स्वयं अधिगम का अर्थ (Self Learning)
स्वयं अधिगम का अर्थ उन सब व्यूह रचनाओं, अधिगम पद्धतियों तथा सूत्रों आदि से हैं जो अधिगमकर्त्ता को स्वायत्त अधिगमकर्त्ता बताती हैं (चित्र) देखें। अधिगम में रोचकता तथा प्रभाविकता का विकास होता है। अधिगमकर्त्ता यह जान जाता है कि किस प्रकार अधिगम किया जाता है। विषय के रटने पर जोर नहीं दिया जाता है, अपितु इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता है कि अधिगमकर्त्ता स्वयं सीखे। उसमें आत्मनिर्भरता का विकास हो। वर्तमान युग में अधिगमकर्त्ता स्वयं अधिगम के लिये नयी तकनीकों का सहारा लेता है।
जैसे— ई-लर्निंग, इण्टरनेट आदि इन तकनीकी की सहायता से स्वयं अधिगम करना आसान हो जाता है।
स्वयं अधिगम के उद्देश्य (Objectives of Self Learning)
स्वयं अधिगम तकनीकों – द्वारा अध्यापन का उद्देश्य बच्चों को तथ्यों का ज्ञान कराना है और इस बात का भी ज्ञान कराना कि तथ्यों का ज्ञान कैसे किया जाता है। जिन छात्रों का इस व्यूह रचना से शिक्षण होता है वे अवलोकन करना, निश्चित करना तथा स्वयं चिन्तन करना सीख लेते हैं । इसका उद्देश्य है छात्रों में वैज्ञानिक तथा विवेचनात्मक दृष्टिकोण तथा भाव का निर्माण करना । एक विख्यात शिक्षाशास्त्री का कहना है कि स्वयं अधिगम का उद्देश्य छात्रों को और अधिक निश्चित, और अधिक अवलोकक तथा विचारशील बनाना है। छात्रों में भावी आत्म-शिक्षा की नींव को दृढ़ करना तथा उनमें शोध व खोज-कार्य के भाव को विकसित करना है|
स्वयं अधिगम के सिद्धान्त अथवा मनोवैज्ञानिक आधार (Principles and Psychological Basis of Self Learning)
1. क्रियात्मक अथवा क्रिया द्वारा शिक्षा का सिद्धान्त।
2. अनुभव का सिद्धान्त।
3. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त।
4. खेलने का सिद्धान्त।
5. उद्देश्य का सिद्धान्त।
छात्र अपने व्यक्तिगत अनुभव द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं तथा किसी-न-किसी कार्य में व्यस्त रहते हैं। इससे तथ्यों की जानकारी होती है तथा बच्चों में अन्वेषण का भाव पैदा होता। है। इसमें छात्रों की सहज उत्सुकता के भाव का उपयोग होता है और वे स्वयं परिश्रम करके तथ्यों की जानकारी करने के लिए उत्साहित होते हैं। वे छात्र स्वतन्त्र वातावरण में खेलते हुए कार्य करते हैं।
छात्र सिद्धान्तों तथा तथ्यों को रटते नहीं। उन्हें स्वयं प्रयत्न करना पड़ता है और इसीलिए शिक्षा का उनके लिए महत्त्व हो जाता है।
स्वयं अधिगम की प्रक्रिया (Process of Self Learning)
इसमें छात्रों को सक्रिय रहना सिखाया जाता है तथा उन्हें इस योग्य बनाया जाता है कि वे प्रयोगों द्वारा अथवा पुस्तकों के अध्ययन द्वारा अथवा अन्य कार्यक्रमों द्वारा ज्ञान प्राप्त करें। छात्र इस स्थिति में हो जाता है कि वह स्वयं शोध कार्य कर सके।
बच्चे स्वतन्त्र रूप से विचार-विमर्श करते हैं। वे स्वतन्त्रतापूर्वक प्रयोगशाला, पुस्तकालय और कक्षा में घूम-फिरकर कार्य करते हैं। उन पर कोई पाबन्दी नहीं होती।
स्वयं अधिगम में अध्यापक का स्थान (Role of the Teacher in Self Learning)
छात्र अकेले स्वयं सभी तथ्यों की जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते, अतः उन्हें अध्यापक की सहायता और निरन्तर पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता रहती है। अध्यापक उनका केवल पथ-प्रदर्शन ही करे, अपनी चिन्तन-शक्ति के परिणामस्वरूप अर्जित ज्ञान उन्हें न दे। अध्यापक को पर्याप्त जानकारी और ज्ञान हो। वह अध्ययनशील प्रवृत्ति का व्यक्ति हो जो सदा ज्ञान प्राप्त करता रहता है और अपने ज्ञान को सदा नवीन रखता है।
अध्यापक में उत्सुकता हो और वह निरीक्षण करता रहे। उसमें वैज्ञानिक अन्वेषण – शक्ति हो ताकि वह विद्यार्थियों में भी गुणों का निर्माण कर सके।
अध्यापक प्रश्न पूछने की कला में निपुण हो, क्योंकि इस व्यूह-रचना की सफलता प्रश्न पूछने की कला के सफलतापूर्वक उपयोग पर ही निर्भर करती है। अध्यापक बच्चों को भी उत्साहित करे कि वे भी प्रश्न पूछें।
अध्यापक का दृष्टिकोण सहानुभूतिपूर्ण हो और वह कक्षा में स्वतन्त्रता का वातावरण बनाये रखे।
अध्यापक में पर्यापत मात्रा में धैर्य भी हो। वह बच्चों द्वारा निकाले परिणामों की सोचे-समझे बिना आलोचना न करे। उसे चाहिए कि बच्चों द्वारा निकाले निष्कर्ष में रह गई त्रुटियों और कमियों को दूर करने में वह बच्चों की सहायता करे। बच्चों को पूरा अवसर दिया जाये कि वह अपनी कमियों को दूर कर सकें।
अध्यापक ऐसी समस्याओं की आयोजन करे जो कि बच्चों की आयु, योग्यता रुचि और झुकावों के अनुसार हों।
संक्षेप में, अध्यापक और जागरूक, अधिक सावधान, अधिक योग्य और अधिक सतर्क हो। तभी वह व्यूह-रचना सफल हो सकती है।
स्वयं अधिगम के लाभ (Merits of Self Learning)
1. ये छात्रों के दृष्टिकोण को वैज्ञानिक एवं विवेचनात्मक बनाती है।
2. ये छात्रों में अन्वेषण की भावना जगाती है।
3. ये छात्रों में कठोर परिश्रम की आदत डालती है क्योंकि वे समस्या-समाधान के कार्य में व्यस्त रहते हैं।
4. ये छात्रों में आत्म-क्रियाशीलता की भावना का विकास करती है।
5. ये छात्रों में नये-नये कार्य करने का उत्साह, आत्म-विश्वास तथा आत्मनिर्भरता की भावना पैदा करती हैं, क्योंकि इसके अन्तर्गत उन्हें स्वयं निष्कर्ष निकालने पड़ते हैं।
6. छात्रों को अपने कार्यक्रम आयोजित करने का ढंग आता है।
7. इनसे अधिगम स्थायी और प्रभावशाली होता है।
8. इनसे छात्रों में पारस्परिक तथा अध्यापकों से सम्बन्ध गहरा होता है।
9. ये छात्रों को ऐसे अवसर प्रदान करती हैं कि वे अपने आपको जीवन के लिए तैयार कर सकें । वे विभिन्न परिस्थितियों को सँभालना सीख लेते हैं और स्वयं निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं। यह अनुभव उन्हें आगामी जीवन में बहुत काम आता है ।
10. गृह-कार्य का भय नहीं रहता। छात्र तथ्यों को घर में स्मरण नहीं करते, अपितु वे उन्हें कक्षा में या प्रयोगशाला में ढूँढ़ते हैं।
11. छात्रों में मौलिकता का विकास होता है तथा वे अपनी सफलताओं पर आनन्द और आल्हाद का अनुभव करते हैं।
12. अनुशासनहीनता की समस्या नहीं रहती क्योंकि छात्र अपने-अपने कार्यों में व्यस्त रहते हैं।
स्वयं अधिगम की सीमाएँ (Limitations of Self Learning)
1. बच्चों की बुद्धि अपरिपक्व होती है, हम उन्हें आविष्कारकों तथा खोजियों की स्थिति में नहीं रख सकते।
2. अनेक तकनीकें बहुत मन्द गति वाली हैं। इसका अनुकरण करने से पाठ्यचर्या को समय पर समाप्त करना सम्भव नहीं।
3. प्राथमिक कक्षाओं के लिए यह प्रणाली उपयुक्त नहीं है।
4. यह प्रणाली हर स्थान पर और हर समय प्रयोग में नहीं लाई जा सकती। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जबकि अध्यापकों को प्रत्यक्ष ज्ञान देने के लिए बाध्य होना पड़ता है।
5. हम सभी बच्चों से यह आशा कदापि नहीं कर सकते कि वे अनुसन्धान कर सकेंगे या कोई बहुत बड़े आविष्कारक हो सकेंगे, क्योंकि बहुत से बच्चे मानसिक दृष्टि से पिछड़े हुए होते हैं।
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