समानता से संबंधित शिक्षा के संवैधानिक प्रावधान (Constitutional Provision of Education relating to Equality)
आधुनिक विश्व में समानता एक नया मूल्य है। भारतीय दर्शन ने मनुष्य की समानता का सदैव प्रतिपादन किया है और हर प्राणी में ईश्वर का दर्शन किया है परन्तु कालक्रम से लोग भारतीय दर्शन को भूल गए और वर्णाश्रम धर्म को प्रधान मानकर ऊँच-नीच का पोषण करने लगे। पाश्चात्य विद्वान समानता का प्रारम्भ प्लेटो से मानते हैं। प्लेटों ने सम्पत्ति पर समाज का अधिकार माना। यूरोप में फ्रांस की राज्यक्रान्ति (सन् 1989) ने मानव की गरिमा को स्वीकार किया और मान व कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया। मानव-कल्याण के लिए स्वतंत्रता, समानता तथा बन्धुता का जोरदार समर्थन किया। लेनिन के उदय ने रूस में साम्यवादी विचारधारा प्रतिष्ठित किया। साम्यवादियों ने जोर से सत्ता तथा पूँजीपतियों के हाथ से सम्पत्ति छीनकर सभी नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक तथा राजनैतिक अधिकार दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान ने सभी भारतीयों को समानता का अधिकार दिया। समानता का अर्थ है समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार । समानता की अवधारणा का अर्थ है किसी भी व्यक्ति को सामाजिक एवं आर्थिक विशेषाधिकार न हो और सबके साथ समान व्यवहार किया जाय। हमारे देश में धर्म, जाति, लिंग, वर्ण, कुल तथा आर्थिक स्थिति के आधार पर अनेक स्तर हैं जो विषमता का पोषण करते हैं। वैसे जन्म से प्रत्येक आदमी समान पैदा होता है परन्तु हमने एक कृत्रिम समाज का निर्माण किया है जहाँ विषमता फल-फूल रही है। हमारा भारतीय समाज प्राचीन काल से ही विषमता का पोषक रहा है। भारतीय समाज के लिए यह एक बड़ा कलंक है जिसे समाप्त करना बहुत आवश्यक है। भारतीय समाज जाति, वर्ण, लिंग, शहर-गाँव, धनी-गरीब के नाम पर विभाजित रहा है। विषमता हमारे दिल और दिमाग में स्थायी रूप से बस गई है। इस मनोवृत्ति के कारण स्वतंत्रता के बाद भी हमारे देश में विषमता रही है सामान्य जन उससे उत्पीड़ित रहा है। आम जनता समानता से लाभ नहीं उठा सकी। जाति के नाम पर आज भी समाज में भेद-भाव है। आज भी असंख्य अस्पृश्य तथा अछूत मान जाते हैं और उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। उदयोन्मुख भारतीय समाज इस अभिशाप से मुक्त नहीं हो सका। गाँव के सेठ साहूकार तथा धनी व्यक्ति आज भी गरीब किसानों और मजदूरों को अपना दास बनाए हुए । आज भी हमारे देश में लाखों बंधुआ मजदूर हैं जो गुलामी का जीवन व्यतीत करने के लिए अभिशप्त हैं। इसी प्रकार स्त्रियों पर पुरुषों द्वारा आज भी अत्याचार किए जाते हैं, उन्हें हर प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है । दहेज के नाम पर बहुओं को जिन्दा जला दिया जाता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि आज भी हमारे समाज में पूर्ण रूप से समानता नहीं आई। समानता का अर्थ केवल शारीरिक एवं मानसिक शक्तियों में समानता नहीं है बल्कि उनके स्तर की समानता है । स्त्रियों को आज भी नीचे दर्जे का माना जाता है। भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों को समान दर्जा दिया है और उनके विकास के समान अवसर दिए हैं। आज का युग समानता का युग है। समानता एक महत्वपूर्ण मूल्य है और स्वतंत्रता का पूरक मूल्य हैं। वर्ण, जाति, वर्ग, धर्म, पन्थ, सम्प्रदाय, भाषा और लिंग पर आधारित किसी भी प्रकार के भेदभाव को संविधान ने मान्यता नहीं दी। स्त्री-पुरुष, अमीर-गरीब, सवर्ण-अछूत सभी समान हैं। किसी भी प्रकार की श्रेष्ठता अथवा निकृष्टता को संविधान मान्यता नहीं देता । कोई भी नागरिक चाहे किसी भी धर्म, जाति या भाषा का हो, उसका दर्जा समान रहेगा। पूर्ण रूप से विषमता का निर्मूलन कर समानता की प्रतिष्ठा करना भारतीय संविधान का उद्देश्य है । छूत-अछूत, गरीबी-अमीरी, स्त्री-पुरुष किसी भी प्रकार की विषमता भारतीय समाज से अभिप्रेत नहीं है। भारतीय संविधान में सामाजिक समानता का प्रावधान किया गया है। भारतीय संविधान के प्रभाव से भारतीय समाज का पुराना स्वरूप बदल रहा है और समाज का एक नया चेहरा उभर रहा है । आज सामाजिक विषमता का निर्मूलन हो रहा है तथा भारत एक नए समाज के निर्माण में प्रयासरत है। संविधान के 15वें परिच्छेद के अनुसार धर्म, वंश, जाति, लिंग के अनुसार सार्वजनिक स्थलों का उपयोग के लिए किसी भी नागरिका को वर्जित नहीं किया जाएगा, संविधान में सबके लिए द्वार खुले रहेंगे । 16वें परिच्छेद के अनुसार सरकारी नौकरियों में सबको समान अवसर दिये जायेंगे तथा 17वें परिच्छेद में अस्पृश्यता को समूल नष्ट करने की घोषणा की गई है। संविधान के 44वें और 45वें परिच्छेद में क्रमशः सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार तथा 6 से लेकर 14 वर्ष के बालक-बालिकाओं को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा देने का प्रावधान किया गया है। समानता के मुख्य तत्व हैं सबको समान अवसर मानव निर्मित विषमताओं को नष्ट करना तथा किसी भी व्यक्ति को किसी भी प्रकार का जन्मसिद्ध अधिकार न देना । इस प्रकार संविधान के माध्यम से भारतीय समाज में समता का पोषण किया जा रहा है । हमारी शिक्षा संस्थाएँ इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। उदयोन्मुख भारतीय समाज की अपेक्षाओं को मूर्त रूप देने का काम शिक्षा कर रही है। शिक्षा के प्रचार-प्रसार के साथ नए भारतीय समाज का उदय हो रहा है।
भारतीय संविधान की दृष्टि से समानता का अर्थ है व्यक्ति की गरिमा में वृद्धि, उसका सर्वांगीण विकास तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समानता का पोषण । समानता के पोषण से हर व्यक्ति सम्मानपूर्ण जीवन जीवन जी सकेगा और उसकी अस्मिता जागृत होगी । प्रकृति ने सबको जन्म दिया है, जन्म से हर व्यक्ति समान है। मनुष्य ने स्वयं उँच-नीच, श्रेष्ठ-कनिष्ठ के भेद पैदा किए हैं। हर प्रकार के भेद मनुष्य निर्मित हैं। इन भेदों के निर्मूलन से ही समानता लाई जा सकती है। प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक समानता मिलना आवश्यक है। हिन्दू धर्म ने मनुष्य में अनेक भेद पैदा किए। उसने मनुष्य को पशुवत जीवन बिताने के लिए विवश किया। प्रत्येक व्यक्ति को अपने जन्मजात गुणों के विकास का अवसर मिलना चाहिए। प्राचीन काल में स्त्रियों तथा शूद्रों को नीच तथा तुच्छ माना जाता था। इसी विचारधारा को ध्यान में रखते हुए समानता का पोषण करना बहुत आवश्यक माना गया है।
सामाजिक समानता के समान आर्थिक समानता भी है। आर्थिक समानता का अर्थ है कि व्यक्ति के जीवनयापन के लिए आवश्यक वस्तुएँ तथा सेवाएँ उपलब्ध हों । हर व्यक्ति अपने विकास के अवसर प्राप्त करें और समाज में समानता स्थापित करने का प्रयास करें।. आर्थिक समानता के अभाव में किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता निरर्थक सिद्ध होती है। आर्थिक समानता पर ही राजनैतिक तथा सामाजिक स्वतंत्रता निर्भर है आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता, क्षमता तथा पात्रता के अनुसार काम करने का अवसर मिलना चाहिए इसी प्रकार राजनैतिक समानता का भी महत्वपूर्ण स्थान है प्रत्येक नागरिक को शासन कार्य में भाग लेने के समान अवसर मिलने चाहिए। उससे ही राष्ट्र के प्रति निष्ठा बढ़ेगी प्रत्येक नागरिक को मतदान करने अथवा चुनाव लड़ने का अधिकार होना चाहिए। सबको समान अधिकार मिलने चाहिए। कानून ने सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए हैं तथा प्रत्येक नागरिक समान कर्त्तव्य के लिए भी अधिकृत है सभी नागरिकों को समान संरक्षण, समान न्याय मिलना चाहिए, किसी भी नागरिक को किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं मिलना चाहिए ।
संक्षेप में, उदयोन्मुख भारतीय समाज में शिक्षा के माध्यम से ही इस प्रकार की समानता लाई जा सकती है। शिक्षा के माध्यम से ही इस प्रकार के संस्कार डाले जा सकते हैं समानता लाने के लिए हृदय परिवर्तन भी बहुत आवश्यक है तथा साथ ही विवेक बुद्धि को जागृत करना नितान्त आवश्यक है । चेतनाशील व्यक्ति ही अपने को अनेक प्रकार के बन्धनों से मुक्त कर सकते हैं और समानता का पोषण कर सकते हैं। शिक्षा के द्वारा हम जन-मानस को समानता का पालन, अनुशासन तथा कर्त्तव्य के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
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- राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 [ National Policy of Education (NPE), 1986]
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