अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक या दशाएँ
अधिगम को प्रभावित करने वाले कारक अनेक हैं और उनकी जटिल अन्तःक्रिया अधिग़म पर प्रभाव डालती है। किसी विषय अथवा कार्य को सीखने के लिए इन कारकों का ज्ञान एवं उचित व्यवस्था अधिगम में लाभकारी होती है। साधारणतया इन निर्धारक कारकों को तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है-
1. अधिगमकर्त्ता से सम्बन्धित कारक
2. पाठ्य सामग्री से सम्बन्धित कारक
3. वातावरण एवं शिक्षण-विधियों से सम्बन्धित कारक।
अधिगमकर्त्ता से सम्बन्धित कारक (Factors Related to the Learner)
सीखने वाले दैहिक एवं मनोवैज्ञानिक कारक अधिगम पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं । इनकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-
1. परिपक्वता (Maturation)- परिपक्वता सीखने के लिए बालक की शारीरिक तैयारी (Physical readiness) से सम्बन्ध रखती है। जिस प्रकार बालक को चलना, दौड़ना, चम्मच से खाना आदि क्रियाएँ सीखने के लिए शारीरिक परिपक्वता की आवश्यकता होती है उसी तरह यह परिपक्वता पढ़ना-लिखना सीखने के लिए भी अपेक्षित हो सकती है। यह क्षमता इस बात का निर्धारण करती है शिक्षण के क्षेत्र में बालक को क्या सिखाया जाए और कब सिखाया जाए? परिपक्वता की दृष्टि से बालकों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ होती हैं लेकिन कुछ भी हो, परिपक्वता जीव द्वारा अधिगम की सीमा का निर्धारण करती है। वांछित परिपक्वता स्तर से पहले बालक को सीखने के लिए बाध्य करना हितकर नहीं होता ।
2. अभिप्रेरणा (Motivation)- अभिप्रेरणा अधिगम का केन्द्र बिन्दु है । अभिप्रेरणा-स्तर सीखने में व्यक्ति के प्रयत्नों में संलग्नता तथा उसकी गति निश्चित करता है। अधिगम में अभिप्रेरणा प्राणी की अनुक्रियाओं अथवा व्यवहार को निम्न प्रकार से प्रभावित करती है-
(a) सीखने में अनुक्रिया करने के लिए यह एक परम आवश्यक अवस्था (condition) है।
(b) अभिप्रेरणा प्रबलन-स्थापन की दशा को सम्भव बनाती है। दूसरे शब्दों में अभिप्रेरणा प्रबलन के लिए अनावश्यक स्थिति पैदा करती है।
(c) अधिगम में यह प्राणी की विभिन्न अनुक्रियाओं (multiple responses ) की सम्भावना को बढ़ाती है तथा जिसके परिणामस्वरूप लाभकारी अनुक्रियाओं की सम्भावना बढ़ती है तथा जिससे अधिगम सम्भव होता है।
इस प्रकार अभिप्रेरणा अधिगम – प्रोत्साहन (incentive) का स्त्रोत है। स्टीफेंस (Stephans) लिखते हैं, ” शिक्षक के पास शिक्षण के जितने भी साधन हैं, उनमें से अभिप्रेरणा सम्भवतः सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं।
3. गत अधिगम (Previous Learning)- अधिगम आंशिक अथवा पूर्ण रूप से ग्रहण किए गए समान अथवा लगभग समान पूर्व अनुभवों द्वारा प्रभावित होता है। ये पूर्ण अनुभव नवीन अधिगम के लिए पृष्ठभूमि तैयार करते हैं तथा पाठ्य सामग्री के अधिग्रहण को सरल बनाते है।
4. बौद्धिक क्षमता (Intelligence Level)– बौद्धिक क्षमता अधिगम से धनात्मक रूप से सम्बन्धित है। उच्च बौद्धिक क्षमता वाले बालक सामान्य बौद्धिक क्षमता के बालकों की अपेक्षा किसी विषय से सम्बन्धित ज्ञान को शीघ्र ग्रहण कर लेते हैं। शिक्षक को चाहिए की वह बालकों से अधिगम सम्बन्धी अपेक्षाएँ उनकी बौद्धिक क्षमता को ध्यान में रखकर करें।
5. शारीरिक असमर्थता एवं दोष (Physicsal Handicappedness and Dysfunctioning)- शारीरिक अक्षमता तथा शारीरिक विकार बालकों के अधिगम को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष दोनों रूपों से प्रभावित करते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शारीरिक अक्षमताओं का बालकों पर सीमा एवं दीर्घकालीन प्रभाव पड़ता है। ये दोष बालकों में तनाव, चिड़चिड़ापन तथा हीनता की भावना पैदा करते हैं। जिसके परिणाम बालकों में पढ़ने और सीखने में रुचि एवं शिक्षण स्थितियों से परिहार के रूप में हो सकते हैं।
6. ध्यान एवं रुचि (Attention and Interest)- ध्यान एवं रुचि दोनों आपस में घनिष्ठ रूप से सहसम्बन्धित हैं। रुचि ध्यान को जन्म देती है, ध्यान रुचि में वृद्धि करता है। बालक अपनी रुचि वाले विषय अथवा पाठ्य सामग्री पर अधिक ध्यान देते हैं। ध्यान केन्द्रित करने से उपयुक्त व वांछित अधिगम होता है। बालकों का पाठ्य विषय के लिए ध्यान केन्द्रित कर पाना ही शिक्षा में 50 प्रतिशत कार्य सम्पादन का सूचक समझा जाता है।
7. शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (Physical and Mental Health)- प्राय: देखा जाता है कि शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ बालक ज्ञान प्राप्ति एवं शैक्षणिक कार्य करने में अधिक कुशल होते हैं। लम्बे समय तक बीमार रहने वाले बालक शिक्षा में रुचि नहीं लेते। शिक्षक को ऐसे बालकों की पढ़ने-लिखने में अनिच्छा का सामना करना पड़ता है। ऐसे बालक अध्यापक, पाठ्य विषय एवं विद्यालय के प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लेते हैं। अतः शिक्षक को चाहिए कि अधिगम शिक्षण में वह बालकों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखे ।
8. इच्छा-शक्ति (Will to Learn)- अधिगम सीखने वाले की इच्छा शक्ति पर बहुत अधिक निर्भर करता है। इच्छा शक्ति अधिगम का मूल है। यदि कोई बालक सीखना ही नहीं चाहता तो उसे कैसे सिखाया जा सकता है? यहाँ शिक्षक की भूमिका अत्यन्त महत्त्व की है। वह कुएँ पर (विद्यालय में) पहुँचे बालकों में पानी पीने (ज्ञान-अधिग्रहण) की इच्छा पैदा कर सकता है। इस दिशा में अध्यापक का व्यक्तित्व, पाठ्य सामग्री की प्रस्तुति, उपयुक्त पठन-विधि का उपयोग तथा ऐसे अन्य अनेक कारकों का योगदान रहता है।
9. लक्ष्य-निर्धारण एवं आकांक्षा-स्तर (Goal Setting and Level of Aspira tion)- ये दोनों कारक व्यवहार की मनोगतिकी (Physchodynamics) से सम्बन्धित है। जैसे-जैसे बालक अधिगम में सफल होते हैं, वैसे-वैसे उनका सीखने का आकांक्षा-स्तर बढ़ता है। उच्च अपेक्षाओं से उच्च उद्देश्य निर्मित होता है। इसके विपरीत सीखने अथवा कार्य करने में असफलता अपेक्षाओं (expectations) को निम्न करती हैं जिससे आकांक्षा का स्तर घटता है। ऐसी अवस्था की निरन्तरता बालकों के विकास एवं मानसिक स्वास्थ्य के लिए घातक हो सकती है। शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह बालकों से उनकी योग्यताओं, अधिग्रहणशीलता, परिपक्वता के अनुसार अपेक्षाएँ रखे। वास्तविकता को आधार बनाकर शैक्षिक उद्देश्य निर्धारित करें, उनकी प्राप्ति करें तथा बाद में धीरे-धीरे उनके आकांक्षा स्तर में वृद्धि करें।
10. भोजन एवं पोषक आहार (Diet and Nutration) – संतुलित भोजन तथा पौष्टिक आहार अच्छे शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यावश्यक है । मन एवं शरीर आपस में घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं। स्वस्थ मन स्वस्थ शरीर में निवास करता है। अतः पौष्टिक भोजन- तत्व बालकों के विकास तथा पढ़ने-लिखने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरणस्वरूप एक व्यक्ति द्वारा ग्रहण किए गए ग्लुकोज का 90 प्रतिशत मस्तिष्क कोषों द्वारा प्रयोग किया जाता है पड़ता है। स्पष्ट है कि असंतुलित भोजन तथा कुपोषण का बालकों के सीखने पर दुष्प्रभाव
विषय-सामग्री से सम्बन्धित कारक (Factors Related to Subject Matter)
शिक्षा मनोवैज्ञानिक एवं शिक्षाशास्त्री बालकों के शारीरिक एवं मानसिक विकास के स्तर को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम निर्धारित करते हैं, फिर भी पाठ्य सामग्री सम्बन्धी निम्न कारक बालकों के अधिगम को प्रभावित करते हैं-
1. कठिनता-स्तर (Difficulty Level of the Task) – अधिगम की विषय-सामग्री का औसतन कठिनाई स्तर बालकों के मानसिक स्तर के अनुकूल होना चाहिए। अति सरल कार्य में बालक रुचि नहीं लेते। सामान्य से अधिक कठिनाई स्तर की अधिगम सामग्री बालकों को निराश करती है। अध्यापक को पढ़ाए जाने वाले विषय का सामान्य स्तर कक्षा के बालकों की परिपक्वता, उनके विकासात्मक स्तर, अधिगम क्षमता तथा पूर्व अनुभवों को ध्यान में रखकर निश्चित करना चाहिए।
2. अध्ययन – विषय की मात्रा (Length of the Task)- अध्ययन कराएं जाने वाले विषय की मात्रा इतनी होनी चाहिए कि बालक उसे बिना कठिनाई के ग्रहण कर सकें। अधिक लम्बी विषय-सामग्री छोटे बालकों के लिए कठिनाई उत्पन्न करती है । अध्यापक को पाठ्य विषय की मात्रा उसकी कठिनाई स्तर को भी ध्यान में रखकर निश्चित करनी चाहिए । कठिन विषय को छोटे भागों में बाँटकर पढ़ाना सुगम रहता है, इसे सीखना शीघ्र तथा धारणा अधिक होती है।
3. अध्ययन – विषय की सार्थकता (Meaningfulness of the Task)- अर्थपूर्ण विषय बालकों की रुचि व ध्यान को केन्द्रित करते हैं। अधिगम निष्पादन सीधे रूप से विषय – सामग्री की सार्थकता से जुड़ा हुआ होता है। सार्थक क्रियाओं का सीखना सरल होने के साथ-साथ चिरस्थायी भी होता है। विषय की सार्थकता का सम्बन्ध वाचिक अधिगम (verbal learning) से निम्न कारणों से अधिक रहता है।
(a) उच्चारण में सरलता
(b) विभेदन
(c) साहचर्यता
(d) प्रत्यक्षात्मक बोध तथा श्रेणीबद्धता
(e) संप्रत्यय निर्माण एवं अधिगम ।
4. अध्ययन- विषय की समानता (Similarity of the Task)- वे क्रियाएँ जो पहले सीखी गई क्रियाओं से कुछ समानता रखती हैं, आसानी से सीखी जाती हैं। विषय-सामग्री की समानता, नियतों एवं कार्य करने के ढंग से समानता सीखे जाने वाले कार्य के अधिग्रहण को सरल बनाती हैं। इस कारक की उपयोगिता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षक विषय-सामग्री का चयन तथा कक्षा में उसकी प्रस्तुति उपयोग कैसे करता है।
5. संगठन (Organization)— शिक्षण एक कला है, जिसकी कुशलता इस बात पर टिकी है कि पाठ्य-विषय तर्कपूर्ण ढंग से कैसे संगठित किया जाता है। विषय-सामग्री को इस प्रकार व्यवस्थित किया जाना चाहिए कि शिक्षण का पदानुक्रम ‘सरल से कठिन’, ‘स्थूल से सूक्ष्म’ तथा ‘प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष’ की ओर हो। ऐसा करने के साथ-साथ बालकों के मानसिक विकास के स्तर का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है।
6. जीवन से सम्बन्ध (Relationship with Life) — एक पाठ्य विषय के विभिन्न भागों एवं विभिन्न विषयों के भिन्न-भिन्न उपविषयों को आपस में सह-सम्बन्धित रूप से छात्रों के सन्मुख रखा जाना चाहिए। अधिकांश पाठ्य सामग्री किसी न किसी रूप में जीवन के किसी पहलू से जुड़ी होती है। शिक्षक को केवल ऐसे सम्बन्धो को खोजने तथा आपस में सम्बन्धित कर के उन्हें कक्षा में प्रस्तुत करने की आवश्यकता होती है। यदि ऐसा हो पाए तो अधिगम किया गया विषय चिरस्थायी प्रभाव रखेगा।
अधिगम विधियों तथा वातावरण से सम्बन्धित कारक (Factors Related to Teaching Methods and Environment)
शिक्षण में उपयुक्त विधियों का प्रयोग अधिगम को प्रभावपूर्ण बनाता है। इसलिए यह अत्यावश्यक होता है कि शिक्षक शिक्षण विधि का चयन विद्यार्थियों की मानसिक अवस्था, विकास के स्तर तथा मानसिक क्षमता को ध्यान में रखकर करे निम्नलिखित बातें शिक्षण-प्रक्रिया तथा शिक्षण विधियों की उपयुक्तता को स्पष्ट करती हैं-
1. सीखने की प्रक्रिया (Learning Process)– सीखने की सम्पूर्ण प्रक्रिया सरल व सुगम होनी चाहिए कठिन प्रक्रिया से जुड़े अधिगम से निराशाजनक परिणाम प्राप्त होते हैं। अधिगम की सम्पूर्ण प्रक्रिया में एक पथ प्रदर्शक के रूप में शिक्षक का स्थान अत्यन्त महत्त्व का है। उसका विषय सम्बन्धी ज्ञान, विषय प्रस्तुति तथा विशिष्ट विधि का प्रयोग बालकों द्वारा सीखने की प्रक्रिया की सरलता अथवा कठिनता का निर्धारण करते हैं। इन कारकों का सही चुनाव तथा सही प्रयोग बालकों की सीखने की प्रक्रिया को सरल एवं तीव्र बनाते हैं।
2. अभ्यास वितरण (Distribution of Practice)- अधिगम शिक्षण में व्यवधान रहित (massed) तथा व्यवधान-सहित (Spaced) विधियों का प्रयोग किया जाता है। अनेक अध्ययनों के परिणाम स्पष्ट करते हैं कि व्यवधान सहित विधि से सीखना अपेक्षाकृत अच्छा होता है। एक बार सीखने के बाद दिया गया अन्तराल सीखने के प्रभावकारी परिणामों की प्राप्ति में मदद करता है। यह विधि छोटे बालकों व कठिन विषयों के अधिगम में विशेष उपयोगी सिद्ध हुई है। इसके प्रयोग से सीखने वाले को थकान कम होती है तथा अधिगम क्रिया में उसकी रुचि अभिप्रेरणा भी बनी रहती है।
3. आंशिक बनाम सम्पूर्ण विधि (Part vs Whole Learning)- शिक्षण में यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या पाठ्य सामग्री की प्रस्तुति सम्पूर्ण रूप अथवा आंशिक रूप से की जाए ? शिक्षा के क्षेत्र में किए गए शोधकार्यों ने सम्पूर्ण विधि के अपेक्षाकृत अच्छा बताया है क्योंकि इससे पाठ्य विषय का प्रत्यक्ष एवं अधिग्रहण सम्पूर्ण इकाई के रूप में होता है. जिससे अधिगमकर्त्ता के लिए विषय की स्पष्टता तथा सार्थकता बनी रहती है। इस विधि से विषय की धारणा (retention) अपेक्षाकृत अधिक तथा चिरस्थायी होती है लेकिन दोनों में से कौन सी विधि अधिक उपयुक्त है ? यह बालकों की आयु, कार्य या विषय का कठिनाई स्तर, विषय की मात्रा, बालकों की मानसिक योग्यता तथा उनकी अधिग्रहण क्षमता पर निर्भर करता है।
4. सस्वर पठन बनाम बोध विधि (Recitation vs Understanding Method)- सामान्यतः सार्थक सामग्री के अधिगम में बोध विधि को ही अपेक्षाकृत प्रभावशाली माना गया है क्योंकि इस विधि से पठन करते हुए बालक पाठ्य सामग्री के विभिन्न भागों में आपसी सम्बन्धों को समझ लेते हैं लेकिन तोता रटन्त विधि छोटे बालकों के लिए अधिक उपयोगी मानी गई है क्योंकि इसमें बालक पठन-पाठन क्रिया में सक्रिय सहभागी बने रहते हैं। उन्हें अधिगम के परिणामों की जानकारी भी तुरन्त मिलती रहती है तथा सीखी हुई सामग्री की प्रत्याह्न (recall) भी साथ-साथ हो जाता है।
5. परिणामों का ज्ञान (Knowledge of Results)– यह कारक अधिगम के महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है। यह शिक्षक एवं छात्र दोनों के ही अभिप्रेरणा-स्तर तथा उपलब्धि का मापदण्ड है। परिणामों का सही ज्ञान होने से सीखने वाला अधिगम में निरन्तर सुधार कर सकता है। वांछित परिणामों के ज्ञान से वह सीखने का प्रक्रम पहले जैसा ही रख सकता है अथवा उसमें परिवर्तन कर सकता है। शिक्षण में परिणामों के ज्ञान के प्रावधान से शिक्षक, शिक्षण-विधि अथवा पाठ्य सामग्री के प्रस्तुतिकरण में वांछित सुधार ला सकता है। अधिगम शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया में यह कारक प्रोत्साहन (incentive) की भूमिका भी निभाता है। यह सच है कि वाचिक अधिगम, विशेष कौशलों जैसे संगीत, नृत्य, कला एवं चित्रकला इत्यादि एवं कठिन कार्यों के सीखने में यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक होता है।
6. कार्य का समय, आराम एवं थकान (Time of Task, Rest and Fatigue)— प्रायः अधिगम प्रक्रिया में शिथिलता तब आती है जब क्रिया में अवरोध पैदा होते हैं अथवा सीखने वाला थकान का अनुभव करता है। काम का समय-निर्धारण एवं अधिगम प्रक्रिया में विश्राम का प्रावधान रखने से सीखने में वांछित परिणाम प्राप्त होते हैं इसलिए शिक्षकों को समय-सारणी निश्चित करते समय उपयुक्त सावधानी बरतने की आवश्यकता रहती है।
7. उचित वातावरण (Proper Environment)- अधिगम निश्चित रूप से वातावरण से प्रभावित होता है। वातावरण आन्तरिक हो अथवा बाहरी कक्षा का हो या विद्यालय का, घर का हो या समुदाय का बालकों के विकास को प्रभावित करता है। भौतिक, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक (आन्तरिक) वातावरण का उपयुक्त एवं सकारात्मक होना अत्यावश्यक होता है। कक्षा में प्रकाश, वायु-आवागमन, सफाई, शांति इत्यादि कारक बाहरी वातावरण की रचना करते हैं। इसके साथ ही ज्ञान-अधिग्रहण के लिए यह भी आवश्यक है कि बालक सीखने के लिए मानसिक रूप से तैयार हों। शिक्षक को चाहिए कि वांछित अधिगम परिणामों को प्राप्त करने के लिए वह कक्षा में उपयुक्त मनोवैज्ञानिक वातावरण की रचना करें ।
8. अध्यापक की भूमिका (Role of Teacher)- अधिगम की पूरी प्रक्रिया में अध्यापक की भूमिका तनिक मात्र भी कम महत्त्व की नही हैं। अधिगम तब तक प्रभावशाली नहीं हो सकता, जब तक शिक्षक अपनी भूमिका का निर्वहन महत्त्वपूर्ण ढंग से नहीं करता शिक्षक के लिए आवश्यक है कि वह शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे शोधकार्यों व अनुसंधानों के सम्पर्क में रहे शिक्षण में नवीनतम प्रविधियों का उपयोग करें । सारांश यह है कि अध्यापक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, उसके ज्ञान, शिक्षण-कौशल, व्यवहार के उपयुक्त प्रतिमानों, शिक्षण में मनोविज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों का उपयोग, मानवीय दृष्टिकोण आदि का बालकों के अधिगम पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। छात्रों से सम्बन्धन (affilataion), उनकी योग्यता व क्षमता में विश्वास, उन्हें अभिप्रेरित करने की तत्परता व लग्न जैसे गुणों के साथ पाठ्य सामग्री की उचित संरचना तथा उपयुक्त अध्यापन विधियों के उपयोग से वह शिक्षण तथा अधिगम के क्षेत्र में आशातीत परिणाम प्राप्त कर सकता है।
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