अधिगम से संबंधित व्यवहारवादी सिद्धान्त का आलोचनात्मक विश्लेषण करें। वर्तमान समय में इस सिद्धान्त की क्या उपयोगिता हो सकती है?
व्यवहारवादी सिद्धान्तों पर आधारित सीखने की प्रतिकृति प्रयोजनमूलक शिक्षण की है।
प्रयोजनमूलक शिक्षण एक अविशिष्ट शब्द है जिसका प्रयोग विभिन्न सीखने के संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर किया जाता है। किन्तु सब में कुछ विशेषताएँ समान हैं। विशेष रूप से प्रयोजनमूलक शिक्षण सक्रिय रूप से प्रत्युत्तर देने पर बल देता है तथा सीखना क्रमशील ढंग से प्राप्त होने वाले पुष्टिकरण के नियंत्रण में होना समझता है ।
प्रारम्भ में प्रयोजनमूलक शिक्षण के प्रतिपादक इसकी आधारशिला क्रियाप्रसूत अनुबन्धन में खोजते थे । वे इस बात पर बल देते थे कि पुष्टिकरण का मूल्य सही प्रत्युत्तर प्राप्त करने में है। किन्तु अब प्रोग्राम शिक्षण अभिकल्प अपने आप में ही एक क्षेत्र हो गया है जो क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन से अलग है। ऐसा इस कारण हुआ है कि विभिन्न कार्यक्रमों के साथ कार्य करने पर यह ज्ञात हुआ कि शिक्षण अभिकल्प नियम पुष्टिकरण नियमों से अधिक महत्त्व के हैं।
कार्यक्रम शिक्षण संवेष्ट में जो मूल तत्त्व सम्मिलित हैं, वे हैं— कार्यक्रम का क्षेत्र तथा क्रमशीलता, प्रस्तुत करने का रूप, फ्रेमों को क्रमशील करना, फ्रेमों के बीच में पद लेने में कठिनाई; तथा सीखने वाले के पूर्व ज्ञान, अनुप्रेरणा तथा स्वतंत्र रूप से कार्य करने की क्षमता के सम्बन्ध में पूर्वमान्यता।
वे कार्यक्रम जो विद्यार्थी के लिए अच्छे होते हैं उनमें विद्यार्थियों की आवश्यकताओं के साथ तालमेल होता है। ये न तो उनके लिए बहुत सरल, न ही बहुत कठिन होते हैं । यह छोटे-छोटे खण्डों में बँटे होते हैं जिन्हें हम मोडूल्स (Modules) कहते हैं जो सरलता से शीघ्र सीख लिए जाते हैं। यह तार्किक ढंग से श्रेणीबद्ध होते हैं। ऐसी भाषा में लिखे होते हैं कि विद्यार्थी की समझ में आ जाए और वह उनका आनन्द ले सके और इस प्रकार बनाए होते हैं कि वह स्वयं में ही पूर्ण होते हैं और स्वतंत्र रूप से उपयोग करने के लिए तैयार होते हैं यदि कार्यक्रम अग्रिम संगठनकर्त्ता होते हैं और पाठ्य-सामग्री में प्रश्न या तो शामिल रहते हैं या उसके अन्त में होते हैं, तो यह अधिक अच्छा समझा जाता है। यहाँ इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह सब तत्त्व शिक्षण मनोविज्ञान के ही पक्ष में हैं, न कि सीखने के मनोविज्ञान के । यह ज्ञानात्मक उत्तेजना से अधिक सरोकार रखने वाले होते हैं, न कि व्यवहार नियन्त्रण से। इस प्रकार हम देखते हैं कि जो शिक्षण विधि क्रिया-प्रसूत अनुबन्धन की शाखा होकर उभरी, वह बिल्कुल एक नये ही क्षेत्र में पनपी ।
प्रयोजनमूलक शिक्षण संवेष्ट– बहुधा ऐसे निर्मित किए जाते हैं कि स्वतंत्र रूप से विद्यार्थियों द्वारा उपयोग किये जा सके। अधिकतर शिक्षण पाठ्य-वस्तुओं से होता है, न कि अध्यापकों से।
कार्यक्रमों का विश्लेषण सावधानीपूर्वक होता है और उनको तार्किक ढंग से अनुक्रमित किया जाता है ताकि यदि उन पर कार्य करने में किसी पूर्व ज्ञान अथवा कुशलता की आवश्यकता है तो वह पहले सिखा दी जाय। इस प्रकार पहुँच न केवल सीखने को सरल बनाती है वरन् यह भी निश्चित कर लेती है कि सीखने वाला सीखने के लिए तैयार है। कार्यक्रम अपने अन्तिम उद्देश्यों की ओर छोटे-छोटे पदों में बढ़ते हैं। इन पदों को हम ढाँचा या फ्रम (Frame) कहते हैं। प्रत्येक फ्रेम कोई पुनरावलोकन अथवा दोहराना, जो आवश्यक समझा जाता है उसे प्रस्तुत करता है और फिर सीखने की श्रृंखला में अगला पद प्रवेश करता है। फ्रेम इस पूर्ति के साथ समाप्त होते हैं कि विद्यार्थी ने कोई सक्रिय प्रत्युत्तर दिया है : जैसे- सही उत्तर की ओर प्रगति अथवा खाली स्थान की पूर्ति।
सही प्रत्युत्तरों की पुष्टि करने के लिए तथा गलत प्रत्युत्तर को समाप्त करने के लिए और तुरन्त पृष्ठ संकेत देने के लिए आवश्यक है कि विद्यार्थी अपने प्रत्युत्तर देने के बाद शीघ्र से शीघ्र उसकी जाँच-पड़ताल कर ले। यदि उनका प्रत्युत्तर सही है तो वह दूसरे फ्रेम की ओर बढ़ने की अनुमति पा जाते हैं। यदि वह गलत है तो उन्हें फिर से पहले वाले कार्यक्रमों के पदों को दोहराना होता है। ऐसा उस समय तक चलता है जब तक कि वह सम्पूर्ण कार्यक्रम को बिना त्रुटि के पूरा नहीं कर लेते।
प्रयोजनमूलक कार्यक्रम दो प्रकार से बनाए जा सकते हैं। एक तो वह जब विद्यार्थियों को एक से सीधे पथ पर चलने को कहा जाता है, जिसे एकरेखीय कार्यक्रम कहते हैं। इसमें केवल एक ही मार्ग अन्तिम व्यवहार की ओर ले जाने वाला होता है और इस कारण ही ऐसा कार्यक्रम यह निश्चित कर लेता है कि प्रत्येक प्रत्युत्तर सही होगा। दूसरे कार्यक्रम इस प्रकार भी बनाये जा सकते हैं जिनमें इस ओर कम ध्यान दिया जाता है कि सब प्रत्युत्तर सही ही हों। यदि एक गलत ड़ार दिया जाता है तो विद्यार्थियों को एक अन्य शाखा में ऐसे प्रश्नों की शृंखला मिल जाती है जो उनकी त्रुटि को सुधारने में सहायक होती है। इस प्रकार के कार्यक्रम को शाखाबद्ध कार्यक्रम कहते हैं। क्योंकि यह कार्यक्रम लगभग असम्भव है। कि प्रत्येक विद्यार्थी के प्रत्येक गलत उत्तर के लिए अतिरिक्त फ्रेम बनाए जा सकें, इसलिए शाखाबद्ध कार्यक्रम बहुसंख्यक विकल्प वाले होते हैं। विद्यार्थी अपने उत्तर एक छोटी संख्या में दिए हुए विकल्पों से चुनते हैं और एक शाखा दी होती है जिसके द्वारा गलत प्रत्युत्तरों को सही किया जाता है। एक अन्य प्रकार की शाखाबद्ध कार्यक्रम वह होता है जिसमें विद्यार्थियों को गलत समझे हुए पदार्थ की पूर्ण व्याख्या की जाती है और फिर उनसे कहा जाता है कि पीछे जाकर मूल व्याख्या का सावधानीपूर्वक अध्ययन करें।
कार्यक्रम शिक्षण में विद्यार्थी को सक्रिय रूप से प्रत्युत्तर देने के लिए प्रोत्साहन मिलता है। उसे तुरन्त पृष्ठ संकेत मिलते हैं और यदि उत्तर गलत है तो उसे स्वयं सही उत्तर सीख के लिए चेष्टा करनी होती है। इसमें विद्यार्थी अपनी ही गति से सीख सकता है। उसके लिए आवश्यक नहीं है कि वह कक्षा के साथ-साथ चले । इस प्रकार सीखना स्वयं विद्यार्थी के नियंत्रण में होता है। यह इसका एक बहुत अच्छा गुण है। विद्यार्थी उस भाग पर अधिक समय लगा सकता है जो जटिल या उसकी समझ में नहीं आ रहा है और सरल फ्रेम को शीघ्रता से करके या छोड़कर भी आगे बढ़ सकता है। यह विधि व्यक्तिगत और कुशल इन्हीं कारणों के आधार पर समझी जाती है।
ऊपर दी हुई कार्यक्रम शिक्षण सम्बन्धी विधियों का प्रारम्भ में विकास इस इरादे से हुआ क सीखने वाला इन कार्य अपने निजी ढंग से करेगा। अब इसमें कई प्रकार परिवर्तन ले आये गये हैं। कुछ परिवर्तन उन बालकों के लिए लाये गये हैं जो बहुत छोटे हैं और जिनमें अभी स्वतंत्र कार्य की कुशलता विकसित नहीं हुई है या वह पढ़ नहीं सकते । दूसरे परिवर्तन ऐसे हैं जो शिक्षक-विद्यार्थी अन्तःक्रिया को अधिक प्रोत्साहन देते हैं और साथ-साथ कार्यक्रम शिक्षण के लाभों को भी बनाए रखते हैं।
वर्तमान में इस सिद्धान्त की काफी उपयोगिता है। इसे हम निम्न रूप में देख सकते हैं: (i) मनोविज्ञान में वातावरण संबंधी घटना (उद्दीपन तथा व्यवहार प्रतिक्रिया) का अध्ययन किया जाना चाहिए। वाटसन ने व्यवहार को उद्दीपन तथा प्रतिक्रिया दो भागों में विभाजित किया । यह दृष्टिकोण वुण्ट की तरह विश्लेषणात्मक है।
(ii) वंश परम्परा की अपेक्षा वातावरण अधिक महत्त्वपूर्ण है। वाटसन ने दावा किया कि वातावरण के अनुसार किसी स्वस्थ बच्चे को अच्छा या बुरा बनाया जा सकता है; चाहे वंश पराम्परा जो भी हो ।
(iii) अन्त: निरीक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है और इसके स्थान पर बाह्य निरीक्षण का व्यवहार किया जाना चाहिए।
(iv) मनोवैज्ञानिकों को चाहिए कि व्यवहारिक बातों पर बल दें और माता-पिता के व्यवहारों में सुधार, शिक्षकों के व्यवहार में सुधार आदि की कोशिश करें।
(v) पशु के व्यवहार का अध्ययन किया जाना चाहिए; क्योंकि पशु के व्यवहार सरल होते हैं और आसानी से उनका नियंत्रण किया जा सकता है।
व्यवहारवाद के विकास के साथ-साथ इसका क्षेत्र व्यापक होता जा रहा है और शिक्षण के क्षेत्र में इसका प्रभाव अधिक देखा जा रहा है।
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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