल चित्रों को प्रक्षेपित किया जाता है। इस प्रकार दोनों ही उपकरण शिक्षण सामग्री को प्रक्षेपित करने में एक-दूसरे के पूरक हैं। पारदर्शी तथा अपारदर्शी चित्रों को इनके उपयोग से पर्दे पर बड़े आकार में प्रक्षेपित किया जाता है।
(14) स्लाइडें, फिल्म पट्टियाँ तथा प्रक्षेपक ( Slides, Film, Strips and Projector )
स्लाइडों के द्वारा विभिन्न विषयों की सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों की पर्दे पर बड़ा करके दिखाया जा सकता है। स्लाइडें दिखाते समय शिक्षक पाठ की कठिन तथा गहन बातों को अपने कथन द्वारा स्पष्ट करता जाता है। इससे पाठ सरल तथा रोचक बन जाता है और बालक ज्ञान को आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। स्मरण रहे कि स्लाइडें शीशे की बनाई जाती हैं। अतः इनके टूटने का भय रहता है। साथ ही यह भारी भी होती हैं। इसलिए अब स्लाइडें को फिल्म के ऊपर भी बनाया जाने लगा । इन फिल्म पर बनी हुई स्लाइडों को फिल्म पट्टी की संज्ञा दी जाती है। फिल्म पट्टी को बनाने के लिए प्रायः किसी पाठ से सम्बन्धित 15 अथवा 20 स्लाइडों को 35 मिलीमीटर की फोटोग्राफी की फिल्म पर बनी हुई स्लाइडों की फिल्म पट्टी को कक्षा के सामने चित्र दर्शक द्वारा पर्दे के ऊपर करके दिखाया जाता । इससे पाठ में सजीवता आ जाती है। अतः चित्र विस्तारक यंत्र की अपेक्षा चित्रदर्शक का महत्त्व कहीं अधिक बढ़ गया। इसका कारण यह है कि चित्र विस्तारक यंत्र द्वारा तो बालकों को स्लाइडें केवल अलग-अलग ही दिखाई जा सकती हैं जबकि चित्रदर्शक द्वारा चित्रों की स्लाइडों अथवा फिल्म पट्टियों को एक क्रम में दिखाया जा सकता है। संक्षेप में जिस प्रकार सिनेमा में विज्ञापन दिखायें जाते हैं, ठीक उसी प्रकार से बालकों को चित्रदर्शक से फिल्म पट्टियों द्वारा विभिन्न विषयों से सम्बन्ध रखने वाले चित्रों को आवश्यकतानुसार लगातार अथवा रूक-रूक कर हर प्रकार से दिखाया जा सकता है।
(15) मूक- चित्र (Soundless Motion Pictures)
मूक – चित्र चलचित्र का पहला रूप है। इससे क्रियायें तो पूरी दिखाई जाती है। परन्तु ध्वनि नहीं होती। दूसरे शब्दों में मूक- चित्र द्वारा विभिन्न विषयों तथा क्रियाओं जैसे-सफाई के साधन, विभिन्न रोगों से बचने के उपाय तथा प्राकृतिक दृश्यों एवं वर्णनों को क्रिया रूप में आसानी से स्पष्ट किया जाता है। अत: चित्र विस्तारक यंत्र तथा प्रक्षेपक यंत्रों की अपेक्षा मूक- चित्रों का शिक्षण में विशेष महत्त्व है।
(16) सिरोत्तर प्रक्षेपक (Overhead Projector- OHP)
प्रस्तुतीकरण का एक नया उपकरण विकसित हुआ है जिसे ‘सिरोत्तर प्रक्षेपक’ कहते हैं। इसकी उपयोगिता के कारण यह अधिक प्रचलित हुआ है। प्रक्षेपक के उपकरण में (7″ x 7″ या 1″ x 1″) का बड़ा एपरेचर होता है यद्यपि यह अपारदर्शी प्रक्षेपक के समान ही होता है परन्तु इसमें प्रकरण में अनेक अनुदेशनात्मक सामग्री जैसे― चार्ट, चित्र, मानचित्र, आकृतियों तथा शिक्षण प्रपत्रों को पर्दे पर प्रक्षेपित किया जाता है साथ-साथ शिक्षक कक्षा में उनका विवरण प्रस्तुत करता रहता है और सहायक सामग्री के रूप में प्रयुक्त करता है। अनुदेशन सामग्री को पारदर्शियाँ करके उनका उपयोग निरंतर होता रहता है। शिक्षक मारकर पैन से स्वयं भी पारदर्शियाँ बना लेता है पाठ्यवस्तु को लिख लेता है। जिनका वह कक्षा में उपयोग करने के पश्चात् अपनी फाइल में रख लेता है और आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग पुनः कर लेता है । उसके पुनः उपयोग की आवश्यकता न होने पर उसे मिटा कर अन्य अनुदेशन सामग्री को अंकित कर लेता है।
(स) श्रव्य दृश्य शिक्षण सामग्री (Audio Visual Teaching Aids)
श्रव्य-दृश्य सामग्री का अर्थ – श्रव्य दृश्य सामग्री का तात्पर्य उन साधनों से है जिनमें श्रव्य तथा दृश्य दोनों इन्द्रियों का प्रयोग होता है अर्थात् जिनमें ज्ञान श्रव्य तथा दृश्य दोनों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त होता है निम्नलिखित पंक्तियों में हम कुछ ऐसे प्रमुख साधनों पर प्रकाश डाल रहे हैं जिनके द्वारा बालकों को श्रव्य तथा दृश्य दोनों ही इन्द्रियों के साथ-साथ प्रयोग करने से ज्ञान प्राप्त होता है।
(1) चलचित्र अथवा सिनेमा (Cinema)
चलचित्र अथवा सिनेमा मूल चित्र का दूसरा रूप है। इसमें मूक- चित्र की भाँति क्रियायें भी दिखाई जाती हैं, साथ ही ध्वनि की व्यवस्था भी होती है। इस प्रकार चलचित्र अथवा सिनेमा बीसवीं शताब्दी की शिक्षा का सस्ता, सुलभ एवं यंत्रीकृत महत्त्वपूर्ण साधन हैं। इसका प्रयोग रेडियो और टेलीविजन से अधिक प्रभावशाली होता है तथा इसके अनेक लाभ हैं, जैसे-
(i) चल-चित्र द्वारा प्राप्त किया हुआ ज्ञान अन्य उपकरणों की अपेक्षा अधिक स्थायी होता है, क्योंकि इसमें देखने तथा सुनने की दोनों इन्द्रियाँ सक्रिय रहती है।
(ii) चलचित्र औद्योगिक तथ्यों तथा उनके प्रभावों एवं ऐतिहासिक घटनाओं और वैज्ञानिक अनुसंधानों का साक्षात्कार कराने में सहायता करता है।
(iii) चल-चित्र द्वारा बालकों को विभिन्न देशों की स्थितियों, परिस्थितियों तथा मानव और उसके कार्य-कलापों का ज्ञान सरलतापूर्वक करा दिया जाता है,
(iv) चलचित्र द्वारा बालकों की कल्पना शक्ति को विकसित करके उनकी निरीक्षण शक्ति का विकास भी सरलतापूर्वक किया जा सकता है तथा
(v) चलचित्र द्वारा सभी बालक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं नैतिक सभी प्रकार से विकसित होते हैं। संक्षेप में चल-चित्र द्वारा मंद एवं तीव्र बुद्धि के सभी बालकों का जहाँ एक ओर मनोरंजन होता है वहाँ दूसरी ओर वे हर प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करते हैं। ध्यान देने की बात है कि मनोरंजन की दृष्टि से दिखाये जाने वाले चित्रों से शैक्षिक चित्र भिन्न होते हैं। मनोरंजन वाले चित्रों में कहानियाँ होती हैं परंतु शैक्षिक चित्रों में भूगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र तथा विज्ञान आदि विषयों की सामग्री का समावेश होता है। दूसरे शब्दों में, चल-चित्र द्वारा सिनेमा में प्रयोग किये जाने वाले 35 मिलीमीटर के प्रोजेक्टर के स्थान पर स्कूल में केवल 16 मिलीमीटर के प्रोजेक्टर द्वारा बालकों को प्रत्येक विषय का ज्ञान सरलतापूर्वक दिया जा सकता है। वर्ष का विषय है कि भारत सरकार तथा उत्तर प्रदेश सरकार एवं इंग्लैंड तथा अमेरिका के दूतावासों से शैक्षिक फिल्में निःशुल्क मिलती हैं लेकिन खेद की बात है कि हमारे स्कूल आर्थिक कठिनाइयों के कारण अभी तक प्रोजेक्टर नहीं खरीद पाये हैं इस कारण छात्र इस महत्त्वपूर्ण उपकरण के शैक्षिक लाभों से वंचित ही रह जाते हैं।
(2) समाचार सम्बन्धी फिल्म (आलेख सम्बन्धी) ( Documentary Films)
समाचार सम्बन्धी फिल्मों का तात्पर्य उन फिल्मों से है जिनके द्वारा बालकों को सामाजिक विषयों की शिक्षा दी जाती है। ऐसी फिल्मों द्वारा जनता को देश के राजनैतिक, आर्थिक तथा समाजिक जीवन से सम्बन्धित परिस्थितियों, घटनाओं तथा योजनाओं के सम्बन्ध में समाचार भी दिये जाते हैं। यही कारण है कि आजकल प्रत्येक देश में अधिक-से-अधिक समाचार सम्बन्धी फिल्में तैयार हो रही हैं। ऐसी फिल्में स्कूलों में बालकों को तथा सार्वजनिक स्थानों पर जनता को दिखाई जाती हैं। इससे देश के प्रत्येक नागरिक को अपने देश के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण समाचार प्राप्त हो जाते हैं। स्मरण रहे कि समाचार सम्बन्धी फिल्मों के द्वारा बालकों को सामाजिक शिक्षा के साथ-साथ नैतिक तथा धार्मिक शिक्षा भी बड़े सरल तथा रोचक ढंग से दी जा सकती है। अतः इस प्रकार की फिल्में द्वारा बालकों का जहाँ एक ओर मनोरंजन होता है वहीं दूसरी ओर उनके अनेक शैक्षिक लाभ भी हैं।
(3) दूरदर्शन (Television)
टेलीविजन भी रेडियो की भाँति बीसवीं शताब्दी की वैज्ञानिक उपलब्धियों में शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है। रेडियो द्वारा तो हम उच्च कोटि के शिक्षाशास्त्रियों तथा कलाकारों की केवल वाणी ही सुन सकते हैं। परंतु टेलीविजन पर उन सबकी शक्लें तथा उन्हें विभिन्न कार्यक्रमों में भाग लेते हुए भी देख सकते हैं। दूसरे शब्दों में टेलीविजन द्वारा बालकों के कान और आँख दोनों ही ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होती इस दृष्टि से जो गुण चल-चित्र के हैं वही गुण टेलीविजन में भी हैं। यद्यपि टेलीविजन अभी शैशव अवस्था में हैं फिर भी इसके शैक्षिक महत्त्व को देखते हुए देहली प्रदेश में विभिन्न विषयों के पाठों को समय-समय पर प्रसारित किया जाता है। आशा है कि रेडियो की भाँति टेलीविजन सेट भी इतने ही सस्ता हो जायेंगे कि हमारे स्कूलों के सभी बालक इसके द्वारा बात-चीत करना, भाषण देना तथा अभिनय आदि अनेक बातों को सरलतापूर्वक सीख पायेंगे।
कक्षा शिक्षण में दूरदर्शन तथा चलचित्रों का उपयोग (Use of Television and Movies in Classroom Teaching)
कक्षा शिक्षण में इस श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री का प्रयोग किया जाने लगा है तथा भारतवर्ष में भी इनका प्रभावशीलता के मूल्यांकन के लिये शोध कार्य किये गये हैं। यह सहायक सामग्री सबसे अधिक प्रभावशाली है। कक्षा शिक्षण में इनके प्रयोग के लिए छ: सोपानों का अनुसरण किया जाता है। इन सोपानों का विवरण अग्र प्रकार से दिया गया है—
प्रथम सोपान – इकाई योजना बनाते समय यह निश्चय कर लिया जाता है कि कौन-सा प्रकरण किस स्थिति में तथा किस समय पर छात्रों को दिखलाया जाये। चलचित्र की उपलब्धि को भी ध्यान में रखना होता है। प्रत्येक राज्य में शिक्षा विभाग के अन्तर्गत श्रव्य-दृश्य शिक्षण विभाग होता है जो अपने यहाँ उपलब्ध चलचित्रों के सम्बन्ध में सूचीपत्र प्रकाशित करता है। ये सूचीपत्र विद्यालय पुस्तकालय से प्राप्त किये जा सकते हैं। अतः चलचित्रों को प्राप्त करना पहला चरण हैं।
द्वितीय सोपान – चलचित्र का कक्षा में उपयोग करने से पूर्व शिक्षक को स्वयं चलचित्रों को दो-तीन बार देखना होता है और बिन्दुओं को ध्यान में स्थिर करना होता है, जिनका कि प्रस्तावना के रूप में प्रस्तुत करना हो यह दूसरा चरण हुआ।
तृतीय सोपान — चलचित्र दिखाने से पूर्व चलचित्र की प्रस्तावना के रूप में शिक्षार्थियों को निम्नांकित बिन्दुओं की दृष्टि से स्पष्ट होनी चाहिए-
(i) चलचित्र के माध्यम से मूलतः क्या दिखाया जाने वाला है?
(ii) चलचित्र देखते समय किन बिन्दुओं को ध्यानपूर्वक देखना है?
शिक्षार्थियों को उक्त बिन्दुओं की दृष्टि से उत्प्रेरित करने के लिए शिक्षक स्वयं चलचित्र के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत कर सकता है अथवा प्रश्नोत्तर का सहारा ले सकता है । इस चरण का मूल प्रयोजन यह है कि चलचित्र देखने से पूर्व शिक्षार्थियों को यह ज्ञान होना चाहिए कि वे क्या देखने वाले हैं।
चतुर्थ सोपान – इस सोपान में शिक्षक यह ज्ञात करता है कि चलचित्र शिक्षार्थियों को विषयवस्तु का ज्ञान कराने में किस सीमा तक प्रभावी हुआ है। यह प्रश्नों का प्रयोग करता है, विचार-विमर्श आयोजित करता है तथा शिक्षार्थियों को चलचित्र के सम्बन्ध में अस्पष्ट बिन्दुओं पर प्रश्न पूछने के लिए कहा जाता है।
पंचम सोपान – इस सोपान में शिक्षार्थियों को चलचित्र से सम्बन्धित विषयों पर अन्य पुस्तकों तथा पत्रिकाओं की सूची दी जा सकती है और शिक्षार्थी अर्जित अनुभवों का प्रचार कर सकते हैं।
गृह कार्य के रूप में चलचित्र पर सारांश लिखना अथवा प्रश्न हल करना भी इसी सोपान में आता है।
षष्टम सोपान – इस सोपान में शिक्षक स्वयं चलचित्र की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करता है तथा भविष्य में चलचित्र और अधिक प्रभावोत्पादक ढंग से उपयोग करने के लिए मूल्यांकन सुझाव अपनी पत्रिका में अथवा चलचित्र के साथ आने वाले निर्धारित प्रारूप में अंकित करता है।
(4) शैक्षिक भ्रमण (Field Trip)
भ्रमण कक्षा के बाहर स्थित किसी स्थान का योजनाबद्ध निरीक्षण है। शैक्षिक भ्रमण तभी आयोजित किया जाता है जब कक्षा की चहारदीवारी में विषय के किसी पक्ष को भलीभाँति स्पष्ट करना सम्भव न हो। उदाहरण के लिए नदियों का कार्य, विभिन्न प्रकार की चट्टानें, कृषि उपजें, व्यापारिक केन्द्र, डाकखाने का कार्य, पंचायत का कार्य, प्रमुख उद्योग आदि का वास्तविक ज्ञान भ्रमण द्वारा ही दिया जा सकता है।
शैक्षिक भ्रमण द्वारा शिक्षार्थियों में निरीक्षण करने तथा कल्पना करने की योग्यताओं का विकास किया जाता है। भ्रमण कक्षा कार्य की पूरक प्रवृत्ति होती है। इसके द्वारा शिक्षण कार्य में नवीनता आ जाती है और शिक्षार्थी विषय में अधिक रुचि दर्शाने लगते हैं। यह अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिये कि भ्रमण, सैर सपाटा या मनोरंजन यात्रा नहीं है। यह तो शिक्षक के मार्ग-दर्शन में योजनाबद्ध ढंग से कक्षा के बाहर किसी स्थान का निरीक्षण है। अतः भ्रमण से पूर्व भ्रमण की निश्चित योजना बनाना नितान्त आवश्यक है। इसका विवरण अन्य अध्याय में किया जा चुका है।
(5) प्रदर्शनीय वस्तुएँ (Exhibitions)
इसके अन्तर्गत विद्यार्थियों द्वारा निर्मित वस्तुएँ, बुलेटिन बोर्ड तथा पोस्टर आदि का प्रदर्शन सम्मिलित है। इनका उपयोग शिक्षार्थियों को पाठ के प्रति अभिप्रेरित करने अथवा पाठ के विकास में सहायता लेने अथवा पाठ का समाहार करने की दृष्टियों से किया जा सकता है-
(अ) अभिप्रेरण की दृष्टि से- शिक्षण के प्रति शिक्षार्थियों को अभिप्रेरित करने की दृष्टि से प्रदशों का विशेष महत्त्व है। एस्किमों के जीवन को दर्शाते हुए प्रदर्शक एस्किमो के जीवन का अध्ययन करने के लिए अभिप्रेरित कर सकते हैं।
पुस्तकालय कक्ष के बाहर नवीन पुस्तकों के आवरण प्रदर्शित करने से पाठकों का ध्यान नवीन पुस्तकों की ओर आकर्षित होता है और वे उनका अध्ययन करने के लिये अभिप्रेरित होते हैं।
विद्यालय में विद्यार्थियों द्वारा बनाई वस्तुओं को प्रदर्शित करने से अन्य विद्यार्थियों को भी प्रेरणा मिलती है और वे भी नवीन प्रदर्श (मॉडल) बनाना सीखते हैं। इस प्रकार, प्रदर्श शिक्षण के प्रति अभिप्रेरित करने में पर्याप्त सहायक होते हैं।
(ब) तल्लीनता की दृष्टि से—प्रदर्श (मॉडल) बनाते समय शिक्षार्थियों को पाठ में तल्लीनता होती है। वे अपने स्वयं के प्रयत्नों से मानचित्र, रेखाचित्र मॉडल आदि तैयार करते हैं।
(स) समाहार की दृष्टि से—जब शिक्षार्थी अपने-अपने प्रदर्श (मॉडल) बना चुकें तो उनके अन्य शिक्षार्थियों के समक्ष उनकी व्याख्या करने का अवसर दिया जा सकता है। ऐसा करने से उनके ज्ञान का प्रबलीकरण होता है।
यह आवश्यक नहीं कि शिक्षार्थी प्रदर्शन स्वयं बनायें, यदि शिक्षक का उद्देश्य सूचना देना अथवा किसी विचार को स्पष्ट करना मात्र ही हो तो शिक्षण के समय स्वनिर्मित प्रदर्श का उपयोग करना ही पर्याप्त होता है। यदि बना-बनाया प्रदर्श उपलब्ध हो तो उसका भी उपयोग किया जा सकता है क्योंकि यह वही है जिनके उपयोग से विचारों के स्पष्टीकरण में सुविधा हो जाती है।
(6) नाटक (Drama)
नाटक अथवा अभिनय ऐसा श्रव्य दृश्य साधन तथा शिक्षण विधि है जिसे प्राचीन काल से ही शिक्षा जगत में महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। नाटक देखने अथवा इसमें सक्रिय रूप से भाग लेने की इच्छा प्रायः सभी बालकों में होती है। जब बालक नाटक देखते हैं अथवा खेलते हैं तो शिक्षण की क्रिया इतनी प्रभावशाली बन जाती है सभी बालक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा व्यावहारिक अनुभवों को स्वाभाविक रूप से प्राप्त करके नैतिक आदर्शों एवं गुणों को सहज ही ग्रहण कर लेते हैं। इस प्रकार के नाटक के द्वारा बालकों में राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय भावनायें विकसित करके मानव चरित्र के सम्बन्ध में अनेक बातों की शिक्षा सरलतापूर्वक दी जा सकती है। यूँ तो नाटक के द्वारा बालकों को विभिन्न सामाजिक विषयों की शिक्षा दी जा सकती है परंतु इतिहास के शिक्षण में इसका विशेष महत्त्व है। नाटक में भाग लेने से बालकों को ऐतिहासिक घटनाओं, महापुरुषों के कार्य-कलापों तथा विभिन्न गुणों में प्रयोग की जाने वाली वेश-भूषा का ज्ञान हो जाता है। इससे उनकी शारीरिक, मानसिक तथा भाव-प्रधान क्रियाओं में समन्वय हो जाता है। संक्षेप में, नाटक द्वारा बालकों को मनोरंजन के साथ-साथ विभिन्न विषयों की शिक्षा भी स्वाभाविक रूप से मिलती है। अतः शिक्षकों को चाहिए कि वे बालकों को नाटक में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए अवसर प्रदान करें तथा आवश्यक प्रोत्साहन भी दें।
श्रव्य-दृश्य सामग्री की विशेषताएँ, उपयोग एवं इसका चयन
श्रव्य दृश्य सामग्री में निम्नलिखित विशेषताएँ होने चाहिए-
(i) श्रव्य-सामग्री ऐसी होनी चाहिये जो शिक्षण के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायता दे तथा छात्रों को शिक्षण में सक्रिय रखे।
(ii) श्रव्य-दृश्य सामग्री सुन्दर तथा आकर्षक होनी चाहिये परंतु इसका यह अर्थ नहीं हैं कि वह इतनी सुंदर हो कि बालक उसकी सुंदरता में लीन होकर मूल पाठ से विचलित हो जायें।
(iii) श्रव्य-दृश्य सामग्री न बहुत छोटी होनी चाहिये और बहुत बड़ी। परंतु हाँ, उसे इतनी बड़ी अवश्य होनी चाहिये कि कक्षा के सभी बालक उसे आसानी से देख सकें।
(iv) श्रव्य-दृश्य सामग्री उपयोगी होनी चाहिये। व्यर्थ सामग्री के प्रदर्शित करने में समय नष्ट होता है तथा कक्षा में अनुशासन भंग होने की सम्भावना बढ़ जाती है।
(v) उपयोगी सामग्री न होने से बच्चे श्रव्य-दृश्य को छोड़कर केवल विनोद में ही लग जायेंगे ।
(vi) जिन चित्रों, मानचित्रों अथवा चार्टों को बालकों के सामने प्रदर्शित किया जाये उनमें आवश्यकता से अधिक बातें अंकित नहीं करनी चाहिये इससे उनका प्रभाव कम हो जाता है।
(vii) दृश्य की जिस सामग्री को बालकों के सामने प्रस्तुत किया जाये उसमें क्रियायें दिखाई जानी चाहिए। ऐसी सामग्री से बालकों को कुछ संकेत मिलेंगे और शिक्षक भी अपने अभीष्ट को सरलतापूर्वक कर सकेगा।
श्रव्य दृश्य सामग्री का उपयोग (Use of Audio-Visual Aids)
श्रव्य-दृश्य सामग्री का प्रयोग निम्न आवस्थाओं में किया जाना चाहिए-
(i) जब वस्तु इतनी बड़ी हो कि उसे कक्षा में न लाया जा सके, जैसे- ताजमहल, बिरला मंदिर तथा हाथी एवं घोड़े आदि।
(ii) जब वस्तु इतनी छोटी हो कि उसे सरलतापूर्वक न देखा जा सके, जैसे-एटम बम तथा एमीबा आदि।
(iii) जब वस्तु उपलब्ध न हो, जैसे—भूतकाल के सिक्के, अस्त्र-शस्त्र तथा वेशभूषा आदि।
(iv) जब वस्तु तीव्रगामी हो, जैसे- रेलगाड़ी तथा हवाई जहाज आदि।
(v) जब जीवित वस्तुओं का निरंतर विकास दिखाने की आवश्यकता हो, जैसे- मक्खी तथा मच्छर का बढ़ाना ।
(vi) जब वस्तु की गति न दिखाई पड़ती हो, जैसे- विद्युत।
(vii) जब आन्तरिक क्रियाओं को दिखाने की आवश्यकता हो, जैसे-रक्तसंचार तथा पाचन क्रिया आदि ।
(viii) जब दूर की वस्तुओं का ज्ञान देना हो, जैसे-विभिन्न देशों के रीति-रिवाज तथा परम्परायें आदि ।
शिक्षण सामग्री चयन के सिद्धांत (Principles for the Selection of Teaching Aids)
उपर्युक्त पाठ्य-सामग्री का चयन किसी भी अधिगम प्रक्रिया की सफलता के लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। अनुपयुक्त चयन लाभ की अपेक्षा हानि अधिक पहुँचा देता है, क्योंकि असम्बन्धित होने के कारण यह विभ्रम की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
उपयुक्त पाठ्य सामग्री चयन के समय शिक्षक को निम्न चयन सिद्धांतों को दृष्टिगत रखना चाहिये।
(1) तैयारी का सिद्धांत (The Principle of Preparation) – अध्यापक तथा छात्रों को चाहिये कि वे श्रव्य-दृश्य सहायक साधन के उचित प्रयोग के लिए पहले से तैयार रहँ या तैयारी करें। इस उद्देश्य के लिए निम्न बातों को दृष्टिगत रखें-
(i) मार्गदर्शन (Guidance) — छात्रों का उचित मार्ग-दर्शन किया जाए ताकि वे अपने प्रत्यक्षीकरण द्वारा सहायक साधनों का पूर्ण लाभ उठा सकें।
(ii) उद्देश्यों का ज्ञान (Knowledge of Objective) — छात्रों को श्रव्य दृश्य सहायक साधनों से सम्बन्धित शिक्षण-अधिगम क्रियाओं में उनके सम्मिलित होने के उद्देश्यों का ज्ञान हो।
(iii) सहायक साधन सम्बन्धी ज्ञान (Knowledge abot the Aid) – अध्यापक को निम्न ज्ञान प्राप्त हो-
(a) सहायक साधन की प्रकृति
(b) निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उसे किस प्रकार काम में लाया जाए ।
(iv) सामग्री का ज्ञान (Knowledge of the Material) – इस सम्बन्ध में निम्न बातें आवश्यक हैं-
(a) इच्छित सहायक साधन से सम्बन्धित सामग्री का पूरा निरीक्षण कर लेना चाहिए।
(b) उस सहायक साधन के प्रयोग के लिए आवश्यक आदेश पुस्तक, अध्यापक पद-प्रदर्शित सूचना विज्ञप्ति आदि देख लेना चाहिए ।
(c) सहायक साधन की प्रक्रियाओं तथा परिणामों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।
(v) पृष्ठभूमि का ज्ञान (Knowledge of Background) — छात्रों को सहायता देकर इस योग्य बनाया जाए कि प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री के लिए पहले से ही पूर्व-ज्ञान, अनुकूल मनोवृत्ति तथा रुचियों के रूप में सही पृष्ठभूमि बना सकें ।
(2) जैविक नियंत्रण का सिद्धांत (The Principle of Biological Control) – यह सिद्धांत अध्यापक से यह अपेक्षा करता है कि वह निम्न कार्य करे-
(i) श्रव्य-दृश्य सहायक सामग्री के प्रयोग से सम्बन्धित जैविक सुविधाओं का प्रबंध करना ।
(ii) आवश्यक ब्योरा प्राप्त करना। इससे निम्न लाभ हो सकेंगे-
(a) उस सामग्री तथा आवश्यक वस्तुओं को सुरक्षित करने में सहायक प्राप्त होना,
(b) समय की बचत होना,
(c) अधिगम की अधिक से अधिक उचित परिस्थितियाँ उत्पन्न होना ।
(3) उपयुक्त प्रस्तुतिकरण का सिद्धांत (The Principle of Proper Presentation)— यह सिद्धांत अध्यापक से सहायक सामग्री के उपयुक्त प्रस्तुतिकरण की अपेक्षा करता है। इसके लिए निम्नलिखित बातों को दृष्टिगत रखा जाए-
(i) वास्तविक प्रस्तुतीकरण से पूर्व अध्यापक सहायक सामग्री के प्रयोग की सावधानीपूर्वक योजना बना लें और उसके प्रयोग को पहले से ही समझ लें।
(ii) प्रस्तुतीकरण की सफलता को सुनिश्चित करने हेतु उन्हें प्रदर्शन करने में उचित रूप से सहायक विधियाँ सीख लें।
(iii) सहायक सामग्री का प्रयोग इस प्रकार करें कि विशिष्ट शैक्षिक उद्देश्य प्राप्त किए जा सकें ।
(iv) श्रव्य-दृश्य सामग्री को उपयुक्त प्रकार से व्यवस्थित किया जाए ।
(v) सहायक साधन प्रयुक्त या प्रदर्शित करते समय यह दृष्टिगत रखा जाए कि छात्रों को उनसे अधिक से अधिक लाभ मिल सकें ।
(4) क्रिया का सिद्धांत (The Principle of Action) — इस सिद्धांत द्वारा अध्यापकों से इस बात की अपेक्षा की जाती है कि वे छात्रों को श्रव्य दृश्य अनुभव स्थिति के प्रति उपयुक्त ढंग से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने में सहायता दें।
(5) मूल्यांकन का सिद्धांत (The Principle of Evaluation or Appraisal) – यह सिद्धांत निम्न अपेक्षाएँ करता है—
(i) पूर्व निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के परिप्रेक्ष्य में श्रव्य-दृश्य सामग्री तथा उसकी सहायता विधियों का निरंतर मूल्यांकन किया जाए।
(ii) यह मूल्यांकन पाठ शुरू करने से पहले लिखे गए प्रश्नों पर विचार करने से हो सकता है।
(iii) उद्देश्यों की प्राप्ति का मूल्यांकन लिखित परीक्षा या प्रश्नों के द्वारा भी किया जा सकता है।
इसे भी पढ़े…
- शिक्षार्थियों की अभिप्रेरणा को बढ़ाने की विधियाँ
- अधिगम स्थानांतरण का अर्थ, परिभाषा, सिद्धान्त
- अधिगम से संबंधित व्यवहारवादी सिद्धान्त | वर्तमान समय में व्यवहारवादी सिद्धान्त की सिद्धान्त उपयोगिता
- अभिप्रेरणा का अर्थ, परिभाषा, सिद्धान्त
- अभिप्रेरणा की प्रकृति एवं स्रोत
- रचनात्मक अधिगम की प्रभावशाली विधियाँ
- कार्ल रोजर्स का सामाजिक अधिगम सिद्धांत | मानवीय अधिगम सिद्धान्त
- जॉन डीवी के शिक्षा दर्शन तथा जॉन डीवी के अनुसार शिक्षा व्यवस्था
- जॉन डीवी के शैक्षिक विचारों का शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धतियाँ
- दर्शन और शिक्षा के बीच संबंध
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986